‘नया इंडिया’ का आज अंक 1और वर्ष 10 है। जब 16 मई 2010 में चलते-चलाते मैंने यों ही ‘नया इंडिया’ शुरू किया, तब कल्पना नहीं की थी कि ‘नया इंडिया’ अपनी जिद्द बनेगा। प्राणवायु सोख लेने वाला मामला बनेगा! बेबाक, बेधड़क लिखने की आदत पर सुनने को मिलेगा कि आपको डर नहीं लगता लिखते हुए! ठीक पांच साल पहले 16 मई के दिन जो जनादेश था, उससे पहले उस जनादेश को बूझते हुए भी ‘नया इंडिया’ सौ टका बेबाक था। वह सब कुछ लिखा, जो पिछले पांच वर्षों मे दिखा है। मतलब जो सत्य है, उसे बेबाकी और निर्ममता से लिखना। बावजूद इसके तब और अब का फर्क बना है कि सत्य और पत्रकारिता दोनों अब दुर्लभ हैं।
अखबार, पत्रकार, मीडिया का मतलब बदल गया है। दस साल पहले समाज में मीडिया का जो मान था, उसका क्या हुआ, इसकी हकीकत ने मुझमें जिद्द पैदा की है कि ‘नया इंडिया’ का दीया जलाए रखना है। लेकिन कब तक?… देखते हैं! मैं ‘नया इंडिया’ और भारत की पत्रकारिता पर विस्तार से बहुत कुछ लिखना चाहता हूं लेकिन इस वक्त मैं तलवार की धार पर टिके लोकतंत्र पर ध्यानस्थ हूं। बाद में लिखूंगा। अच्छा हुआ जो वैदिकजी ने ‘नया इंडिया’ पर लिखा। उनका आभार और साथ में उन तमाम शुभेच्छुओं, पाठकों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापन, जिनकी सद्इच्छा से ‘नया इंडिया’ की प्राणवायु अभी भी शेष है।– हरिशंकर व्यास।
डॉ. वेदप्रताप वैदिक-आज ‘नया इंडिया’ की 10वीं वर्षगांठ है। हिंदी पत्रकारिता के पिछले 200 साल के इतिहास में ऐसे कितने दैनिक पत्र निकले हैं, जिनकी तुलना ‘नया इंडिया’ से की जा सकती है? अंग्रेजों के काल में, कुछ पत्र ऐसे जरूर निकले हैं, जिन्होंने अपनी लौह-लेखनी से अंग्रेजों के कान उमेठे थे, लेकिन उन्हें या तो अंग्रेजों ने जब्त कर लिया या उसके संपादकों को गिरफ्तार कर लिया। आजाद भारत में भी कुछ ऐसे अखबार निकले, जैसे महाशय कृष्ण का ‘वीर अर्जुन’ लेकिन जितने भी बड़े अखबार निकले, उनके पीछे मुनाफा सबसे बड़ा लक्ष्य रहा। इस लक्ष्य को साधना इतना कठिन है कि बड़े से बड़े अखबार मालिक और बड़े से बड़े संपादक को फूंक-फूंककर कदम रखना पड़ता है। सत्ताधीशों के सामने नरमी से पेश आना पड़ता है, घुटने भी टेकने पड़ते हैं और कभी-कभी भांडगीरी भी करनी पड़ती है। रामनाथ गोयनका के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की तरह के अखबार देश में बहुत ही कम हैं। लेकिन हरिशंकर व्यास का ‘नया इंडिया’ अपने आप में एक मिसाल है। इसकी तुलना पराधीन और स्वाधीन भारत के किसी भी सर्वश्रेष्ठ अखबार से की जा सकती है। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में इसका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा। इसके पीछे न तो कोई बड़ी पूंजी है, न कोई राजनीतिक दल है, न कोई नेता है, न सेठ है। इसके पीछे कोई भी निहित स्वार्थ नहीं है।
इस महान अखबार को व्यासजी, अजीत द्विवेदी, विवेक सक्सेना, अनिल चतुर्वेदी, जगदीप, श्रुति और सत्येंद्र, शंकर शरण, श्रीश, पकंज जैसे लेखक अपने खून से सींच रहे हैं। इस अखबार को मुनाफे का कोई ख्याल ही नहीं है। विज्ञापन के लिए यह किसी सरकार या सेठ के तलुए चाटने को तैयार नहीं है। यह समाचार-पत्र कम, विचार-पत्र ज्यादा है। मैं यह मानता हूं कि विचार की ताकत परमाणु बम से भी ज्यादा होती है। यह अखबार लाखों की संख्या में नहीं छपता है, लेकिन कौन विचारशील नेता है, जो रोज सुबह सबसे पहले इस अखबार को नहीं पढ़ता है। यह अखबारों का अखबार है। यह भारत के नेताओं, पत्रकारों, नौकरशाहों, विद्वानों, समझदारों का अखबार है।
पिछले कई वर्षों से मैंने इसमें लगातार लिखा है। रोज़ लिखा है। एक दिन भी नागा नहीं की। पिछले 65 सालों से लिख रहा हूं और देश के सबसे बड़े अखबार ‘नवभारत टाइम्स’ और सबसे बड़ी न्यूज एजेंसी पीटीआई (भाषा) का संपादक भी लंबे समय तक रहा हूं और विश्व प्रसिद्ध साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ के सबसे महत्वपूर्ण लेखकों में भी मैं रहा हूं। लेकिन जितना आनंद और आत्मिक संतोष मुझे ‘नया इंडिया’ में लिखकर मिल रहा है, पहले मुझे कभी नहीं मिला।
जो निष्पक्षता, निर्भयता और निर्ममता ‘नया इंडिया’ की नीतियों में है, वह देश की समस्त खबरपालिका के लिए अनुकरणीय है। यह भारतीय लोकतंत्र के भविष्य की रक्षा का दस्तावेज है। भारत में जब तक ‘नया इंडिया’ जैसे अखबार निकलते रहेंगे, हमारे सत्ताधीश, जो कि जनता के सेवक हैं, सेवक बनकर ही रहेंगे। उनकी अकड़ ढीली होती रहेगी। उनकी अकड़ के गुब्बारे को पंक्चर करने के लिए ‘नया इंडिया’ की नुकीली कलम काफी है। पिछले पांच वर्षों में पत्रकारिता का जो पराभव हुआ है, उसके गहरे अंधकार के बीच ‘नया इंडिया’ सूर्य की तरह चमकता रहा है।