Sunday, November 24, 2024
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किताबों के माध्यम से बच्चों में ज़हर घोल रहा है पाकिस्तान

धार्मिक स्वतंत्रता पर अमरीकी आयोग ने इधर अपनी रिपोर्ट में फिर दुहराया कि पाकिस्तान में मदरसे और सरकारी स्कूल गैर-मुस्लिमों के बारे में झूठी, विषैली बातें पढ़ाते हैं। सरकारी पाठ्य-पुस्तकें भी गहरी इस्लामी रंगत लिए होती हैं। उनमें विशेषकर हिन्दुओं के प्रति गंदी, अपमानजनक बातें लिखी होती हैं। इससे वहाँ गैर-मुस्लिमों के प्रति हिंसा और भेद-भाव की घटनाएं बढ़ती हैं।

वहाँ यह इतना जाहिर है कि कई बार पाकिस्तानी नेताओं, मंत्रियों ने भी माना कि पाठ्य-पुस्तकें बदली जानी जरूरी है। पर कुछ हुआ नहीं। पाँच वर्ष पहले खैबर पख्तूनख्वा प्रांत के शिक्षा मंत्री सरदार हुसैन ने कहा था कि सिलेबस और पाठ्यचर्या बदले जाने की सख्त जरूरत है। चौदह वर्ष पहले खुद पाकिस्तानी राष्ट्रपति मुशर्रफ और उनके मंत्री मसूद अहमद गाजी ने ऐसे दस हजार मदरसों पर कार्रवाई की बात की थी जो घृणा, हिंसा और आतंकवाद फैलाने के जिम्मेदार हैं।

यदि फिर भी इस पर पाकिस्तान में कुछ न हुआ, तो समझें कि समस्या कितनी गहरी है। यह भी कि भारत में ‘पीपुल-टु-पीपुल’ और ‘ट्रैक-टू’ की लफ्फाजी करने वाले कितने नादान या धूर्त हैं। वे भारत-पाकिस्तान दोनों सरकारों को दोषी और दोनों जनता को सदभावपूर्ण बताते हैं। यह चर्चा कहीं नहीं होती कि पाकिस्तानी शिक्षा-प्रणाली जो भारत-विरोध, हिन्दू-विरोध और इस्लामी अंध-विश्वास नई पीढियों में कूट-कूट कर भरती है, उस का पैमाना क्या है, और उस के कितने भयंकर दुष्परिणाम होते रहे हैं?

दुनिया के कई देश इस बिन्दु की महत्ता समझते हैं। पर हमारे सेक्यूलर-वामपंथी ठीक उलटे यहाँ ‘हिन्दू आतंकवाद’, ‘हिन्दू फासिज्म’, ‘असहिष्णुता’, आदि का शोर-शराबा कर भारत-पाकिस्तान को बैलेंस कर, दुनिया में भारत और हिन्दुओं की झूठी काली तस्वीर खींचते हैं। यह एक भयंकर अपराध है।

हम ने कभी नहीं सुना कि बार-बार पाकिस्तान जाने वाले भारतीय बुद्धिजीवियों, पत्रकारों ने वहाँ की पाठ्य-पुस्तकों, मदरसों की कोई समीक्षा प्रस्तुत की हो। जबकि पश्चिमी पत्रकारों, संगठनों ने यह कार्य व्यवस्थित रूप से किया। जरा विचारें – पाकिस्तान के स्थाई भारत-विरोध को देखते हुए क्या हमारे बुद्धिजीवियों की गफलत अनजाने है? जो देश पाकिस्तानी नीतियों से सब से अधिक दुष्प्रभावित हुआ, वहीं के लेखक-पत्रकार उन विषैली पाठ्य-चर्या का महत्व न समझें?

अमेरिकी संस्था ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिलीजन एंड डिप्लोमेसी’ ने पाकिस्तान के चार प्रांतों की सौ से अधिक पाठ्य-पुस्तकों का अध्ययन किया था। उन्होंने असंख्य शिक्षकों और छात्रों से भी बात-चीत की। ताकि उस शिक्षा के तथ्य और मानसिकता का प्रमाणिक आकलन किया जा सके। इसी तरह, अमेरिकी शोधकर्ता ईवेत क्लेर रोस्सेर कई देशों की पाठ्य-पुस्तकों पर शोध करती रही हैं। उन्होंने पाकिस्तानी पाठ्य-पुस्तकों पर एक पुस्तक भी लिखी – ‘इस्लामाइजेशन ऑफ पाकिस्तानी सोशल साइंस टेक्स्ट-बुक्स।’ यह पाकिस्तानी राजनीति और इस्लामी अंधविश्वास की विडंबनाओं का आकलन है। उदाहरणार्थ, वहाँ पाठ्य-पुस्तकों में एक ओर पाकिस्तानी राष्ट्रवाद उभारा जाता है, ताकि 1947 में भारत से अलग होकर नया देश बनाना सही ठहराएं। इस के लिए सिंधियों, बलूचों का संपूर्ण इतिहास नकारा जाता है, ताकि वे खुद को ‘पाकिस्तानी’ समझें। पर दूसरी ओर, इस्लामी सिद्धांतों को सही बताने हेतु राष्ट्रवाद को नकारा भी जाता है। क्योंकि प्रोफेट ने विश्व-इस्लाम (उम्मा) की धारणा दी थी! उन्होंने मुसलमानों को देश की सीमा में बँधने से ही मना किया और पूरी दुनिया जीतने का कौल दिया था। वैश्विक खलीफा और खलीफत वही चीज थी।

फिर, पाकिस्तानी पाठ्य-पुस्तकों में पाकिस्तान का जन्म प्रोफेट से ही जोड़ा जाता है! इस के लिए इतिहास की कई शताब्दियाँ गुम कर दी गई हैं। केवल वे घटनाएं बीच-बीच से उठाई जाती हैं जिस से पाकिस्तान ‘विचार’ का ऐतिहासिक क्रम दिखे। अतः वहाँ के इतिहास की शुरुआत आठवीं सदी से होती है (वैदिक-सरस्वती, मोहन-जोदड़ो, हड़प्पा, आदि सभ्यताएं महत्वहीन, काफिर थीं जिन का नाश होना ही था। उन का जिक्र पाठ्य-पुस्तकों में नहीं होता।)

आठवीं के बाद सीधे बारहवीं सदी आती है। फिर, सोलहवीं। मानो इन बीच सदियाँ हुई ही नहीं! सन् 712 ई. में मुहम्मद बिन कासिम द्वारा भारत पर पहला हमला; फिर 1025 में महमूद गजनवी का सोमनाथ मंदिर विध्वंस; 1192 में मुहम्मद गोरी का पृथ्वीराज चौहान को हराना; 1526 में बाबर द्वारा भारत में मुगल-राज की स्थापना; 1658-1707 के औरंगजेब काल में इस्लाम और हिन्दुओं का संघर्ष; 1782-1799 के बीच टीपू सुल्तान का जलवा; अंग्रेजों के खिलाफ 1857 की बगावत; फिर सैयद अहमद खाँ, शाह वलीउल्ला, सैयद बरेलवी, अल्लामा इकबाल से होते हुए 1940 में मुस्लिम लीग का पाकिस्तान प्रस्ताव; और कायदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना। कुल जमा यही पाकिस्तान में इतिहास की पढ़ाई है। इन घटनाओं के सिवा उस धरती पर कुछ नहीं हुआ, जो पाकिस्तान कहलाता है।

ऐसा विचित्र इतिहास नई पीढियों में भरने की जिद में बड़ी कसरतें करनी पड़ी हैं। जैसे, सिंध के हिन्दू राजा दाहिर पर मुहम्मद बिन कासिम की जीत प्रभावशाली बताने हेतु दाहिर को क्रूर और कासिम को भला दिखाया गया है। इस के लिए सफेद झूठ गढ़े गए हैं। लेकिन सिंधी लोग वास्तविक इतिहास जानते हैं। सिंधियों ने ही रोस्सेर को बताया कि दाहिर बेहद लोकप्रिय था, जब कि जीतने पर कासिम ने अठारह वर्ष से ऊपर सभी सिंधी पुरुषों का सर कटवा दिया और हजारों सिंधी स्त्रियों को अरब के अबैसिद सुलतानों, ईमामों के हरम भिजवाया। आज भी सिंधी लोग नरम स्वभाव हैं, और पंजाबी मुसलमानों से डरते हैं। एक सिंधी किसान ने रोस्सेर को बताया कि ‘चाहे हमारे नाम मुसलमान हों, किंतु हमारे रक्त में बौद्ध जीवाणु हैं।’ इसी तरह बलूच जानते हैं कि उन के पूर्वज अग्नि-पूजक पारसी थे। उन ने जान बचाने की खातिर इस्लाम कबूला था। क्वेटा के इतिहासकार प्रो. आगा मीर नसीर खान ने यह कथा बताई। आज भी बलूच कोई कसम खाते हैं तो आग की ओर मुँह करके! हजार साल बाद भी बलूचों के बीच सूरज और आग की पुरानी कहानियाँ प्रचलित हैं जो पारसी पूर्वजों ने सुनाई होंगी।

प्रो. नसीर ने यह भी बताया कि क्यों अफगान व पठान ज्यादा कट्टर होते हैं। अफगानों-पठानों को इस्लामी हमलावरों का कहर बार-बार झेलना पड़ा था। हमलावर उन्हें तलवार दिखाकर धर्मांतरित करते, लेकिन उन के जाने पर धर्मांतरित मुसलमान फिर बौद्ध बन जाते! हमलावर जब फिर आते तो जान बचाने की खातिर अफगान व पठान खुद को कट्टर मुसलमान दिखाने की कोशिश करते। ऐसा कई बार हुआ। इस तरह सायास अपनाई गई कट्टरता अंततः उन का स्वभाव बन गई!

पाकिस्तानी मानसिकता में यह विडंबना आज भी दिखती है। दशकों से वैश्विक इस्लामी आतंकवाद का सब से बड़ा सांगठनिक, रणनीतिक, मानवी स्त्रोत वहीं होना क्या है? इस में वही हीनता (या उच्चता) ग्रंथि है किः ‘देखो, हम पक्के मुसलमान हैं’, अरबों से भी ज्यादा! गत बीस-पच्चीस वर्ष में दुनिया में इस्लामी आतंकवाद की शायद ही कोई घटना हुई, जिस के तार पाकिस्तान से न जुडेक हों! इस का रहस्य विचारणीय है।

पश्चिमी पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान में जिन पूर्वजों को सदियों पहले इस्लामी हमलों का क्रूर शिकार होना पड़ा था, आज उन के वंशज हमलावरों की जीत का जश्न मनाते हैं। कैसी दारुण विडंबना! पाकिस्तानी इतिहास में उस धरती पर आने वाले बर्बर हमलावरों को ही इज्जत मिली हई है। बिन कासिम, गजनवी, घूरी, बाबर, औरंगजेब आदि उन के महापुरुष हैं। यह धर्मांतरित मुस्लिम की हीन-भावना ही है कि वह अपनी धरती से पाँच हजार मील दूर के अरब हमलावरों से खुद को जोड़कर गौरव महसूस करता है।

कई पाकिस्तानी लेखक जिन्ना की वंशावली भी अरब से, वह भी मुहम्मद के परिवार से जोड़कर दिखाते हैं। जब कि जिन्ना खालिस गुजराती थे, जिन के पुरखे जीनाभाई दो ही पीढ़ी पहले धर्मांतरित हुए। जिन्ना के पिता ही कई हिन्दू रीतियों का पालन करते थे। पर अपने हिन्दू-विरोधी अस्तित्व को सही ठहराने की जिद में पाकिस्तानी पुस्तकों में तरह-तरह के झूठे विवरण मिलते हैं।

मजे की बात यह भी कि वहाँ हर उस ऐतिहासिक तफसील को गर्व से पढ़ाया जाता है जिसे यहाँ मार्क्सवादी इतिहासकार ‘हिन्दू संप्रदायवादियों का गढ़ा झूठ’ बताते हैं। रोमिला थापर ने गजनवी द्वारा मंदिरों के ध्वंस को धन-लालच की कार्रवाई बताया है। इस से पाकिस्तानी नाराज हैं कि भारत के हिन्दू (मार्क्सवादी) लेखकों ने गजनवी के महान काम को लालच से जोड़ा। इसी तरह, यहाँ अकबर को भारत का महानतम शासक कहते हैं, जबकि पाकिस्तानी किताबों में अकबर का जिक्र तक नहीं मिलता। यदि मिले भी तो कटु निंदा के साथ, कि उस ने इस्लाम का प्रसार बाधित किया।

पाकिस्तानी शिक्षा के इस व्यवस्थित इस्लामीकरण की तुलना में भारत में उलटे हिन्दू-विरोधी सेक्यूलरिज्म से पाठ्य-पुस्तकें ओत-प्रोत हैं। फिर भी, भारत-पाकिस्तान को हर चीज में ‘बैलेंस’ करने की मानसिकता से यहाँ हिन्दू सांप्रदायिकता और इस्लामी कट्टरता की बराबर तुलना होती है। यह कितना आत्मघाती है, हमारे प्रोफेसर, संपादक और नेता नहीं जानते!

साभार-http://www.nayaindia.com/ से

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