महीनों, सालों बाद यह कॉलम लिख रहा हूं और यदि वजह पीवीआरके प्रसाद के निधन, उनकी स्मृति शेष है तो आप सोच सकते हैं कि मेरे लिए पीवीआरके प्रसाद क्या अर्थ लिए हुए होंगे! पीवीआरके प्रसाद आईएएस अफसर थे। बावजूद इसके उनका काजल की कोठरी में रहते हुए भी सत्यनिष्ठा, धर्मनिष्ठा, कर्तव्यनिष्ठा के प्रति जो आग्रह था वह मुझे लगातार यह सोचने को मजबूर किए रहा कि भला कैसे है यह संभव? सोचें प्रधानमंत्री के दफ्तर में बैठा व्यक्ति और 24 घंटे में 18 घंटे काम के बावजूद यह भी प्रण हो कि वे दिन में राम, राम लिख कर राम जाप इतना करेंगे! मानो अफसरी के बीच तपस्या और साधनालीन हैं। अफसरी करते हुए, प्रधानमंत्री दफ्तर में बैठ कर देश के मीडिया को संभालने जैसे दायित्व व नरसिंह राव के सर्वाधिक विश्वस्त अफसर की जिम्मेवारी के बीच भी उनकी धर्म साधना की जिद्द देख मैं बार बार यह सोच हैरान होता था कि यह व्यक्ति इस जीवन में पुण्य का कितना लक्ष्य लिए हुए है!
हां, पीवीआरके प्रसाद मेरे उन बिरले परिचित अफसरों में रहे हैं, जिनके वक्त में पंजाब के हालातों, राम मंदिर आंदोलन की खबरों, भुवनेश चतुर्वेदी-चंद्रास्वामी-एनके शर्मा आदि की गपशप में अपनी पत्रकारिता बहुत सक्रिय हुआ करती थी। यों भी पीवी नरसिंह राव का वक्त था। देश की राजनीति, आर्थिकी के बदलने का मुकाम था। पीएमओ में अपने भुवनेश चतुर्वेदी थे तो जितेंद्र प्रसाद, नवल किशोर शर्मा, देवेंद्र द्विवेदी, अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी, माखनलाल फोतेदार, विद्याचरण शुक्ल, सीताराम केसरी जैसी वे तमाम शख्सियतें थीं, जिनसे राजनीति का मजा था तो गपशप भरपूर थी। मेरी भुवनेश चतुर्वेदी, देवेंद्र द्विवेदी और पीवीआरके प्रसाद तीनों से बहुत अंतरंगता थी। अब तीनों इस दुनिया में नहीं रहे हैं। ये तीनों अपनी फितरत में ऐसे जिद्दी थे कि दिल्ली की उस वक्त की सत्ता में इन्हें देख हैरानी लगातार बनी रहती थी तो इनसे बात कर, गपशप कर आनंद भी मिलता था।
और जान लें न मुझे तब समझ आया और न आज तक यह समझ पाया है कि पीवीआरके प्रसाद या भुवनेश चतुर्वेदी कैसे सत्ता के सर्वोच्च केंद्र तक पहुंचे? एक ऐसी बात नहीं जो काजल की कोठरी में जगह मिले। फिर भी भाग्य! दोनों अकल्पनीय तौर पर खांटी ईमानदार! इस बात का प्रमाण यह भी है कि 1996 में जब नरसिंह राव की सत्ता चली गई तो पीवीआरके प्रसाद और भुवनेश चतुर्वेदी सहज भाव रिटायर हुए। प्रधानमंत्री दफ्तर के सर्वाधिक ताकतवर भुवनेश चतुर्वेदी ने कोटा के एक कमरे में, बिना किसी तामझाम, कार तक न होने वाली सादगी, (उन्होंने शादी नहीं की थी सो, न परिवार और न सखा-सखी) गुमनामी में रहते हुए अंतिम सांसें ली तो पीवीआरके प्रसाद ने हैदराबाद में।
मगर पीवीआरके प्रसाद आखिरी वक्त तक सक्रिय रहे। उन्होंने धर्म संगठन, संस्थाओं को बनाया, चलवाया। उन्हें तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के सभी नेता, मुख्यमंत्री सम्मान देते रहे। उनकी सलाह-सेवाएं लेते रहे और पत्नी-बेटे-बेटी के भरपूरे परिवार में 77 साल का प्रसाद का जीवन आखिर 15-20 सालों में भी उतना ही कर्मयोगी वाला रहा, जैसा आईएएस की नौकरी के वक्त था।
पीवी नरसिंह राव उन्हे आंध प्रदेश के दिनों से जानते थे। शायद उनके मंत्री, मुख्यमंत्री रहते वक्त भी पीवीआरके प्रसाद का अनुभव था। पीवीआरके प्रसाद का छाप छोड़ने वाला काम तिरूपति मंदिर के कायाकल्प का था। वे 1978 से 1982 के बीच तिरूमाला तिरूपति देवस्थानम के प्रंबंध इंचार्ज याकि ईओ थे। उस दौरान उन्होंने तिरूपति मंदिर का जो कायाकल्प किया, व्यवस्थाओं को जैसे आधुनिक बनाया वह उनका बेजोड़ योगदान था। उन्होंने मंदिर प्रशासक व्यवस्थाएं ऐसी सुधारी कि ढर्रा बदला और दर्शन आज भी दिव्य बने हुए हैं।
दिल्ली में पीवीआरके प्रसाद प्रधानमंत्री नरसिंह राव की व्यवस्थाओं में निजी जीवन की चिंताओं का ख्याल करते थे तो मीडिया के जरिए आंख-नाक-कान भी थे। उन्होंने राम मंदिर के विवाद को सुलटाने के लिए पर्दे के पीछे किशोर कुणाल से ले कर साधु-संतों-मौलवियों के साथ तमाम वे कोशिशें कीं, जिसकी दास्तां अपने आपमें बहुत बड़ी है। तिरूपति मंदिर के प्रंबधन, विशाखापट्टनम पोर्ट ट्रस्ट प्रमुख से लेकर प्रधानमंत्री दफ्तर में अतिरिक्त सचिव के तमाम अहम पदों और काजल की कोठरी के बावजूद उनका झकास सफेद, ईमानदार रहना (यह बात भुवनेश चतुर्वेदी पर भी लागू थी। जबकि नररसिंह राव के दरबार में मतंग सिंह, चंद्रास्वामी, उनके बेटों का भी तब मतलब हुआ करता था) बहुत आश्चर्यजनक था।
मैंने नरसिंह राव के वक्त ही जनसत्ता छोड़ा था। तब एक प्राइवेट चैनल एटीएन हुआ करता था। उसके लिए और दूरदर्शन के लिए कारोबारनामा आदि प्रोग्रामों से टीवी मीडिया में मैने जो काम शुरू किया तो उससे बतौर मीडिया प्रभारी भी पीवीआरके प्रसाद से मेरा संपर्क घना हुआ। उस वक्त भी बार-बार विचार आता था कि दिल्ली की सत्ता के तिलिस्म में एय्यारों के बीच में ये धर्मनिष्ठ भला कैसे?
दिल्ली छोड़ने के बाद पीवीआरके प्रसाद से मेरा संपर्क नहीं रहा। हां, फोन पर जरूर बात हुई। उन्होंने अपनी किताब पर मुझसे लिखने के लिए आग्रह किया। लेकिन मैं लिख नहीं पाया। नवंबर में जब हैदराबाद गया तो उन्हें फोन किया पर वे विशाखापट्टनम गए हुए थे। उनसे मिलने की बड़ी इच्छा थी। मुझे वे अपनेपन के साथ ‘हरि’ के संबोधन से बुलाया करते थे और उनकी आवाज में जोश होता था कि आओ बात करते हैं। और बताऊं, ऐसा भुवनेश चतुर्वेदी और देवेंद्र द्विवेदी की आवाज में भी हमेशा आग्रह रहा। मेरा ही दुर्भाग्य, मेरी ही असामाजिकता है जो रिश्तों का जीवंतता से निर्वहन नहीं कर पाया। मैं तब भी खपा रहता था और अब भी खपा रहता हूं।
बहरहाल, पीवीआरके प्रसाद के आईसीयू में रहने, मृत्यु की सूचना ब्राह्मण समाज के एमआर शर्मा और शुभब्रत भटटाचार्य ने दी तो कुछ बोल नहीं पाया। खेद हुआ कि मिल नहीं पाए। भुवनेश चतुर्वेदी, देवेंद्र द्विवेदी और पीवीआरके प्रसाद की त्रिमूर्ति की संगत में गुजारे वक्त की याद मन को बोझिल कर गई। न शब्द फिरै चंहुधार लिखने से अपने को रोक पाया और न यह कहने से अपने को रोक पा रहा हूं कि कुछ ही लोग होते हैं, जिनसे दुनिया का सत्व –तत्व बना रहता है। पीवीआरके प्रसाद अच्छाईयों और अच्छाईयों से अर्जित पुण्यता के जिंदा रूप थे। उनका चेहरा, उनका अंदाज बता देता था कि वे क्या भलापन लिए हुए हैं!
सो, मन से, दिल से धर्मनिष्ठा में 77 साल जीने वाले पीवीआरके प्रसाद को श्रद्धांजलि!
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