कोई सोच भी नहीं सकता था कि शेखर सेन जिन्हें लोग कबीर, तुलसीदास, स्वामी विवेकानंद और साहेब जैसे एकल अभिनय वाले नाटकों की वजह से जानते हैं जिन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री का अलंकरण दिया है, केंद्रीय संगीत नाटक अकादेमी के अध्यक्ष पद पर चार साल रहने के बाद एक संत की तरह ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया की’ तरह इस पद की गरिमा को सार्थक करते हुए सीधे घर लौट आएँगे। 1981 से मुंबई में दर-दर की खाक छानते हुए कला-संस्कृति और भारतीयता की साधना करते हुए शिखरपर पहुँचे शेखर दा ने मुंबई को अलविदा कर पूना को अपना ठिकाना बना लिया और इन दिनों वे खेती चावल, गेहूँ की खेती करते हुए, गौपालन करते हुए एक किसान की ज़िंदगी जी रहे हैं।
बातचीत की शुरुआत उनके पूना जाने के फैसले से हुई, मेरी जिज्ञासा थी कि अचानक मुंबई छोड़कर पूना जाने का मन क्यों बना लिया।
शेखर दा का कहना था कि हमारी भारतीय परंपरा में जीवन चार आश्रमों में बँटा है ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। मुझे लगा कि मुंबई में रहकर जो हासिल करना था कर लिया, अब प्रकृति से जुड़कर कुछ करना चाहिए। इसी संकल्प के साथ पूना की राह पकड़ ली ताकि अपना समय खेती बाड़ी और गौ सेवा में दे सकूँ। इन दिनों शेखर दा पूना का पास देवली गाँव में खेती-किसानी और गौपालन में अपना समय दे रहे हैं। शेखर दा का मानना है कि छोटे छोटे संकल्पों से हम अपने जीवन में बड़े –बड़े बदलाव ला सकते हैं। मैने एक बार संकल्प किया कि दो वर्ष तक किसी भी तरह की बातचीत में अंग्रेजी के एक भी शब्द का प्रयोग नहीं करुंगा, संकल्प लेने के बाद इसे व्यवहार में लाना कठिन था लेकिन मैने हर पल सजग रहकर इस संकल्प को पूरा किया। इसी तरह मैंने संकल्प लिया था कि मैं पश्चिमी शैली के कपड़े नहीं पहनूँगा और आज इसी संकल्प की वजह से हमेशा कुरता पायजामा ही पहनता हूँ।
जब तक शेर दा मुंबई में थे उनसे चौपाल में ही मिलना हो पाता था। ये मेरी खुशकिस्मती थी कि शेखर दा ने इस बार जब मुंबई में दो दिन रहने का विचार किया तो मुझे भी मिलने का समय दे दिया, वो समय जो कई दिनों से उनके यहाँ मैने जमा कर रखा था।
मुबंई के बोनांज़ा के सीएमडी व श्री भागवत परिवार के श्री एसपी गोयल, उनके बेटे अपूर्व, श्री विवेक याज्ञिक और उनकी सहयोगी एमी के साथ शेखर जी से डेढ़ –दो घंटे की ये मुलाकात ऐसी थी मानों किसी वाचनालय में जाकर एक साथ हजारों पुस्तकें पढ़ ली हो। शेखर दा जब अपने किस्सागोई के साथ अपनी बात कहते हैं तो कभी लगता है जैसे ओशो को सुन रहे हैं तो कभी लगता है कि हमारे किसी गुरुकुल में बैठकर किसी ऋषि-मुनि को सुन रहे हैं।
शेखर जी का अपने अंदाजे बयाँ है और जब उनको सुनते हैं तो उसमें रहस्य, तिलिस्म, धर्म, अध्यात्म, संस्कृति, संगीत, कला साहित्य सब कुछ समाया होता है।
श्री एसपी गोयल भी अपने आप में एक अलग ही शख्सियत हैं, कहने को तो वे देश की तीसरी सबसे बड़ी इन्वेस्टमेंट कंपनी बोनांज़ा के सीएमडी हैं मगर उनकी रुचि कारोबार से ज्यादा धर्म, अध्यात्म और संस्कृति से जुड़े विषयों पर है। वे मुंबई विश्वविद्यालय के साथ अंतरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन भी करवा चुके हैं और वृंदावन में एक आश्रम भी संचालित करते हैं। एसपी गोयल जी की इच्छा है कि कृष्ण की नगरी वृंदावन में कृष्ण को लेकर कोई ऐसा आयोजन किया जाए कि कृष्ण धर्म ग्रंथों से अलग हमारे लोक जीवन में, लोक कला में, गाँवों में कृष्ण के भजन गाने वालों से लेकर शास्त्रीयता में कृष्ण किस तरह रचे बसे हैं उसो लोक चेतना के माध्यम से नई पीढ़ी से जोड़ा जाए। इतने पवित्र संकल्प के लिए शेखर दा से बेहतर पथ प्रदर्शक कौन हो सकता है।
शेखर दा से इस मुद्दे पर चर्चा शुरु होते ही उन्होंने हमें मानों तर-बतर ही कर दिया।
शेखर दा ने कहा, आप बहुत छोटे छोटे स्तर से इस कार्य की शुरुआत करें। इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा बृज क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण स्थान हैं जिनके बारे में लोगों को बताया जाना चाहिए। वहाँ राधा टीला है, जहाँ लोग पक्षियों को भोग लगाते हैं, और वहाँ हजारों की संख्या में कबूतर, तोते और मोर आकर दाना चुगते हैं। उन्होंने बताया कि वृंदावन में चैतन्य महाप्रभु से लेकर वल्लभाचार्य और हरिदासजी की स्मृतियाँ बिखरी पड़ी है। जब पूरा मथुरा वृंदावन नष्ट कर दिया गया था तो ये हरिदासजी ही थे जिन्होंने एक एक जगह को खोजकर बताया कि कौनसी जगह कृष्ण की किस पहचान से जुड़ी हुई है। वृंदावन का मतलब है वृंद यान तुलसी का वन।
कृष्ण और मोर पंख की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि हमारी भरतीय सनातन संस्कृति में हर शब्द का अपना अर्थ होता है। यजुर्वेद में कहा गया है कि फुड पॉयजन होने पर मोर पंख की राख खिलाने पर इससे तत्काल आराम मिल जाता है। भोजन में अगर विष है तो मोर तत्काल पहचान लेता है। देश के हर रजवाड़े में मोर होता था। मुगलों ने भी जब अपने यहाँ सिंहासन बनाए तो उनका नाम तख्ते ताउस (मयूरासन) रखा गया। जबकि जिन देशों से मुगल आए थे वहाँ मोर होते ही नहीं। कृष्ण पूरे संसार का विष हरने को आए थे, इसलिए उनके सिर पर मोर पंख एक प्रतीक की तरह था शेखर जी ने बताया कि कृष्ण के साथ राधा का नाम 600 साल पहले तब जुड़ा, जब जयदेव ने गीत गोविंद लिखा।
शेखर जी ने कहा कि हमारे पर्व और त्यौहार हमें सीधे परमात्मा से जोड़ते हैं। कुछ पर्वों में जैसे होली, रक्षा बंधन और मकर सक्रांति पर भगवान की पूजा नहीं होती, लेकिन इसके माध्यम से हम समाज और परिवार से जुड़ते है, हमारा खान पान कैसा हो इसके बारे में जागरुकता पैदा क जाती है।
उन्होंने कहा कि सवाल उठाना हमारी भारतीय परंपरा का हिस्सा रहा है। दुनिया के दूसरे धर्मों में सवाल उठाने पर गर्दन काट दी जाती है। सवाव उठाना मनुष्यता की निशानी है, अगर कोई मनुष्य सवाल नहीं उठाता है तो फिर वह पशु जैसा है।
उन्होंने दुःख प्रकट करते हुए कहा कि हमारे देश की शिक्षा से भारतीयता और हिंदी को षड़यंत्रपूर्वक हटाया जा रहा है। हिंदी की चर्चा करते हुए कहा कि फिल्मों में शुध्द हिंदी बोलना मर्खता की निशानी के रूप में दिखाया जाता है जबकि शुध्द अंग्रेजी बोलना पढ़े-लिखे की निशानी होती है।
घूँघट प्रथा को लेकर उन्होंने बताया कि पं. बिरजू महाराज से चर्चा होने पर उन्होंने इस विषय पर एक घंटे तक चर्चा कर घूँघट के विभिन्न प्रकारों के बारे में बताया। शेखर जी ने कहा कि जंगलों में रहने वाले आदिवासियों ने आज भी हमारी हजारों साल पुरानी पंरपराओँ और मूल्यों को जीवित बनाए रखा है।
शेखर दा ने कई विषओं पर कई गहरी और सार्थक बातें कहीं और हम नके पास दो घंटे बैठकर तृत्प होकर भी अतृप्त से चले आए कि अगली बार जब वे फिर पूना से मुंबई आएँगे तो ब्रैक के बाद उनसे जरुर मुलाकात होगी।
इस मुलाकात के बाद अचानक दो लाईनें दिमाग में तैरने लगीं-
शेखर दा से मिलना हर बार बस ऐसा होता है
एक साथ हजारों पुस्तकें पढ़ लेने जैसा होता है