हरियाणा के जिला झज्जर के निकटवर्ती गाँव सुल्तानापुर खेडी के एक ब्राहमण परिवार में संवत् १८९८ में जन्मे बालक बस्तीराम जी का स्थान आर्य समाज के इतिहास में विशेष महत्त्व रखता है| आपने आजीवन आर्य समाज का खूब जोरदार प्रचार किया| आप का अत्यंत गहन अध्ययन था, विशेष रूप से ज्योतिष तथा पुराणों के ज्ञान में आपके समकक्ष बहुत कम लोग ही थे| आरम्भ से ही कथा करने में आपका विशेष अनुराग था तथा गाने में भी अत्यधिक रूचि रखते थे| बालकपन में आप मूर्ति पूजक तथा पौराणिक थे|
इन्हीं दिनों स्वामी दयानंद सरस्वती तथा उनकी पाखंड विरोधी चर्चाएँ भी होती ही रहती थीं| इस संबंधी स्वामी दयानंद सरस्वती जी का शास्त्रार्थ संबंधी एक विज्ञापन आपके हाथ लगा, जिसे पढ़कर आपने स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने का निर्णय लिया तथा लगभग पंद्रह व्यक्तियों के साथ हरिद्वार के भीमगोडा जा पहुंचे , जहाँ स्वामी जी पाखंड खंडिनी पताका फहराए हुए थे| स्वामी दयानंद जी के प्रथम दर्शन मात्र से ही पंडित बस्तीराम जी अत्यंत प्रभावित हुए तथा दो चार प्रश्न पूछने पर ही उनकी बोलती बंद हो गई| बस यह वही दिन था, जिस दिन से उन्होंने पौराणिकता को त्यागते हुए आर्य समाज का श्रेष्ठ मार्ग पकड़ लिया| आधा महीना तक स्वामी जी के पास रहकर अपनी सब शंकाओं का भरपूर समाधान पाकर गाँव को वापिस लौट आये| अब आर्य समाज के रंग में रंगे बस्ती राम जी पाखंडों के खंडन तथा आर्य समाज के प्रचार के लिए क्षेत्र भर में कार्य करने लगे| इस प्रकार क्षेत्र भर में उनकी प्रसिद्धि आर्य समाजी के रूप में हो गई| इस के पश्चात् बस्तीराम जी ने अनेक बार स्वामी दयानंद सरस्वति जी के दर्शन किये| उनके रंग में पूरी तरह से रंग जाने के कारण सदा स्वामी जी के गुणों का गान करने लगे|
जब बस्तीराम जी चालीस वर्ष के हुए तो आपको चेचक नाम का रोग हो गया| इस रोग के कारण आपकी आँखों की रोशनी सदा सदा के लिए चली गई| चेचक ने नेत्रों की ज्योति तो बंद कर दी किन्तु अन्दर की ज्योति से अन्दर को प्रकाशित कर दिया| इस कारण आँखें न रहते हुए भी आप में आर्य समाज के सिद्दांतो का प्रचार और प्रसार करने में किंचित मात्र भी कमी नहीं आई| रेवाड़ी में स्वामी दयानंद सरस्वती जी का आगमन हुआ| इस अवसर पर स्वामी जी के गुणों का गुणगान करते हुए स्वामी जी की स्तुति में आपने एक गीत गाया तो स्वामी जी ने इस प्रकार के प्रशस्ति पूर्ण गीत गाने से रोक दिया|
अब न तो आपको अपने घर की चिंता थी और न ही परिवार की , सब कुछ छोड़कर आपके ऊपर एक ही धुन सवार थी, वह थी आर्य समाज का प्रचार! अत: आपने देश के हरियाणा क्षेत्र में आर्य समाज का प्रचार करने के लिए एक भजन मंडली बना ली| पाखंडों के खंडन के समय आपकी भाव भंगिमा देखने लायक होती थी| इस प्रकार की कठोर प्रचार शैली से उनके कई नामी पौराणिक ब्राहमण मित्र उनसे नाराज भी हो गए| यहाँ तक कि एक समय ऐसा भी आया कि आर्य समाजी होने के कारण आपका जाति से बहिष्कार भी किया गया किन्तु यह सब आपको वेद प्रचार के मार्ग से विमुख न कर सका| अत: यह जातीय बहिष्कार भी बस्तीराम जी के मार्ग में बाधक न बन सका|
अब तक पंडित जी अत्यंत वृद्धावस्था में पहुँच चुके थे| आयु अधिक और ऊपर से आँखें भी न होते हुए भी इस समय भी आपने वेद प्रचार के कार्यों में न तो शिथिलता ही आने दी और न ही विराम ही आने दिया| पंडित जी को धन का कभी भी कुछ भी लोभ नहीं रहा| आर्य समाज का प्रचार करते हुए कभी किसी से कुछ नहीं माँगते थे| यदि कहीं कुछ मिलता भी था तो उसे आपने कभी अपने पास न रखा अपितु गुरुकुल भैंसवाल को दान में दे दिया|
जीवन के अंत तक आर्य समाज का प्रचार किया किन्तु इस प्रचार कार्य से उन्होंने अपने लिए कभी कुछ नहीं बनाया| इसके आतिरिक्त यह भी कि पंडित जी के पास जो कुछ भी था पंडित जी उसे आर्य समाज की संपत्ति ही मानते थे| इस सब के अतिरिक्त यदि उनके पास कोई अपनी सम्पत्ति थी तो वह था उनका एकतारा, जिस की सुरों के साथ अपनी सुरें मिलाते हुए वह आर्य समाज का प्रचार करते हुए दर्शकों को मन्त्र मुग्ध कर देते थे| पंडित जी के रचे हुए गीत श्रोताओं के अंत:करण को यहाँ तक मोह लेने वाले होते थे, कि उनके रचे गए इन गीतों के प्रभाव के कारण आज भी उनकी प्रासंगिकता समाप्त नहीं हुई| हरियाणा के सब क्षेत्रों में आज भी इन गीतों की मांग बराबर बनी हुई है| इस प्रकार आज भी हजारों लोग इस प्रकार के हैं, जो बड़े गर्व से कहते हैं कि उन्होंने अपना यज्ञोपवीत(जनेऊ) दादा बस्ती राम जी से लिया था| शिक्षा के आप पुजारी थे| शिक्षा के पुजारी होने के नाते ही आपने अनेक बालकों को गुरुकुलों में प्रविष्ट करवाया|
आज हरियाणा में भीतर तक जो आर्य समाज का प्रचार दिखाई देता है, उस सब का श्रेय श्री दादा बस्तीराम जी को ही जाता है| आपने अपने जीवन में आर्य समाज के उच्चकोटि के महापुरुषों यथा पंडित लेखराम जी, स्वामी श्रद्धानद जी आदि के साथ मिलकर खूब प्रचार किया| आप अपने जीवन के अंतिम समय में जब आपकी आयु ११९ वर्ष की थी, आप आर्य समाज के प्रचार के लिए गाँव वराणी जिला झज्जर, हरियाणा के चौ. हरफूल सिंह जी के यहाँ गए हुए थे| यहीं पर ही प्रचार करते हुए श्रावण शुक्ला १२ संवत् २०१५ विक्रमी तदनुसार २६ अगस्त सन् १९५८ ईस्वी को आपका देहांत हुआ| हां! देसी तिथियों के अनुसार यह अंग्रेजी तिथियाँ प्रतिवर्ष बदलती रहती हैं|
डॉ. अशोक आर्य
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