बनारस की मशहूर तवायफ थीं नरगिस की मां, कर्ज उतारने के लिए बेटी से फिल्मों में करवाया काम, जानिए संजय दत्त की नानी की दिलचस्प कहानी
बॉलीवुड की मशहूर अदाकारा रहीं नरगिस की मां जद्दनबाई बनारस की मशहूर तवायफ थीं, जो बाद में देशभर में अपने गानों के लिए जानी जाती थीं।
संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज ‘हीरामंडी’ जबसे रिलीज हुई है, तबसे तवायफ शब्द का जिक्र लगातार हो रहा है। नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई ‘हीरामंडी’ की कहानी आजादी की जंग लड़ते भारत में, अपने कोठों के लिए मशहूर रेड लाइट एरिया ‘हीरामंडी’ की कहानी है। जहां की तवायफें नवाबों के लिए महफिलें सजाने और अपने संगीत और नृत्य के लिए मशहूर थीं।
तवायफों के गाने सुनना नवाबों की शान हुआ करती थी। हिंदुस्तानी संगीत और नृत्य की विरासत को सहेज कर रखने वाले तवायफ कल्चर का ब्रिटिश राज में पूरा नक्शा बिगड़ गया, लेकिन कोठों ने बॉलीवुड को भरपूर टैलेंट दिया है। ऐसी ही एक तवायफ की कहानी आज हम आपको बताने जा रहे हैं, जो बॉलीवुड की पहली म्यूजिक डायरेक्टर और प्रोड्यूसर बनी थीं। नाम था जद्दनबाई।
जद्दनबाई का जन्म 1892 में बनारस में हुआ था। इनकी मां दलीपाबाई थीं, जो इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की सबसे मशहूर तवायफ थीं और पिता थे मियां जान, जिन्हें जद्दनबाई ने महज 5 साल की उम्र में ही खो दिया था। कोठे पर पली- बढ़ी जद्दन को गायकी और नृत्य का हुनर उनकी मां से मिला था। वह कोठे पर रहकर बड़ी जरूर हुईं, लेकिन उनके कोठे पर देह व्यापार नहीं होता था बल्कि सिर्फ ठुमरी और गजलें पेश की जाती थीं। जद्दनबाई ने मां की लीगेसी को आगे बढ़ाने के लिए कोठे की कमान संभाली और मां से भी ज्यादा मशहूर हो गईं।
नरगिस की मां ने तीन शादियां की थीं। पहली शादी उन्होंने गुजराती हिंदू बिजनेसमैन नरोत्तम दास से की थी। दोनों का एक बेटा अख्तर हुसैन हुआ। बेटे के जन्म के कुछ सालों बाद ही नरोत्तम जद्दन बाई को छोड़कर चले गए और कभी लौटे ही नहीं। सालों तक बेटे की अकेले परवरिश करने के बाद कोठे में ही हारमोनियम बजाने वाले मास्टर उस्ताद इरशाद मीर खान से जद्दन ने दूसरी शादी की। जिससे इन्हें दूसरा बेटा अनवर हुसैन हुआ। चंद सालों में ही दोनों अलग हो गए। इसके बाद जद्दनबाई ने लखनऊ के एक रईस परिवार के मोहन बाबू से तीसरी शादी की। जद्दनबाई और मोहन बाबू की एक बेटी हुई नरगिस।
जद्दन बाई ने कुछ सालों बाद कोठे से निकलकर सिंगर बनने के लिए कोलकाता जाने की ठानी। उन्होंने श्रीमंत गणपत राव, उस्ताद मोइनुद्दीन खान, उस्ताद चड्डू खान साहब और उस्ताद लाब खान साहब से संगीत की शिक्षा प्राप्त की। देखते ही देखते इनके गाने देशभर में पसंद किए जाने लगे। ब्रिटिश शासक इन्हें न्योता देकर रामपुर, बीकानेर, ग्वालियर, जम्मू-कश्मीर जैसी अलग-अलग जगहों पर महफिल सजवाया करते थे।
वहीं यूनाइटेड किंगडम की म्यूजिक कंपनी ग्रामोफोन इनकी गजलों को रिकॉर्ड करवाकर ले जाया करते थे। इतना ही नहीं उन्हें लाहौर की फोटो टोन कंपनी ने साल 1933 में एक फिल्म भी ऑफर की थी। इस फिल्म में काम करके वह एक्टिंग की दुनिया में आ गईं। इन्होंने आगे ‘इंसान या शैतान’ फिल्म की। इसके बाद वह परिवार के साथ बॉम्बे (मुंबई) पहुंच गईं।
जद्दनबाई ने साल 1935 में अपनी खुद की प्रोडक्शन कंपनी शुरू की, जिसकी पहली फिल्म तलाश-ए-हक थी। जद्दनबाई को फिल्में बनाने पर नुकसान हो रहा था। उनकी सारी फिल्में फ्लॉप हो रही थी और वह कर्ज में डूब गईं। जद्दन बाई और मोहन बाबू ने नरगिस का दाखिला मुंबई के इंग्लिश मीडियम एलीट स्कूल में करवाया था, लेकिन जब प्रोडक्शन हाउस को नुकसान होने लगा तो उन्हें स्कूल बदलवाना पड़ा और जद्दनबाई ने अपने ऊपर चढ़े कर्ज को उतारने के लिए नरगिस ने एक्टिंग की दुनिया में कदम रखा।
यहां उन्होंने खुद की प्रोडक्शन कंपनी संगीत फिल्म शुरू की और तलाश-ए-हक फिल्म बनाई. इसी फिल्म में जद्दनबाई ने अभिनय करने के साथ म्यूजिक कंपोज भी किया. इतिहास में ये पहली बार था जब कोई महिला म्यूजिक कंपोज कर रही थी. 1935 की इस फिल्म में उन्होंने 6 साल की बेटी नरगिस को कास्ट किया. प्रोडक्शन कंपनी से कर्ज उतारने के लिए ये लगातार नरगिस को फिल्मों में लेने लगीं. 1940 तक जद्दनबाई की प्रोडक्शन कंपनी भारी नुकसान में जाने से बंद हो गई. जद्दनबाई ने फिल्मों में काम करना बंद कर दिया.
नरगिस को 14 साल की उम्र में ‘तकदीर’ फिल्म से पहचान मिली। जब जद्दन के बेटे अख्तर हुसैन ने फिल्म ‘दरोगाजी’ बनाई तो जद्दन बाई ने खुद फिल्म के सभी डायलॉग लिखे। 1949 में रिलीज हुई ये इनकी जिंदगी की आखिरी फिल्म थी। 8 अप्रैल 1949 में कैंसर से जद्दन बाई का निधन हो गया।
जब नरगिस की मां का निधन हुआ तो उस दिन सभी फिल्मों की शूटिंग रोक दी गई और स्टूडियो एक दिन के लिए बंद कर दिए गए।