एक शरीर को त्याग कर दूसरा शरीर धारण करना ही पुनर्जन्म कहलाता है। चाहे वह मनुष्य का शरीर हो या पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि कोई भी शरीर।
यह आवागमन या पुनर्जन्म एक शाश्वत सत्य है। जो जैसे कर्म करता है,वह वैसा ही शरीर प्राप्त करता है।धनाढ़य, कंगाल, सुखी,दुःखी, ऊँच, नीच आदि अनेक प्रकार के व्यक्ति एवं अन्य प्राणियों को देखने से विदित होता है कि यह सब कर्मों का फल है। कर्म से देह और देह से पुनर्जन्म अथवा आवागमन सिद्ध है। यह चक्र ऐसे ही चलता रहता है।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।
-(गीता २/१२)
अर्थ-न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था, या ये राजा लोग नहीं थे, और न ऐसा ही है कि इससे आगे नहीं रहेंगे।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि
अन्यानि संयाति नवानि देही ।।
-(गीता २/२२)
अर्थ-जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है। वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर दूसरे नये शरीरों को धारण कर लेता है।
वेद में परमात्मा से उत्तम जन्म अर्थात् शरीर प्रदान करने के लिए प्रार्थना की गयी है-
असुनीते पुनरस्मासु चक्षुः पुनः प्राणमिह नो धेहि भोगम् ।
ज्योक् पश्येम सूर्यमुच्चरन्तमनुमते मृडया नः स्वस्ति ।।
-(ऋ० 10/59/6)
अर्थ:- हे सुखदायक परमेश्वर ! आप कृपा करके पुनर्जन्म में हमारे बीच में उत्तम नेत्रादि सब इन्द्रियाँ स्थापन कीजिए।
प्राण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, बल, पराक्रम आदि से युक्त शरीर पुनर्जन्म में कीजिए।
हे जगदीश्वर ! इस जन्म और पर जन्म में हम लोग उत्तम उत्तम भोगों को प्राप्त हों।
हे भगवन् ! आप की कृपा से सूर्यलोक, प्राण और आपको विज्ञान तथा प्रेम से देखते रहें। हे अनुमते-सब को मान देने हारे! सब जन्मों में हम लोगों को सुखी रखिये, जिससे हम लोगों का कल्याण हो।
आ यो धर्माणि प्रथमः ससाद ततो वपूंषि कृणुषे पुरूणि ।
धास्युर्योनिं प्रथम आ विवेशा यो वाचमनुदितां चिकेत ।।
-(अथर्व० 5/1/2)
अर्थ:-जो मनुष्य पूर्व-जन्म में धर्माचरण करता है उस धर्माचरण के फल से अनेक उत्तम शरीरों को धारण करता है।
अधर्मात्मा मनुष्य नीच शरीरों को प्राप्त होता है।
जो पूर्वजन्म में किए हुए पाप-पुण्य के फलों को भोग करने के स्वभावयुक्त जीवात्मा है, वह पूर्व शरीर को छोड़के वायु के साथ रहता है। पुनः जल,ओषधि वा प्राण आदि में प्रवेश करके वीर्य में प्रवेश करता है, तदनन्तर योनि अर्थात् गर्भाशय में स्थिर होके पुनः जन्म लेता है। जो जीव अनुदित वाणी अर्थात् जैसी ईश्वर ने वेदों में सत्यभाषण करने की आज्ञा दी है, वैसा ही यथावत् जानके बोलता है और धर्म में ही यथावत् स्थिर रहता है, वह मनुष्य योनि में उत्तम शरीर धारण करके अनेक सुखों को भोगता है। जो अधर्माचरण करता है, वह अनेक नीच शरीर अर्थात् कीट, पतंग, पशु आदि के शरीर को धारण करके अनेक दुःखों को भोगता है।
पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के बिना उत्तम, मध्यम और नीच शरीर तथा बुद्धि आदि पदार्थ कभी नहीं मिल सकते।
ये रुपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति ।
परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टाँल्लोकात् प्रणुदात्यस्मात् ।।
-(यजु० 2/30)
अर्थ:-जो दुष्ट मनुष्य अपने मन, वचन और शरीर से झूठे आचरण करते हुए अन्याय से अन्य प्राणियों को पीड़ा देकर अपने सुख के लिए दूसरों के पदार्थों को ग्रहण कर लेते हैं, ईश्वर उनको दुःखयुक्त करता है और नीच योनियों में जन्म देता है कि वे अपने पापों के फलों को भोगने के लिए फिर मनुष्य-देह के योग्य होते हैं। इससे सब मनुष्यों को योग्य है कि ऐसे दुष्ट मनुष्यों वा पापों से बचकर सदैव धर्म का ही सेवन किया करें।
अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया ।
अकारि रत्नधातमः ।।
-(ऋ० 1/20/1)
अर्थ:-मनुष्य जैसे कर्म करता है वैसे ही उसे जन्म और भोग प्राप्त होते हैं।
अग्रलिखित कथनों से भी पुनर्जन्म की सिद्धि होती है―
जिस समय लक्ष्मण को शक्ति लगती है और वह मूर्च्छित हो जाते हैं, तो श्रीरामचन्द्र जी उसकी इस अचेतन अवस्था को देखकर विलाप करते हुए कहते हैं―
पूर्वं मया नूनमभीप्सितानि,पापानि कर्माण्यसकृत् कृतानि ।
तत्राद्यायमापतितो विपाको ,दुःखेन दुःखं यदहं विशामि ।।
-(वा०रा०यु० 63/4)
अर्थ-निश्चय ही मैंने पूर्वजन्म में अनेक बार मनचाहे पाप किए हैं।उन्हीं का फल मुझे आज प्राप्त हुआ है जिससे मैं एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त हो रहा हूं।
एक अन्य स्थल पर वर्णित है-सीता की खोज करते हुए हनुमान लंका में अशोकवाटिका में पहुंचे।उस समय सीता हनुमान से कहती हैं―
भाग्यवैषम्ययोगेन, पुरा दुश्चरितेन च ।
मयैतत् प्राप्यते सर्वं, स्वकृतं ह्रापभुज्यते ।।―
(वा०रा०यु० 113/36)
अर्थ:- मैंने पिछले जन्म में जो पाप किये हैं, उसी के परिणामस्वरुप मेरे भाग्य में यह विषमता आ गई है। मैं भी अपने पूर्वकृत का भोग प्राप्त कर रही हूं क्योंकि अपने ही किए का फल भोगना पड़ता है।
साभार- https://m.facebook.com/arya.samaj/से