कोरोना-कालखंड में सिर्फ साहित्य की किताबें ही पढ़ी-गुनीं नहीं जा रहीं हैं, साहित्य जिया भी जा रहा है। कोरोना और किताबों का अघोषित रिश्ता जुड़ गया है। यह कालखंड स्वयं को समझने का अनोखा अवसर है।
ये ऐसा दौर है कि महामारी हमारी लापरवाही की कहानी कह रही है और साहित्यकार उस कहानी की समीक्षा कर रहे हैं. हमने सीखा आवश्यकता अविष्कार जी जननी है और हम अपनी आवश्यकता बढ़ाते गए. धीरे धीरे उसके बंदी भी बन गए। लेखनी का संसार लोगों के मेल जोल को वाणी देता रहा है किन्तु इस इस कठिन घड़ी में दूरियाँ इलाज का पर्याय बन गयी हैं। आज तक हम कहते रहे ज़िंदगी बनाना है तो घर से निकलो, पर बहरहाल हम कह रहे हैं कि जीवन बचाना है तो घर पर रहो. इसलिए साहित्य के प्रतिमान भी बदल गए हैं इस दौर में।
हमारा जीवन ही ऑनलाइन जैसा हो गया है। ये स्वयं को बचाने और बाँचने का कालखंड है। निराशा घर न कर ले, नकारात्मकता न घेर ले, अवसाद के शिकार न हों, इसके लिए साहित्य जगत लोगों को जगा रहा है। आभासी या डिजिटल दुनिया ही फिलवक्त रीयल हो गयी है। लेकिन, यह आने वाले समय की साफ़ आहट भी है। इससे मुंह फेरना अब संभव नहीं।
आज कोरोना पर शोध आधारित लेखन का सिलसिला चल पड़ा है। साहित्य सही माने में सबके हित में घर बैठे पहुँच रहा है। यह अपना ध्यान रखकर मस्त रहने का समय है। लोग अपना बचपन याद कर रहे हैं। मजा तो यह है कि खुद को भूले कितने दिन हो गए हम यह भी याद कर रहे हैं। देश के कोने-कोने से ही नहीं, विदेश से भी लोग डिजिटल माध्यम से शब्दों के ज्यादा करीब आ गए हैं। साहित्यकारों के पास भाषा की ताकत है संवेदना की सम्पदा भी। मानवता के पक्ष में इससे बड़ी नेमत और कुछ नहीं हो सकती।
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