पण्डित अखिलानन्द ब्रह्मचारी जी का जन्म गांव पट्खोली जिला जौनपुर में दिनांक १ अगस्त १८८४ में स्वामी दयानंद जी के देहंत के मात्र एक वर्ष पश्चात् हुआ। इस कारण आर्य समाज के प्रति लगन तो निश्चित हि थी| आप के पिता का नाम श्री बाबूराम पाठक था। आप बाल्मीकी रामायण के मर्मज्ञ थे तथा इस पर आप बडी सुन्दर व प्रेरणा दायक कथा करते थे। जब आप श्री रामचन्द्र जी के चरित्र संबंधी घटनाओं का वर्णन करते तो श्रोतागण मन्त्र मुग्ध हो जाते थे|
इस समय स्वामी पूर्णानन्द जी पहले तो कानपुर में रहते हुए तथा बाद में जिला अलीगढ के अन्तर्गत, अलीगढ से पच्चीस किलोमीटर दूर हरदुआगंज में(जो छ्लेसर से मात्र पांच किलोमीटर दूर है) स्थित साधु आश्रम के गुरुकुल के माध्यम से विद्यार्थियों की शैक्षिक पिपासा को शान्त करने के लिए उन्हें संस्कृत की शिक्षा देते थे। इन्हीं के श्री चरणों में बैठकर पण्डित अखिलानन्द जी ने संस्कृत का अध्ययन किया।
सन् १९१८ में काशी आकर आपने सार्वजनिक सेवा के कार्य आरम्भ किये। अब आर्य समाज के माध्यम से समाज की सेवा ही आप का मुख्य व्यवसाय बन गया। देश ओरेम की भावनाएं तो आप के हृदय में आरम्भ से ही थीं| अत: आप ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में बढ चढ कर भाग लिया| इन्हीं दिनों आपका संपर्क स्वामी श्रद्धानन्द जी से हुआ| बस फिर क्या था आप स्वामी जी के साथ जुड कर उनके नेतृत्व तथा निर्देशन में शुद्धि का कार्य करने लगे।
यहाँ से आप सन् १९३० ईस्वी में झरिया आ कर निवास करने लगे तथा फ़िर जीवन पर्यन्त यहीं रहते हुए आर्य समाज के माध्यम से समाज सेवा के कार्य करते रहे। इस मध्य आप ने अनेक पुस्तकें लिखीं। आप की पुस्तकों में अधिकतम पुस्तकों का विषय रामायण और इसके पात्रों से सम्बंधित ही रहा यथा बालकाण्ड(परिशोधक स्वरुप), अयोध्याकाण्ड अनुवाद, अर्ण्य तथा किष्किन्धा काण्ड, सुन्दर काण्ड, युद्ध काण्ड ( समपन्नता पं. विजयपाल जी द्वारा ) आदि। यह सब ग्रन्थ रामायण से ही सम्बन्धित थे। इन का अनुवाद, परिशोधन तथा इनके क्षेपक अंशों की चर्चा के साथ ही आपने इन टीकाओं की प्रमुख विशेषताओं का भी सुन्दर वर्णन किया है।
इस प्रकार रामायण पर काम करने वाले, शुद्धि तथा स्वाधीनता के प्रहरी और आर्य समाज के अनन्य सेवक पण्डित अखिलानन्द ब्रह्मचारी जी १९ अक्टूबर को इस संसार से विदा हुए।
डॉ. अशोक आर्य
१०४-शिप्रा अपार्ट्मेन्ट,
कौशाम्बी २०१०१०
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