नेपोलियन को ‘फ्रांस का समुद्रगुप्त’ क्यों नहीं कहा जाता है? समुद्रगुप्त को ही ‘भारत का नेपोलियन’ क्यों कहा जाता है? इसी तरह चाणक्य को ‘भारत का मैकियावेली’ क्यों कहा जाता है? इसका उल्टा क्यों नहीं हो सकता? जब दूसरी तलवारें (खासकर टीपू सुल्तान की तलवार) किस्से कहानियों में शुमार हो गई हैं तो पेशवा बाजीराव के दंडपट्ट से दुनिया को रूबरू कराने के लिए बॉलीवुड फिल्म की जरूरत क्यों पड़ी? इस दंडपट्टा से उन्होंने मुगलों से लोहा लिया था। आखिर ऐसा क्यों है कि भारत के इतिहास की किताबों में स्वामी विवेकानंद किसी कोने में दब गए हैं, जबकि कार्ल मार्क्स के विचारों से हजारों पन्ने काले कर दिए गए हैं?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के वैचारिक संगठन प्रज्ञा प्रवाह द्वारा 25 और 26 मार्च को दिल्ली के बाहरी इलाके में एक कार्यक्रम में इस तरह के सवालों पर लंबी चर्चा की गई। इस कार्यक्रम में करीब 700 बुद्घिजीवियों ने हिस्सा लिया। इसमें आरएसएस के सरसंघचालक मोहनराव भागवत भी शामिल हुए। इस सम्मेलन के साथ ही ‘ज्ञान संगम’ नाम की महत्त्वाकांक्षी परियोजना भी शुरू हो गई। हालांकि इस कार्यक्रम में स्वछंद विचारों के आदान प्रदान की ज्यादा गुंजाइश नहीं थी क्योंकि इसमें एक ही लक्ष्य तय हुआ था। लक्ष्य था देश की शिक्षा को औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकालना। यह काम शिक्षा विद करेंगे और अंग्रेजों की विरासत की बेडि़या तोड़ेंगे, जिन्हें संघ ‘मानसिक दासता’ मानता है।
हमारा सबसे बड़ा मिशन
प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे नंदकुमार ने कहा, ‘आजादी के बाद से ही अहम मान लिए गए छद्म सांस्कृतिक सिद्धांतों के जरिये हमारी संस्कृति पर जो प्रहार किए जा रहे हैं, उनसे टक्कर लेना और उन्हें खत्म कर देना ही हमारा सबसे बड़ा मिशन है। ‘ उनका कहना है कि उदारवादी कुलीन वर्ग की संस्कृत को खारिज करने की मानसिकता इसी छद्म सांस्कृतिक सिद्धांत का एक उदाहरण है। उन्होंने कहा, ‘जो भी संस्कृत में बात करता है उसे तुरंत कट्टरपंथी और रूढिवादी मान लिया जाता है।’
संघ की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के राष्ट्रीय संगठन मंत्री सुनील आंबेकर का कहना है कि यह मिशन विरोध का ही एक रूप है। उन्होंने कहा, ‘जो औपनिवेशिक मानसिकता और पहचान आजादी के कई दशकों बाद भी सत्ता के साथ चिपकी रही, वह ऐसी हरेक चीज को हेय दृष्टि से देखती है, जिसमें भारतीयता होती है। हम आम आदमी को विभिन्न मुद्दों पर विरोध करने का मंच देना चाहते हैं, जैसे स्कूलों में संस्कृत की मान्यता खत्म करना, साधु-संतों का मजाक उड़ाना और यह बात नहीं मानना कि विदेशी आक्रमणों से पहले भारत संपन्न देश था और उसकी अनूठी आर्थिक व्यवस्था थी।’
देश को औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकालने की वकालत करने वाले इस बात से सहमत नहीं हैं कि अंग्रेजों के आने से पहले भारत आधुनिक अर्थों वाला राष्ट्र नहीं था और अंग्रेजों ने ही इसके विभिन्न हिस्सों को भौगोलिक और प्रशासनिक आकार देकर एक सूत्र में पिरोया। संघ के मुख्य प्रवक्ता मनमोहन वैद्य पूछते हैं, ‘हम हमेशा एक ही तरह के व्यक्ति रहे हैं, हमारा धर्म, जीवनशैली और पहचान एक ही है। हमारे लिए राष्ट्र की परिभाषा यही है। अगर दक्षिणी राज्यों के लोग खुद को हिंदू नहीं मानते तो वे चार धाम यात्रा (यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बदरीनाथ) पर क्यों जाते?’ शिक्षा को औपनिवेशिक काल से बाहर निकालने के मुद्दे पर हुई चर्चा में मध्यकालीन इस्लामी शासन और मुगलों की जगह अंग्रेजों को ज्यादा कोसा गया। आंबेकर ने कहा, ‘मुगलों ने तक्षशिला और नालंदा के शिक्षा केंद्रों को नष्ट किया, लेकिन उनका ध्यान शिक्षा पर नहीं था। उन्होंने राजनीतिक लड़ाई लड़ी। अंग्रेजों ने हमें मानसिक गुलाम बनाने की लड़ाई लड़ी और इसकी शुरुआत स्कूलों से की।’
संघ के हथियार
संघ का कहना है कि उसे कई महापुरुषों से प्रेरणा मिलती है। इनमें स्वामी विवेकानंद, बाल गंगाधर तिलक और सुभाष चंद्र बोस शामिल हैं। विवेकानंद ने भारत की स्वराज की क्षमता पर जोर देकर स्वतंत्रता आंदोलन के संवाद की दिशा को मोड़ने का काम किया था। इसी तरह संघ धरमपाल और रवींद्र शर्मा को भी अपना प्रेरणास्रोत मानता है। धरमपाल की किताबों से दुनिया को अंग्रेजों से पहले के दौर की भारत की वैज्ञानिक और तकनीकी उपलब्धियों की जानकारी मिली। तेलंगाना के आदिलाबाद जिले में स्थिति रवीन्द्र शर्मा का गुरुकुल परंपरागत ग्रामीण भारतीय कौशल की शिक्षा देता है। इसी तरह अमेरिका के वेदाचार्य डेविड फ्रॉली को संघ अपना मैक्समूलर मानता है। मिथकों और इतिहास में वर्णित अतीत को राष्ट्रवाद के छौंक के साथ मिलाना ही शिक्षा के मामले में संघ का नया मिशन है। जाहिर है कि इसमें महात्मा गांधी का जिक्र भर है और जवाहरलाल नेहरू सिरे से गायब हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर और संघ से जुड़ी संस्था इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन के निदेशक राकेश सिन्हा इसकी वजह बताते हैं। वह कहते हैं, ‘भारतीय विद्या भवन को नेहरू का कोपभाजन बनना पड़ा था क्योंकि इसके संस्थापक के एम मुंशी ने सोमनाथ मंदिर बनाने की मुहिम में राजेंद्र प्रसाद, काकासाहेब गाडगिल और सरदार पटेल को झुका दिया था। नेहरू ने विद्या भवन को संरक्षण देना बंद कर दिया था।’ ज्ञान संगम में इस बात पर जोर आदर्शों से ज्यादा व्यावहारिकता के कारण दिया गया । दरअसल ज्यादातर लोगों को यह महसूस हुआ कि केंद्र और कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकारों होने के कारण विश्वविद्यालयों में कांग्रेस-वामपंथी दलों का दबदबा खत्म करने का यही सही वक्त है। इसमें संघ की विचारधारा से जुड़े लोगों को शिक्षक नियुक्त करना और दूसरे लोगों को अपने साथ जोड़ना शामिल है।
तब और अब
वैद्य आईआईटी-बंबई का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि कैसे संघ ने वहां के लोगों को अपनी विचारधारा से जुडऩे के लिए तीन स्तरीय योजना पर काम किया। पहली योजना के तहत वहां रोज शाखाएं लगाई गईं। दूसरी योजना के अंतर्गत विवेकानंद फोरम का आयोजन किया गया जिसमें छात्रों और शिक्षकों के साथ बौद्धिक और वैचारिक आदान प्रदान किया गया। तीसरी योजना में छात्रों को गरीबों की सेवा में लगाया गया। वैद्य ने कहा कि 1980 के दशक से संघ ने एबीवीपी से इतर स्वतंत्र रूप से कॉलेजों में काम किया। उनके पास खुद गुजरात और नागपुर के कॉलेजों की कमान थी। उन्होंने कहा, ‘संभव है कि हमारी शाखाओं में आए कुछ छात्र आजीवन स्वयंसेवक नहीं बने होंगे। लेकिन जब भी मैं उनसे मिलता हूं तो वे उस अनुशासन की सराहना करते हैं जो उन्होंने हमसे सीखा। हमारी कार्य संस्कृति के बारे में बात करने के लिए प्रबंधन संस्थान हमारे नेताओं को बुला रहे हैं।’
सिन्हा मानते हैं कि संघ के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अपनी विचारधारा को व्यापक स्वीकार्यता दिलाने की है। उन्होंने कहा, ‘सरकार से संरक्षण प्राप्त करने वाले संध विरोधी बुद्धिजीवी उसे सांप्रदायिक और फासीवादी बताते हैं। 2014 का जनादेश बदलाव का प्रतीक है। यह जनादेश एक विचारधारा के लिए है जहां आप प्रधानमंत्री और संघ में भेद नहीं कर सकते। संघ एक राष्ट्रवादी और तुष्टिकरण विरोधी संगठन है। मोदी ने तुष्टिकरण की जड़ों पर हमला किया था।’
उन्होंने कहा कि लोकसभा के जनादेश ने सरकार के साथ संघ के दशकों पुराने टकराव को खत्म कर दिया है। अब संघ प्रतिक्रियावादी होने के बजाय एजेंडा तय करने की भूमिका में है। सिन्हा ने कहा, ‘खासकर शिक्षण संस्थानों की बात करें तो वहां अब डराने धमकाने का माहौल नहीं है। बहस खुली और समावेशी होती है। ऐसे शिक्षक हैं जो छात्रों को संघ से जुड़े विषयों पर गाइड करने को तैयार हैं। मुझे याद है कि जब मैं संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार पर शोध लिख रहा था तो मुझसे कहा गया था कि विषय बदल दूं वरना किसी लायक नहीं रहूंगा।’
क्या संघ को उम्मीद है कि शिक्षण संस्थानों पर दशकों से चढ़े वामपंथी रंग को हटाने में उसे राजनीतिक संरक्षण से मदद मिलेगी? इसका उत्तर या तो अस्पष्ट था या नहीं में था। संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर के संपादक और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र के छात्र रहे प्रफुल्ल केतकर ने कहा, ‘संघ राजनीतिक संरक्षण के खिलाफ है क्योंकि उसका मानना है कि शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिए।’ सिन्हा का उत्तर सधा हुआ है। उन्होंने कहा, ‘गांधी की हत्या के बाद सरकार और निजी ताकतों ने संघ को शैक्षिक और बौद्घिक बहसों से बाहर रखने का भरपूर प्रयास किया। संघ ने जमीन पर आम लोगों के बीच काम किया लेकिन अपनी विचारधारा को थोपने की कोशिश नहीं की।’ उन्होंने संकेत दिया कि संघ की छवि को जो नुकसान पहुंचा है वह उसकी सोच से कहीं ज्यादा हो सकता है।
भाजपा शासित कुछ राज्यों में पाठ्यक्रमों में हुए कुछ बदलावों से पता चलता है कि संघ संरक्षक का काम कर रहा है। संघ की पाठशाला से निकले हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने संघ परिवार से जुड़े दीनानाथ बत्रा की अगुआई में एक सलाहकार समिति गठित की है, जो शिक्षकों का मार्गदर्शन करेगी और स्कूली पाठ्यक्रम में बदलाव के लिए सुझाव देगी। राजस्थान में राज्य विश्वविद्यालय के कर्ताधर्ताओं में संघ समर्थित राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ के दो सदस्य शामिल हैं। अलबत्ता मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे संघ के हस्तक्षेप से इनकार करती हैं।
नंदकुमार ने कहा कि ज्ञान संगम का सरकार से कोई लेनादेना नहीं था। हालांकि इसके समापन सत्र में पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री मुरली मनोहर जोशी मौजूद थे। मौजूदा मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने जनवरी में जम्मू-कश्मीर में संवाद सही करने पर संघ के एक कार्यक्रम को संबोधित किया था। जावड़ेकर से पहले जब स्मृति ईरानी ने मंत्रालय की कमान संभाली थी तो संघ की उन पर करीबी नजर थी। शिक्षाविदों के साथ जब भी वह बैठक करती तो उसमें संघ के प्रतिनिधि मौजूद रहते थे। संघ के एक नेता ने कहा, ‘हमें सरकारी संरक्षण स्वीकार करने के लिए लचीला रुख अपनाना चाहिए।’
एबीवीपी
संघ और उसकी छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद शिक्षण संस्थानों में अलग-अलग काम करती हैं। कभी-कभार दोनों संस्थाएं एकजुट भी हो जाती हैं। एबीवीपी का दावा है कि 2016 में उसके 31 लाख सदस्य थे। आधिकारिक रूप से इसकी स्थापना 1949 में मुंबई के शिक्षाविद यशवंतराव केलकर ने की थी। इसके दो साल बाद भारतीय जन संघ अस्तित्व में आया था। संघ के इस सबसे पुराने प्रमुख संगठन का सबसे पसंदीदा नारा है - भारत में रहना है तो वंदेमातरम कहना है।
मुद्दे
कश्मीरी हिंदुओं का विस्थापन, कश्मीर घाटी में अलगाववाद, असम में अवैध घुसपैठ, नदियों की सफाई, निजी कॉलेजों और विश्वविद्यालय पर लगाम कसने के लिए नियामक प्राधिकरण, विश्वविद्यालयों में छात्र संघों के चुनाव दोबारा शुरू करवाना, पेशेवर विश्वविद्यालयों में दाखिले की चाहत वाले छात्रों के लिए सब्सिडी वाले कोचिंग सेंटर खोलना, दलितों, पिछड़ों, महिलाओं के लिए ज्यादा सरकारी विश्वविद्यालय खोलना।
आंदोलन और हिंसा
जनवरी 2012: पुणे के एक कॉलेज में ‘वॉयसेज ऑफ कश्मीर’ संगोष्ठी में कश्मीर पर संजय काक की फिल्म जश्ने आजादी का विरोध
अप्रैल 2012: उस्मानिया विश्वविद्यालय में बीफ फेस्टिवल पर हमला।
सितंबर 2013: हैदराबाद में कश्मीरी फिल्म महोत्सव पर हमला।
दिसंबर 2014: हिंदी फिल्म पीके का विरोध।
अगस्त 2016: जम्मू-कश्मीर में मानवाधिकार हनन के बारे में कार्यक्रम आयोजित करने पर एमनेस्टी इंटरनेशनल के खिलाफ पुलिस में शिकायत।
जुलाई-अगस्त 2015, दिसंबर 2015 और जनवरी 2016: मुजफ्फरगनर सांप्रदायिक हिंसा पर बनी फिल्म का प्रदर्शन हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में करनके दौरान एबीवीपी और अंबेडकर स्टूडेंट्स यूनियन (एएसए) के सदस्यों के बीच झड़प, रोहित वेमुला और एएसए के पांच सदस्य निलंबित, रोहित ने आत्महत्या की।
फरवरी 2016: जवाहर लाल विश्वविद्यालय के छात्रों ने 2001 में संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु और कश्मीरी अलगाववादी मकबूल बट्ट की फांसी का विरोध किया, एबीवीपी ने इसका विरोध किया, जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्वाण भट्टाचार्य देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार।
फरवरी 2017: जेएनयू के उमर खालिद और शेहला राशिद को रामजस कॉलेज में बोलने के लिए आमंत्रित करने पर एबीवीपी की दिल्ली विश्वविद्यालयों के छात्रों से झड़प।
शिक्षा से जुड़े संघ के संगठन और संस्थाएं
विद्या भारती: वर्ष 1942 में गठित यह संगठन देशभर में सरस्वती शिशु मंदिर (प्राथमिक) और सरस्वती विद्या मंदिर (माध्यमिक) स्कूल चलाता है। इसका संगठन सरस्वती संस्कार केंद्र गरीबों के बीच काम करता है। विद्या भारती का मकसद एक राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था विकसित करना है और हिंदुत्व के प्रति समर्पित युवा पीढ़ी तैयार करना है जिनमें राष्टï्रवाद की भावना कूटकूटकर भरी हो।
अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना: इसकी स्थापना अयोध्या में राम मंदिर अभियान के अहम रणनीतिकार मोरोपंत पिंगले ने वर्ष 1979 में की थी। इसका उद्देश्य राष्ट्रवादी दृष्टिïकोण से भारतीय इतिहास लिखना है, जिसे अंग्रेजों ने ‘तोड़मरोड़कर’ पेश किया है।
विज्ञान भारती: संघ और भारतीय विज्ञान संस्थान, बेंगलूरु के कुछ वैज्ञानिकों ने 1982 में स्वदेशी विज्ञान आंदोलन के रूप में इसकी शुरुआत की थी। 1990 में इसका नाम बदलकर विज्ञान भारती किया गया था। इसका मकसद भारतीय विरासत को आगे बढ़ाना, भौतिक और आध्यात्मिक विज्ञान के बीच तालमेल कायम करना और देश के पुनर्निर्माण के लिए विज्ञान एवं तकनीक में स्वदेशी आंदोलन को पुनर्जीवित करना है।
साभार- http://hindi.business-standard.com/ से