देश भर में शक्ति आराधना का पर्व चल रहा है, वैदिक ऋषियों ने प्रकृति को मातृ-शक्ति की संज्ञा दी और प्रकृति और पुरुष के रूप में सृजन शक्ति को पूजनीय बनाया। पुरुष स्वरूप शिव है और प्रकृति स्वरूप शक्ति। शिव और शक्ति का सम्मिलन ही जीवन का सृजन करता है। शक्ति के बिना शिव मात्र शव रह जाता है। वैदिक ऋषियों द्वारा इस मात्र शक्ति को सर्वोपरि मानते हुए ही कहा है-
जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया ।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे
कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति
अर्थात हे माँ, धरती पर विचरण करनेवाले तुम्हारे सरल पुत्र तो बहुत से होंगे, किन्तु मैं उनसे भिन्न प्रकृति का तुम्हारा पुत्र हूँ । हे शिवे ! फिर भी तुम मुझे त्याग दो, यह उचित न होगा, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो यह तो संभव है, किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती
न मंत्रं नो यंत्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः ।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणं
हे माते ! मन्त्र, यन्त्र, स्तुति, आवाहन, ध्यान, और
स्तुतिकथा आदि के माध्यम से उपासना कैसे की जाती
है, मैं नहीं जानता । मुद्रा तथा विलाप आदि के प्रयोग
से तुम्हारा पूजन कैसे करूँ, यह भी मैं नहीं जानता ।
हे माता, मैं तो बस इतना ही जानता हूँ कि तुम्हारा
अनुसरण समस्त क्लेशों का हरण करता है ।
भारतीय संस्कृति में माता को पूजनीय माना गया है, वैसे भी देखा जाए तो संसार का प्रथम रिश्ता ही माँ से प्रारभ होता है। बच्चा जन्म लेने के पश्चात सर्वप्रथम माँ ही बोलता है। शिशु सर्वप्रथम अपनी माँ और उसके स्पर्श को ही पहचानता है।
आधुनिक परिवेश में यदि देखा जाए तो भारतीय रचनाकारों ने भी माँ की महिमा का बखान किया है। माँ की करुणा, ममता, संघर्ष, धैर्य, आस्था, प्यार, समर्पण, त्याग, परिवार के प्रति समर्पण, रिश्तों को निभाने के लिए किए गए प्रयत्न, परिवारिक संस्कारों का संरक्षण, आदि विभिन्न आयामों पर अपनी भावांजलि दी है।
इस अभिव्यक्ति में हिन्दी रचनाकारों की जहाँ एक लंबी श्रृंखला है, वहीं इसी भावना से प्रभावित होकर उर्दू के कवियों ने भी किसी न किसी रूप में माँ की महिमा का बखान किया है।
शायर कमाल परवाज़ी लिखते हैं-
ये ऐसा कर्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता,
मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सज़दे में रहती है।
गले मिलने को आपस में दुआएँ रोज़ आती हैं,
अभी मस्जि़द के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती है।
दुआएँ माँ की पहुँचाने को मीलों-मील जाती है,
जब परदेस जाने के लिए बेटा घर से निकलता है।
एक अनाम शायर ने अपनी भावनाओं को कुछ यूँ व्यक्त किया है-
याद बरबस आ गई माँ मैने देखा जब कभी,
मोमबत्ती को पिघलकर रोशनी देते हुए।
रतलाम, मध्य प्रदेश के कवि अज़हर हाशमी ने तो माँ के नाम एक पूरी गज़ल ही कही है-
स्नेह की निर्मल नदी-निर्बंध जैसी माँ
कर्म की क्यारी की तुलसी-गंध जैसी माँ
युग-युगों से दे रही कुर्बानियाँ खुद की
कुर्बानियों के शाश्वत अनुबंध जैसी माँ
जोड़ने में ही सदा सबको लगी रहती
परिवार के रिश्तों में सेतु-बंध जैसी माँ
फर्ज के पर्वत को उंगली पर उठाती है
कृष्ण-गोवर्धन के एक संबंध जैसी माँ
वो मदर मेरी, अलिमा हो या पन्ना धाय
प्यार, सेवा, त्याग के उपबंध जैसी माँ
माँ के पाँवों के तले जन्नत कही जाती
भागवत के शाश्वत स्कंध जैसी माँ
माँ का जिक्र हो और शायर मुनव्वर राणा का उल्लेख न हो तो बात अधूरी रह जाती है-उनके शब्दों में माँ का क्या प्रतिरूप दिखाई देता है
वह इस तरह मेरे गुनाहों को धो देती है
माँ गुस्से में हो, तो रो देती है
शायर राहत इन्दौरी माँ के प्रति अपना इज़हारे खयाल करते हुए कहते हैं
हजारों लफ्ज़, हजारों कि़ताब दे देंगे
मैं तुझको लिखूँ कागज़ जवाब दे देंगे
न है मिसाल ख़ुदा की, न कोई तेरी मिसाल
न शायरी न दलीलें न फलसफा न खयाल
ख़ुदा का ज़िक्र भी, और तेरी गुफ्तगू भी अज़ीम
मेरे लिए तो ख़ुदा भी अज़ीम और तू भी अज़ीम
न सोच तुझसे बड़ी, न लफ्ज़ तुझसे बड़े हैं
मैं तेरे वास्ते कुछ भी तो लिख नहीं सकता
एक अज्ञात शायर ने भी क्या खूब लिखा है-
माँ से बढ़कर तमाम दुनिया में दूसरा कोई नाम क्या होगा
जिसके पैरों के नीचे ज़न्नत है, उसके सर का मुकाम क्या होगा
ऐसे ही एक अज्ञात कवि ने माँ के प्रति अपनी भावनाएँ ऐसे व्यक्त की है
यदि तेरे ढीग (पास में) धूल-धूसरित भी सुत आता
तब भी ठौर गोद में तेरे पाता
उसको कर से खींच गले से तू लिपटाती
उसके मलिन कपोल चूमकर अति सुख पाती
अपनी कविता में पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने माँ के प्रति अपनी श्रध्दा इन शब्दो में व्यक्त की है
समंदर की लहरें
सुनहरी रेत
श्रध्दानत तीर्थ यात्री
रामेश्वरम गीत की वह छोटी-पूरी दुनिया
सबमें तू नीहित, सबमें तू समाहित
तेरी बाहों में पला मैं, मेरी क़ायनात रही तू
जब छिड़ा विश्व युध्द, छोटा सा मै
जीवन बना चुनौती, ज़िंदगी अमानत
मीलों चलते थे हम, पहुचते किरणों से पहले
कभी जात मंदिर
लेने स्वामी से ज्ञान
कभी मौलाना के पास लेने अरबी का सबक
स्टेशन को जाती रेत भरी
सड़क बाँटे थे अखबार मैने, चलते-पलते साये में तेरे
दिन में स्कूल
शाम में पढ़ाई
मेहनत, मशक्कत, दिक्कतें, कठिनाई
तेरी पाक़ शख्सियत ने बनादी मधुर यादें
जब तू झुकती नमाज़ में उठाए हाथ
अल्लाह का नूर गिरता तेरी झोली में
जो बरसता मुझ पर
और मेरे जैसे कितने नसीब वालों पर
दिया तूने हमेशा दया का दान
याद है जैसे अभी कल ही-
दस बरस का मैं
सोया तेरी गोद में
बाकी बच्चों की ईर्ष्या का बना पात्र-
पूरनमासी की रात
भरती जिसमें तेरा प्यार
आधी रात में अधमुंदी आँखों से तकता तुझे
थामता आँसू पलकों पर
घुटनों के बल
बाहों में घेरे तुझे खड़ा था मैं
तूने जाना था मेरा दर्द
अपने बच्चे की पीड़ा
तेरी उंगलियों ने
निथारा था दर्द मेरे बालों से
और भरी थी मुझमें अपने विश्वास की शक्ति
निर्भय हो जीने की,
जीतने की,
जिया मैं
मेरी माँ।
और जीत में
क़यामत के दिन मिलेगा तुझसे
फिर तेरा क़लाम
माँ तुझे सलाम
माँ की अपने बेटे के प्रति भावना को कमाल परवाज़ी ने कुछ इस तरह व्यक्त किया है
मेरे पास उसको देने के लिए इतनी मोहब्बत है,
कि मैं खुद भी नहीं बचती, अगर तक्सीम होती हूँ।
लेकिन हम अपनी तथाकथित आधुनिक सोच में अंधे होकर माँ के अस्तित्व को ही नष्ट करने पर तुले हैं।
अब तो शायर को माँ की ममता से ही डरा हुआ है…
वो अगर आज की माँ है तो थपकती क्यों है
तू अगर आज का दिल है तो धड़कता क्यों हैं
और हालत ये हो गई है कि हमारी मातृ-शक्ति को लेकर कवियों की पीड़ा कुछ इस तरह व्यक्त हो रही है
माँ ही कन्या भ्रूण को रही गर्भ में मार
माँ से ही वंचित कभी होगा ये संसार
कन्या चीखी गर्भ में माँ मुझको मत मार
मुझको भी दे देखने ये अद्भुत संसार
मुनव्वर राना ने माँ कि महिमा को कुछ यूँ बयाँ किया है
सिरफिरे लोग हमें दुश्मने जाँ कहते हैं
हम जो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं
मुझे बस इसलिए अच्छी बहार लगती है
कि ये भी माँ की तरह खुशग्वार लगती है
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुपट्टा अपना
लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती
किसी को घर मिला हिस्से में या दुकाँ आई
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई
इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती
ये ऐसा कर्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटू मेरी माँ सजदे में रहती है
खाने की चीज़ें माँ ने जो भेजी थीं गाँव से
बासी भी हो गई हैं तो लज्जत वही रही
बरबाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सबसे कह रही है बेटा मज़े में है
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है
ज़रा सी बात है लेकिन हवा को कौन समझाए
दीए से मेरी माँ मेरे लिए काजल बनाती है
सुख देती हुई माओं को गिनती नहीं आती
पीपल की घनी छायों को गिनती नहीं आती
लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती,
बस एक माँ है जो कभी खफ़ा नहीं होती
मैंने रोते हुए पोछे थे किसी दिन आँसू
मुद्दतों माँ ने नहीं धोया दुप्पट्टा अपना
अभी ज़िंदा है माँ मेरी, मुझे कुछ भी नहीं होगा,
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है,
माँ दुआ करती हुई ख्वाब में आ जाती है
ऐ अंधेरे देख ले मुँह तेरा काला हो गया,
माँ ने आँखें खोल दी घर में उजाला हो गया
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फरिश्ता हो जाऊं
माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से में माँ आई
‘मुनव्वर’ माँ के आगे यूँ कभी खुलकर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती
(लेखक उज्जैन में वरिष्ठ अभिभाषक हैं और साहित्यिक विषयों पर लिखते हैं, वे उज्जैन की सबसे बड़ी लायब्रेरी युवराज जनरल लायब्रेरी के अध्यक्ष भी हैं)