Saturday, November 23, 2024
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चंबल का पौराणिक आख्यान

राजस्थान के कोटा – बूंदी से होकर प्रवाहित होने वाली चम्बल नदी की प्राचीनता का बोध इसी से होता है कि महाभारत में इसका उल्लेख मिलता है एवं इसे चर्मवती और चर्मण्वती कहा गया है। बताया जाता है राजा रन्तिदेव ने इसके किनारे कई यज्ञ किये थे। महाभारत में अश्व नदी का चर्मण्वती में ,चर्मण्वती का यमुना में और यमुना का गंगा नदी में मिलने का भी वर्णन पाया जाता है। श्रीमद्भागवत में भी चर्मण्वती का नर्बदा के साथ उल्लेख मिलता है। कालिदास ने भी मेधदूत में रन्तिदेव की कीर्ति का उल्लेख किया है।

महाभारत के अनुसार राजा रंतिदेव के यज्ञों में जो आर्द्र चर्म राशि इकट्ठा हो गई थी उसी से यह नदी उदभुत हुई थी-
महानदी चर्मराशेरूत्क्लेदात् ससृजेयतःततश्चर्मण्वतीत्येवं विख्याता स महानदी।

कालिदास ने भी मेघदूत-पूर्वमेघ 47 में चर्मण्वती नदी को रंतिदेव की कीर्ति का मूर्त स्वरूप कहा गया है-

आराध्यैनं शदवनभवं देवमुल्लघिताध्वा,
सिद्धद्वन्द्वैर्जलकण भयाद्वीणिभिदैत्त मार्गः।
व्यालम्बेथास्सुरभितनयालंभजां मानयिष्यन
स्रोतो मूत्यभुवि परिणतां रंतिदेवस्य कीर्तिः।

इन प्रसंगों से ज्ञात होता है कि रंतिदेव ने चर्मवती के तट पर अनेक यज्ञ किए थे। इनमें हजारों पशुओं की बलि दे डाली थी। तभी भारी वर्षा हुई और पशुओं की चमड़ी के ढेर से जलधारा बह निकली और जलधारा बह निकली और यह चर्मणवती कहलायी। महाभारत में भी चर्मवती का उल्लेख है –
“ततश्चर्मणवती कूले जंभकस्यात्मजं नृपं ददर्श वासुदेवेन शेषितं पूर्ववैरिणा” अर्थात इसके पश्चात सहदेव ने (दक्षिण दिशा की विजय यात्रा के प्रसंग में) चर्मण्वती के तट पर जंभक के पुत्र को देखा जिसे उसके पूर्व शत्रु वासुदेव ने जीवित छोड़ दिया था। सहदेव इसे युद्ध में हराकर दक्षिण की ओर अग्रसर हुए थे। महाभारत में अश्वनदी का चर्मण्वती में, चर्मण्वती का यमुना में और यमुना का गंगा नदी में मिलने का उल्लेख है। कहा गया हैै-

“मंजूषात्वश्वनद्याः सा ययौ चर्मण्वती नदीम
चर्मण्वत्याश्व यमुना ततो गंगा जगामह।”

महर्षि परशुराम की तप स्थली, पाण्डवों का प्रवास स्थल, जम्बूमार्ग के नाम से विख्यात, सुखेश्वर तीर्थ के रूप में सात, अग्नि द्वारा रूद्र की स्थापना किये जाने से पंचरूद्र में एक स्थल, जम्बूमार्गेश्वर का प्राचीन मंदिर, वराहतीर्थ, विश्राम तीर्थ, सौपर्ण तीर्थ, मैत्री के हनुमान जी, केशवराय जी का पावन मंदिर, सुव्रतनाथ जैन मंदिर पवित्र, पावन एवं धार्मिक स्थल केशवरायपाटन चंबल नदी के किनारे बूंदी जिले में जन-जन की आस्था का प्रमुख केन्द्र है।

परशुराम एवं जमदग्नि संवाद में इस स्थान का यशोगान किया गया है। बताते हैं कि परशुराम ने पृथ्वी से क्षत्रियों के विनाश के बाद यहाँ तपस्या की थी। महाभारत वन पर्व में उल्लेखित है-

“जम्बूमार्ग समाविश्य देवर्षिपितृसेवितम्।
अश्वमेधमवाप्नोति विष्णुलोकं च गच्छति।।“

पौराणिक भारत के जन विश्रुत अष्ट पाटनों में केशवराय भी एक है। इसका नाम धीरे-धीरे अपभ्रंश हो कर ’पट्टन’ के स्थान पर ’पाटन’ हो गया। महाभारत में वर्णित है कि इस तीर्थ पर पॉच रात्रि निवास कर छठे दिन रहने से मनुष्य को उत्तम सिद्धि एवं सुगति प्राप्त होती है।

पद्मपुराण के अनुसार जो व्यक्ति जितेन्द्रिय एवं स्वल्पाहारी रह कर चर्मण्यवती (चंबल ) नदी तट पर पहुँचता है एवं रन्तिदेव से मन में स्मरण कर आज्ञा प्राप्त कर स्नान करता है वह अनिष्ट रहित फल प्राप्त करता है। पद्मपुराण के अनुसार –

“चर्मण्यवतीं समासद्य नियतो नियताशन:।
रंतिदेवाभ्यनुज्ञातो अनिष्टोमफलं लभेत्।।“

केशवराय तीर्थ के घाट गंगा एवं नर्बदा में बने घाटों एवं मंदिरों के समान प्रतीत होते हैं। जम्बूमार्गेश्वर महात्म्य के अनुसार इन्द्र ने अर्जुन से युधिष्ठर आदि पाण्डवों को तीर्थ यात्रा करने को कहा था। तब उन्हें यात्रा कराने के लिए नियुक्त लोमेश में जम्बूअरण्य तीर्थी का वर्णन कर विष्णुतीर्थ केशवराय पाटन का विवेचन सुनाया। इनका विधि-विधान से पूजन करना चाहिए कार्तिक शुक्ल एकादशी को यहाँ जागरण करने वाले को भगवान विष्णुलोक में ले जाते हैं-
“विष्णु तीर्थे ततः स्नात्वा पूज्येत्केशवं मुद्रा।
पुष्पैः पत्रैः फलैः शुद्धैः सप्रणाम प्रदक्षिणे।।
विशेषतः प्रबोधिन्यां तत्र जागरणं चरेत्।
तन्नयेद्वैष्णवं लोकं केशवः क्लेशनाशनः।।”

बताया जाता है कि राजा अंबरीश एवं रानी ने जो पूर्व जन्म में स्वर्णकार एवं वेश्या के स्वरूप में थे यहाँ तीर्थ पर स्नान कर एक एक स्वर्ण प्रतिमा का दान कर इस जन्म में राजा एवं राजपत्नी होने का सौभाग्य मिला। किंवदन्ति है कि यहाँ मंदिर का निर्माण राजा रंतिदेव ने करवाया था। रंतिदेव ने चम्बल से मूर्तियां खोज कर मंदिर की स्थापना की थी। रंतिदेव के तप एवं यज्ञ से प्रसन्न हो कर ईश्वर ने उन्हें वरदान दिया कि राजन जम्बूकारण्य में पट्टनपुर नामक पुण्य क्षेत्र में जहाँ तुम्हारे यज्ञ से उत्पन्न चर्मण्यवती गंगा के किनारे जम्बूमार्गेश्वर शिव विराजमान हैं, वहीं जा कर मेरी आराधना करो। वहाँ शुभ और श्याम वर्ण के मेरे दो विग्रह नदी से प्रकट होंगे। श्याम विग्रह में तुम्हारी भी प्रतिमा होगी। उनकी सेवा कर तुम भी उसी विग्रह में समा जाओगे। राजा रंतिदेव आज्ञानुसार कार्तिक कृष्णाष्टमी को सपरिवार यहाँ आये। नवमी के दिन ऋषि मुनियों सहित उन्होंने परिक्रमा एवं यज्ञ किया। जल में फूलों की डालियां भगवान के अनुसार बहाई। वे जहाँ एकत्र हुई वहाँ भगवान के दो विग्रह एक श्याम (चारभुजा जी) एवं दूसरा शुभ (श्री केशवराय जी) प्रकट हुये। राजा रंतिदेव ने कार्तिक शुक्ला एकादशी शुक्रवार को इन्हें पधराया एवं पूर्णिमा तक विशेष उत्सव आयोजित किये गये।

केशवराय मंदिर में लगे शिलालेख से पता चलता है कि राजा शत्रुशल्य ने महाभारत युगीन किसी जीर्ण मंदिर जो रतिदेव द्वारा निर्मित होगा, से दोनों मूर्तियां लेकर वर्तमान मंदिर में लगाई होगी। हरिवंशपुराण एवं वायुपुराण में इन प्रतिमाओं की कीर्ति कथा पूरे क्षेत्र के आख्यान पाये जाते हैं। वायु पुराण में इस क्षेत्र का विस्तार पांच कोस माना गया है। मान्यता है कल्पवृक्ष लाते समय भगवान विष्णु ने यहाँ विश्राम किया था। जिसका प्रतिक यहाँ ’विश्राम तीर्थ’ के रूप में है।

( उक्त वर्णन इतिहासकार स्व.जगत नारायण एवं स्व. बद्रीनाथ जी शास्त्री के स्त्रोतों पर आधारित है.)

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