आम धारणा ये है कि भाषा जनता के बीच बनती-संवरती है और साधारण लोग ही उसे गूंथते-गढ़ते हैं। लेकिन इस मीडिया युग की सचाईयां कुछ और भी हैं। अब भाषा के गढ़ने का काम गली, मोहल्लों और चौक-चौबारों मे ही नहीं होता। कबीर जैसा कोई संत कवि या नज़ीर अकबराबादी जैसा कोई शायर अब ज़ुबान में नया स्वाद तथा रंग नहीं भरता। अब भाषा का निर्माण मीडिया के कारखाने में भी होता है। बल्कि कड़वा सच तो ये है कि अब मीडिया की भट्टी में ही भाषा को ठोंक-पीटकर आकार दिया जा रहा है। यही नहीं, वह उसे लोगों की ज़ुबान पर भी चढ़ा रहा है, उसे प्रचलित भी कर रहा है। यानी प्रक्रिया उलट दी गई है। अब भाषा बाज़ार का उत्पाद है जिसे उसके उपभोक्ता मीडिया के ज़रिए प्राप्त करते हैं या खरीदते हैं और फिर उसका इस्तेमाल करते हैं। भाषा रचने की प्रक्रिया से अगर वे बाहर नहीं हुए हैं तो कम से कम उनकी भूमिका सीमित तो ज़रूर कर दी गई है।
ये तो स्वयंसिद्ध है कि भाषा केवल संप्रेषण या संवाद का माध्यम भर नहीं है। वह अपने आप में एक संदेश भी है। वह जातीय स्मृतियों एवं संस्कृति की संवाहक भी होती है। लेकिन अब वह व्यापार का हथियार भी बना दी गई है। या यों कहिए कि उसने उसे स्मृतियों से काटकर एक दूसरी तरह की संस्कृति का वाहक बना दिया है। ये वह संस्कृति है जिसके ज़रिए समाज को उपभोग के लिए तैयार किया जाता है। ये उपभोक्ता संस्कृति है और इसकी अपनी विशेषताएं हैं। भाषा जब उपभोक्ताओं से संवाद करती है तो विज्ञापनी हो जाती है। वह अपने मालिकों के हितों का विज्ञापन करती है, उनका और उनके उत्पादों का महिमामंडन करती है।
हमारा मीडिया परिवेश भाषा को कई तरह से प्रभावित कर रहा है। मीडिया के विभिन्न रूप भाषा को अपने हिसाब से ढाल रहे हैं। मसलन, टेलिविज़न फिलहाल पूरे मीडिया परिदृश्य पर हावी है, जो कि पूरी तरह से दृश्यों का माध्यम माना जाता है। उसने हमारे इर्द गिर्द दृश्यों की बहुलता वाली दुनिया रच दी है। इंटरनेट और मोबाइल से जुड़कर इसका और भी विस्तार हो चुका है। ये दृश्यात्मकता जीवन के हर पक्ष पर हावी हो चुकी है। लोग पढ़ने के बजाय देखना ज़्यादा पसंद करने लगे हैं। वे किताबों से ज़्यादा समय दृश्यात्मक सामग्री पर खर्च करते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं है कि दृश्यों से भरपूर वातावरण में शब्दों के अर्थों का संकुचन होता है। वे बहुत कम बोल पाते हैं और जितना बोलते हैं उससे भी कम सुने जाते हैं। शब्दों की सत्ता क्षीण हो जाती है। इससे भाषा भी कमज़ोर हो जाती है।
सोशल मीडिया ने भाषा को विस्तार तो दिया है मगर वह उसे अपने हिसाब से बदल भी रहा है। ट्विटर पर 16 शब्दों की सीमा हो या फेसबुक की टिप्पणियां, संवाद के संक्षिप्तीकरण का नया चलन उसने शुरू कर दिया है। यानी एक नई भाषा गढ़ी जा रही है। इसका ये मतलब कतई नहीं है कि इससे भाषा भ्रष्ट हो रही है या फिर उसका अस्तित्व ख़तरे में है। शायद वह फल-फूल भी रही है और नए ज़माने की ज़रूरतियात को प्रतिबिंबित भी कर रही है। लेकिन फिलहाल इसकी कमान आम आदमी नहीं, अभिजनों के हाथ में है और नियंत्रण टेक्नलॉजी तथा उस पर स्वामित्व रखने वालों की मुट्ठी में। ये तीनों मिलकर एक बनावटी भाषा भी तैयार कर रहे हैं, जिसका मक़सद अंतत: तो बाज़ार और मुनाफ़ा ही है।
यही वजह है कि हम पाते हैं कि हमारा मीडिया इस समय इसी बनावटी भाषा में बोल रहा है। कहने को उसकी भाषा आम बोलचाल की होती है, लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं। बोलचाल की भाषा के नाम पर वह अपनी ज़ुबान हम पर थोपता है। इसीलिए हम कभी उसे हिंग्लिश का रूप धरते देखते हैं तो कभी वह नारेबाज़ियों या जुमलों से भरी होती है। बाज़ार में आकर वह चटखारेदार हो जाती है। वह मदारियों की तरह चीखती है, बंदरों की तरह हाव-भाव बनाती है, कभी उछल-कूद करती है तो कभी पतली रस्सी पर करतब करती नज़र आती है। उसे हर हाल में अपने उपभोक्ताओं को लुभाना है, उन्हें पटाना है ताकि उनके हित साधे जा सकें जिन्होने उसे इसके लिए गढ़ा है, मोर्चे पर तैनात किया है।
देश के कई बड़े अख़बार अब बड़ी ही निर्लज्जता से सुर्खियों में अंग्रेज़ी शब्दों का उपयोग करते हैं। हालांकि उनके सरल, बोलचाल के हिंदी विकल्प मौजूद हैं, मगर नहीं, उन्हें उन उच्च मध्यवर्गीय पाठकों और विज्ञापनदाताओं का चहेता बनना है, जो उसके मुनाफ़े को बढ़ा सकते हैं, उसे मालामाल कर सकते हैं। इसीलिए ख़बरों में ही नहीं गंभीर समझे जाने वाले संपादकीय पृष्ठों तक पर उनकी बानगी बिखरी पड़ी मिलती है। यहां तक कि संपादकीय में भी वे उत्साह के साथ लोकतंत्र की जगह डेमोक्रेसी लिखते हैं। उनके लिए मंत्री मिनिस्टर हो जाता है और संसद पार्लामेंट। ये जन-भाषा को वर्ग विशेष की भाषा के रूप में संस्कारित करना है।
भाषा में आ रहे ये परिवर्तन यूं ही नहीं हो रहे, बल्कि वे प्रयत्नपूर्वक लाए जा रहे हैं। इसे आप चाहें तो षड्यंत्र भी कह सकते हैं, क्योंकि भाषा वर्चस्व स्थापित करने का एक बड़ा ज़रिया होती है। वह उस संस्कृति का हिस्सा होती है जो व्यवस्था अपने हितों की पूर्ति के लिए तैयार करती है। ऐसे में भाषा मुक्ति के लिए नहीं होती, बल्कि उसका अघोषित उद्देश्य दिमाग़ों को नियंत्रित करना होता है। ये जगजाहिर है कि जनमानस के बदलने के लिए भाषा से अच्छा माध्यम कुछ भी नहीं हो सकता है। हमारी हिंदी का इस्तेमाल भी इसी के लिए किया जा रहा है इसलिए उसका बाज़ारू होना लाजिमी है।
पहले हिंदी के दुश्मन सरकार और अकादमिक संस्थान माने जाते थे। वे उसे अपने जातीय एवं वर्गीय वर्चस्व के लिए गढ़ते थे। तत्सम शब्दों वाली संस्कृतनिष्ठ अबूझ हिंदी, जो आम जन को न समझ में आती थी और न ही वे उसे उपयोग में लाते थे। वह सरल, सहज नहीं, रहस्यों से भरी आतंक पैदा करने वाली हिंदी थी। विश्वविद्यालयों ने भी हिंदी के अध्यापन को इसी तरह इतना दुरूह बनाया कि हिंदी पढ़ना आतंक और मज़ाक का विषय बन गया। शुक्र है कि भारतेंदु हरीश्चंद्र, मुंशी प्रेमचंद, हरिशंकर परसाई जैसे लेखकों ने आम फ़हम हिंदी को अपने रचना कर्म की विशेषता बना दिया, जो एक परंपरा के रूप में फलती-फूलती रही। इसी के समानांतर मीडिया ने भी उसे जनता से जोड़ते हुए सरल-सहज बनाया। इससे क्लिष्ट हिंदी से पैदा हुई दूरी एक हद तक कम हुई। लेखकों का एक वर्ग मीडिया से भी जुड़ा और उसने मीडिया की हिंदी को गढ़ा भी। ये कई लिहाज़ से अच्छा था। मीडिया को भाषा का संस्कार और मानवीय सरोकार दोनों मिले।
बाज़ार को जब अपनी भाषा का वर्चस्व कायम करने की सूझी तो उसने सबसे पहले इसी रिश्ते पर तलवार चलाई। उसने पत्रकारों का एक ऐसा वर्ग तैयार किया जो साहित्य और साहित्यकारों से घृणा करता था या कम से कम नापसंद तो करता ही था। उसने व्यावसायिक पत्रकारिता और मीडिया को साहित्य से मुक्त कराने के नाम पर एक अभियान सा छेड़ दिया। नतीजा ये हुआ कि मीडिया बाजारोन्मुख होता चला गया। उसमें से जन-सरोकार गायब हुए, बौद्धिक तेजस्विता क्षीण हुई और भाषा भी चलताऊ होती चली गई। भाषा के प्रति प्रेम और उसे बरतने के लिए ज़रूरी गंभीरता भी ख़त्म होती चली गई। इस प्रवृत्ति का असर मीडिया के पठन-पाठन पर भी पड़ा। उसमें भाषा का महत्व कम कर दिया गया। तकनीक का प्रभाव बढ़ा तो उसने भी भाषा के महत्व को कम करना शुरू कर दिया। भावी पत्रकारों की पढ़ाई में तकनीक पर ज़ोर बढ़ा दिया गया। इसीलिए मीडियाकर्मियों की नई जमात भाषा के मामले में कमज़ोर है। वह शुद्ध न लिख पाती है, न बोल पाती है। वह फिल्मों से प्रेरणा लेती है। वहीं से भाषा चुराती है। शीर्षकों के लिए उन पर निर्भर करती है। यहां तक कि एक ही तरह के अनुप्रास में ढले शीर्षक रचती है। वह शब्दों का सही चयन तक नहीं कर पाती और अर्थ का अनर्थ करती रहती है। ग़लतियां पहले भी होती थीं, लेकिन पहले संपादकीय विभाग का नेतृत्व करने वाले लोग उन्हें अनदेखा नहीं करते थे। अब के नेतृत्व के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। अधिकांश को तो सही-ग़लत का फर्क भी पता नहीं होता। अपवाद भी हैं, मगर बहुतायत ऐसे ही लोगों की है।
माना कि वर्तमान मीडिया की एक बड़ी समस्या बढ़ती प्रतिस्पर्धा से पैदा हुई चुनौतियों से निपटने की है। मीडिया का चरित्र हड़बड़ी में काम करने का भी हो गया है। ख़ास तौर पर न्यूज़ चैनलों में तो खटाखट फायर करने पर जोर होता है, भले ही गोलियां ग़लत निशाने पर लगती रहें। इस माहौल में भाषा का जो हो सकता है वही हो रहा है।
माना कि मीडिया की वजह से ही हिंदी का विस्तार हुआ है। वह मीडिया के कंधों पर सवार होकर उन इलाक़ों तक पहुंचने में कामयाब रही है, जहां पहुंचना उसके लिए मुश्किल था। मीडिया की वजह से ही हिंदी जानने वालों की तादाद में बढोतरी हुई है और शायद बहुत सारे लोगों के हिंदी ज्ञान में वृद्धि भी हुई होगी। लेकिन मात्रा से हटकर जब हम गुणवत्ता की कसौटी पर इस प्रगति को देखते हैं तो निश्चय ही चिंता होती है। वर्तमान परिस्थितियां सोचने के लिए मजबूर करती हैं कि वह मीडिया के कारखाने में क्या से क्या हो गई।
साभार -मुकेश कुमार के फेसबुक पेज से