केंद्रीय मंत्रिमंडल में उद्योग राज्य मंत्री बने 64 वर्षीय सारंगी की जिंदगी की झलक दिखाने वाली उनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं। गमछा पहने अपने घर के बाहर नल के पास नहाते हुए या फिर साइकिल पर या ऑटो रिक्शा पर चुनाव प्रचार करते हुए, मंदिर के बाहर पूजा करते हुए उनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर छाई हुई हैं।
सारंगी ने ओडिशा में बजरंग दल के अध्यक्ष के तौर पर भी काम किया है और उससे पहले वह राज्य में विश्व हिंदू परिषद के एक वरिष्ठ सदस्य भी रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से लंबे समय से जुड़े रहे सारंगी जमीन से जुड़े कार्यकर्ता रहे हैं।
नीलगिरी क्षेत्र से दो बार विधायक रह चुके सारंगी आज भी अपने गांव गोपीनाथपुर में एक कच्चे मकान में रहते हैं। गांव में ही नहीं भुवनेश्वर में भी उनकी मां उनके साथ रहती थीं। लेकिन पिछले साल उनके देहांत के बाद अब वे बिलकुल अकेले पड़ गए हैं।
हमेशा सफेद कुर्ता-पायजामा, हवाई चप्पल और कंधों पर कपड़े के झोले में नजर आने वाले इस अनोखे राजनेता को भुवनेश्वर के लोग आए दिन सड़क पर पैदल जाते हुए, रेलवे स्टेशन पर ट्रेन का इंतजार करते हुए या सड़क किनारे किसी झोपड़ी होटल में खाना खाते हुए देखते हैं।
इलाके पर पकड़ होने के कारण ही लगभग 13000 वोटों से जीते है प्रतापचन्द्र सारंगी, आज भी झोपड़े में रहते है। प्रताप चंद सारंगी 542 सांसदों में सबसे गरीब आर्थिक रुप से कमजोर सांसद हैं। जिनके पास मोबाइल नहीं है। झोपडी में निवास है। ग्राम पंचायत के हैंडपंप पर स्नान करते हैं। 12970 वोटों से अरबपति उम्मीदवार को हरा कर विजेता बने हैं। इन्होंने पूरा प्रचार साइकिल से किया।
2004 से 2014 तक जब वे विधायक थे, तब भी उनकी जीवन शैली यही थी और आज भी वही है। भुवनेश्वर के एमएलए कॉलोनी में रहने वाले लोग जो उनके घर आते-जाते थे, वे यह देखकर हैरान होते थे कि वहां एक चटाई, कुछ किताबें और एक पुराने टीवी के अलावा कुछ नहीं था।
इस बार सारंगी के लिए चुनाव जीतना कतई आसान नहीं था। चुनाव मैदान में उनकी टक्कर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष निरंजन पटनायक के बेटे नवज्योति पटनायक से थी, तो दूसरी तरफ थे पिछली बार उन्हें एक लाख 42 हजार वोटों से हराने वाले बीजेडी के रवींद्र जेना। ये दोनों उम्मीदवार खासे अमीर थे।
दोनों के प्रचार के लिए दर्जनों एसयूवी लगी हुई थी। इन दोनों उम्मीदवारों के सामने एक खटारा ऑटो रिक्शा की छत हटा कर उस पर खड़े होकर प्रचार करने वाले ‘प्रताप नना’ भारी पड़े हालांकि सारंगी सिर्फ 12 हजार वोटों के मामूली अंतर से जीत पाए।
प्रताप चंद्र सारंगी से जुड़ा एक किस्सा है. 2009 में जब वह ओडिशा में विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे तो बीजेपी ने उन्हें टिकट दिया था.
लेकिन वह टिकट ही खो गया. बावजूद इसके उन्होंने पार्टी से दूसरा टिकट नहीं मांगा और निर्दलीय ही पर्चा भर दिया. टिकट खोने का कारण भी अलग है. जब वह पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बस में सफर कर रहे थे तो जेब से टिकट गिर गया, जो बाद में मिला ही नहीं.
अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए बीजेपी के उपाध्यक्ष समीर मोहांती ने बताया कि प्रताप सारंगी ने अपने बैग में टिकट रखा हुआ था, लेकिन वह गिर गया. जिसके बाद उन्होंने निर्दलीय पर्चा भर दिया और चुनाव भी जीत गए.
बालासोर से लोकसभा सांसद चुने जाने से पहले वह 2004, 2009 में निलागिरी विधानसभा सीट से बतौर विधायक जीत दर्ज कर चुके हैं. 2004 में बीजेपी के टिकट से, तो 2009 में निर्दलीय के तौर पर.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें अपने कैबिनेट में जगह दी है और राज्य मंत्री बनाया है. गुरुवार को जब वह शपथ लेने आए तो राष्ट्रपति भवन का प्रांगण तालियों से गूंज उठा. सोशल मीडिया पर भी उनकी काफी चर्चा हो रही है. प्रताप सारंगी, हिंदी-ओड़िया-संस्कृत भाषा में निपुण हैं.
प्रताप सारंगी की राजनीति और उनके विचारों से असहमत लोगों की भी कमी नहीं है।
सारंगी के आठ अप्रैल 2019 के शपथपत्र के अनुसार उनके खिलाफ सात आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिनमें गैरकानूनी तरीके से इकट्ठा होना और दंगा, धार्मिक भावनाएं भड़काने आदि के मामले शामिल हैं। हालांकि शपथपत्र के मुताबिक उन्हें किसी भी मामले में दोषी नहीं ठहराया गया है।
जनवरी, 1999 में क्योंझर जिले के मनोहरपुर गांव में ऑस्ट्रेलियाई डॉक्टर और समाजसेवी ग्राहम स्टेंस और उनके दो छोटे बच्चों की निर्मम हत्या के बाद मैं जब उसी गांव में उनसे पहली बार मिला, तब वे बजरंग दल के राज्य प्रमुख थे।
ग्राहम स्टेंस और उनके छोटे बच्चों की जिंदा जलाकर मार डालने के मामले में बजरंग दल के ही दारा सिंह को दोषी पाया गया था। सारंगी हिंदुओं के कथित जबरन धर्मांतरण के खिलाफ खुलकर अभियान चलाते रहे हैं। इस मुलाकात के समय दारा सिंह की गिरफ्तारी नहीं हुई थी, सारंगी हत्या की निंदा तो कर रहे थे लेकिन उनका जोर धर्मांतरण रोकने पर अधिक था।
आरएसएस और बजरंग दल से जुड़े होने के कारण जाहिर है कि उनके राजनीतिक विचार किसी से छिपे नहीं हैं, वे संघ की प्रचारक परंपरा से आते हैं और इसीलिए अविवाहित हैं।
कुछ लोगों ने उन्हें ‘ओडिशा का मोदी’ का खिताब भी दे डाला है क्योंकि मोदी की तरह वे भी घर-बार छोड़कर निकल पड़े थे और संघ से जुड़े रहे हैं, हालांकि मंत्री बनने के बाद उनकी जीवनशैली मौजूदा दौर के मोदी जैसी होगी या नहीं, यह देखना बाकी है।
आरके मिशन कोलकाता में कुछ समय बिताने के बाद वे वापस ओडिशा लौट आए, उहोंने कुछ दिन के लिए नीलगिरी कालेज में क्लर्क की नौकरी की। लेकिन नौकरी उन्हें रास नहीं आई।
तब तक आरएसएस की विचारधारा उनके दिलो दिमाग में बस गई थी। शीघ्र ही वे संघ की सहयोगी संगठनों के जरिए सामाजिक कार्यों में जुट गए। बालासोर और पड़ोसी मयूरभंज जिलों के आदिवासी इलाकों में कई स्कूल खोलेऔर कई गरीब, होनहार बच्चों की पढ़ाई के लिए आर्थिक सहायता दी।