Thursday, November 28, 2024
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वेद किस पर प्रकट हुए?

प्यारे पाठक! इस संसार में यह नियम है कि प्रत्येक मनुष्य जिस प्रकार के विचार रखता है, प्रत्येक वस्तु के तत्त्व को उसी प्रकार का बताना अपना धर्म समझता है। बहुत थोड़े मनुष्य हैं कि जिनको सत्य के अन्वेषण की जिज्ञासा हो और झूठ से घृणा हो, परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य इस संसार में एक बटोही (पथिक) के समान है और बटोही के वास्ते उचित ह कि वह प्रत्येक पग पर अपने पाँव की ज़मीन छोड़े। यदि वह उसी जगह पर खड़ा रहे तो कभी अभीष्ट स्थान का मुँह नहीं देख सकता, इसलिए जो मनुष्य बिना अनुसन्धान तर्क करने के आग्रही हो गये हैं उन्हें सत्य-असत्य का कुछ विवेक नहीं रहता और वे अपने संस्कारजन्य अविद्या के कारण सदा सत्य से विमुख रहा करते हैं।

प्यारे पाठकगण ! आज मुझे मुंशी इन्द्रमणिजी की बनाई हुई पुस्तक “वेदद्वारप्रकाश” एक सज्जन पुरुष के द्वारा मिली, जिसे देखकर मैं चकित हो गया कि संसार में ऐसे मनुष्य भी उपस्थित हैं जो स्वयं ग़लती करके दूसरों को भी ग़लत मार्ग पर घसीटते हैं और अपनी ग़लती को सत्य और दूसरों की सत्य बात को ग़लत सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। चूँकि ऐसे पुरुषों के लेखों से सर्वसाधारण के भ्रम में पड़ने का सन्देह है, इसलिए इसका उत्तर लिखना मुझे आवश्यक विदित हुआ।

मुंशी साहब ने पहले पृष्ठ में लिखा है “इसके उपरान्त सत्य के जिज्ञासु और असत्य का खण्डन करनेवाले पुरुषों को ज्ञात हो कि अनादि काल से ऋषि, मुनि, पण्डित और आचार्य एकमत होकर यह निश्चय करते आये हैं कि वेद हमको ब्रह्माजी के द्वारा मिला।”

शोक! मुंशी साहब ने आचार्यों का नाम तो लिखा, परन्तु प्रमाण कोई भी नहीं दिया। प्यारे मित्रो ! आज तक चारों वेदों का भाष्य सिवाय सायणाचार्य के और किसी ने नहीं किया। शोक कि मुंशीजी ने उसके भाष्य और भूमिका का दर्शन तक नहीं किया और यों ही लिख दिया कि सब आचार्य इस पर सहमत हैं। देखिए सायणाचार्यकृत ऋग्वेदभाष्य, उपक्रमणिका पृ० ४ पं० ७ छापा कलकत्ता –
“जीवविशेषैरग्निवाय्वादित्यैर्वेदानामुत्पादितत्वात्”॥
जीव-विशेष अग्नि, वायु, आदित्य के वेदों का प्रकाशक होने से।
महाशय ! सायणाचार्य स्वयं ही नहीं लिखते वरन् ऐतरेयब्राह्मण का एक प्रमाण भी उद्धृत करते हैं।
ऋग्वेद एवाग्नेरजायत यजुर्वेदो वायोः सामवेद आदित्यादैतरेयब्राह्मणपञ्चकम् ॥३२॥

क्यों महाशय ! क्या सायणाचार्य ब्रह्मा पर वेद उतरना मानते हैं या अग्नि, वायु, आदित्य आदि ऋषियों पर? मुंशीजी ने पुस्तकों का विचार किया नहीं, बिना पढ़े-लिखे लिख मारा कि “सारे आचार्य इसपर एकमत हैं”। मुंशीजी ने एक भी आचार्य का नाम, जिसने वेदों पर भाष्य किया हो, अपने प्रमाण में नहीं लिखा। मुंशीजी ने जो ‘जनी प्रादुर्भावे’ इस धातु को लेकर यह बात लिखी कि अग्नि, वायु, आदित्य ने इनके कर्मकाण्ड का प्रचार किया होगा, यह भी पुस्तकों के न देखने का फल है। यदि आपने आचार्यों की सम्मति को शास्त्रों में पढ़ा होता तो आपको यह झूठा भ्रम नहीं होता। देखो, सायणाचार्य लिखते हैं –
ईश्वरस्याग्न्यादिप्रेरकत्वेन निर्मातृत्वं द्रष्टव्यम्॥ -ऋ० भा० उपक्र० पृ० ४
मुंशीजी ! यहाँ पर आचार्य तो अग्नि आदि का प्रेरक होने से ईश्वर को वेद का निर्माता ठहराता है और आप उसके विरुद्ध अपनी कपोलकल्पना से ब्रह्मा से अग्नि, वायु, आदित्य का पढ़ना बतलाते हैं।
प्यारे पाठकगण ! आप न्याय करें कि आचार्य की सम्मति के विरुद्ध स्वामीजी हैं या मुंशीजी? जब चारों वेदों के भाष्यकर्ता मुंशीजी की सम्मति को झूठी बतला रहे हैं तो समझ लीजिए कि मुंशीजी का कथन कि ‘सब आचार्य इसपर सम्मत हैं’ ठीक नहीं।।

मुंशीजी ने गायत्री-उपनिषद् को भी नहीं देखा, नहीं तो ज्ञात हो जाता कि ब्रह्मा वेदों से। पैदा होता है, अर्थात् वेद के पढ़ने से ब्रह्मा बनता है।
वेदात् ब्रह्मा भवति ॥ -गायत्र्युपनिषद् ।
जिसका अर्थ यह है कि वेदों से ब्रह्मा होता है, न कि ब्रह्मा से वेद।
जब अग्नि आदि से वेदों की उत्पत्ति मानी जाती है और वेदों से ब्रह्मा की, तो इस दशा में आपका लिखना किसी तरह मानने योग्य नहीं है।
पृष्ठ ५ पर मुंशीजी ने स्वामीजी का लिखा हुआ शतपथ का एक वाक्य प्रस्तुत किया है-
“अग्नेर्दै ऋग्वेदोऽजायत वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात् सामवेदः”।
मुंशीजी की शङ्का यह है कि ‘‘वै” शब्द श्रुति में नहीं ‘‘सूर्यात्” की जगह आदित्यात् है।

प्यारे मित्रो ! वै’ और ‘एव’ पर्यायवाची शब्द हैं और ऐतरेयब्राह्मण की श्रुति में ‘एव’ शब्द विद्यमान है जिसके अर्थ निश्चय के हैं, फिर आपका कहना किस प्रकार ठीक माना जा सकता है, क्योंकि सिद्धान्त में तो कुछ भी भेद न आया। रहा सूर्य और आदित्य, ये भी पर्यायवाची शब्द हैं। इससे भी आपका कोई कार्य सिद्ध न हुआ। और जो आप कहते हैं ‘अजायत” शब्द बढ़ाया है, वह भी इस श्रुति में विद्यमान है।
पृष्ठ १० पर मुंशीजी कहते हैं कि स्वामीजी ने जो अग्नि आदि को महर्षि लिखा है यह ठीक नहीं, क्योंकि वेदों में इनको देवता कहा गया है, जिसके प्रमाण में आप यह मन्त्र उद्धृत करते हैं
अग्निर्देवता वातो देवता सूर्यो देवता चन्द्रमा देवता इत्यादि।

मुंशीजी के इस लेख ने तो विदित कर दिया कि सचमुच मुंशीजी की राय को हठ ने अपना घर बना लिया था, क्योंकि उन्होंने, वेदों में जो प्रमाण जड़ वसु देवताओं के लिए था, उसे बिना प्रसंग के उपस्थित कर दिया। सायणाचार्य तो अपने भाष्य में अग्नि, वायु, और आदित्य को जीवविशेष बतला रहे हैं, परन्तु मुंशीजी उसके आशय को न समझकर चन्द्रमा और सूर्य को जो जड़ पदार्थ हैं, उन्हें जीव-विशेष बता रहे हैं।
पृष्ठ २५ पर मुंशीजी ने यही मन्त्र उद्धृत करके स्पष्ट लिखा है कि ब्रह्माजी ने अग्नि, वाय, सूर्य आदि को उत्पन्न किया। क्या ही अच्छा होता कि मुंशीजी इस लेख को लिखने से पहले इस श्रुति के अर्थों को गुरु से पढ़ लेते
तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः, आकाशाद् वायुर्वायोरग्निरग्नेरापः,
अभ्यः पृथिवी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधिभ्योऽन्नमन्नाद्रेतः रेतसः पुरुषः ॥

प्यारे मित्रो ! चूँकि ब्रह्मा पुरुष है इसलिए वह अग्नि आदि वसु देवताओं से पीछे उत्पन्न हुआ। मुंशीजी को इतना भी विचार न आया कि श्रुति के अनुकूल जल, अग्नि के पश्चात् पैदा हुआ और आपके ब्रह्माजी पुराणों के अनुसार कमल से पैदा हुए तब उन्हें चारों ओर जल ही जल दृष्टि में आया। भला सोचिए, ब्रह्मा से पहले जल और जल से पहले अग्नि था या नहीं? महाशय मुंशीजी साहब ! शतपथ में अग्नि, वायु, आदित्य से वेदोत्पत्ति सिद्ध है और इसे मनु ने भी माना है –
अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्। दुहोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुः सामलक्षणम् ॥
ऐतरेयब्राह्मण भी अग्नि, वायु से वेदों का प्रादुर्भाव मानता है और गोपथब्राह्मण में भी ऐसा ही लिखा है
अग्नेऋग्वेदं वायोर्यजुर्वेदमादित्यात् सामवेदम्।
अग्नि से ऋग्वेद पैदा हुआ, वायु से यजुर्वेद और आदित्य से सामवेद पैदा हुआ। इस प्रमाण से स्पष्ट शब्दों में सिद्ध हो जाता है कि अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा ऋषियों पर वेद उतरे।
गोपथब्राह्मण में जो क्रम ब्रह्म=परमात्मा से लेकर अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा तक प्रतिपादन किया गया है उसमें कहीं ब्रह्मा का नाम तक नहीं। अङ्गिरा को तो स्पष्ट शब्दों में ऋषि लिखा है, जबकि अथर्व का प्रकाश अङ्गिरा नामक ऋषि द्वारा है, तो फिर किस प्रकार कहा जा सकता है कि अग्नि आदि ऋषि नहीं हैं? वेदों का प्रकाश सिवाय चेतन के अन्य द्वारा हो ही नहीं सकता। भौतिक अग्नि, वायु, आदित्य तो अचेतन हैं। हाँ, अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा के लिए देवता शब्द भी आ सकता है, क्योंकि देवता विद्वान् का नाम है और भौतिक अग्नि, वायु और सूर्य को भी दिव्य गुणवाला होने से देवता कह सकते हैं। गायत्र्युपनिषद् से भी यही पाया जाता है कि वेद से ब्रह्मा बनता है, अर्थात् वेदाध्ययन से ब्रह्मा कहलाता है। इस अवस्था में इन सम्पूर्ण पुस्तकों के प्रमाणों के विरुद्ध उस उपनिषद्-वाक्य की तुलना ही क्या है? उस श्रुति का अर्थ यह हो सकता है
यो वै ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै॥

जिसने ब्रह्मा को पूर्वकाल में पैदा किया, अर्थात् चारों वेद अग्नि आदि के द्वारा उसे पढ़ाकर ब्रह्मा बनाया, अन्यथा वेदों के बिना तो वह ब्रह्मा हो नहीं सकता। और ‘पूर्व’ शब्द सापेक्ष्य है। चूँकि श्वेताश्वतरोपनिषद् के बनानेवाले से ब्रह्मा पहले पैदा हुए, इसी लिए इसके ये अर्थ नहीं कि वह सबसे पहले पैदा हुए।
ब्रह्मा देवानां प्रथमो बभूव ॥
इसके लिए कोई मन्त्र प्रमाण नहीं-‘ब्रह्मा देवतों में पहले पैदा हुआ’ इसका अर्थ प्रथम होने के हैं। जैसे किसी की योग्यता को देखकर कहा जाता है ये सबसे प्रथम है, इसका अर्थ यह होता है कि यह सबसे योग्य है। ब्रह्मा सम्पूर्ण विद्वानों से अधिक विद्वान् है, इस वास्ते कहा गया कि ब्रह्मा देवतों में अव्वल नम्बर पर है या संसार में जितने विद्वान् होंगे ब्रह्मा उन सबका शिखामणि होगा, क्योंकि ब्रह्मा चारों वेदों का ज्ञाता होता है, अन्य विद्वान् उससे कम होंगे, इसलिए यहाँ प्रथम शब्द प्रथम मनुष्य का वाचक नहीं, किन्तु योग्यता का बतलानेवाला है।

और आपने मनु का जो उलटा अर्थ किया है यह आपका हठ है। धातु के अनेकार्थ होने से क्या कोई विरुद्ध अर्थ भी निकाल सकता है? क्या कहीं दुह् धातु दानार्थ आज तक किसी ने प्रयोग की है? यदि की है तो इसका उदाहरण दीजिए, अन्यथा इस झूठे दावे से बाज़ आइए। यद्यपि व्याकरण में धातु के अनेक अर्थ होते हैं, परन्तु वे परस्पर विरुद्ध नहीं हो सकते, परन्तु देना और लेना परस्पर विरुद्ध अर्थ हैं। कौन आदमी है जिसको कहा तो जावे कि गाय से दूध दुहा गया और अर्थ ये किये जानें कि गाय को दूध दिया गया? मुंशीजी ! यहाँ कुल्लूकभट्ट और स्वामीजी का अर्थ ठीक है। यहाँ पञ्चमी विभक्ति है। आपने जो शास्त्रज्ञानशून्य होकर लिख मारा, यह आपकी भूल है। आपने जो पाराशरसूत्र आदि के प्रमाण दिये हैं वे एक-दूसरे के विरुद्ध होने से प्रमाण नहीं और असम्भव भी हैं, क्योंकि कहीं आप सूर्य को [पृष्ठ २६ पर] ब्रह्माजी का बेटा ठहराते हैं और कहीं [पृष्ठ २७ पर] ब्रह्माजी के बेटे का दौहित्र बतलाते हैं।

मुंशी साहब ने जो यह लिखा है कि अग्नि आदि की उत्पत्ति से पहले ब्रह्माजी के पास वेद थे, तो इसके लिए प्रमाण देना चाहिए, नहीं तो आपका कहना कोई प्रमाण नहीं; और जो सांख्य का सूत्र आपने उपस्थित किया है, वह ब्रह्मा को सृष्टि के आदि में होनेवाला नहीं बतलाता, किन्तु उसका तात्पर्य ब्रह्माजी के ज्ञानवान् होने से है। सूत्र यह है-
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं तत्कृते सृष्टिराविवेकात्।
इसका अर्थ यह है-उच्चकोटि के ज्ञानी, चारों वेदों के वक्ता ब्रह्मा से लेकर स्थावर तक जितनी सृष्टि है, वह सब पुरुष के लिए है।
रही यह बात कि ब्रह्मा ने ब्रह्मविद्या अथर्वा आदि की पढ़ाई है, उसका प्रयोजन यह है कि ब्रह्मविद्या से अभिप्राय उपनिषदों से है, वेदों से नहीं, क्योंकि इन ब्रह्मादि ने ब्राह्मणग्रन्थ बनाये और उपनिषद् भी ब्राह्मणग्रन्थों से निकले, जैसे बृहदारण्यक उपनिषद् शतपथब्राह्मण का एक काण्ड है, इसलिए ये ग्रन्थ ब्रह्माजी ने ऋषियों को पढ़ाये। मुंशीजी ने जो प्रस्ताव किया है वह ऐतरेयब्राह्मण के नितान्त विरुद्ध है और सायणाचार्य की सम्मति के भी विपरीत है तथा गायत्र्युपनिषद् शतपथ के विरुद्ध होने से निश्चय ही अप्रामाणिक है।

और मुंशीजी जो संज्ञा या नाम आदि का कारण ब्रह्मा को मानकर यह लिखते हैं कि अग्नि, वायु, आदित्य आदि नाम ब्रह्माजी ने रक्खे। ये तो स्पष्ट सिद्ध है कि संज्ञा-कर्म ब्राह्मणग्रन्थों में है, जैसाकि महर्षि कणाद वैशेषिकशास्त्र में लिखते हैं
ब्राह्मणे संज्ञाकर्म सिद्धिलिङ्गम् ॥ -वै० ६।१।२
अर्थात् संज्ञा आदि का प्रचार ब्राह्मणग्रन्थों में है।
यदि मुंशीजी यह कहें कि ब्रहा से पहले अग्नि, वायु, आदित्य नाम किसने रक्खे हैं तो मैं कहता हूँ ‘ब्रह्मा’ नाम किस तरह रक्खा गया? यह शङ्का दोनों पक्ष में समान है।
शोक! मुंशीजी को लिखते समय दुराग्रह के कारण आगा-पीछा स्मरण न रहा। एक स्थल पर स्वयं अग्नि को तपस्वी लिखा और दूसरे स्थल पर उनके ऋषि होने पर शङ्का की और कहा कि वेदों में देवता माने गये हैं, ऋषि नहीं !
प्यारे पाठकगण ! इसी प्रकार जब तक मनुष्य किसी वस्तु के तत्त्व को न जाने तब तक उसे यथार्थता से उसका ज्ञान नहीं होता, और जब तक ठीक ज्ञान न हो तब तक उसपर आरूढ़ नहीं हो सकता, और जब तक आरूढ़ न हो तब तक आत्मा को शान्ति नहीं होती, जब तक आत्मा को शान्ति न हो तब तक मनुष्य हठ और दुराग्रह से बच नहीं सकता और उसको पुराने संस्कारों के अनुकूल सदैव अविद्या से कष्ट होता है। दूसरे, अविद्या से जो स्वार्थ उत्पन्न हो जाता है, उसकी चिकित्सा भी विद्या है। मैंने जहाँ तक पुस्तकों को देखा तो उनमें अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा पर ही वेदों का उतरना बताया गया है और यह ठीक भी है कि जो ऋषि सृष्टि के आदि में पैदा होते हैं, मुक्ति से लौटने के कारण उनमें शुद्ध संस्कार और समझने की शक्ति होती है। और उन्हीं के आत्मा में परमात्मा वेदों का उपदेश करते हैं और ब्रह्मा तो चारों वेदों के जाननेवाले का नाम है। यह प्रत्येक यज्ञ में अपनी योग्तानुसार बनाया जाता है, इसलिए ब्रह्मा के सदैव बनने से और अग्नि आदि के सृष्टि के आदि में पैदा होने से ज्ञात होता है कि वेदों का प्रकाश इन्हीं महात्माओं पर हुआ। इसलिए वेदों के प्रत्येक भाष्यकार ने वेदों का अग्नि, वायु, आदित्य, अङ्गिरा ऋषियों पर उतरना माना है, ब्रह्मा पर नहीं।

प्यारे पाठकगण ! जब तक प्रामाणिक ग्रन्थों से इस बात का [वेद ब्रह्मा पर प्रकट हुए] प्रमाण न मिल जाए तो किस प्रकार कोई बुद्धिमान् पुरुष उसे मान सकता है। वेदानुकूल प्रामाणिक ग्रन्थों में तो ब्रह्मा पर वेदों के उतरने की कहीं गन्ध भी नहीं। इसलिए स्वीकार करना पड़ता है कि वेद अग्नि, वायु, आदित्य, और अङ्गिरा पर उतरे। जब तक विपक्षी लोग कोई पुष्ट प्रमाण इसके खण्डन में न दें, तब तक निस्सन्देह प्रत्येक मनुष्य को यही मानना पड़ता है।
प्यारे पाठकगण ! आप उद्योग करें कि संसार में वेदों का प्रचार अधिक-से-अधिक हो जिससे वेद के वे सिद्धान्त जो आजकल साधारण लोगों पर विदित न होने से उपयोगी होने पर भी संसार को लाभ नहीं पहुँचा सके, उनसे संसार को लाभ पहुँचे और लोग वेदों के अभ्यास से अपनी बुद्धि को सुधारकर अपने आत्मा की शान्ति प्राप्त करके संसार में स्वार्थ आदि व्याधियों से बचकर परोपकार करते हुए अन्त को मुक्ति-सुख को प्राप्त करें।

॥ओ३म् शान्तिः॥
[विशेष टिप्पणी:-मुंशी इन्द्रमणि जी अपनी भूल के कारण आर्यसमाज से निकाले गये तो आपने ‘वेदद्वार प्रकाश’ नाम की एक पुस्तिका उर्दू-हिन्दी में प्रकाशित की। यह पुस्तिका बहुत भ्रामक थी। स्वामी दर्शनानन्द जी ने युक्ति, तर्क व प्रमाण से अत्यन्त रोचक शैली के इस ट्रैक्ट में उसका उत्तर दिया। यह उत्तर क्या है, बस गागर में सागर है। इसका विशेष प्रचार होना चाहिए।- ‘जिज्ञासु’]

लेखक- स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
पुस्तक – दर्शनानन्द ग्रन्थ संग्रह
*प्रस्तुति – ‘अवत्सार’*
वैचारिक क्रांति के लिए “सत्यार्थ प्रकाश” पढ़े
वेदों की ओर लौटें
प्रस्तुति – ‘अवत्सार’

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