आज पद्मश्री स्व, विष्णु श्रीधर वाकणकर का जन्म दिन है 4 मई 1919 को नीमच, जिला मंदसौर, मध्य प्रदेश में जन्मे डॉ. वाकणकर ने अपनी कर्मस्थली उज्जैन को बनाया और विक्रमादित्य व महाकाल की ये नगरी डॉ. वाकणकर जैसे रत्न को पाकर धन्य हुई। डॉ विष्णु वाकणकर की इतिहास, पुरातत्व और चित्रकला में विशेष रूचि होने के कारण प्राथमिक शिक्षा पूरी करके नीमच से उज्जैन आ गए। विक्रम विश्वविद्यालय से उन्होंने पढ़ाई पूरी की। इसके बाद में वे यहीं प्रोफेसर बन गए। विक्रम विश्वविद्यालय,उज्जैन में वे प्राचीन भारतीय इतिहास,संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग में उत्खनन निदेशक के पद पर काफी लम्बे अर्से तक पदस्थ रहें। उन्होंने उज्जैन के पास दत्तेवाड़ा गांव में हुई खुदाई के के साथ ही उ्जजैन के आसपास के पुरातात्विक महत्व के कई स्थानों पर खुदाई कर कई ऐतिहासिक तथ्यों पर नई दृष्टि डाली। डॉ. वाकणकर को प्रसिद्ध पुरातत्वविद् डॉ. एच.डी.सांकलिया,डेक्कन कॉलेज पूणे के मार्गदर्शन में पी.एच.डी की उपाधि सन् 1973 में पूना विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान की गई तथा उनका शोध प्रबन्ध पेन्टेड रॉक शेल्टर्स ऑफ़ इण्डिया को संचालनालय पुरातत्व,अभिलेखागार एवं संग्रहालय द्वारा वर्ष 2005 में प्रकाशित किया गया। 1935 में डॉ. वाकणकर गिनती के उन चार लोगों में शामिल थे जिन्होने उज्जैन में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की इकाई को शुरु करने में प्रमुख भूमिका निभाई। उनके बड़े भाई बापू वाकणकर जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में थे वे 1930 में संघ में शामिल हो चुके थे।
1954 के बाद से उन्होंने भारत और विदेशों में यथा यूरोप, उत्तरी अमेरीका और मध्य पूर्व में शैलकला पर व्यापक सर्वेक्षण कार्य किया। उन्होंने अकेले भारत में लगभग 4000 अलंकृत शैलाश्रयों की खोज की और उनका आलेखन किया।
डॉ. वाकणकर प्रायः विदेश जाते रहते थे और वहाँ से वे पुरातात्विक खोजों का खजाना लेकर आते थे। वे स्यं एक कुशल चित्रकार थे और जहाँ जाते थे उस जगह का सजीव चित्र या स्केच क्षण भर में बना लेते थे। तब न तो कैमरे वाले फोटोग्राफर हर कहीँ आसानी से मिलते थे न मोबाईल होते थे जिनसे तत्काल फोटो लिए जा सकें। विदेश से आने के बाद उज्जैन की अलग अलग संस्थाएँ उनके व्याख्यानों का कार्यक्रम आयोजित करती थी। तब उज्जैन शहर में कारें तो क्या स्कूटर भी गिनती के होते थे और कहीं भी आने जाने के लिए टेंपो ही एकमात्र सहारा होते थे। अधिकांश लोगों के पास साइकिल ही होती थी। डॉ.वाकणकर भी इतने सहज और सरल थे कि कभी भी किसी भी कार्यक्रम के आयोजक से ये नहीं कहते थे कि मेरे लिए गाड़ी की व्यवस्था करो तभी आउँगा। वे बस पता पूछते थे और खुद साईकिल लेकर पहुँच जाते थे। वे समय के जबर्दस्त पाबंद थे। वे धोती पहनते थे और साइकिल चलाने के लिए धोती को कसने के लिए यू आकार के बैकेट से धोती को कसकर इतनी फुर्ती से पैडल मारते थे मानो साईकिल की रेस में भाग ले रहे हों। एक दो कार्यक्रमों में मुझे उनको लेने जाने का सौभाग्य मिला तो वो मुझे भी साइकिल पर बिठाकर कार्यक्रम में साथ ले गए। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद पूछते, तुम घर कैसे जाओगे, मैं छोड़कर आऊँ क्या?
कई बार तो ऐसा भी होता था कि आयोजक कार्यक्रम स्थल पर नहीं पहुँच पाते थे और जो लोग माईक लगाने और दरी बिछाने (तब दर्शकों व श्रोताओं के लिए दरिया ही बिछाई जाती थी कुर्सियाँ नहीं होती थी) वाले ही होते थे। और वाणकर सा. की सदाशयता देखिये कि वे समय पर पहुँचकर बयाज आयोजकों से नाराज होने के दरी और माईक वालों के साथ बैठकर उनसे गपशप करने लगते और उनके फोटो बनाकर देने लगते थे। फोटो बनाने के लिए भी वे एक बार उपयोग किए गए एक तरफ से कोरे कागज़ का ही उपयोग करते थे। एक कागजं के चार टुकडे करके वे बड़े सलीके से अपनी ऊपर की जेब में रखते थे और उनका उपयोग वो स्केच बनाने में करते थे।
उनकी सहजता र सरलता के तो ऐसे कई किस्से हैं, मगर ये किस्सा बार बार याद आ जातै है। उज्जैन में डॉ, वाकणकर की छवि पुरातत्त्वे्ता के रूप में थी। मैं कभी कभी उनके सहयोगी स्व. विष्णु भटनागर के साथ उनके पास गपशप करने चला जाता था। एक बार एक व्यक्ति उनके पास आया और बोला मुझे वाकणकर सा. से मिलना है, वाकणकर जी बोले, मिलो मैं सामने ही बैठा हूँ। तो उसेन छूटते ही कहा साहब थोड़ा अटाले का सामान लाया हूँ जरा देख लो। उन्होंने कहा, भाई अटाले का सामान का मैं क्या करुंगा तो उसने कहा कि मुझे किसी ने बताया है कि आप पुराने सामान की सही कींत तय कर सकते हो इसलिए आप के पास आया कि मेरा अटाला कितने में बिकेगा? वाकणकर सा. तो वाकणकर साहब ठहरे, बकायदा अपनी पहली मंजिल की बैठक से उतरकर उसके पास गए और उसके अटाले के हर सामान को उलट पुलट कर देखने के बाद बोले भाई तुम इसको इस तरह अटाले के रूप में मत बेचो। एक एक चीज को अलग अलग करके अलग अलग कीमत में बेचोगे तो अच्छा मुनाफा मिलेगा और उन्होेने उसके हर सामान की कीमत भी तय करके उसे बता दी। इसके बाद मुस्कराते हुए बोले मैं दुनिया का पहला पुरतात्त्वविद हूँ जिसने अटाले के सामान का भी काल निर्धारण कर उसकी कीमत तय की।
डॉ, वाकणकर की विश्वसनीयता, ईमानदारी व प्रामाणिकता का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कट्टर स्वयं सेवक होने के बाद भी उन्हें इंदिरा गाँधी की सरकार ने आपातकाल में वर्ष 1975 में पद्मश्री प्रदान की, जबकि उस समय तो आपातकाल की वजह से संघ के कार्यकर्ताओं की धरपकड़ हो रही थी और बिना किसी जुर्म के गिरफ्तारियाँ की जा रही थी। जब वे पद्मश्री का अलंकरण लेने गे तो संघ के गणवेश में काली टोपी लगाकर ही गए।
अपनी विदेश यात्रा के संस्मरण वे अपने हाथ से बनाए चित्रों को स्लाईड की तरह दिखाकर सुनाते थे। वे जिस भीदेश में गए वहाँ जाकर उन्होंने अपने शोध और खोज से ये स्थापित करने की कोशिश की कि दुनिया के हर देश में हजारों साल से भारतीय संस्कृति का अस्त्तित्व रहा है। वहाँ मिलने वाले मूर्ति शिल्पों, भित्ती चित्रों और पुरातन परस्तर शिल्प का वे गहन और सटीक अध्ययन करते थे और आम लोगों की भाषा में उसे इतनी सहजता से समझाते थे कि पुरात्त्व जैसा जटिल विषय भी रोचक और रोमांचक हो जाता था और लोग तीन से चार घंटे तक उनको लगातार सुनते रहते थे।
डॉ वाकणकर को हरिभाऊ के नाम से भी जाना जाता था है। ये संयोग ही है कि उनके दामाद श्री हरिभाउ जोशी थे जो 1977 में बनी जनता पार्टी की सरकार में मध्य प्रदेश के शिक्षा मंत्री बने। शिक्षा मंत्री के रूप मे हरिभाउ जोशी उज्जैन की सड़कों पर स्कूटर पर ही घूमते थे।
1957 में उन्होंने भीमबैठका के चित्रित शैलाश्रयों की खोज की, जिससे 2003 में यूनेस्को द्वारा विश्वदाय स्थल के रूप में अंकित किया गया था। इसका भी एक रोमांचक वाकया है। डॉ. वाकणकर एक बार भोपाल से इटारसी के लिए रेल से यात्रा कर रहे थे, कि रास्ते में उन्होंने कुछ गुफाओं और चट्टानों को देखा। उन्हे अपने साथी यात्रियों से पूछने पर पता लगा कि यह भीमबेटका (भीम बैठका) नामक स्थान है तथा यहां गुफा की दीवारों पर कुछ चित्र बने हैं, लेकिन जंगली पशुओं के डर के कारण वहां पर कोई नहीं जाता। हरीभाऊ की आंखों में यह सब सुनकर एक अलग-सी चमक आ गई और जब रेल धीमी हुई तो वह चलती गाड़ी से ही कूद गए और कई घंटे की चढ़ाई चढ़कर उन पहाडि़यों पर जा पहुंचे। इस तरह उन्होंने पहली बार इन चित्रों से संसार का परिचय करवाया।
अनुमान है कि ये चित्र 1,75,000 वर्ष पुराने हैं। इन चित्रों का परीक्षण कॉर्बन-डेटिंग पद्धति से किया गया। इसी के परिणामस्वरूप इन चित्रों के काल-खंड का ज्ञान होता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस समय रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका गुफाओं में मनुष्य रहता था और वो चित्र बनाता था। डॉ. वाकणकर ने अपना पूरा जीवन भारत की सांस्कृतिक धरोहरों को सहेजने में अर्पित किया। उन्होंने अपने शोध द्वारा भारत की समृद्ध प्राचीन संस्कृति व सभ्यता से सारे विश्व को अवगत कराया। इन्होंने सरस्वती नदी भारतवर्ष में बहती थी, इसकी अपने अन्वेषण में पुष्टि करने के साथ-साथ इस अदृश्य हो गई नदी के बहने का मार्ग भी बताया। इनके शोध के परिणाम विश्व को आश्चर्यचकित कर देने वाले हैं। आर्य-द्रविड़ आक्रमण सिद्धान्त को झुठलाने वाली सच्चाई से सबको अवगत कराने का महत्वपूर्ण कार्य संपादित किया।
डॉ. वाकणकर भारतीय पुरातत्व परिषद तथा इण्डियन सोसायटी फार प्री एण्ड प्रोटोहिस्टारिक एण्ड क्वाटरनरी स्टडीज के आजीवन सदस्य थे। उन्होने अमेरिका तथा यूरोप की यात्रायें की। वहाँ उन्होने व्यख्यान तथा शैलाश्रयों की चित्रकला की प्रदर्शनियों का आयोजन किया। 1976 में अमेरिकन विद्वान आर.आर. ब्रुक्स के साथ शैलचित्रों पर उनकी एक पुस्तक भी प्रकाशित की गई। उन्होंने भीमबैठका के शैलचित्रों का गहन अध्ययन कर उसे विश्व के मानचित्र पर रखा और आज वह विश्व धरोहर स्मारक के रूप में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण,भारत सरकार द्वारा संरक्षित है।
श्री वाकणकर ने ही लुप्त हुई सरस्वती नदी के भूमिगत मार्ग को सेटेलाइट की मदद से खोजा। केंद्रीय भूमितल जल प्राधिकरण के अध्यक्ष डॉ डी.के. चड्ढा ने जुलाई 1999 में जैसलमेर के पास 8 क्षेत्रों में शुरू हुए विस्तृत उपग्रहीय तथा भूभौतिकीय आलेखों के आधार पर सरस्वती परियोजना के इन परिणामों की घोषणा की कि भूमि के नीचे30 से 60 मीटर की गहराई में सरस्वती नदी का पुरातन जलमार्ग मौजूद है और इस दिशा में स्व. बाबा साहब आपटे और स्व.मोरोपंत पिंगले से प्रेरणा प्राप्त कर पद्मश्री डा. वी.एस. वाकणकर ने इतिहास संकलन परियोजना के माध्यम से प्रयास आरंभ किए। उन्होंने समर्पित शोधकर्ता के एक दल को एक साथ सरस्वती नदी के किनारे 1 महीने की लंबी सर्वेक्षण यात्रा में पुरातत्वविद्, भूवैज्ञानिक, हिमालयन विशेषज्ञ, लोक कलाकारों छायाकार सम्मिलित थे।
यजुर्वेद की वाजस्नेयी संहिता 34.11 में कहा गया है कि 5 नदियां अपने पूरी धारा के साथ सरस्वती नदी में मिल जाती है। यह पांच नदियां पंजाब की सतलुज, रावी, व्यास, चेनाव तथा दृष्टावती हो सकती है। डॉ. वाकणकर के अनुसार पांच नदियों के संगम के सूखे हुए अवशेष राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर के पास पंचभद्र तीर्थ पर देखे जा सकते हैं। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण डॉक्टर वाकणकर के असमय निधन के कारण इसमें बाधा पड़ गई।
संघ के स्वयंसेवक होने के नाते वे सामाजिक क्षेत्र में भी काफी सक्रिय थे। डॉ विष्णु श्रीधर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, मध्य प्रदेश के अध्यक्ष रहे। 1966 विश्व हिंदू परिषद की स्थापना के बाद प्रयाग में प्रथम विश्व हिंदू सम्मेलन हुआ तो श्री एकनाथ रानाडे ने उन्हे वहाँ पर भेजा। इसके बाद में डॉक्टर विष्णु श्रीधर देश के कई अन्य हिस्सों में गए। उन्होंने वहां पर भारतीय संस्कृति कला, इतिहास और ज्ञान विज्ञान के विषय पर अपना भाषण दिया। 1981 में ‘संस्कार भारती’ की स्थापना होने पर उन्हें उसका महामंत्री बनाया गया।
डॉ. वाकणकर सिक्कों एवं अभिलेखों के भी विशेषज्ञ थे, उनके पास सिक्कों एवं अभिलेखों का संग्रह था, जो अब वाकणकर शोध संस्थान में रखे हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, प्राकृत और ब्राह्मी में दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के कई शिलालेखों का अध्ययन किया। डॉ. वाकणकर ने 6 पुस्तकें और 400 से अधिक शोध पत्र प्रकाशित किए। उन्होंने उज्जैन में वाकणकर इडोलॉजिकल कल्चरल रिसर्च ट्रस्ट की स्थापना की। आज वाकणकर शोध संस्थान में 7500 से अधिक शैलचित्र कला के आरेखों का संग्रह है, जो स्वयं डॉ. वाकणकर द्वारा बनाई गई थी। उन्होंने चम्बल और नर्मदा नदी घाटियों का सर्वेक्षण किया एवं महेश्वर (1954), नावदाटोली (1955), मनोटी (1960), आवरा (1960), इन्द्रगढ़ (1959), कायथा (1966), मन्दसौर (1974 और 1976), आजादनगर (1974), दंगवाड़ा (1974 व 1982), रूनिजा (1980), इंग्लैण्ड में वर्कोनियम रोमन स्थल (1961) और फ्रांस में इनकॉलिव (1962) पुरास्थलों का उत्खनन करवाया। ,
963 में उन्होंने डोरबाजी टाटा ट्रस्ट यात्रा अनुदान पर यूरोप की यात्रा की, 1961 और 1963 तक उन्होंने फ्रांस सरकार की छात्रवृत्ति पर शोध कार्य किया, 1966 में उन्हें अमेरिकन शैलाश्रयों पर कार्य के लिए अमेरिकी विदेश विभाग द्वारा निमंत्रण दिया गया, 1981 में उन्होंने कापो दी पोंटे, इटली में शैलाश्रय पर आयोजित संगोष्ठी में भाग लिया। .
कुतुब मीनार को लेकर भी डॉ. वाकणकर ने अफगानिस्तान के इतिहासकार अहमद अली कोहजद के खोज के हवाले से ये रहस्योद्घाटन किया था कि 1957 में फिरोजकोट इलाके में
हररूदि नदी के किनारे कुतुबमीनार जैसे, किन्तु उससे तीन फुट छोटे, दो नंबर के विक्रम स्तंभ मिले। उन्होंने दावा किया था कि दोनों विक्रम स्तंभ कुतुबुद्दीन ऐबक और इल्तुतमिश तथा महमूद खिलजी के पूर्व के हैं। उन्होंने बताया कि विक्रम स्तंभ पर तो सुल्तान गुलाम ऐबक का एक भी लेख नहीं हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ऐबक का नाम क़ुतुब नहीं था। उसके गुरु का नाम कुतुबुद्दीन था, जिसके नाम पर मीनार का नाम रखा गया। उसकी कब्र मीनार के समीप ऐबक द्वारा कई मंदिरों को नष्ट करके बनवाई गयी कुव्वतउल इस्लाम मस्जिद के करीब ही है। श्री वाकणकर का कहना था कि “अंग्रेजों ने इतिहास में अनेक भ्रम
उत्पन्न करने में सफलता पायी, परन्तु नयी उपलब्धियों से ये भ्रम अब टूटने लगे हैं,” (जानकारी स्त्रोत :- क्रानिकल इयर बुक 1999, भारतीय संस्कृति की झलक, पृष्ठ संख्या – 365)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में आने के बाद उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में और सामाजिक और शैक्षिक स्थान कार्य किया लगभग 50 वर्षों तक जंगलों में पैदल घूम कर कई प्रकार के हजारों चित्रित से राशियों का पता लगाकर उन्हें कॉपी बनाई तथा देश- विदेश में पर विस्तार से लिखा, भाषण दिए और प्रदर्शनी लगाई प्राचीन भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व के चित्र में डॉक्टर मानकर ने अपने बहु विध योगदान से अनेक नए पथ का सूत्रपात किया। सयहां पर 750 शैलाश्रय हैं जिनमें 500 शैलाश्रय चित्रों द्वारा सजाया गया हैं। पूर्व पाषाण काल से मध्य ऐतिहासिक काल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का केंद्र बना रहा। यह बहुमूल्य धरोहर अब पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। भीमबैटका क्षेत्र में प्रवेश करते हुए शिलाओं पर लिखी हुई कई जानकारियां मिलती हैं। यहां के शैल चित्रों के विषय मुख्यतया सामूहिक नृत्य, रेखांकित मानवाकृति, शिकार, पशु-पक्षी, युद्ध और प्राचीन मानव जीवन के दैनिककार्यो से जुड़े हुई हैं। चित्रों में खनिज रंगों में मुख्य रूप से गेरुआ, लाल और सफेद रंगों का प्रयोग किया गया हैं और कहीं-कहीं पीला और हरा रंग भी प्रयोग हुआ है। यहां की दीवारें धार्मिक संकेतों से सजी हुई है, जो पूर्व ऐतिहासिक कलाकारों के बीच लोकप्रिय थे। इस प्रकार भीम बैठका के प्राचीन मानव के संज्ञानात्मक विकास का कालक्रम विश्व के अन्य प्राचीन समानांतर स्थलों से हजारों वर्ष पूर्व हुआ था। इस प्रकार से यह स्थल मानव विकास का आरंभिक स्थान भी माना जाता है।
उज्जैन को कर्मभूमि बनाकर शिप्रा के तट पर बसे पुराने नगर गढ़कालिका भरतरी गुफा राजा हरिश्चंद्र की टेकरी मछंदर नाथ विक्रांत घाट काल भैरव घाट मंगलनाथ घाट कालियादेह महल सिद्धनाथ घाट तथा बीच में फल्गु नदी जिसे गुप्त नदी कहते हैं की खोज करने में भी अहम भूमिका निभाई थी। डॉ. वाकणकर ने भ़तहरि गुफा के आसपास के इलाके को खासतौर पर संरक्षित करने के प्रयास किए। उन्होंने विक्रांत भैरव मंदिर पर शिप्रा से पुरानी प्रतिमाएं एवं अवशेषों का संकलन भी किया उन्होंने ओखलेश्वर शमशान भूमि समाधि की खोज भी की। उन्होंने मालवा के महेश्वर मंडलेश्वर सहित देश के अनेक प्रांतों में करीब 4000 गुफाओं का अध्ययन करके उनके इतिहास को संकलित करने का काम किया
3 अप्रैल, 1988 को उनका निधन सिंगापुर में हो गया था, उनका शव राजकीय सम्मान के साथ उज्जैन लाया गया और पूरे सम्मान के साथ उन्हें अंतिम विदाई दी गई। उज्जैन में डॉ, वाकणकर की शवयात्रा एक ऐतिहासिक शवयात्रा थी जिसमें असंख्य लोग शामिल थे।