Monday, November 25, 2024
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आयुर्वेद ही बचा सकता है कोरोना की काली छाया से

पिछले डेढ-दो साल से कोरोना वायरस का संकट हमें हलाकान किए है। एलोपैथी, होम्योपैथी से लेकर आयुर्वेद तक में इसके तरह-तरह के इलाज पता चले हैं। प्रस्तुत है, आयुर्वेद की दृष्टि से कोरोना वायरस को समझने की एक पद्धति परयह लेख।

कोविड़-19 वायरस मानव शरीर की कोशिकाओं में घुसकर, उन्हें हाईजैक करके, उनसे अपना काम करवाता है। फिर फेफडों के संवेदनशील क्षेत्र में घुसता है। वहाँ की हमारी कोशिका संगठित होकर जब इसका विरोध करती हैं, तभी फेफडों में सूजन शुरू हो जाती है। इसके कारण फेफडों का सबसे खास क्षेत्र, जहाँ कॉर्बन डाई-ऑक्साईड को ऑक्सीजन में बदलने वाली परत है, उसी में सूजन आ जाती है। उसे ठीक होने में 12 से 24 घंटे लग जाते हैं। इस संवेदनशील स्थान और काल में विद्वान् चिकित्सक बैन्टिलेटर द्वारा रोगी के प्राण बचा सकता है, अन्यथा अधिकतर रोगी इसी संकटकाल में अपने प्राण छोड़ देते हैं। वर्ष 2021 में यह अधिक म्यूटिड होकर युवा-बच्चे-प्रौढ़ सभी की जान ले रहा है।

प्राकृतिक-श्रमनिष्ठ बहादुर किसान लोगों की कोशिकाएँ जब इस वायरस के विरूद्ध फेफडे में पहुँचने से पहले हमला कर देती हैं, तब उनकी झिल्ली में सूजन नहीं आती। फेफडों की झिल्ली में आयी सूजन दूधारी तलवार जैसी है। यह सूजन ही विरोधियों से लड़कर जीतने या हारने वाले काल की घटना बनाती है। रोग-प्रतिरोधक क्षमता से सूजन नहीं आती है। आयुर्वेदिक चिकित्सा समय पर शुरू करने से ही स्वास्थ्य सुरक्षा शुभ होती है। स्वास्थ्य अच्छा-निश्चित बन जाता है, लेकिन जब कोरोना का फेंफडों में पहुँचने के बाद उत्पात होता है; उसी काल में आधुनिक यंत्रों की आवश्यकता बन जाती है।

कभी-कभी फेफडों की संवेदनशील झिल्ली में सूजन बहुत अधिक हो जाती है। यह सूजन जब कभी नियंत्रण से बाहर हो जाती है, तो ऐसे में वैन्टिलेटर भी प्राण-रक्षक नहीं बन पाता। जिनकी रोगरोधक क्षमता व रोग प्रतिरक्षण अच्छा है; वे ही इस वायरस से बच रहे थे। अब म्यूटिड होने पर उन्हें बचाना भी कठिन हो गया है। अधिकतर ऐसा ही देखने में आया है। ऑक्सीजन और वैन्टिलेटर भी नहीं बचा पाया है। म्यूटिड़ कोरोना कोशिका बच्चों और युवाओं की रोगरोधक क्षमताओं को पछाड़कर प्राण लेने हेतु आगे बढ़ जाती है।

कोविशील्ड वैक्सीन 100 प्रतिशत रोग नियंत्रण और स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करने वाली नहीं है। अभी तक स्वयं कम्पनियों द्वारा भी 60 प्रतिशत से 80 प्रतिशत प्रभावी वैक्सीन का दावा ही किया जा रहा है। यह दावा भी वैक्सीन बनाने वाली कम्पनियाँ कर रही हैं। कम्पनियाँ लाभ कमाने के लिए, कुछ भी बोलती हैं। हमने दुनिया भर में कम्पनियों का झूठ देखा है। धोखा देने वाले वायरस का इलाज भी धोखा देने वाली कम्पनियों का दावा ही है। इसे झेल रहे हैं, सीधे-सीधे गरीब-लाचार-बेकार बीमार लोग और लूटने वाले व प्रदूषण-शोषण करने वाले अमीर लोग भी इससे मर रहे हैं।

ऐलोपैथी औद्योगिकरण में पनपी चिकित्सा पद्धति है। इसीलिए एकांगी है और जो केवल एक समय में एक बीमारी की ही चिकित्सा करती है। आयुर्वेद उस काल में बना, जब वस्तु और ऊर्जा के परस्पर संबंध से अणु बना। अणु-परमाणु के सह-संबंधों को समझना ही रसायन शास्त्र है। आयुर्वेद का रसायन उतना ही पुराना है; जितना पुराना वायरस का इतिहास है, क्योंकि उसी काल में जीवन-मरण की औषधि निर्माण शुरू हुई थी, तभी इसे आयुर्वेद कहा गया। साढ़े चार अरब साल पहले तक यह पृथ्वी आग का गोला थी। तब इस पर कोई वायरस नहीं था। जब दो अणु हाईड्रोजन और एक अणु ऑक्सीजन का मिला, तो पृथ्वी पर जल आ गया था।
3.8 अरब साल पहले कुछ अणु पृथ्वी पर जुड़ गये, तो जीवन बन गया। 3.4 अरब साल पहले समुद्र में भी जीवन बन गया। इससे पहले पृथ्वी पर वायरस की बहुत भरमार थी, बहुत ही विविध वायरस थे। ये निर्जीव वायरस सजीव बनाने वाले पृथ्वी, आकाश आदि में अरबों वर्ष तक बने रहे। ये मानवीय तथा पृथ्वी के अन्य सभी जंतुओं के जीवन में सहयोग ही करते रहे हैं।
गंगा जी का वॉयोफाज निर्जीव वायरस है। गंगाजल को अमृत बनाकर मानवीय स्वास्थ्य रक्षण में वह सहयोगी बना रहा है।

ये बॉयोफाज जो गंगाजल निर्मित वायरस है, मानव के 17 तरह के रोगाणुओं को नष्ट करने में सहयोग करता है। सभी वायरस अलग-अलग प्रकार की भूमिका में होते हैं। कुछ ही वायरस मानव स्वास्थ्य विरोधी है। जैसे-सार्स-1, सार्स-2 आदि। सभी वायरस स्वास्थ्य विरोधी नहीं है। सार्स-2 कोरोना कोविड़-19 के नाम से धोखा देकर मानवीय कोशिकाओं पर हमला करता है। वैक्सीन से अब यह म्यूटिड़ होकर ज्यादा आक्रामक बन रहा है। दूसरे वर्ष का हमला वैक्सीन के कारण ही ज्यादा भयानक बना है। कोरोना-1, 2002 में कनाडा से ही खत्म हो गया था। यह कोरोना-2 (कोविड-19) भी उसी से मिलता-जुलता है। यह बहुत तेजी से म्यूटिड होता है, अर्थात् यह सादा है, सादगी से जल्दी बदलाव करता ही रहता है।

हमारा शरीर बहुत जटिल है। इसमें जल्दी बदलाव संभव नहीं है। इसलिए इसकी परिवर्तनशीलता ने इसे फेफडों की संवेदनशील झिल्ली पर आक्रामक बनाकर प्रभावी बना दिया है। कुछ शरीरों में इसका प्रभाव भयानक तेजी से होता है। कुछ शरीरों को यह प्रभावित नहीं कर पाता है। खासकर जो प्राकृतिक जीवन पद्धति वाले श्रमनिष्ठ शरीर हैं; उन पर यह असरकारी नहीं है। उनमें इसका प्रभाव बहुत कम ही होता है। इसीलिए आठ से दस घंटे काम करने वाले परिश्रमी 2020 में सुरक्षित थे। अब मई 2021 आते-आते उन पर भी इसने म्यूटिड होकर बहुत हमला कर दिया है।

सावधानी सभी को रखनी चाहिए। यह खतरनाक वायरस है। अपहरणकर्ता, हिंसक है। इससे बचाव जरूरी है। प्राकृतिक अनुकूलन जीवन-पद्धति अच्छी है। इस जीवन पद्धति को अब भेषज बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ बचने नहीं देगी। वैक्सीन अब उस जीवन पद्धति के लिए संकट लेकर आई है। यह म्यूटिड़ कोरोना को कहाँ तक लेकर जायेगा? यह गहरा शोध का विषय है। इस विषय पर जल्दी से जल्दी ‘नीरी’ और ‘एम्स’ जैसे संस्थानों को मिलकर काम करने का आदेश भारत सरकार को अतिशीघ्र देना चाहिए।

(लेखक जाने माने पर्यावरणविद हैं व देश भर में हजारों नदियों व तालाबों को पुनर्जीवित कर चुके हैं)

( साभार https://www.spsmedia.in/ सप्रेस से)

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