मेरे बचपन की बात है, मुरादाबाद में अगर किसी को मिरासी कह दिया जाता था तो यह एक अपमान-जनक शब्द या फिर गाली माना जाता था। ऐसा क्यों है इसकी चर्चा भी करेंगे।लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि मिरासी एक ऐसी समृद्ध संगीत परंपरा की धारा है जो कई सदियों से चली आ रही है। मुरादाबाद में तहसीली स्कूल के पास मिरासी मोहल्ला हुआ करता था जिसने भारत के बेहतरीन सारंगी वादक दिए हैं, ऐसा मोहल्ला शायद ही किसी अन्य शहर में मिले। इस मोहल्ले ने सारंगी वादन की शास्त्रीय परंपरा को न केवल पाला पोसा है, जीवित रखा है। इसने एक ऐसी विशिष्ट शैली विकसित की जो मुरादाबाद घराने के नाम से विख्यात हुई है। आज यह मोहल्ला लगभग उजाड़ हो चुका है लेकिन उस शानदार सांस्कृतिक विरासत की ख़ुशबू पूरे देश में फैल चुकी है।
अब आप के ज़ेहन में सवाल उठेगा कि आख़िर सारंगी में क्या ख़ूबी है जो उसे अन्य वाद्यों से बेहतर बनाती है। यह एक ऐसा शास्त्रीय वाद्य यंत्र है जो गति के शब्दों और अपनी धुन के साथ इस प्रकार से मिलाप करता है कि दोनों की तारतम्यता देखते ही बनती है। यह मुख्य रूप से गायकी प्रधान वाद्य यंत्र है। इसको लहरा अर्थात अन्य वाद्य यंत्रों की जुगलबंदी के साथ पेश किया जाता है, ध्रुपद गायन पद्धति का सबसे कठिन राग माना जाता है, सारंगी के साथ इसकी तारतम्यता अतुल्य है। यही नहीं सारंगी स्वर और शांति में संबंध स्थापित करती है।
सारंगी पुराने समय में घुम्मकड़ जातियों का वाद्य यंत्र था। इसे सारिंदा व पिनाकनी वीणा भी कहा जाता रहा है। मुरादाबाद के मिरासी मोहल्ले के इन सारंगी वादकों ने जटिल इंडिक संगीत विधाओं और मीटरों का प्रयोग किया, जैसे कि कॉम्प्लेक्स मींड, गमक और क्विक सिल्वर खटका। चूँकि उनके पास इंडिक संगीत परंपरा में कोई विधिवत विशिष्ट शिक्षा नहीं थी, इसलिए उन्होंने इन जटिल मीटरों और विधाओं को संदर्भित करने के लिए बोलचाल की भाषा का उपयोग किया, जैसे कि इसे “मच्छी मार कटान”के रूप में प्रस्तुत किया। मच्छी मार कटान का सरल भाषा में अर्थ मछली पर झपट्टा मारने वाला पक्षी होता है।
इस शानदार सारंगी वादन परंपरा को मुरादाबाद के मिरासी मोहल्ले के मुराद अली ख़ान ने नई ऊँचाई दी है जो पंडित रवि शंकर से ले कर अन्य नामचीन गायकों जैसे रामनारायण के साथ संगत कर चुके हैं। मुराद भाई को सारंगी वादक होने का गौरव उनके परिवार की परंपरा से मिला है, वे अपने परिवार की छठवीं पीढ़ी के सारंगी वादक हैं। उन्होंने अपनी शुरुआती तालीम मुरादाबाद घराने के उस्ताद सिद्दीकी अहमद ख़ान जो उनके दादा थे, और उस्ताद ग़ुलाम साबिर ख़ान जो उनके पिता थे, दोनों से हासिल की है। आकाशवाणी और दूरदर्शन से सफ़र शुरू करते हुए वह आज कई मंचों तक अपनी प्रतिभा से सबको आकर्षित कर रहे हैं। यही नहीं मुराद का अपना बैंड भी है जो soul band के नाम से मशहूर है।
अब आप यह भी पूछ सकते हैं कि मिरासियों का संप्रदाय किस तरह विकसित हुआ। “मिरासी” शब्द की उत्पत्ति अरबी शब्द (ميراث) मीरास से हुई है, जिसका अर्थ विरासत होता है, शाब्दिक व्याकरणिक अर्थ में, उन्हें सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत का प्रचारक माना जाता है। कुछ मिरासी पखावज बजाते हैं इस लिए कई बार उन्हें पखवाजी के नाम से भी जाना जाता है। दिल्ली में भी मिरासी रहते हैं जो अपने आप को चारणों के वंशज होने का दावा करते हैं, यह भी मान्यता है कि प्रारंभिक मुगल शासन के दौरान बहुत सारे चारणों ने इस्लाम धर्म अपना लिया था।
जब मुरादाबाद की संगीत परंपरा की बात चली है तो यह बताना ज़रूरी है कि यहाँ तबला वादकों की भी एक समृद्ध परंपरा रही है जिसे अहमद जान थिरकवा ने नई ऊँचाई दी थी। थिरकवा का जन्म मुरादाबाद, में 1891 में हुआ था। तबला वादन में थिरकवा ने अपनी मेहनत एवं लगन से जो निपुणता प्राप्त की वह अतुलनीय थी। लखनऊ, मेरठ, अजराड़ा, फ़र्रूख़ाबाद आदि सभी घरानों का बाज थिरकवा को याद था, किन्तु विशेष रूप से वे दिल्ली और फ़र्रूख़ाबाद का बाज बजाने में वे सिद्ध हस्त थे। तबला बजाते समय जिन संगीत प्रेमियों ने उस्ताद थिरकवा के मुँह के बोल सुने थे, उन्हें ज्ञात था कि जितना सुन्दर वे बजाते थे, उतने ही सुन्दर और स्पष्ट बोल उनके मुख से निकलते थे। कठिन तालों को भी वे बड़ी सुगमता से बजा लेते थे।सन 1953-1954 में थिरकवा को ‘राष्ट्रपति पुरस्कार’ मिला था। इसके बाद सन 1970 में भारत सरकार द्वारा उन्हें ‘पद्मभूषण’ उपाधि देकर सम्मानित किया गया। उनका पूरा कुनबा तबला बजाने में कोई सानी नहीं रखता था। चाहे वे उनके नाना कलंदर बख़्श हों या फिर और उनके बड़े भाई इलाही बख़्श, बोली बख़्श, करीम बख़्श सभी प्रसिद्ध तबला वादक थे। यही नहीं उन के चाचा शेर ख़ाँ, मामा फ़ैयाज ख़ाँ, बसवा ख़ाँ और फ़जली ख़ाँ भी प्रसिद्ध तबला नवाज थे। अहमद जान थिरकवा के पौत्र राशिद मुस्तफ़ा भी इन दिनों काफ़ी अच्छा काम कर रहे हैं। लेकिन मुरादाबाद के सारंगी वादकों की मुरादाबाद के तबला वादक कोई अपनी विशिष्ट शैली विकसित नहीं कर सके।
मुरादाबाद में संगीत की यह परंपरा रामपुर रियासत के संरक्षण में परवान पर चढ़ी, जब रामपुर रियासत का इक़बाल कमजोर पड़ा तो बहुत सारे वादक कलकत्ता पहुँच गये जहां के रईसों ने उन्हें संरक्षण दिया। आल इंडिया रेडियो दिल्ली ने भी मिरासी मोहल्ले की प्रतिभाओं को हाथों हाथ लिया।
मुरादाबाद के सारंगी वादक परिवारों में लोग सारंगी से इतर वाद्यों में भी प्रयोग कर रहे हैं मसलन मुराद अली ख़ान के जुड़वा भाई फ़तेह अली ख़ान ने सितार वादक के रूप में पहचान बनाई है।
मिरासी समाज हिन्दू-मुस्लिम एकता की एक मिसाल है। ये लोग दोनों धर्मों के त्योहार मनाते रहे हैं वह चाहे मंदिर हो या मस्जिद हर जगह मिरासी समाज के लोग जाते हैं और साम्प्रदायिक सदभावना की अनूठी मिसाल पेश करते हैं।
अतीत में मिरासी शब्द का इस्तेमाल अक्सर अपमानजनक तरीके से किसी ऐसे व्यक्ति को दर्शाने के लिए किया जाता रहा था क्योंकि इस समुदाय के बहुत सारे लोग नाचने गाने वाले कोठे पर भी सारंगी वादन करते थे, लेकिन यह भी सच है कि इस समुदाय ने देश की शास्त्रीय संगीत की विरासत को सहेजने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
(लेखक स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं और सामाजिक व सांस्कृतिक विषयों पर लेखन करते हैं।)