पवन तिवारी
रज़ाकार! गजवा ए हिन्द की परिभाषा पढ़नी है तो इस फ़िल्म को देखें। इसे कई टुकड़ियों में शुरू किया गया था। निजाम हैदराबाद को तुर्किस्तान बनाने निकला था और इसके लिए अपनी सेना रज़ाकार से जेहाद शुरू करवाया और इसके मोटो में ‘क्रूरता तरीक़ा, राक्षसत्व आनंद और निजाम हथियार था.
लेखक-निर्देशक वाई सत्यनारायण ने हिम्मत करके इतिहास को चीर कर, उसमें दफ़्न हैदराबाद के दर्द को दर्शकों के सामने रखा है। ऐसे कंटेंट को सिनेमाई स्वरूप देने के लिए बहुत धैर्य चाहिए। बाकी इतिहास कतई सच बताने की स्थिति में नहीं रहा है, हैदराबाद ने हिंदुओं पर कितनी निर्ममता देखी। लेकिन बतलाने की हालत में न था, इसलिए फ़िल्म में खुलकर बताया गया है स्क्रीन प्ले में कई दृश्य इतने भयावक है कि आँखें बंद हो चली और रूह काँपने की स्थिति में थी। फिर भी सच से मुँह मोड़ना या कहे आँखें मुदना भागना कहलाता है।
छोटी बच्ची रोये नहीं, इसलिए माँ उसे देसी दारू पिला देती है तो बुजुर्ग को भूख लगी, नाले की मिट्टी खा लिया।
निजाम ने पूरा सिस्टम बैठा रखा था।
बग़ावत करने वालों के गाँव के गाँव जला दिये जाते और माँ-बहनें, बेटियों के साथ बलात्कार, हत्या की जाती। भय और ख़ौफ था कि आपने धर्म परिवर्तन कर लिया है तो सुरक्षित हो और किसी भी काफिर को मार-पीट, लूट, बलात्कार कर सकते है। कोई दखल दें तो सज़ा में सिर्फ मौत थी।
मैं कहता हूँ सत्यनारायण की फ़िल्म को द कश्मीर फ़ाइल्स प्रीक्वल के तौर पर लें। बड़े स्केल पर नरसंहार हुआ था। संयोग कहे या प्रयोग कश्मीर और हैदराबाद के मुद्दें कमोबेश एक ही टाइम लाइन पर थे, फर्क है कि घाटी में जेहाद की आग लोकतांत्रिक व्यवस्था के बाद पहुँची थी और हैदराबाद में राजशाही में निजाम खुलेआम कर रहा था।
कोमाराम भीम ने निज़ाम की खिलाफत में जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ी और नारा ए तकबीर के सामने अपना उद्घोष दिया था। इन्होंने दोहरे मोर्चे पर ब्रितानी और निजाम से लड़ाई लड़ी।
अभिनेता राज अर्जुन के साथ रिजवी को देखेंगे तो नफरत करने लगेंगे, कलाकार ने अपने किरदार को इतनी गहराई से उतरने दिया है और फिर बाहर निकाला है। हाव-भाव एकदम घिनौने है। बाकी सब ठीक है।
बहुतेरे आयेंगे और कहेंगे कि नैरेटिव और प्रॉपगैंडा दिखलाती फ़िल्म है, क्योंकि उन्हें कश्मीर में भी ऐसा ही दिखा था।
स्वतंत्र भारत में घटनाक्रम को समझें।
धर्म के नाम पर देश विभाजित कर दिया गया तिस पर दूसरी रियासतों में आग लगाई गई और भारत में साजिशन ऐसा नेतृत्व चुना, जिसे खोखली नैतिकता की ढपली बजाने की ट्रेनिंग दी। विश्वास न है तो कश्मीर का मुद्दा आजतक विवादित है, जबकि सरदार ने 562 रियासतों से भारत बनाया और हैदराबाद को भी सेना के दम पर भारत में रखा। निजाम की हेकड़ी और औक़ात भी बतलाई। फिल्म के बिनाह पर समझे तो इसमें भी नैतिकता की आड़ लगाई गई लेकिन सरदार न माने और परिणाम में सफलता लेने की ठान चुके थे।
ब्रितानियों ने ऐसा षड्यंत्र रचा कि भारत को शक्तिविहीन नेतृत्व मिले, सख्त फैसले लेने वाला मिल जाता तो उनका काम खराब हो जाता। खैर
सभी ने रज़ाकार देखनी चाहिए।
इतिहास तो कभी न बताएगा, फ़िल्म बता रही है तो देखिए और सोचिए ऐसी कितनी घटनाएँ दबाई गई है।