कभी दुनिया के बेशकीमती धरोहर “ताज” की दुर्दशा को देख कर रवीन्द्र नाथ टैगौर ने कहा था कि “ताज”, काल के गाल पर लुड़के हुए आँसू ‘ की तरह है , न जाने कब इसका अस्तित्व ही खत्म हो जाए । ठीक वही हालत आज भगवान राम की नगरी ‘अयोध्या’ के जिला मुख्यालय फ़ैज़ाबाद शहर के दक्षिणी इलाके में स्थित ‘बहू बेगम का मकबरा’ की है । जिसको अवध क्षेत्र का ‘मिनी ताजमहल’ के नाम से भी जाना जाता है । इस मकबरे का निर्माण ठीक शाहजहाँ की तर्ज़ पर अवध के नवाब शुजाऊदौल्ला ने अपनी बेगम यानी रानी दुल्हन बेगम उन्मातुज्जोहरा बानो उर्फ बहू बेगम के लिए करवाया था। इतिहास के पन्नों में इसका निर्माण काल सन 1816 बताया जाता है। जो ईरानी स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है।
भारत के मुगल बादशाह मोहम्मद शाह (1719-48) की मुंह बोली बेटी उन्मातुज्जोहरा बानो उर्फ बहू बेगम की शादी बादशाह के कहने पर अवध के दूसरे शासक सफदरजंग (1739-54) के बेटे शुज़ाउद्दौला से 1743 में 46 लाख के खर्च पर बड़ी धूमधाम से हुई थी। सफदरजंग, अवध के शासक होने के साथ-साथ भारत के मुगल बादशाह के वज़ीर भी रह चुके थे। यही कारण है कि अवध के तीसरे शासक शुज़ाउद्दौला की यह मुख्य बेगम, जिनको शादी के बाद बहू-बेगम कहकर सम्बोधित किया जाता था, अवध के नवाबी वंश की सर्वाधिक धनी बेगम थीं। ,जिनका निवास मकबरे के पास में जवाहरबाग के निकट मोती महल में था। उस समय वह अवध की एक प्रतिष्ठित एवं गरिमामयी महिला के रूप में जानी जाती थीं। जो हर सप्ताह तफरी (घूमने) के लिए यहीं जवाहर बाग में आया करती थीं । एक दिन यहीं खड़े होकर उन्होने ख़्वाहिश ज़ाहिर की कि बाद वफ़ात मुझे यहीं दफनाया जाये । इसके लिए उन्होने अपने वज़ीर दारब अली खाँ को तीन लाख (उस समय) रुपये नज़र किए । जिस पर बहू बेगम के वज़ीर दारब अली खाँ जनाब ने उनकी हसरत पूरी कर के लगभग पचास एकड़ के क्षेत्रफल वाले बागान के बीच इस सुंदर इमारत का निर्माण करवाया। जिसके चारों ओर खूब सूरत बाग बगीचे हुआ करते थे। कहते हें कि शानो-शौकत में लासानी, बारह एकड़ से ज्यादा में फैले ईरानी स्थापत्य कला के इस अनूठे नमूने में छह एकड़ से ज्यादा क्षेत्रफल का बड़ा-सा आंगन था। दूसरी ओर बागों, कुओं और स्नानागारों आदि से सज्जित आरामगाहों का अपना अलग ही आकर्षण था।
यह मकबरा तीन मंज़िला है ,जिसके ऊपरी भाग से देखने पर अयोध्या स्थित सरयू नदी तक दिखती थीं । मकबरे के ऊपरी मंज़िल पर बने गुंबदों व हाल की छतों पर बने कलाकृतियों व यूनामे भरे चटक रंगों को आज भी देखा जा सकता है। जिसके रंग अब कुछ धुंधले होते जा रहे हैं ,जिसे अब संरक्षण की बहुत जरूरत है । चाँदनी रात में जब चाँद अपने पूरे योवन पर होता है तो मकबरे की रंगत देखते बनती है। वैसे तो हर शाम सूर्यास्त के समय जब डूबते सूर्य की लालिमा इस के गुम्बद पर पड़ती है तो वह दृश्य किसी स्वप्न सा ही होता है । तीन प्रवेश द्वारों से हो कर मकबरे तक पहुंचा जा सकता है । मकबरे के मध्य प्रकोष्ठ में बहू बेगम की कब्र है। जहां गलियारे द्वारा पहुंचा जा सकता है। जब कि केंद्रीय कक्ष में शाह-ए-शीन पर अनेकों धार्मिक चिन्ह बने हुए हैं । चारों ओर आयताकार बरामदा है । जिसके चारों कोनो पर चार तलीय मीनारें बनी हुईं है । इन मीनारों के ऊपर लम्बवत उत्कीर्णित धारियों से सज्जित गुंबद एवं उसके ऊपर उल्टा रखा हुआ पद्मकोश बना हुआ है। गुम्बद के नीचे तली में पंखुड़ियों जैसी आकृति से सजाया गया है। बताते हैं कि बहू बेगम के मकबरे से एक सुरंग लखनऊ तक गई है । यद्यपि इसकी कोई पुष्टि तो नहीं करता । पर कहते हें की सुरंग चौड़ाई इतनी है कि उसमें से तीन घोड़े एक साथ दौड़ सकते हैं ।
लखनऊ से पहले अवध की राजधानी फैजाबाद हुआ करती थी । 1775 में नवाब शुज़ाउद्दौला की मृत्यु के बाद जब उनका बेटा आसिफउद्दौला गद्दी पर बैठा, तो उसके धूर्त वजीर और दरबारियों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए नवाब और उसकी मां बहू-बेगम के बीच कभी न पटने वाली खाई पैदा कर दी। उनके बीच कटुता इस सीमा तक बढ़ गयी कि नवाब ने मां के प्रभाव से बचने के लिए सन् 1776 में अपनी राजधानी फैजाबाद छोड़ लखनऊ बना ली और मां बहू बेगम फैजाबाद में ही अपने महल में रहती रही।
उस समय बेगम आफ अवध के नाम से दो बेगमें जानी जाती थीं, जिनका प्रभुत्व पूरे अवध में था। एक थीं नवाब शुजाऊदौल्ला की माँ बेगम मोती महल और दूसरी थीं उन्मातुज्जोहरा बानो उर्फ बहू बेगम।। अपनी सास की तरह बहू बेगम भी बहुत होशियार महिला थीं । 1764 में जब अंग्रेजों के हाथों अवध की पराजय हो गई थी । हरजाने के तौर पर अंग्रेजों को चालीस लाख रुपये अदा करने थे। नवाब साहब का खज़ाना खाली था ,तब बहू बेगम ने अपनी संपत्ति, सोने चाँदी के गहने यहाँ तक कि नाक की कील तक गिरवी रख कर वह राशि इकठ्ठा कर चुकाया था । बहू बेगम जब तक जिंदा रहीं तब तक शान की जिंदगी जीती रहीं । इतिहास इस बात का गवाह है कि उनके समय में हिंदुस्तान के 33 प्रदेशों में कोई अन्य महिला उनके मुक़ाबले में नहीं थी । जिनके वैभवकाल में उनके पास 10 हज़ार घुड़सवार , और पैदल सेना थी, हाथी और घोड़ों की संख्या अनगिनत बताई जाती है । कहते हैं कि दस-बारह दिन की बीमारी के बाद 26 मोहरम 1230 हि ,28 दिसंबर 1815 को उनका इंतकाल हो गया,उसी दिन दोपहर 2 बजे उनके चाहने वालों ने सुपुर्द-ए-खाक उसी मकबरे में कर दिया,जहां आज भी वह अवध के गर्दिशों को अपने जेहन में सँजोये सोईं हुई हैं ।
आज वही नवाबी स्थापत्य कला का आकर्षण नमूना बहू बेगम का मकबरा अपनी दुर्दशा पर आसू बहा रहा है ,जिसका पुरसाहाल शायद कोई नहीं है ,उसका सुख –दुख सब सरकारी कागजों में ही सिमट कर रह गया है । वैसे मकबरे की देख रेख वक्फ बोर्ड करता है । लेकिन मकबरा भारतीय पुरातत्व विभाग के तहत ही आता है, शायद पुरातत्व विभाग वालों को भी इसकी सुध-बुध नहीं है।
बहू बेगम के मकबरे से मेरा काफी लगाव रहा है,एक तो इतिहास में रुचि का होना ,दूसरा मकबरे के पास ही लगभग सौ मीटर की दूरी पर ननिहाल का होना। इस लिए अधिकांश समय वहीं पर बिताना । सत्तर के दशक मैं हम सब ममेरे-मौसेरे भाई बहन अपने मामा व मौसियों के साथ अक्सर मकबरे में घूमने जाया करते। तब तो इतनी रोकटोक तो होती नहीं थी। फिर छोटे नाना का अपना रोब (प्रतिष्ठा) था ही । नाना सूर्य भान लाल अपने समय के काफी नामी वकील हुआ करते थे। हाँ तो बता रहा था की मकबरे में ऊपरी मंजिल तक जाते, वहाँ बने झरोकों से देखते तो पूरा शहर दिखाता था, शायद वही देखने ही अधिक जाते थे। वहाँ से अयोध्या का दृश्य तो और अधिक लुभावना होता था। दूर पतली सी अविरल बहती सरयू धारा, विवादित जन्मभूमि का तीनों गुंबद (6 दिसंबर 1992 के पहले का) साफ-साफ दिखाता था। तब भी ऊपरी हिस्से में दीवारों पर प्रेमी-प्रेमिकाओं द्वारा चाक,खड़िया व ईंट के टुकड़ों से अपने नामो को खोदने/लिखने का बहुत प्रचलन था। अब तो शायद प्रतिबंध लग गया है ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए। हाल ही में गया था देखने लेकिन वहाँ पर किसी के न होने से ऊपर तक नहीं पहुँच पाया था।
पिछले 45 वर्षों में काफी कुछ बदल गया है वहाँ । चौक-नाका मार्ग पर स्थित प्रवेश द्वार पर आटो,-रिक्शा वालों का अतिक्रमण हो गया है। मकबरा परिसर में स्थानीय लोगों ने अवैध कब्जे कर लिए हैं। अब तो पचास एकड़ वाला मकबरा परिसर सिकुड़ कर 36 एकड़ से भी कम रह गया है। मकबरे की बाहरी चहारदीवारी के काफी भाग नष्ट हो चुके हैं । नक्काशीदार ,मेहराबवाले बरामदों को चुनवाकर अवैध कब्जा कर लिया गया है। केवल इतना ही नहीं पुरातत्व महत्व वाले अनेक वस्तुएं चोरी की भेंट चड़ चुकी हैं ,जिनमें ईरान से लाये गए झाड-फानूस ,चाँदी छड़ी रेलिंग और न जाने कितनी चीजें रही होंगी ,जो गुम हो चुकी है । बस बचा है तो गुंबद पर लगा विशाल मोर की आकृति। जो आज भी हवा के दिशा को बताती है। अब जरूरत है इस ऐतिहासिक विरासत को संरक्षण के साथ-साथ बचाने की । इसके लिए पुरातत्व विभाग, उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग के साथ-साथ अयोध्या-फ़ैज़ाबाद की सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं को आगे आने की जरूरत है ,अन्यथा अवध का “मिनी ताज” कहा जाने वाला “बहू बेगम का मकबरा” भी प्रकृति के थपेड़ों को झेलता हुआ काल का गाल न साबित हो जाए।
आज स्थिति तो यह हो गई है कि यदि कभी ईरानी सौंदर्यपरी बहू बेगम की रूह ने चाहा कि चलो जरा अपने नवाब खाविंद शुजाऊदौल्ला जनाब की कब्र गुलाबबाड़ी (जहां पर वह अपनी माँ बेगम मोती महल के साथ चिर निंद्रा में सोये हें) तक टहल कर उनकी हालत का जायजा लेते आयें , शायद मकबरे के मुख्य दरवाजे पर टैंपो व अन्य वाहनों के कर्कश आवाज़ों व अतिक्रमण को देख कर वह पुनः उनही सुरंगों में जाना पसंद करेंगी,जो आज भी तिलिस्म की दुनिया का एक हिस्सा है।
कैसे पहुंचे :
हवाई मार्ग : निकटतम हवाई अड्डा ,चौधरी चरण सिंह अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा ,लखनऊ (दूरी 130 किलोमीटर)
श्री लाल बहादुर शास्त्री अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा ,वाराणसी (191 किलोमीटर)
रेल मार्ग : फ़ैज़ाबाद/अयोध्या दिल्ली,मुंबई,कोलकाता,सिकंदराबाद ,रामेश्वरम ,चेन्नई आदि जगहों से सीधा जुड़ा है ।
सड़क मार्ग: लखनऊ,गोरखपुर ,वाराणसी, प्रयागराज ,दिल्ली देहरादून आदि से राज्य परिवहन निगम की बसों से पहुंचा जा सकता है ।
इसके अलावा सभी जगहों से टैक्सी से भी पहुंचा जा सकता है ।
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लेखक के बारे में-
विगत 35 वर्षों से हिंदी पत्रकारिता से सम्बद्ध । जन्म फैजाबाद (अब अयोध्या) में 29 जुलाई 1959 में। प्रारंभिक शिक्षा गोरखपुर एवं फ़ैज़ाबाद से प्राप्त करने के बाद वाराणसी के सरस्वती सिक्षा मंदिर से हाई स्कूल एवं हरिश्चंद्र इंटर कालेज से इंटर के , बाद काशी विद्या पीठ से 1985 में ‘अर्थ शास्त्र से स्नातकोत्तर’ करने के बाद 1986 में ‘पत्रकारिता में स्नातक’ की उपाधि । तीन दशकों से अधिक समय से पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण नाम अंतर्जाल (नेट) पर सबसे लोकप्रिय साईट ‘समाचार फार मिडिया डाट काम द्वारा देश के पचास शीर्ष “हिंदी संपादकों” की सूची में चयन के लिए चुना भी गया था । पहली रचना 1976 में बाल पत्रिका ‘नंदन’ में प्रकाशित हुई थी ,उसके बाद एक कार्टून ‘मधु मुस्कान ‘ (सचित्र बाल पत्रिका) में उसी वर्ष प्रकाशित हुई | 1986 में पत्रकारिता की विधिवत शुरुवात वाराणसी के लोकप्रिय हिंदी दैनिक “आज ” में प्रशिक्षु उपसंपादक से , बाद में ‘आज’ के आगरा संस्करण |उसके बाद सहारनपुर व् हरियाणा के करनाल से प्रकाशित हिंदी दैनिक ‘विश्व मानव’ में उपसंपादक । फिर गुवाहाटी से प्रकाशित हिंदी दैनिक “उत्तरकाल “में वरिष्ठ उपसंपादक । 1990 में हरियाणा के करनाल व गुड़गाव से प्रकाशित हिंदी दैनिक “जन सन्देश में “फीचर संपादक के पद पर वापसी। 1992 में महाराष्ट्र के औरंगाबाद से प्रकाशित “देवगिरी समाचार “में फीचर संपादक ,फिर वहीँ कार्यकारी संपादक का दायितव्य। उसके बाद कुछ समय तक पुणे से प्रकाशित “आज का आनंद ” में भी रहे। सन 2000 में तेलंगाना (तब आंध्र प्रदेश में था) के निज़ामाबाद जिले से प्रकाशित हिंदी दैनिक ‘स्वतंत्र वार्ता का प्रारम्भ हुआ तो वहां 2012 तक स्थानीय सम्पादक । वर्तमान में लखनऊ से ही पर्यटन पर आधारित देश की पहली हिंदी त्रैमासिक पत्रिका ‘प्रणाम पर्यटन’ एवं पाक्षिक “वसुंधरा पोस्ट” का प्रकाशन एवं संपादन ,साथ ही स्वतंत्र लेखन |
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