Monday, December 23, 2024
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एक गुमनाम बलिदानी चैनसिंह का स्मारक, जिसके बारे में उसके गांव के लोग ही नहीँ जानते

काम के सिलसिले में दो दिन के लिए भोपाल दौरे पर था लेकिन भारी बारिश के चलते सभी अपाइंटमेंट्स रद्द हो गए। भोपाल जैसे ऐतिहासिक शहर में अनायास ही प्राप्त हुए दो दिन मेरे लिए स्वर्णिम अवसर जैसे थे लेकिन जैसे कार्याल बंद थे वैसे ही शहर के संग्रहालय और अन्य दर्शनीय स्थलों पर भी ताले ही लगे हुए थे।
बारिश के मौसम में अनजान शहर में दो दिन का समय बैठे-बैठे निकालना किसी के लिए भी बड़ी समस्या हो सकती है लेकिन घुमक्कड़ों के दिमाग में अनगिनत गंतव्यों की सूची हमेशा तैयार ही रहती है।

भोजेश्वर मंदिर, आशापुरा के अवशेष, भीमबैठका, साँची तथा उदयगिरी क्षेत्र के बाद दूसरे दिन दोपहर मैंने सिहोर की ओर प्रयाण किया। बारिश की वजह से सड़कें ख़राब थीं और काफी दिक्कतों का सामना करने के बाद जब सिहोर के प्रसिद्ध (और सिद्ध भी) गणपति मंदिर पहुँचा तो वहाँ का मनोरम देवालय देखकर मेरी सारी थकान उतर गई।

पेशवाकालीन चिंतामण गणेश मंदिर यहाँ के स्थानीय निवासियों के श्रद्धा का केंद्र हैं और भारी बारिश के बावजूद यहाँ काफी श्रद्धालु जुटे हुए थे। बाजीराव पेशवा के मालवा मुहिम के साक्षी रहे गणेशजी के बाद सीहोर में मेरा दूसरा लक्ष्य थी कुंवर चैनसिंह की समाधि।

24 जून 1824, सन 1857 के सशस्त्र संग्राम से लगभग 33 वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश की छोटी-सी रियासत नरसिंहगढ़ के राजकुमार कुंवर चैन सिंह और उनके 41 साथियों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़ते हुए सीहोर में अपने प्राणों की आहुति दी थी।

इस समाधि-स्थान के बारे में मुझे सिर्फ इतना ज्ञात था कि यह सीहोर-इंदौर रोड पर लोटिया नदी के तट पर चैनसिंह और ब्रिटिश पोलिटिकल एजेंट मंशांक के बीच की ऐतिहासिक लड़ाई की कहानी व्यक्त करती गुमनामी का आँचल ओढ़े खड़ी है।

मध्य प्रदेश सरकार ने वर्ष 2015 से सीहोर स्थित कुंवर चैन सिंह की छतरी पर प्रति वर्ष जुलाई माह में शासकीय गार्ड ऑफ ऑनर देने की प्रथा शुरू करने के समाचार पढ़े थे, फिर भी आश्चर्यजनक बात यह थी कि गाँव के ऑटोवालों को इस जगह के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी और किसी को ऐसी जगह जाने में दिलचस्पी भी नहीं थी लेकिन भाग्य से एक ऑटो ड्राइवर मुझे वहाँ ले जाने के लिए तैयार हुआ।

गूगल मैप्स की सहायता के बावजूद काफी दिक्कतों के बाद गाँव की उबड़-खाबड़ गलियों से होते हुए हम यह जगह ढूंढने में सफल हुए। गाँव के अंतिम छोर पर, खेतों की सीमा से लगे स्थान पर पेड़ों से घिरी यह एक छोटी-सी इमारत थी। समाधि की इमारत देख कर लग रहा था जैसे काफी समय तक जर्जरित अवस्था में रहने के बाद हाल में ही इसका मरम्मत कार्य कराया गया था।

करीब 6 फीट ऊँची जगती पर योद्धाओं और हाथियों का चित्रांकन किया गया था। गुंबद से सज्ज छोटे-से खंड में कुंवर चैन सिंह की समाधि थी। जगती पर कलात्मक स्तंभों से सजा प्रवेशद्वार भी बनाया गया था।
इस जगह पहुँचते ही ऑटो वाले ने मुझसे पूछा, “यहाँ कोई भी टूरिस्ट नहीं आता साहब, आपको इस जगह के बारे में किसने बताया?” मैं मुस्कुराया, मेरे मन में बचपन की यादें ताज़ा हो उठीं। बचपन में माँ मुझे ऐसे वीरों की शौर्यगाथाएँ सुनाया करतीं थीं। कुंवर चैन सिंह का किस्सा भी इन्हीं में से एक था।

यह उस समयकाल का किस्सा है जब अंग्रेज़ों ने साम-दाम-दंड-भेद की कुटिल नीति से भारत में अपने पग जमाने शुरू कर दिए थे। इसी नीति के तहत अंग्रेज़ों ने भोपाल के नवाब से संधि की जिसके अनुसार उन्हें भोपाल में अपनी सैन्य छावनी बिछाने की अनुमति मिल गई।

संधि के चलते मक्कार अंग्रेज़ों को भोपाल के साथ साथ राजगढ़ और नरसिंहगढ़ जैसे प्रदेशों में धौंस जमाने का मौका भी मिल गया। कुंवर अपने पास दो तलवारें रखते थे। संधि प्रस्ताव रखने आए अंग्रेज़ों के कहने पर उन्होंने एक तलवार अंग्रेज़ों को सौंप दी पर दूसरी तलवार माँगे जाने पर उन्होंने अपना प्रखर विरोध जताया, यह तनातनी आगे आने वाले दिनों के संघर्ष की शुरुआत मात्र थी।
कुंवर चैन सिंह ने दीवान आनंद बख़्शी और मंत्री रूपराम की गद्दारी की खबर लगते ही उन्हें मृत्युदंड दे दिया। लेकिन इस घटना की खबर अंग्रेज़ों को लगते ही उन्होंने तीव्र प्रतिक्रिया देते हुए कुंवर पर अभियोग दर्ज कर दिया।

इस अभियोग से मुक्ति के लिए अंग्रेज़ों ने कुंवर चैन सिंह के सामने अपनी रियासत ब्रिटिश सरकार को सुपुर्द कर देने की और राज्य में कर वसूली के अधिकार की शर्त रखी। लेकिन स्वाभिमानी कुंवर के लिए यह शर्त मानना कतई स्वीकार्य नहीं था।
अब संघर्ष अनिवार्य हो चुका था। मध्य प्रदेश के सीहोर में करीब 6,000 अंग्रेज़ी सैनिक को कुंवर के गिने-चुने मगर जांबाज सिपाहियों ने नदी तक पीछे धकेल दिया। कुंवर को पता था कि शत्रु सैन्य वापसी करेगा और हुआ भी कुछ ऐसा ही।
वापसी करते हुए अंग्रेज़ों ने कुंवर की सेना को चारों ओर से घेर लिया। एक-एक कर नरवीरों की लाशें बिछती गईं। क्रूर ब्रिटिश सत्ता से मातृभूमि की रक्षा के लिए कुंवर चैन सिंह के साथ करीब 41 वीरों ने अपने रक्त से इस धरती को सींचा।

कुंवर चैन सिंह की समाधि स्थल के करीब ही उनके शहीद साथी जनाब हिम्मत खाँ बहादुर खाँ की मज़ार भी बनाई गई है।

ब्रिटिश साम्राज्य, जिसका सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, जिसके सामने विश्व की बड़ी रियासतों और राष्ट्रों ने घुटने टेक दिए थे, तब कुंवर चैन सिंह ने अपने शौर्य से अपने प्राणों की आहुति देकर साबित किया कि अंग्रेज़ कितने ही बलशाली हों पर चैन सिंह के स्वाभिमान के सामने वे बौने ही थे।
मैंने नम आँखों से कुंवर चैन सिंह की समाधि से शिकायत करते हुए कहा, “आप जैसे सैंकड़ों हुतात्माओं के बारे में वामपंथी इतिहासकारों ने हमेशा ऐसा ही लिखा कि भारत के राजा-महाराजा अपने स्वार्थ के लिए अंग्रेज़ों से लड़े।” चैन सिंह की समाधि ने प्रत्युत्तर दिया-
“यदि हमें ऐश्वर्य और सत्ता की लालसा होती तो अंग्रेज़ों के सामने नतमस्तक होकर भी हम वैभवी जीवन जी सकते थे लेकिन हम 42 योद्धाओं ने बलिदान का मार्ग चुना। मातृभूमि के लिए हमने एक ऐसा युद्ध लड़ा जिसमें पराजय और मृत्यु निश्चित थी। हम लड़े ताकि भविष्य की पीढ़ियों को याद रहे कि मौत की आँखों में आंखें डालकर किसी ने शस्त्र उठाए थे, मातृभूमि के लिए…!!”

मैंने कुंवर चैन सिंह को अंतिम बार प्रणाम किया और समाधि के किवाड़ बंद कर सीढ़ियाँ उतर गया।

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