शांति का नोबेल पुरस्कार हासिल करने वाले कैलाश सत्यार्थी मध्य प्रदेश के विदिशा में बचपन के दिनों में लाइब्रेरी से किताबें लाते थे और लैंप पोस्ट के नीचे बैठकर पढ़ते थे। उनका बचपन विदिशा की तंग गलियों में बीता। उन्होंने प्राइमरी से लेकर इंजीनियरिंग तक की शिक्षा यहीं से हासिल की। उनके पिता हेड कांस्टेबल थे। स्नेह, सहयोग, करुणा और संघर्ष जैसे गुण तो जैसे उनके परिवार का परिचय ही बन गए थे।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है – संभव की सीमा जानने का केवल एक तरीका है, असंभव से भी आगे निकल जाना। इसीलिए यह भी सच है कि जीवन की सबसे बड़ी खुशी उस काम को करने में है जिसे लोग समझते हैं कि आप नहीं कर सकते। कैलाश सत्यार्थी ने जब बच्चों के हक के लिए काम करना और लड़ना शुरू किया तो जाहिर है हर नई पहल की तरह उनकी कोशिशों को भी शक की निगाहों से देखा गया। वे जूझते रहे और लोग उनके साथ आते गए। दूसरी तरफ लोग ऐसे भी मिले जो उनके कार्यों को सरकार विरोधी करार देने से भी बाज नहीं आए। फिर क्या, उन पर हमले हुए। उनके साथ दुर्व्यवहार भी होता रहा। लेकिन, तमाम सवालों के जवाब एकबारगी देने के बदले जो राह चुनी थी उस पर चलते जाने के अडिग संकल्प के साथ कैलाश जी ने दमन के विरुद्ध धीरज का दामन थामा.
दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी तरह की दासता की जंजीरों में जकड़े हुए बचपन को आजाद करने के लिए दुनिया की सभी आवाजों, दिमागों और आत्माओं को लयबद्ध करने की अंतहीन और असरदार गुहार लगाते आ रहे कैलाश सत्यार्थी वास्तव में बच्चों की दुनिया के निराले और बिरले सत्य-शोधक हैं। सर्वविदित है कि बाल अधिकारों के लिए काम करने और उनकी शिक्षा के दिशा में किए गए प्रयासों के लिए मलाला यूसुफजई के साथ संयुक्त रूप से 2014 का नोबेल शांति पुरस्कार जीतने वाले कैलाश सत्यार्थी 1990 से ही बच्चों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
काबिलेगौर है कि मदर टेरेसा (1979) के बाद कैलाश सत्यार्थी सिर्फ दूसरे भारतीय हैं जिन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया है। वैसे वह नोबल पुरस्कार पाने वाले सातवें भारतीय हैं। उनके सार्थक प्रयत्नों के प्रभाव का प्रत्यक्ष गवाह बाल मित्र ग्राम वह मॉडल गाँव है जो बाल शोषण से पूरी तरह मुक्त है और यहाँ बाल अधिकार को तरजीह दी जाती है। 2001 में इस मॉडल को अपनाने के बाद से देश के 11 राज्यों के 356 गाँवों को अब तक चाइल्ड फ्रेंडली विलेज घोषित किया जा चुका है।
मानवीय सरोकारों के सुधी चिंतक हिमांशु शेखर बड़े प्रेरक अंदाज में बताते हैं कि मध्य प्रदेश के विदिशा में एक मध्यमवर्गीय परिवार का पाँच वर्षीय एक बच्चा पहली बार स्कूल जाता है। उस विद्यालय के बाहर वह लड़का अपने एक हमउम्र को जूता पालिश करते देखता है। वह गौर करता है कि जूता पालिश करने वाला बच्चा स्कूल जाने वाले बच्चों के जूतों को निहार रहा है। पहली बार स्कूल जा रहे बच्चे को यह बात अखर जाती है कि सारे बच्चे स्कूल जा रहे हैं लेकिन वह क्यों नहीं जा रहा है। वह इसकी शिकायत अपने शिक्षक से करता है और उचित जवाब नहीं मिलने पर स्कूल के हेडमास्टर से भी इसकी नालिश कर देता है। वहाँ उसे जवाब मिलता है कि इस जग में ऐसा होता है। अगले दिन वह लड़का जूता पालिश करने वाले बच्चे के पिता के पास जाकर पूछ बैठता है कि वे अपने बच्चे को स्कूल क्यों नहीं भेज रहे हैं? वह अभागा पिता इस नन्हें बालक को देखता रह जाता है और जो जवाब देता है, वह किसी भी सभ्य समाज को पानी-पानी कर देने के लिए काफी है। वह कहता है, ‘बाबू जी, स्कूल में न तो मैं पढ़ने गया और न ही मेरे पूर्वज गए इसलिए यह भी नहीं जा रहा है। हम तो मजूरी और दूसरों की सेवा करने के लिए ही पैदा हुए हैं।’ इस जवाब से हैरान-परेशान वह मासूम चाहते हुए भी उस अभागे बच्चे के लिए कुछ नहीं कर पाता है, लेकिन वह घटना उसके मन के किसी कोने में पड़ी रहती है। वही बच्चा जब जवान होता है तो एक वक्त ऐसा आता है कि वह लेक्चररशिप छोड़कर मासूमों को उनकी मासूमियत लौटाने की मुहिम में लग जाता है। वही मुहिम कुछ ही वर्षों में ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ का रूप धारण कर लेती है और वह बच्चा देश के हजारों बच्चों की जीवन रेखा बन जाता है।
कैलाश जी ने बाल श्रम को मानवाधिकार के मुद्दे के साथ ही दान और कल्याण के साथ जोड़ा। उन्होंने तर्क दिया कि यह गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, जनसंख्या वृद्धि और अन्य सामाजिक समस्याओं को बढ़ावा देती है। कैलाश की बात को बाद में कई अध्ययनों ने भी सही साबित किया। उन्होंने बाल श्रम के खिलाफ अपने आंदोलन को ‘सबके लिए शिक्षा’ से भी जोड़ा और इसके लिए यूनेस्को द्वारा चलाए गए कार्यक्रम से भी जुड़े। ग्लोबल पार्टनरशिप फॉर एजुकेशन के बोर्ड में भी शामिल रहे। उन्हें बाल श्रम के खिलाफ और बच्चों की शिक्षा के लिए देश और विदेश में बनाए गए कानूनों, संधियों और संविधान संशोधन कराने में अहम भूमिका निभाने का श्रेय दिया जाता है।
कैलाश जी के नेतृत्व में 108 देशों के चौदह हजार संगठनों के सहयोग से बाल मजदूरी विरोधी विश्व यात्रा आयोजित हुई। इसमें लाखों लोगों ने शिरकत की। इसके प्रभाव के बारे में सत्यार्थी कहते हैं – आंदोलन का लाभ यह हुआ कि सार्क के सदस्य देशों ने जल्द ही बाल मजदूरी पर एक कार्यदल बनाने की घोषणा की है। दरअसल उन पर गर्व करने से भी ज्यादा जरूरी है कि उनके जैसी हिम्मत और जीवट के साथ ऐसे महान कार्यों को आगे बढ़ाया जाए। हम सोचें कि हम नहीं तो फिर कौन और अभी नहीं तो फिर कब?
लेकिन यह इतना आसान भी नहीं रहा। सत्यार्थी को अपमान झेलने पड़े, उन पर हमले हुए और राष्ट्रहित के विरोध में काम करने का आरोप लगा। उनके संगठन ने अब तक 80 हजार बच्चों को आजाद कराया है। बाल मजदूरी की पूर्ण समाप्ति के लिए बचपन बचाओ आंदोलन ने बाल मित्र ग्राम की परिकल्पना की है। इसके तहत किसी ऐसे गाँव का चयन किया जाता है जहाँ बाल मजदूरी का चलन हो। गाँव से धीरे-धीरे बाल मजदूरी समाप्त की जाती है और बच्चों का स्कूल में नाम लिखवाया जाता है। लेकिन भारत के बच्चों के जीवन में उजाला लाने का सपना पूरा होने के करीब भी नहीं पहुँच रहा।
आज भी बच्चे काम पर जाते हैं। फुटपाथ पर सो जाते हैं। देश में हर आठ मिनट में एक बच्चा गुम होता है और उनमें से आधे फिर कभी नहीं मिलते। वे तरह-तरह के शोषण के शिकार होते हैं। घरों-दुकानों में, होटलों मे काम करते हैं, सड़कों पर भीख माँगते हैं। जरा सोचिए तो सही, यह सिर्फ कैलाश सत्यार्थी की नहीं, सरकार और समाज की भी जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चों के दुख से नजर न फेरें और उनकी बेरंग जिंदगी में थोड़ी रोशनी लाने की कोशिश करें। उन्हें पानी या दूध की थाल में चाँद का प्रतिबिंब दिखाने से बेहतर है कि हम उन्हें नन्हें हाथों से आसमान के चाँद को छूने के काबिल बनाएँ। बच्चों का आज बचेगा तभी तो देश का कल रहेगा।
(लेखक राजनांदगांव के शासकीय कॉलेज में प्रोफेसर हैं और सामाजिक व राष्ट्रीय विषयों पर नियमित रूप से लिखते हैं)
संपर्क- मो.9301054300
Very inspiring
हमें आप पर गर्व है. चाचा जी
Very very inspiring story.My hubby Om Prakash.being friend of kailashji had talked me all this about 35 yrs back.Best wishes..