दो टूक : कोई माने या ना माने पर हर आदमी मृत्यु से पहले भी अपनी अपनी ज़िंदगी का एक अपना मसान या कहें श्मशान जीता है। बस वहां तक पहुँचने के रास्ते अलग होते हैं। ये बात भी अलग है कि इस मसान से हमारा वास्ता जिन्दा रहते हुए भी बार बार पड़ता भी है और हमें मौत भी नहीं आती। निर्देशक नीरज घेवन की रिचा चड्ढा, संजय मिश्रा, श्वेता त्रिपाठी, विकी कौशल, सौरभ चौधरी, भगवान तिवारी, श्वेता त्रिपाठी, विनीत कुमार, निखिल साहनी, पंकज त्रिपाठी , भूपेश सिंह और सत्य काम आनंद की भूमिकाओं वाली फिल्म मसान जीवन और मौत के बीच की ऐसी वास्तविकता को दिखाती है जिसे हमें मसान के पास जाकर या जलकर भी नहीं देख सकते.
कहानी : दरअसल मसान की कहानी किसी एक पात्र की बात नहीं कहती। वो अलग अलग स्तरों पर कई चरित्रों के साथ आगे बढ़ती है। इनमे एक तरफ फिल्म की शुरुआत में पाठक (ऋचा) अपने दोस्त पीयूष अग्रवाल ( सौरभ चौधरी) के साथ होटल के कमरे में पकड़ी जाती है। जहाँ पुलिस छापामारी के दौरान पियूष आत्महत्य कर लेता है। एक भ्रष्ट पुलिस इंस्पेक्टर मिश्रा (भगवान तिवारी) देवी को पीयूष की मौत के जुर्म में फंसाने की धमकी देकर उसके पिता विद्याधर पाठक (संजय मिश्रा) को ब्लैकमेल कर रहा है। तो दूसरी तरफ कहानी में बनारस के घाट पर चिताओं के अंतिम संस्कार वाले एक युवक दीपक चौधरी (विक्की कौशल) और शालू गुप्ता (श्वेता त्रिपाठी) की प्रेम कहानी भी है। शालू और दीपक ऊंंची नीची जात से हैं और जब एक बस दुर्घटना में शालू की मौत के बाद दीपक को ही उसका अंतिम संस्कार करना पड़ता है तो सब बदल जाता है। इस बदले हालातों में ही झोटा उर्फ़ निखिल साहनी और विनीत कुमार साथ पंकज त्रिपाठी, सौरभ चौधरी, भगवान तिवारी के पात्र और चरित्र भी शामिल हो जाते हैं।
गीत संगीत : फिल्म में वरुण ग्रोवर संजीव शर्मा ने गीत लिखे हैं और संगीत इंडियन ओसन का है। फिल्म के सभी गीत पाश्र्व में हैं और फिल्म का गीत मन कस्तूरी अद्भुत लय और तान वाला है। फिल्म अपने कथ्य और शिल्प में इन गीतों को रचा बसा लेती है। देसी खांटे अंदाज और शास्त्रीयता के साथ ।
अभिनय : गौर से देखा जाये तो फिल्म का केंद्र पात्र ऋचा चढ्ढा है। ऋचा का पात्र और चरित्र फिल्म में कहानी का वो हिस्सा है जिसे कोई भी अभिनेत्री बड़ी आसानी से ऐरोगेंट बना देती पर ऋचा ने उसे बड़ी ही सहजता से खुद को आत्मसात करते हुए चित्रित किया है। उनकी बड़ी आँखे और गोल घूमे हुए होंट चुप रहकर भी सबकुछ कह देते है। उन्होंने बहुत ही शानदार शारीरिक भाषा का इस्तेमाल किया है तब भी जब वो कमरे में सेक्स करते हुए पकड़ी जाती है और तब भी जब अंत में विकी से मिलती हैं। नए अभिनेता विकी कौशल नयी संभावनाएं जागते हैं। शांत और धीमे से। संजय मिश्रा मुझे पहली बार कुछ गंभीर अभिनेता दिखे हैं और यकीन मानिए सच के पात्र को जीने वाले भी। श्वेता त्रिपाठी प्रभावित करती हैं। उनकी मासूमियत घहरी है और चुलबुली भी। विनीत कुमार को बहुत मौका नहीं मिला है पर पंकज त्रिपाठी के साथ वो निराश नहीं करते। लेकिन सबसे अधिक याद रहता है झोटा बने निखिल साहनी। सौरभ चौधरी ठीक हैं और पुलिसये बने भगवान तिवारी सिहरा देते हैं। उनकी कद काठी और शारीरिक भाषा में वो पात्र के चरित्र की मानसिकता को भी इंगित करते है।
निर्देशन : अगर आपको मसान का अर्थ न समझ आये तो किसी हिंदी की डिक्शनरी में ढूँढिये। लेकिन एक बार फिल्म जरूर देखिये। मसान की कहानी के जरिये निर्देशक जिंदगी के कई कई शमशान दिखाता है। इस काम में कहानी के संवाद और कैमरे में कैद लोकेशन रंग और उनके शेड्स एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर्दे पर हम बनारस की गलियों में पात्रों का दुःख और संताप देखते हैं तो सिनेमाई करिश्मा भी। नीरज घेवन एक नयी ताजगी के साथ दुखभरी कथा और शिल्प के वर्णन करते हैं। जहाँ कहानी में भावुकता कोरी नहीं दिखती और संवेदना दहलाती है। इन के बीच उनके पात्र मूव करते हैं। अर्थ ढूँढ़ते हैं और विस्तार लेते हैं। फिर अंत में एक दुसरे को सपोर्ट भी कर देते हैं। बस यही मसान की असली कहानी है।
फिल्म क्यों देखें : एक जरुरी फिल्म है।
फिल्म क्यों न देखें : ऐसा मैं नहीं कहूँगा।
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