Saturday, November 23, 2024
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पारिवारिक जीवन मूल्य बचाने के लिए एक जैन मुनि का शंखनाद

मुंबई शहर में ऐसे तो हर दिन की न कोई आयोजन होता है जिसमें ग्लैमर की चकाचौंध से लेकर कॉर्पोरेट की दुनिया के कार्यक्रम भी शामिल होते हैं। लेकिन किसी कार्यक्रम में रविवार के दिन सुबह 10 बजे एक साथ हजारों लोग पहुँच जाए और ठीक दस बजते ही कार्यक्रम में परवेश बंद कर दिया जाए ऐसा अनुभव अपने आप में चौंकाने वाला था।

मुंबई के महालक्ष्मी मंदिर के पास स्थित खुले मैदान में पिछले कुछ रविवारों से ये नजारा देखने को मिला। इस परिसर में जैन मुनि परम पूज्य गणविजय श्री नय पद्मसागरजी  महाराज के प्रवचनों में परिवार में सद्भाव व पारिवारिक मूल्यों व संस्कृति को कैसे बचाया जाए इस विषय पर आयोजित प्रवचनों को सुने के बाद उनके व्यक्तित्व का एक अलग ही स्वरूप सामने आता है।

दस बजते ही श्री नय पद्मसागरजी  महाराज परिसर में प्रवेश करते हैं और हजारों लोगों की भीड़ का शोर-शराबा कदम निस्तब्धता में बदल जाता है। फिर कार्यक्रम की शुरुआत होती है बेहद औपचारिक रूप से इस आयोजन की सफलता से जुड़े कुछ लोगों का सम्मान होता है और फिर मुनि श्री श्री नय पद्मसागरजी  महाराज का ओजस्वी प्रवचन शुरु होता है। सब-कुछ मानो थम सा जाता है। किसी संत या मुनि को सुनते समय प्रायः हमारी धारणा होती है कि वे बहुत धीमे स्वर में अपनी बात कहेंगे, लेकिन श्री नय पद्मसागरजी  महाराज की वाणी को जोश और ओजस्व देखकर तो श्रोताओं की सुस्ती ही उड़ जाती है।

आज के दौर में पारिवारिक मूल्यों, संस्कारों और परंपराओं के विघटन पर वे चोट ही नहीं करते हैं बल्कि उसके सहज-सरल उपाय भी बताते हैं। वे महिलाओं का पक्ष भी लेते हैं और छोटी छोटी प्रेरक कथाओं और सारगर्भित उध्दरणों से महिलाओं को चेतावनी भी देते हैं। उनकी वामी का तेज प्रवाह चलताजाता है और श्रोता उसमें डूबता जाता है। दो ढाई घंटे तक अनवरत चलने वाले प्रवचन में उनकी वाणी का जोश कहीं कमजोर नहीं पड़ता, वे श्रोताओं को ललकारते भी हैं पुचकारते भी हैं और समझाते भी हैं, बात कहने का तरीका ऐसा कि उनका हर शब्द मर्मभेदी सा ह्रदय के तारों को झंकृत करता हुआ श्रोताओं की आँखों से आँसू बनकर निकलने लगता है।

परिवार की व्याख्या करते हुए वे कहते हैं, हमारी भारतीय संस्कृति में परिवार की परिभाषा बहुत व्यापक है जिसमें माता-पिता से लेकर भाई बहन, पति-पत्नी, ननंद भोजाई, बुआ-फूफा, मौसा-मौसी, काका-काकी सभी शामिल हैं। जबकि अंग्रेजी डिक्शनरी में फैमिली की परिभाषा में कहा गया है में पति-पत्नी इटीसी।

इसी मानसिकता पर चोट करते हुए श्री नय पद्मसागरजी  कहते हैं हमने अपने रिश्ते-नातों को ही भुला दिया। हमने अपने परिवार से परिवार के लोगों का ही पत्ता काट दिया तो फिर परिवार बचेगा कैसे? फैशन के नाम पर युवतियों के पहनावे पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय स्त्री अपने पारंपरिक परिधान में ही शीलवान और संकोची नज़र आती है। विदेशी पहनावे ने हमारी संस्कृति के साथ क्कूर मजाक किया है।

अपने तीखे प्रवचन के दौरान श्री नय पद्मसागरजी  ने स्त्रियों और पुरूषों दोनों को ही चेतावनी दि कि अगर उन्होंने पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मर्यादा का पालन नहीं किया तो उन्हें इसके गंभीर नतीजे भुगतने होंगें।  उन्होंने कहा कि आज मोबाईल और टीवी ने आपका पूरा समय छीन लिया है। पति जब काम से थका-हारा आकर घर ता है तो  पत्नी अपने टीवी धारावाहिक के ब्रेक का इंतज़ार करती है ताकि पति को पानी पिला सके। फिर अगले ब्रेक का इंतज़ार करती है ताकि खाना खिला सके। यही हाल पति महोदय का है वे खाना खाने के बाद अपने मोबाईल में मशगूल हो जाते हैं। यानी घर में किसी के पास किसी के लिए समय ही नहीं है।

उन्होंने कहा कि सामूहिक परिवार में बच्चे अपने काका-काकी, दादा-दादी और नाना-नानी के साये में कब बड़े हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता है लेकिन जब से नौकरी करने वाले पति-पत्नी ने अपने माता-पिता को घर से दूर किया है, उनकी संतानें भी उनसे दूर हो गई है। एक ओर तो वे अपनेही माता-पिता से प्यार से वंचित हैं तो दूसरी ओर उनके बच्चे अपने माता-पिता के प्यार से वंचित हैं। इसी वजह से बच्चों का पूरा समय टीवी और मोबाईल पर गेम खेलने में चला जाता है। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि ये स्थिति बच्चों के व्यक्तित्व के ले बेहद खतरनाक है।

उन्होंने कहा कि किसी घर में जिस दिन सास अपनी बहू को बेटी मान लेगी उस दिन कई समस्याएँ अपने आप समाप्त हो जाएगी।

कई लोक कथाओं और ज्वलंत सामाजिक उदाहरणों के माध्यम से, अपने पास आने वाले लोगों द्वारा प्रस्तुत की जाने वाली समस्याओं आदि के माध्यम से श्री नय पद्मसागरजी  ने कहा कि परिवार के सभी सदस्यों क एक दूसरे के प्रति समर्पण परिवार को ही नहीं बचाता है बल्कि पूरे परिवार में खुशहाली भी लाता है। प्रवचन के दौरान वहाँ मौजूद श्रोताओं की भीड़ कभी ठहाके लगाती तो कभी भावशून्य होकर उनके प्रवचनों की गंभीरता को समझने की कोशिश करती तो कभी तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उनकी बात का समर्थन कर रही थी।

अपने प्रवचन के दौरान श्री नय पद्मसागरजी  ने जिस उष्मा, गरिमा और मर्मभेदी शब्दों के साथ परिवार नाम की परंपरा और विरासत को बचाने के लिए अपनी बात कही, वह अगर वहाँ मौजूद श्रोताओं के लिए सबक बन जाए तो पूरे समाज को एक नई दिशा मिल सकती है। 

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