नई बात निकल कर आती है (संस्मरण)

पुस्तक पढ़ने के लिए ज्योंही पुस्तकों की अलमारी को खोलने लगा कि ग्यारह बजकर ऊनसठ मिनट पर मोबाईल की घण्टी बजी…
– हेलो…प्रणाम् सर…
– प्रणाम् भाई साहब…
– क्या हो रहा है…घर ही हो…
– बस ! ठीक…हाँ घर ही हूँ…
– सोचा आप से मिलूँ…
– अरे ! आओ ना भाई साहब…
– ठीक है आधे-पोन घण्टे में पहुँचता हूँ…
– जी ठीक है…

यह सहज संवाद हुआ विचारशील लेखक, पत्रकार और पूर्व संयुक्त निदेशक (जनसम्पर्क) डॉ. प्रभात कुमार सिंघल साहब से, जो अपने सृजनात्मक लेखन से साहत्यिक – सांस्कृतिक सन्दर्भों को समृद्ध करते हुए रचनात्मक परिवेश के लिए अनुकरणीय कार्य कर रहे हैं।

कहे अनुसार वे दोपहर बारह बजकर पचास मिनट पर एक पुस्तक हाथ में लेकर घर पधारे।

सामान्य बातचीत करते हुए रचनात्मक लेखन पर सार्थक चर्चा हुई। इस बीच उन्होंने अपनी सद्य प्रकाशित कृति ‘नई बात निकल कर आती है’ की प्रथम प्रति भेंट की।

इस पुस्तक का आवरण यथा शीर्षक भावों को समेटे है। गहरे नीले रंग के उजास में एक व्यक्ति के भीतर से उत्पन्न नाद-ध्वनि को आसमानी रंग-रेखाओं के माध्यम से उभारा गया है। लग रहा है, जैसे नाभि स्थल से उत्पन्न ध्वनि तरंगें ब्रह्माण्ड की ओर संचरित हो रही है।

सहित्यागार, जयपुर से प्रकाशित इस संस्मरण कृति के पृष्ठ 3-5 पर ‘यादों के गलियारों से ‘नई बात निकल कर आती है…’ शीर्षक से मेरा लिखा आमुख प्रकाशित है –

यादों के गलियारों से ‘नई बात निकल कर आती है…’

समस्त चराचर जगत् में समय का स्पन्दन अपने आस-पास के परिवेश को प्रभावित करता है। इस समय को व्यक्ति जब अपनी यादों में संजोये रखकर स्वयं ही उनसे संवाद स्थापित करता है तो अनुभूत किये गए पलों का एक-एक स्वर उसे अपने सम्पूर्ण अस्तित्व में प्रवाहित होता महसूस होता है। यह प्रवाह व्यक्ति को आधार प्रदान करता है और उसे सावचेत करता हुआ आगे बढ़ने की प्रेरणात्मक ऊर्जा का संचार करता है जिससे वह अपने सामाजिक सन्दर्भों को परखने की दक्षता प्राप्त करता है और स्मृतियों का कारवाँ बनता चला जाता है जो जीवन के विविध पड़ावों पर सामूहिक संवाद का सेतु बनता है।

इन्हीं सन्दर्भों को अपने जीवन में अनुभूत कर जनसंपर्क कर्मी और पर्यटन लेखक के रूप में विख्यात डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने अपने परिवेश से अर्जित अनुभवों के द्वारा अपनी स्मृतियों को शब्दायीत कर अविस्मरणीय सन्दर्भों के साथ पुस्तक का रूप प्रदान किया है “नई बात निकल कर आती है…” में।

यह संस्मरण मात्र संस्मरण ही नहीं है वरन् लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व का ऐसा अंदाज़े बयाँ है जो सृजनात्मक सन्दर्भों के साथ-साथ सामाजिक परिवेश की कई परतों को खोलता है। यही नहीं ये अविस्मृत पल मात्र लेखक के ही अनुभवों के आयाम नहीं है वरन् उनके समूचे परिवेश और उसमें निरन्तर घटते हुए संदर्भों की वह पड़ताल है जिसमें देश, काल और परिस्थिति में उजागर होती हुई अनुभूत सच्चाइयों को परखा जा सकता है।

वास्तविकताओं को परखने की इस यात्रा में लेखक ने सहज भाव से किए गए कार्य और उनसे प्राप्त परिणाम का सार्थक वर्णन किया है। वहीं इस यात्रा में स्वयं की आंतरिक और बाह्य संघर्ष की गहरी संवेदना को भी उभारा है। यहाँ लेखक को जहाँ परिवार का सान्निध्य मिला वहीं मित्रों का सुदृढ़ साथ भी पाया और जीवन की समझ तथा परिवेश से जूझने की ललक भी विकसित हुई।

लेखक के अपने सेवाकाल के इन सन्दर्भों में कई घटनाएँ रोमांचित करती है तो अथक परिश्रम और समर्पण से प्राप्त उपलब्धियों के दृष्टान्त भी सामने आते हैं। वहीं अपने संघर्ष के पलों में उपजी मानसिक और शारीरिक ऊहापोह का मार्मिक चित्रण भी इन संस्मरणों का वैशिष्ट्य है। कई प्रसंगों में डॉ. प्रभात कुमार सिंघल के व्यक्तित्व का असरदार पहलू उभर कर रचनात्मक-पथ का पथिक बनता है जो सृजन के विविध आयामों के साथ सामाजिक परिवेश और सामाजिक कार्य के क्रिया-कलापों की विवेचनात्मक प्रस्तुति देता है।

फिर चाहे ‘पालनहार’ की ‘अमिट स्याही’ हो या ‘सारथी’ की ‘सार्थकता’, ‘बचपन के दिन’ में ‘मल्हार उत्सव’ मने या ‘ज़िन्दगी का हिस्सा’ ‘आदिवासियों के बीच’ गुजरे। ऐसे में लगा कि ‘चेहरों पर खुशियाँ नाच रही थी’ तब मैं ‘अवाक् रह जाता हूँ’ तभी पता लगता है ‘सपने हुए अपने’ और उनका हुआ ‘लोकार्पण’ तब ‘मुरझाये फूल खिल उठे’ इससे ‘सुषुप्त सपनों की नई उड़ान’ दिखी वहाँ जहाँ ‘ग्राम सचिवालय’ और ‘होप सोसायटी’ है। यकायक तब बोल निकल पड़े- ‘एक धरोहर तो रहने दो’। यह कहा तो लगा कि ‘इम्तहान भी लेती है स्पष्टवादिता’ तब मन में आया ठान लो तो ‘अभियान’ चल जाता है और ‘नई बात निकल कर आती है’ ऐसे में ‘समाज भी आँकता है मोल’। तब उत्साह बढ़ता है और ‘सपनों का सफ़र’ परवान चढ़ता है तब लगा कि वस्तुतः ‘खजुराहो के मन्दिरों के दर्शन के बिना अधूरा है भारत भ्रमण’। तब स्मरण में आती हैं ‘ककोनी’ के साथ ‘वन्डरफुल, अवेसम, मार्वलस आमेर का किला’ और ‘नेपाल की यात्रा’ और इनका साक्षात्कार। इससे ‘रोमांच ही रोमांच’ तो होना ही था। यह वह रोमांच था जिससे ‘नई चेतना और साहित्य को लगे पंख’ और ‘परम संतोष ‘ भी मिला। इसीलिए कहा है- ‘होय वही जो राम रची राखा’।

इन्हीं सन्दर्भों से आत्मसात् होता हुआ लेखक अपने भीतर परिवेश से प्राप्त ऊर्जा का प्रवाह अनुभूत करने लगता है। इस प्रवाह के ही स्पर्श का असर है कि समय के साथ साक्षात्कार करते रहने पर ‘नई बात निकल कर आती है।’

बात निकलती है तो अपनी यात्रा का विस्तार करती है। यह विस्तार कई पड़ावों को उद्घाटित करता है, जिसमें बात में बात और आचार में विचार का रूप सामने आता है। इन्हीं सन्दर्भों को उजागर करते हुए लेखक के क़रीबी मित्रो तथा सहयोगियों ने अपने विचारों से इस संस्मरण कृति को एक नया आयाम दिया है, जो परिशिष्ट के अन्तर्गत उल्लेखित है। यह उल्लेख मात्र लेखक के व्यक्तित्व-कृतित्व का आकलन नहीं है वरन् उनके सहज, सरल, समर्पित और सहयोगी प्रवृत्ति के साथ कर्मठता को दर्शाने वाले वे सार्थक विचार हैं जो सामाजिक सन्दर्भों को अनुकरणीय परिवेश प्रदान करते हैं।

इन व्यक्त विचारों के शीर्षक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल के सम्पूर्ण कार्य-व्यवहार को सामने लाते हैं। यथा – युवा वर्ग को किया जागरूक – डॉ एमएल अग्रवाल, लेखन के प्रति समर्पित और साहित्य के प्रति प्रतिबद्धता स्तुत्य – जितेंद्र ‘ निर्मोही ‘ अपने कार्य में दक्ष और संवेदनशील – आरसी जैन, राजस्थान के अच्छे लेखकों में एक – डॉ धर्मेंद्र भटनागर, सधे जन संपर्क कर्मी एवं पर्यटन मर्मज्ञ के साथ सहयोगी प्रवृति और धैर्य के धनी – पन्ना लाल मेघवाल, लेखन – प्रकाशन सहेजने काबिल – किशन रतनानी, जनसंपर्क-पर्यटन-साहित्य की त्रिवेणी – विजय जोशी, साक्षरता अभियान के निष्फल कर्मयोगी और सारथी- आरपी गुप्ता, तनाव मुक्त वातावरण की कार्य शैली विकसित की – घनश्याम वर्मा, जैसा नाम वैसी आभा के साथ बहुआयामी लेखनी के घनी – फिरोज़ अहमद, पुरातत्व विभाग में तो नहीं जा सके पर इतिहास पुरातत्व से जुड़े रहे -ललित शर्मा, कौमी एकता के पैरोकार – अख्तर खान ‘ अकेला ‘, लेखन को ही कर्म और पूजा मानते हैं – अनुज कुमार कुच्छल, पत्रकारों में दीर्घकाल तक इनकी चर्चा रहेगी – केडी अब्बासी, बाल प्रतिभाओं को आगे लाने के लिए किए गए प्रयास स्तुत्य है- डॉ.कृष्णा कुमारी, लेखन संघर्ष से श्रेष्ठ मुकाम तक -जितेंद्र गौड़, लेखन से ला सकते हैं समाज में सकारात्मक परिवर्तन – कमल सिंह । इन्हीं विचारों के प्रवाह और ऊर्जा से लेखक की सृजन यात्रा जारी है।

अन्ततः यही कि डॉ. प्रभात कुमार सिंघल के इस “नई बात निकल कर आती है… ” में सामाज और संस्कृति के विविध सन्दर्भों के साथ जीवन में उभरी संघर्ष की स्थितयों और उससे उबरने के लिए किये गये प्रयासों का बेबाक चित्रण हुआ है। इस चित्रण में अभिव्यक्ति की सरलता और सहजता में लेखक पाठकों को भी अपने साथ यात्रा करवाता है जो लेखकीय समर्पण और कौशल का प्रमाण है।