वर्षों से देश में एक भ्रम फैलाया जाता रहा है कि सारे वैज्ञानिक अनुसंधान भारत से बाहर यूरोप में ही हुए हैं। यदि किसी देशभक्त जानकार भारतीय ने धीरे से यह बताने का प्रयास भी किया कि भारत में लौहकर्म भी होता था, विमान भी बनते थे, प्लास्टिक सर्जरी भी की जाती थी, तो उसे धमका कर चुप करवा दिया जाता था कि फालतू की बातें मत करो। इसमें कुछ दोष हमारा भी रहा कि हम भारत में प्लास्टिक सर्जरी किए जाने का सच्चा इतिहास निकाल कर सामने नहीं रख पाए और केवल गणेश जैसी असंभव पौराणिक कथाओं का उल्लेख करते रहे। परंतु आज सच सभी स्वीकारने लगे हैं।
हाल ही में कोलंबिया विश्वविद्यालय के इरविंग चिकित्सा केंद्र के सर्जरी विभाग ने हिस्ट्री ऑफ मेडिसीन में लिखा है कि भारत में प्राचीन काल में प्लास्टिक सर्जरी की जाती थी। उन्होंने सुश्रुत के बारे में लिखा है कि उन्होंने दुनिया में चिकित्सा और शल्य चिकित्सा की पहली पुस्तक लिखी। उसमें तीन प्रकार के स्किन ग्राफ्टिंग और नाक को फिर से बनाने की विधि का भी वर्णन है। वहाँ यह भी लिखा है कि आज प्लास्टिक सर्जरी की जो तकनीकें प्रयोग की जाती हैं, आश्चर्यजनक रूप से वे सभी सुश्रुत संहिता में वर्णित हैं।
परंतु इस वेबसाइट ने यह नहीं लिखा है कि हम अ_ारहवीं शताब्दी तक इस विधा का प्रयोग भी करते थे। इस बारे में इटली के एस चियारा विश्वविद्यालय एवं अस्पताल, के प्लास्टिक सर्जरी विभाग के एमडी पाओलो सैंतोनी रुजियो तथा ब्रिटेन के मौरिसन अस्पताल के प्लास्टिक सर्जन फिलिप जे साइक ने अपनी पुस्तक ए हिस्ट्री ऑफ प्लास्टिक सर्जरी में विस्तार से उल्लेख किया है। उन्होंने वहाँ वर्ष 1723 में भारत में ब्रिटिश सेना के एक भारतीय सैनिक की कटी नाक को फिर से बनाये जाने की घटना का उल्लेख किया है। उन्होंने वहाँ उसका चित्र भी प्रस्तुत किया है।
इससे स्पष्ट है कि प्लास्टिक सर्जरी का न केवल पुस्तकों में उल्लेख पाया जाता है, बल्कि देश में इसका प्रयोग भी हाल के वर्षों तक होता रहा है। इसे ब्रिटिशों ने राज्य द्वारा प्रतिबंध लगाकर समाप्त करवाया। अंग्रेजों द्वारा लगाए गए इस प्रतिबंध को आज भी स्वाधीन देश की सरकारों ने भी बनाए रखा है और इसलिए देश में आयुर्वेद के वैद्यों के सर्जरी यानी शल्य चिकित्सा करने पर कानूनी प्रतिबंध है। इतना ही नहीं, हमें यह भी पढ़ाया जाता है कि शल्य चिकित्सा तो आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की देन है, क्योंकि भारत में तो लाशों का चीरफाड़ करने की परंपरा रही ही नहीं है। यहाँ लोग लाशों का चीरफाड़ करने को पाप मानते रहे हैं, और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान जिसे हम यूरोपीय चिकित्सा विज्ञान भी कह सकते हैं, के अनुसार, बिना लाशों का अध्ययन किए, मानव शरीर रचना और उसकी शल्य चिकित्सा का ज्ञान हो ही नहीं सकता।
ए हिस्ट्री ऑफ प्लास्टिक सर्जरी नामक पुस्तक में वर्ष 1793 में पूना, भारत में व्यक्ति के नाक की प्लास्टिक सर्जरी किए जाने का विवरण दिया गया है। वर्णन इस प्रकार है –
इसके (नाक की प्लास्टिक सर्जरी) पुनप्र्रारंभ होने का पहला संकेत भारत में मिला, हालांकि जिसकी यूरोप में तुरंत प्रतिक्रिया नहीं हुई। इस बारे में 1793 में अंग्रेजी समाचारपत्र मद्रास गैजेटियर में एक लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था ए सिंगुलर ऑपरेशन यानी एक अनुपम शल्य चिकित्सा। ईस्ट इंडिया कंपनी के दो चिकित्सकों द्वारा लिखे गए इस लेख में एक मराठा वैद्य परिवार के व्यक्ति द्वारा नाक की प्लास्टिक सर्जरी किए जाने का वर्णन किया गया था, जिसे उन्होंने प्रत्यक्ष देखा था। उसके अगले वर्ष 1794 में द जेंटलमैन नामक अखबार जो कि एक अधिक संभ्रांत किंतु वैज्ञानिक पत्र नहीं था, में किसी बीएल नामक व्यक्ति का एक पत्रि प्रकाशित हुआ। यूरोप में नाक की प्लास्टिक सर्जरी किए जाने के विकास में इस पत्र का जबरदस्त प्रभाव रहा।
इस पत्र को उस पुस्तक में ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया गया है। द जैंटलमैन के अंक के संदर्भित पृष्ठ की प्रतिलिपि भी प्रकाशित की गई है। उस पत्र के अनुसार घटना इस प्रकार है। कावसजी नामक एक किसान अंग्रेजों की सेना में बैलगाड़ी चलाता था। वर्ष 1792 के टीपू सुल्तान के साथ अंग्रेजों के युद्ध में वह टीपू सुल्तान द्वारा बंदी बना लिया गया और टीपू ने उसकी नाक और एक हाथ काट दिए। लगभग बारह महीनों तक वह अपनी कटी नाक लेकर घूमता रहा, जबतक कि पूना में ईंटनिर्माता जाति के एक वैद्य ने उसकी नई नाक नहीं बना दी। इस प्रकार की शल्य चिकित्सा यहां अत्यंत प्राचीन काल से ही की जाती रही है। बाम्बे प्रेसिडेंसी के दो डाक्टर थॉमस क्रूसो और जेम्स ट्रिंडले ने स्वयं देखा था। उन्होंने भारतीय वैद्य द्वारा नाक बनाए जाने की पूरी विधा का भी वर्णन किया है। हालांकि यह लेख किसी मेडिकल शोध पत्रिका में प्रकाशित नहीं हुआ था, लेकिन इसके बाद भी इस पर यूरोपीय विशेषकर अंग्रेजी चिकित्सकों में काफी चर्चा हुई। इस प्रकार हम पाते हैं कि भारत में सर्जरी और विशेषकर प्लास्टिक सर्जरी किए जाने का विवरण अंग्रेजों ने भी दर्ज किया है। भारत में तो इसकी चर्चा काफी पाई जाती रही है। कहा जाता है कि हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा जिले का नाम कांगड़ा पड़ा ही, इसीलिए क्योंकि वहाँ के वैद्य कान और नाक गढऩे में विशेषज्ञ हुआ करते थे। भोज प्रबंध ग्रंथ में लिखा है कि ग्यारहवीं शताब्दी में राजा भोज के सिर में काफी दर्द हुआ करता था। उस समय दो चिकित्सकों ने उनके मस्तिष्क की शल्य चिकित्सा की थी। वहाँ यह भी उल्लेख है कि उन चिकित्सकों ने शल्य चिकित्सा के लिए राजा को बेहोश करने के लिए एक प्रकार का महाचूर्ण का प्रयोग किया था। इसका सीधा अर्थ है कि भारतीय वैद्यों को न केवल शल्य चिकित्सा का, बल्कि एनेस्थीसिया यानी कि रोगी को बेहोश करने के उपायों का भी समुचित जानकारी थी।
प्रश्न उठता है कि इस इतिहास को जान कर हम क्या कर सकते हैं? शल्य चिकित्सा के आज के वैज्ञानिक युग में इस जानकारी का क्या उपयोग है? वास्तव में ये जानकारियां केवल इतिहास पर गौरव करने के लिए नहीं हैं। इस इतिहास के आधार पर फिर से आयुर्वेदिक शल्य चिकित्सा को जीवित किया जा सकता है। यदि हमारे वैद्य उन्नीसवीं शताब्दी तक शल्य चिकित्सा करने में सक्षम थे, तो वे आज फिर हो सकते हैं। ऐसे में आयुर्वेद चिकित्सकों पर लगा प्रतिबंध समाप्त किया जाना चाहिए। इसमें यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है कि आयुर्वेद शल्य चिकित्सा का उपयोग आज की भांति बेलगाम रूप से नहीं करता, बल्कि अंतिम अस्त्र के रूप में करता है। आयुर्वेद ऐसे अनेक रोगों, जिनकी चिकित्सा आधुनिक चिकित्सा विज्ञान केवल शल्य चिकित्सा यानी ऑपरेशन से ही कर पाता है, को केवल दवा से ही ठीक कर देता है। उदाहरण के लिए पथरी, रसौली, हड्डी टूटना आदि बीमारियां और दुर्घटनाएं हैं। इनकी चिकित्सा आयुर्वेद बिना किसी ऑपरेशन यानी चीर-फाड़ के ही करता है। इसलिए यदि आयुर्वेदिक चिकित्सकों को शल्य चिकित्सा की छूट दी जाएगी, तो इससे अनावश्यक होने वाली शल्य क्रियाओं में कमी आएगी। इससे देश का स्वास्थ्य और बेहतर ही होगा।
( लेखक रवि शंकर ‘भारतीय धरोहर’ पत्रिका https://www.bhartiyadharohar.com/ के कार्यकारी संपादक और सभ्यता अध्ययन केंद्र, नई दिल्ली के शोध निदेशक हैं। राजनीति और समाजशास्त्र के साथ-साथ विज्ञान, धर्म, संस्कृति, दर्शन, योग और अध्यात्म में उनकी गहरी रुचि और पकड़ है। सभ्यतामूलक विषयों पर शोध और अध्ययनरत हैं।
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