Saturday, November 23, 2024
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रामलीला कई देशों की संस्कृति का हिस्सा है

मर्यादा पुरुवषोत्म श्रीराम के आदर्शों को अपने जीवन मे भी बनाये रखने की कामना से भारत तथा दक्षिण पुर्व एशिया के देश क बोडिया थाइलैंड लाओस म्यांमार (बर्मा) श्रीलंका इंडोनेशिया आदि ने रामायण की परम्परा को अनेक प्रकार से जीवित रखा है। कहीं मंदिरों की दीवारों पर रामायण के चित्र उत्कीर्ण कर उसे अमरत्व प्रदान करने के प्रयत्न किय गये तो कहीं चित्रकला के माध्यम से। परंतु जन—जन तक रामायण के प्रत्येक प्रसंग पहुंचाने के लिए रामलीला सर्वोत्कृष्ट माध्यम है। विजयादशमी से आठ—दस दिन पहले हमारे देश के कोने—कोने में, ग्राम—ग्राम, मुहल्ले—मुहल्ले में रामलीला आरम्भ हो जाती है।

थाईलैण्ड की राम—केइन
थाई देश में रामायण राम—केइन कहलाती है। वहां की भावनाओं कल्पनाओं, सामाजिक और धार्मिक जीवन—मूल्यों और साहित्यिक अभिरुचियों के अनुरूप अनेक परिवर्तन—परिवर्धन हो गये हैं। जब थाई राजा चूलंकर्ण 1897—1907 ई. तक की यूरोप यात्रा के उपरांत लौटकर आये तो उनके स्वागत में श्रीराम के अयोध्या आगमन का प्रसंग मंचित किया गया था।

थाई रामलीला में कुछ छोटे—छोटे अन्य अंतर विशेष अवसरों पर रामलीला का मंचन सामान्य रूप से भी किया जाता है। राजा सावङ वत्थन की पुत्री ‘दाला (तारा)’ के विवाह के अवसर पर लुआङ प्रबाङ में रामलीला पूर्ण वैभव से प्रस्तुत की गई। वहां रामायण का नियमित प्रशिक्षण, रावण पर श्रीराम की विजय, अधर्म पर धर्म की विजय को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया है। तभी तो रावण के दहन के साथ ही रामलीला का मंचन सम्पन्न किया जाता है।

दक्षिण—पूर्व एशिया के देशों के रामायण में भारतीय रामलीला से कुछ अंतर है। वहां रामलीला नाटक के रूप में नहीं अपितु नृत्य—नाटिका के रूप में मंचित की जाती है। इसका कथानक अनेक अंकों या दृश्यों में नहीं बांटा गया है। विभिन्न प्रसंगों को एक लंबे कथानक का रूप दिया गया है। इसमें संवादों की अपेक्षा नृत्य और संगीत की अधिक महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मंचों पर पर्दे आदि नहीं होते। मूल रूप से ये नृत्य नाटिकाएं खुले आकाश के नीचे किसी भव्य मंदिर अथवा ऐतिहासिक भवन के प्रांगण में की जाती थीं। आजकल रामायण नृत्य नाटिका का मंचन राजप्रासाद तक सीमित नहीं रहा है। पूरे वर्ष कहीं भी कोई भी पारिश्रामिक देकर मंडली को बुला सकता है और विवाह, जन्मदिवस या अन्य किसी भी विशिष्ट अवसर पर रामलीला करवा सकता है।

इन सभी देशों में यहां के प्रशासन ने नृत्य मंडलियां नियुक्त की हैं। उनके अतिरिक्त भी प्रत्येक बड़े नगर में ऐसी मंडलियां हैं। इनके पात्रों को नृत्य अभिनय आदि का लंबा प्रशिक्षण दिया जाता है तथा शरीर के अनेक भागों का व्यायाम करवाया जाता है, क्योंकि इन नृत्य नाटिकाओं में बहुत कुछ तो हाथों की मुद्राओं और शारीरिक भंगिमाओं से ही कह दिया जाता है। नृत्य अभिनय करने वालों की मुख्यत: चार श्रेणियां हैं — महिलाएं, पुरुष, राक्षस तथा वानर, मृगादि। कभी—कभी महिलाएं पुरुषों का अभिनय भी कर लेती है परंतु राक्षस, वानर आदि का अभिनय केवल पुरुष ही करते हैं।

चमचमाते हुए वस्त्रों, आभूषणों और मुकुटों की अद्धुभत मनोहारी छटा देखते ही बनती है। सभी पात्रों के वस्त्रों के रंग, मुकुटों के आकार—प्रकार आदि सुनिश्चित हैं। इसलिए वहां के लोग मंच पर आते ही पात्र को तुरंत पहचान जाते हैं। प्राय: इन सभी के लिए अधसिले वस्त्र तैयार किये जाते हैं। शेष सिलाई पहनाने के उपरांत की जाती हैं। ताकि वहीं किसी दृष्टि से कोई कमी न रह जाए। संगीत की लय और ताल पर थिरकते सुवर्ण मृग, उछल—कूद करते वानर अनायास ही हृदय को प्रफुल्लित कर देते हैं।

इंडोनेशिया: सीता की अग्रि—परीक्षा
अपनी इंडोनेशिया की यात्रा के दौरान रामायण के दौरान रामायण के विभिन्न रूपों के अभिनय देखने को मिले। ‘वायाङ’ और ‘केचक’ सर्वथा नये रूप थे। जावा में जो या नगर के निकट स्थित प्राबानन के प्रांगण में होने वाली रामलीला नैसर्गिक सौन्दर्य से परिपूर्ण लगी। वहाँ प्रति मास तीन दिन का रामायण का कार्यक्रम होता था।

वहाँ मंचित की जाने वाली रामलीला के अनेक विरस्मरणीय दृश्यों में से एक का वर्णन करना यहाँ अच्छा रहेगा। यह दृश्य है सीताजी की अग्नि परीक्षा का। इसके मंचन के समय अग्नि की लपटों के रंग के कपड़े पहने 200—250 कलाकार एक साथ थिरकते हुए इस प्रकार मंच पर आये कि उनके वस्त्रों के अतिरिक्त शरीर का कोई भाग दिखाई नहीं दे रहा था। मन से दुखी, परंतु तेजयुक्त देवी सीताजी ने जब अग्नि में प्रेवश किया तो अग्निदेव प्रकट हुए और बोले कि आज सीताजी के अग्नि में प्रवेश से अग्नि पवित्र हो गई। यह पूरा दृश्य अत्यंत मनोहारी होता है।

इंडोनेशिया में मंचित की जाने वाली रामलीला में भारत के रामायण के तथ्यों से कई भिन्नताएं भी प्रलित हैं। उदाहरणार्थ कैकेयी जब राजा दशरथ से वर मांगती है तब वह पहले ही बीमार थे। सीताजी की खोज आरंभ होने पर हनुमान, जाम्बवंत और अंगद जटायु के भाई से मिलने जाते है और पक्षियों की पीठ पर बैठकर वायुमार्ग से लंका जाकर शत्रु के राज्य को अच्छी प्रकार देखते हैं। वहां से लौटकर जटायु की गुफा में आ जाते हैं। श्रीराम लंका पर आक्रमण करने के लिए जब समुद्र के किनारे तक आ जाते हैं तो रावण अपनी भतीजी फेफेरन की पुत्री बन्यवाई के माध्यम से कपट का सहारा लेता है। वह सीताजी के मृत शरीर का रूप धारण कर लेती और पानी में बहती हुई श्रीराम के पड़ाव तक पहुंच जाती है। श्रीराम भ्रमित हो जाते हैं, परंतु हनुमान बहुत बुद्धिमत्ता से उस शव के दाह—संस्कार का प्रबंध करते हैं। यह सब देख रावण की भतीजी अपना कपट स्वीकार कर लेती है।

लाओस में लक्ष्मण को प्रमुखता
मीकांग (मां गंगा) नदी के पूर्व की ओर बसे छोटे—से लाओस में मूर्तिकला, चित्रकला, नृत्य नाटिका और संगीत आदि कलाएं अपने विषय के लिए रामायण की ओर देखती हैं। 18वीं शताब्दी से वर्तमान समय तक नृत्य नाटिकाओं में रामायण के मंचन का स्थान प्रमुख रहा है। वहां नाट्य शाला नामक केन्द्र में इसका प्रशिक्षण दिया जाता है। लाओस की रामायण फ्रम्लक फ्रम्लाम (प्रिय लक्ष्मण प्रिय राम) में लक्ष्मण को प्रमुख स्थान दिया गया है। यहां रावण को दस सिरे या बीस भुजाओं वाला नहीं बनाया जाता। वह एक सुंदर राजकुमार है जिस पर इन्द्र की विशेष अनुकम्पा है। यहां तक कि सीताहरण के समय वह स्वयं सुवर्ण मृग बनकर आता है। लाओ रामायण में मारीच का प्रसंग नहीं दिया जाता है।

कम्बोडिया की राष्ट्रीय निधि
कम्बोडिया में रामलीला अर्थात् रामायण के अभिनय का ज्ञान राष्ट्रीय निधि माना जाता है। सातवीं शताब्दी तक यह विशिष्ट एवं लोकप्रिय महाकाव्य के रूप में प्रतिष्ठित हो गई थी। वहां भी सामाजिक उत्सवों, राजकीय भोजों आदि के अवसरों पर कथाकार बहुत श्रद्धा के साथ रामकथा सुनाते थे और नृत्य—नाटिकाएं प्रस्तुत की जाती थीं, परंतु इतिहास के थपेड़े खाता कम्बुज अपनी अनेक पर परंपराओं और ज्ञान की विद्याओं को भूलता गया। फिर श्रीराम के भक्त कम्बुज नरेश नरोत्तम सिंहानुक ने रामलीला के मंचन की परम्परा पुनजीर्वित की। वह जब भी विदेश जाते, अपने साथ मंडली ले जाते। वहां ऊंचे से ऊंचे कुल के लोग रामायण के विभिन्न पात्रों का अभिनय करने में गर्व अनुभव करने लगे। नरोत्तम सिंहानुक की पुत्री राजकुमारी फुप्फा (पुष्पा) ने स्वयं सीताजी का अभिनय किया। नैसर्गिक सौन्दर्य से युक्त लाखों रुपये के रत्नजडि़त आभूषण तथा सिल्क के अति सुन्दर वस्त्र पहन कर जब वह मंच पर आती थी तो दर्शक मंत्रमुग्ध हो उठते थे। रामायण के प्रति अगाघ श्रद्धा ने उन्हें इतना लोकप्रिय बना दिया कि कलाकारों की तूलिका सीता के रूप में फुप्फा (पुष्पा) के चित्र बनाने लगी।

पहले कम्बुज रामायण मंडली में सभी कलाकार महिला हुआ करती थीं। अभी भी महिलाओं की संख्या अधिक है। 1995 में कम्बोडिया के अंकोरवाट में रामायण महोत्सव का आयोजन किया था। इसमें छह देशों के कलाकार आये थे। कम्बोडिया में बचपन से ही मुद्राओं का अभ्यास करवाया जाता है।

इस प्रकार एक तटस्थ दृष्टि से देखने पर इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि करोड़ों लोगों की जिंदगी में श्रीराम ने प्रेरणा का काम किया है और उनकी कथाएं दक्षिण एशिया के सभी देशों में व्याप्त हैं।

(लेखिका भारतीय विद्या भवन नई दिल्ली में इंडोलोजी विभाग की डीन हैं।)

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