जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मैया की धुन सुनते ही लोग स्तंभित हो जाते हैं। जैसे कि राष्ट्र्गान के स्वर गूँज रहे हैं। वैसे भी वह राजगीत तो है ही। माता की ऐसी वंदना सचमुच बड़ी दुर्लभ बात है। यह कोई बिरला सपूत ही कर पाता है। यह गीत जैसे डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा की आत्मा का संगीत है। उनकी अमर रचना है। छत्तीसगढ़ की माटी को धन्य करने वाले जिन महामानवों पर हम गर्व कर सकते हैं उनमें डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा का नाम अग्रगण्य है। वे सही अर्थ में छत्तीसगढ़ के सोनहा बिहान के स्वप्न दृष्टा और सृजेता भी थे।
धन्य पिता धनीराम जी की आँखों के दो ज्योति पुंज बनकर स्वामी आत्मानंद जी और डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा ने यहाँ के जन-मन की अभिलाषाओं को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर मानो पूर्ण करने का बीड़ा उठाया। स्वामी आत्मानंद तथा डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा दोनों अपने-अपने क्षेत्र की विभूतियाँ बनकर अमर हो गए। यह सुखद संयोग है कि छत्तीसगढ़ के राज गीत अरपा पैरी के धार के सर्जक डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा की लाड़ली मुक्तेश्वरी देवी हमारे प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल की जीवन संगिनी हैं। स्वामी आत्मानंद की अनोखी वक्तृत्व कला और उनके पारदर्शी व हृदयस्पर्शी चिंतन के तो लोग दीवाने थे और आज भी हैं। डॉ.वर्मा वाग्देवी की आराधना माटी-महतारी की सेवा को समर्पित हो गए। दोनों सपूतों ने इस धरती का शुभ भावों से श्रृंगार कर अपने कर्तव्य कर्म के साथ-साथ इस माटी का भी गौरव बढ़ाया है। दोनों महतारी की अस्मिता और मानवता की तेजस्विता के प्रतीक बन गए।
डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा की अमर रचना
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छोटी सी उम्र पाकर भी मानव जीवन को एक न्यास यानी ट्रस्ट की तरह कैसे जिया जा सकता है इसकी मिसाल हमें डॉ. वर्मा के जीवन से मिलती है। जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मैया की धुन सुनते ही लोग स्तंभित हो जाते हैं। जैसे कि राष्ट्र्गान के स्वर गूँज रहे हैं। वैसे भी वह राजगीत तो है ही। माता की ऐसी वंदना सचमुच बड़ी दुर्लभ बात है। यह कोई बिरला सपूत ही कर पाता है। यह गीत जैसे डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा की आत्मा का संगीत है।उनकी अमर रचना है। छत्तीसगढ़ महतारी की यह वंदना ही नहीं, सम्पूर्ण भुइँया की महिमा और उसकी खुशहाली की प्रार्थना है। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा की इस अमर रचना में समूचे छत्तीसगढ़ का वैभव एकबारगी साकार हो उठा है। यही कारण है कि स्वामी आत्मानंद ने अपने अनुज डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के बारे में स्मरण स्वरूप लिखे लेख में कहा है कि सोनहा बिहान की चतुर्दिक ख्याति की खबरें सुनकर वे भी इसकी प्रस्तुति देखने के लिए लालायित हो उठे। 1978 के अंत में महासमुंद में एक प्रदर्शन तय हुआ । स्वामी जी को डाक्टर साहब ने बताया कि आप चाहें तो उस दिन प्रदर्शन देख सकते हैं । महासमुंद में विराट दर्शक वृंद को देखकर स्वामी जी रोमांचित हो उठे । उनके भक्तों ने उन्हें विशिष्ट स्थान में बिठाने का प्रयत्न किया लेकिन डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने स्वामी जी को दर्शकों के बीच जमीन पर बैठकर देखने का आग्रह किया । स्वामी जी उनकी इस व्यवस्था से अभिभूत हो उठे । उन्होंने उस घटना को याद करते हुए लिखा है – ‘नरेन्द्र तुम सचमुच मेरे अनुज थे ।‘
सोनहा बिहान के समर्थ उद्घोषक
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वास्तव में सोनहा बिहान छत्तीसगढ़ के लिए सुबह की तलाश का पर्याय बना। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने घर परिवार, माता-पिता के लिए विवाहित जीवन को कर्त्तव्य भाव से स्वीकार किया । धनीराम जी का केवल यह सपूत ही विवाहित हुआ । उनके शेष चार बेटों में तीन तो सन्यासी हो गए, मगर एक पुत्र अविवाहित रहकर विवेकानंद विचारधारा के लिए समर्पित होकर अमूल्य सेवाएं दे रहे हैं । सही माने में डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा छत्तीसगढ़ के जागरण-पुरुष थे। इतिहास रचने वाले महामानव बनकर उनका व्यक्तित्व स्वयं एक इतिहास की मानिंद बन गया। उनका जीवन संगीत में ढला ही नहीं, खुद संगीत बन गया। सोनहा बिहान से प्रेरित होकर छत्तीसगढ़ के कलाकारों ने न जाने कितनी संस्थाएं गठित कीं , होड़ सी मच गयी। हरेक के मन में जैसे अपने हिस्से की बिहान की साझेदारी की ललक सी पैदा हो गयी।
दरअसल सच्ची साधना कभी अकेले मुक्ति के पक्ष में नहीं रहती। वह सबके कल्याण, सबकी मुक्ति का पथ प्रशस्त करने में ही अपनी मुक्ति को सार्थक मानती है। यही सार्थकता डॉ. वर्मा के जीवन की पहचान बन गयी। ऐसा जीवन मात्र सफल नहीं, सुफलदायी कहलाता है। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने हर मोर्चे पर अपनी ताकत का अहसास करवाया । वे एकांतवासी शब्द साधक या संगीत आराधक बनकर बैठ नहीं गए, बल्कि लोगों के जीवन की राह आसान बनाने के लिए सच्चे माटीपुत्र के रूप में काम करते रहे। उपेक्षा, तिरस्कार, शोषण और अत्याचार के विरुद्ध उनकी आवाज़ कभी मद्धिम नहीं हुई। वे लोगों के भीतर हर तरह की पराधीनता के खिलाफ लड़ने की ताकत की पुकार बने रहे। वे कथाकार, कवि, गीतकार और दार्शनिक तो थे ही, छत्तीसगढ़ के ख्याति प्राप्त भाषा-विज्ञानी और अत्यंत कुशल मंच संचालक भी थे। गीत सृजन के साथ स्वर रचना में भी वे निष्णात थे।
अरपा पैरी के धार, महानदी हे अपार,
इंदरावती हा पखारे तोर पइयां,
जय हो, जय हो छत्तीसगढ़ मइयां।
ये पंक्तियाँ डॉ. नरेन्द्रदेव वर्मा की पहचान और छत्तीसगढ़ के मान के रूप में ढल गयीं।
स्मरणीय है कि नरेन्द्र देव वर्मा अपनी बुनियादी तालीम के दौरान एक आम विद्यार्थी ही थे। बाद में उनकी प्रतिभा में निखार आया। बी.ए. में उनकी प्रखर मेधा उभरी। यह सचमुच बड़े गर्व की बात रही कि वे सागर विश्वविद्यालय में प्रख्यात समालोचक और लेखक आचार्य नंददुलारे बाजपेयी के शिष्य थे । डॉ. नरेन्द्र देव ने सागर विश्वविद्यालय से श्रेष्ठ वक्ता के रूप में अलग पहचान बनायी। वादविवाद प्रतियोगिता में अव्वल रहे।
लोक मंच के दिव्य सम्पोषक
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डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा की शादी मात्र साढ़े अठारह वर्ष की उम्र में हो गई । धनीराम जी वर्मा के ज्येष्ठ पुत्र थे तुलेन्द्र। यही तुलेन्द्र आगे चलकर छत्तीसगढ़ के विवेकानंद स्वामी आत्मानंद कहलाये । उसके बाद क्रमश: दूसरे क्रम के पुत्र देवेन्द्र भी बड़े भाई से प्रभावित होते दिखे । इसीलिए देवेन्द्र का ब्याह सुनिश्चित हुआ। परन्तु, अग्रज से प्रभावित इस होनहार अनुज के बारे में याद भी रखना चाहिए कि नरेन्द्र देव वर्मा ने बार-बार लिखा है कि बड़े भैय्या का आशीष अगर उन्हें भी मिला होता तो वे भी विवाह बंधन से मुक्त होकर उन्हीं की तरह सन्यासी जीवन बिताते । स्वामी आत्मानंद ने उन्हें समझाया भी कि शायद ईश्वर उन्हें विवाहित जीवन बिताते हुए ही सेवा का दायित्व देना चाहते थे । इसलिए विचलित हुए बगैर ईश्वरीय इच्छा को मानकर कार्य करना है ।
साहित्यकार डॉ. परदेशीराम वर्मा ने बहुत सटीक लिखा है कि स्वामी जी की उदार परंपरा में ही गृहस्थ डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा भी ढले थे । उन्होंने जीवन भर जागृति और परोपकार का काम किया । भाषा एवं संस्कृति के लिए उनका नाम स्तुत्य है तो धर्म एवं लोकमंच के लिए उनका अवदान भी ऐतिहासिक है । वे विवेक ज्योति पत्रिका के संपादक रहे । स्वामी विवेकानंद जी की जन्म शताब्दी 1963 में मनाई गई । स्वामी आत्मानंद के सपनों को साकार करने के लिए नरेन्द्र देव वर्मा ने दिन रात काम किया । उन्होंने जीवन भर शाम के तीन घंटों को आश्रम के लिए सुरक्षित रखा । वे नौ बजे रात्रि तक आश्रम के कामों में व्यस्त रहते । उसके बाद घर आकर मित्रों से मिलते-जुलते और रात्रि चार बजे तक लेखन अध्ययन करते ।
कविताओं की लिपि के शिल्पकार
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यह भी कि डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा छत्तीसगढ़ के पहले बड़े लेखक है जो हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में समान रूप से लिखकर मूल्यवान थाती सौंप गए । वे चाहते तो केवल हिन्दी में लिखकर यश प्राप्त कर लेते । लेकिन उन्होंने छत्तीसगढ़ी की समृद्धि के लिए खुद को खपा दिया । वे पहले बड़े लेखक थे जो मंच संचालक के रूप में बेहद यशस्वी बने । सोनहा बिहान में मंच संचालक ही सबसे प्रभावी अभिनेता सिद्ध हुआ । वे कविताओं की स्वर लिपियाँ रचने वाले छत्तीसगढ़ के पहले बड़े रचनाकार सिद्ध हुए ।
डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के अग्रज स्वामी आत्मानंद ने लिखा है कि मां शारदा देवी की पावन जन्म स्थली जयरामवाटी जाकर डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने मां से वरदान मांगा कि उन्हें वे अपना पुत्र बना लें । और मां शारदा की कृपा से उसी दिन से नरेन्द्र देव की लेखनी में चमत्कार दिखने लगा । बेशक वे जीवन भर वे अपने अग्रज को आदर्श मानते रहे लेकिन सदगृहस्थ बनकर अपने दायित्वों का पूर्ण मनोयोग से निर्वाह भी करते रहे । इस धरती पर मात्र चार दशक की अपनी यात्रा पूरी कर डॉ. वर्मा चल बसे परन्तु छत्तीसगढ़ महतारी के ये सपूत अपने छोटे से जीवन में वह काम कर गये जो सैकड़ों वर्षों का जीवन पाकर भी सामान्य प्रतिभा का व्यक्ति नहीं कर पाता । उन्होंने सोनहा बिहान के माध्यम से छत्तीसगढ़ को कई रत्न दिए , कई रत्नों को तराशा। कई पत्थरों को मूरत गढ़ी और कई ज़िंदगियों में नयी उम्मीदों का संचार कर अपनी ज़िंदगी का चित्र पूरा कर इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह दिया।
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लेखक शासकीय दिग्विजय महाविद्यालय
राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ के हिंदी विभाग में
प्राध्यापक हैं।