इस्लामिक धर्मगुरुओं द्वारा हालांकि समय-समय पर इस बात का स्पष्टीकरण दिया जाता है और समाज को यह समझाने की कोशिश की जाती है कि इस्लाम में महिलाओं को पढऩे-लिखने तथा अधिकारों की सुरक्षा करने व उन्हें प्रोत्साहित किए जाने की व्यवस्था है। परंतु उनकी यह कोशिशें कामयाब होती नज़र नहीं आतीं। ठीक इसके विपरीत जब गैर मुस्लिमों या मुस्लिम उदारवादियों द्वारा इस्लाम के एक वर्ग विशेष में प्रचलित तीन तलाक जैसे विवादित विषय का जि़क्र होता है या पर्दा अथवा हिजाब की आलोचना या इसका विरोध किया जाता है उस समय चंद कथित धर्मगुरु इस कथित इस्लामिक व्यवस्था के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। और ज़ाहिर है इस्लाम धर्म में त्रुटियां ढूंढने में लगा एक वर्ग विशेष इस प्रकार के धर्मगुरुओं की बातों को मीडिया के माध्यम से उछालकर समाज को यह समझाने में लग जाता है कि मुसलमान तीन तलाक व पर्दा या हिजाब जैसे कथित व्यवस्था के पक्षधर हैं और यह व्यवस्थाएं मुस्लिम महिलाओं की स्वतंत्रता के विरुद्ध हैं तथा इससे उनके मानवाधिकारों का हनन होता है और मुस्लिम महिलाओं का शारीरिक व मानसिक शोषण भी होता है। सवाल यह है कि प्रगति तथा विकास के आज के दौर में क्या हम किसी धर्म या धार्मिक परंपराओं अथवा शिक्षा के नाम पर छठी व सातवीं शताब्दी में प्रचलित रीति-रिवाजों को पुन: स्थापित कर सकते हैं या उनका अनुसरण कर सकते हैं? और क्या हमें ऐसा करना चाहिए?
अभी हमारे देश में मुस्लिम महिलाओं के पर्दे तथा तीन तलाक जैसे विषय पर बहस चल ही रही है कि इसी बीच पिछले दिनों देवबंद के एक वरिष्ठ मौलाना व तंज़ीम-उलेमाए-हिंद के एक जि़म्मेदार पदाधिकारी द्वारा यह विवादित बयान दिया गया है कि मुस्लिम महिलाओं को-‘सरकारी अथवा गैर सरकारी किसी भी तरह की नौकरी नहीं करनी चाहिए। मुस्लिम महिलाओं का नौकरी करना इस्लाम धर्म के विरुद्ध है। घर का खर्च उठाने का जि़म्मा चूंकि मर्द का होता है लिहाज़ा महिलाओं का काम घर और बच्चों की देखभाल करना है’। परंतु धर्मगुरु ने अपने विवादित बयान में आगे यह भी जोड़ा कि महिलाओं का नौकरी करना उन्हीं परिस्थितियों में जायज़ है जब घर का खर्च उठाने वाला कोई मर्द न हो और वह औरत चेहरे समेत अपने-आप को पूरी तरह से ढक (पर्दे में रहकर)कर काम करे। यदि इस व्यवस्था के अनुसार एक क्षण के लिए धर्मगुरु की बात मान ली जाए तो उस स्थिति में क्या होगा यदि किसी ऐसे मुस्लिम पुरुष की मौत हो जाए जिसने चार शादियां की हों। और मौलाना के कथनानुसार औरतें नौकरी नहीं कर सकतीं। ऐसे में उन चार महिलाओं को क्या अपने पति की मौत के बाद आत्मनिर्भर होने या नौकरी के योग्य शिक्षा अथवा किसी प्रकार का प्रशिक्षण लेने की ज़रूरत पड़ेगी?
निश्चित रूप से इस्लाम ही नहीं बल्कि प्रत्येक धर्म में पुरुष प्रधान समाज द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार पुरुष को ही घर-परिवार चलाने,समाज में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने,पारिवारिक फैसले करने तथा परिवार को नियंत्रित रखने जैसी महत्वपूर्ण जि़म्मेदारियां दी गई हैं। परंतु किसी प्रतिभावान महिला में छुपी प्रतिभाओं का गला घोंटना किसी भी धर्म में नहीं सिखाया गया। यहां तक कि इस्लाम धर्म में भी नहीं। स्वयं इस्लाम धर्म के अंतिम पैगंबर हज़रत मोहम्मद की पत्नी बीबी खदीजा अपने विवाह से पूर्व मक्का की एक जानी-मानी व्यापारी थीं। वह इतनी साहसी महिला बताई जाती हैं कि जिस समय हज़रत मोहम्मद इस्लाम धर्म की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार में लगे थे और मक्का में उनका प्रबल विरोध हो रहा था उस समय उन्होंने न केवल हज़रत मोहम्मद का साथ देते हुए सबसे पहले इस्लाम धर्म स्वीकार किया बल्कि अपनी तेज़-तर्रार छवि व प्रतिभा के बल पर उन्होंने हज़रत मोहम्मद के विरोधियों का मुकाबला भी किया और अपनी अकूत संपत्ति से हज़रत मोहम्मद के इस्लाम धर्म के प्रचार-प्रसार के मिशन को आगे बढ़ाने में उनकी सहायता भी की। बताया जाता है कि वे स्वयं अपने विशाल कािफले के साथ व्यापार करने हेतु अरब के दूसरे क्षेत्रों में आया-जाया करती थीं। खदीजा रूपी इसी दबंग व पवित्र महिला ने हज़रत मोहम्मद से विवाह के पश्चात बीबी फातिमा जैसी प्रगतिशील बेटी को जन्म दिया। आगे चलकर फातिमा का विवाह हज़रत अली से हुआ और हज़रत फातिमा की शिक्षाओं के परिणामस्वरूप उनके हसन व हुसैन नाम के बच्चों ने करबला में इस्लाम की रक्षा हेतु जो कुर्बानी पेश की वह दुनिया के सामने हैं।
भारत में पिछले दिनों देवबंद के धर्मगुरु की मुस्लिम महिलाओं के नौकरी न करने संबंधी खबर विभिन्न अखबारों में प्रकाशित हो रही थी कि इसी के साथ-साथ कश्मीर घाटी से एक ऐसा सुखद समाचार आया जो भारतीय महिलाओं खासतौर पर मुस्लिम महिलाओं की हौसला अफज़ाई करने वाला है। यह समाचार धर्मगुरु के मुस्लिम महिलाओं के नौकरी विरोधी बयान को भी धत्ता बताता है। कश्मीर घाटी में आयशा अज़ीज नामक लडक़ी देश की पहली महिला फाईटर पायलेट बन चुकी है। भारत की यह मुस्लिम बेटी लड़ाकू मिग-29 विमान उड़ाने जा रही है। 2012 में उसने नासा से प्रशिक्षण लिया है तथा उसकी ख्वाहिश अंतरिक्ष में जाने की है।
इसी प्रकार 2013 में आसाम की एक मुस्लिम बेटी उम्मे-फरदीना आदिल ने देश की सर्वोच्च परीक्षा यूपीएससी में अपना परचम लहराकर देश की पहली मुस्लिम आईएएस महिला होने का गौरव प्राप्त किया। आज देश में और भी कई आईएएस,आईपीएस व कमर्शियल पायलट महिलाएं अपने अभूतपूर्व शौर्य,साहस तथा प्रतिभा का परिचय देते हुए सरकारी व गैर सरकारी विभागों में अपनी सेवाएं दे रही हैं। वहीदा प्रिज़्म देश की नेवी में सर्जन लेिफ्टनेंट कमांडर रही हैं। वे बड़े आत्मविश्वास के साथ यह कहा करती थीं कि उन्होंने इस मिथक को तोड़ दिया था कि महिलाएं सेना में रणक्षेत्र में अपनी सेवाएं नहीं दे सकतीं। यह तो केवल भारत के कुछ उदाहरण हैं अन्यथा अमेरिका व ब्रिटेन सहित दुनिया के अनेक विकसित देशों में भी मुस्लिम महिलाएं सरकारी व गैर सरकारी विभागों में बड़े पैमाने पर अपनी योग्यता व प्रतिभा का परिचय देते हुए अपनी काबिलियत का लोहा मनवा रही हैं।
लिहाज़ा मुस्लिम धर्मगुरुओं को खासतौर पर वर्तमान वातावरण में इस बात का ज़रूर ध्यान रखना चाहिए कि वे धार्मिक शिक्षाओं, शरीयत अथवा कुरान शरीफ का हवाला देकर कोई ऐसा विवादित बयान न दें जो वर्तमान संदर्भ में विवाद पैदा करे और जिसकी आज के समय में कोई प्रासंगिकता न रह गई हो। बड़े आदर व सम्मान के साथ इन धर्मगुरुओं से मैं इतना ही कहना चाहूुंगा कि वे अपनी धर्मरूपी सीमित शिक्षा तथा प्रतिभावान मुस्लिम महिलाओं को दी जाने वाली ऐसी शिक्षा जो उन्हें आईएएस,आईपीएस,पायलेट,इंजीनियर,वैज्ञानिक आदि बनाती हो, का तुलनात्मक अध्ययन करें तो धर्मगुरुओं को अपनी शिक्षा व ज्ञान का अंदाज़ा स्वयं हो जाएगा।
यदि मुस्लिम समाज को आगे ले जाना है, इसे आर्थिक व सामाजिक रूप से समृद्ध बनाना है तो मर्दों के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं को भी अपनी प्रतिभाओं तथा योग्यताओं को ज़ाहिर करना होगा। ऐसे में होना तो यह चाहिए कि महिलाओं को प्रोत्साहित किया जाए,उनके शिक्षण व प्रशिक्षण पर ध्यान दिया जाए ताकि वे पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो सकें और अपने परिवार व बच्चों के लिए सहारा बन सकें। यह स्थिति इस्लाम धर्म की छवि को सुधारने में भी कारगर साबित होगी। अत: आज मुस्लिम महिलाओं को दिकयानूसी नहीं बल्कि प्रगतिशील सोच की ज़रूरत है।
Tanveer Jafri ( columnist),
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