इधर पराजित सुमाली ने समझ लिया कि देवों की शक्ति का स्रोत आर्य हैं अतः उसे किसी न किसी आर्य जाति से गठबंधन करना होगा तथा तब उसकी निगाह पौलस्त्यों पर पड़ी।
उसने अपनी बेटी का उपयोग चारे की तरह किया।
अधेड़ कुलपति विश्रवा चारा निगल गये तथा तब जन्मे रावण, कुंभकर्ण, विभीषण तथा शूर्पणखा।
रावण ने रक्षों का नये ढंग से संगठन किया। वेदों में से इंद्र, वरुण, अग्नि व विष्णु की ऋचाओं को हटा दिया, कैलाश स्थित महादेव शिव को वैदिक रुद्र का ही प्रतिनिधि मानकर उन्हें सर्वोच्च देवता घोषित कर अन्य देवताओं की पूजा का निषेध कर दिया। स्त्री अपहरण, बलात्कार तथा यहाँ तक कि नरभक्षण उसके राज्य में वैध थे तथा वह स्वयं भी नरमांसभक्षी बन गया।
ये भी पढ़िये –
समुद्र की गहराई को मापने वाले, मॉर्शल आर्ट को विकसित करने वाले महर्षि अगत्स्य
दैत्य, दानव आदि के विभेद खत्म कर उसने सभी की एक पहचान “रक्ष” निर्धारित कर दी गई। “राक्षस” बनते ही यक्ष, गंधर्व, दैत्य, दानव, असुर सभी की जातीय पहचान मिट जाती थी तथा वह केवल “राक्षस” रह जाता था। उसके पश्चात किशोरावस्था से ही उद्धत व महत्वाकांक्षी रावण ने अपना अभियान शुरू किया।
कुबेर को खदेड़कर लंका पर अधिकार कर लिया गया। पूर्वी एशिया के कई द्वीपों के निवासी रक्ष बना दिये गये। कालिकेयों ने विद्युजिव्ह के नेतृत्व में संघर्ष किया लेकिन रावण उसका वध कर अपनी बहन को विधवा करने से हिचका नहीं।
छत्तीसगढ़ स्थित दंडकारण्य में असुर शंबर व मथुरा में अपने समवयस्क मधुवंशी लवणासुर को राक्षस बनने पर विवश कर दिया।
किशोरावस्थाजनित आतुरता के कारण उसके कुछ अभियान असफल भी हुये तथा उसे माहिष्मति में कार्तवीर्य अर्जुन, केरल में प्रह्लाद वंशी दैत्यकुल के बलि परंपरा के किसी बलि राजा तथा कर्नाटक में किष्किंधा के वानरराज बालि से पराजय झेलनी पड़ी।
लेकिन वह हताश नहीं हुआ। उसने महादेव रुद्र को प्रसन्न व संतुष्ट कर उनका संरक्षण प्राप्त किया तथा सुदूर कांबोज के गंधर्वो, तिब्बत स्थित स्वर्ग में देवों तथा हिमालय में किसी स्थान पर स्थित अलकापुरी में अपने सौतेले भाई कुबेर को हराया।
नासिक के नजदीक पंचवटी में तथा वर्तमान बिहार के बक्सर के नजदीक उसने दो सैनिक छावनियाँ भी बना दीं।
अगस्त्य अपने इस उद्दंड भतीजे के खतरनाक इरादों को भांप गये। उन्होंने तुरंत अपना आश्रम नासिक स्थित पंचवटी में स्थानांतरित कर दिया तथा एक तरह से रावण की सेनाओं के विदर्भ से सौराष्ट्र होकर उत्तर तक पहुंचने के मार्ग को बंद कर दिया।
परंतु स्वयं उन्हें भी उसी स्थान पर कीलित हो जाना पड़ा तथा इंतजार करना पड़ा श्रीराम का जो उत्तर से इस भ्रष्ट, अमानवीय व पाशविक राक्षस केंद्रों का विनाश करते हुए उनकी ओर बढ़ रहे थे। उन्होंने इस गतिरोध की स्थिति का पूर्ण उपयोग किया तथा न केवल तमिल जैसी द्रविड़ जातियों को संगठित किया बल्कि “एन्द्रास्त्र” जैसे कुछ विशिष्ट दिव्यास्त्रों के साथ-साथ विशाल शस्त्रागार भी बनाया।
उन्होंने श्रीराम को न केवल एन्द्रास्त्र बल्कि वैष्णवी धनुष, विभिन्न प्रकार के असंख्य बाणों का अक्षय भंडार प्रदान किया बल्कि अगस्त्य पीठ की विशिष्ट मार्शल आर्ट “वर्म्मैक्कली” का प्रशिक्षण भी दिया जिसकी सहायता से राम व लक्ष्मण ने निहत्थी स्थिति में भी राक्षस कबंध व उसके सहयोगियों का वध किया।
रावण वध के पश्चात रामराज्य के अंतर्गत भारत का राजनैतिक व सांस्कृतिक एकीकरण पूर्ण हुआ तथा अगस्त्य पुनः अपने प्रिय तमिल शिष्यों के बीच पांड्य राज्य में चले गये।
उनके पश्चात “अगस्त्य पीठ” पर एक तथा अगस्त्य का उल्लेख मिलता है जिन्होंने पांड्य नरेश मलयध्वज की पुत्री “कृष्णेक्षणा” से विवाह किया तथा उनसे उन्हें “इध्वमाह” नामक पुत्र भी हुआ। कुछ स्रोतों के अनुसार इध्वमाह उनके पौत्र थे न कि पुत्र जिन्हें नवें मंडल के 25वे तथा 26वे सूक्त का दृष्टा माना जाता है।
अगस्त्य स्वयं भी ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 165 सूक्त से 191 तक के सूक्तों के दृष्टा माने जाते हैं।
ये अगस्त्य ही संभवतः “द्वितीय संगम” से संबंधित थे तथा “अगत्तीयार” नाम से प्रसिद्ध थे। तौलकाप्पियम इनके ही शिष्य थे तथा इन्होंने ही तमिल व्याकरण से संबंधित ग्रंथ “अगत्तीयम” की रचना की।
अगस्त्य अब केवल मुनि या ऋषि मात्र नहीं रहे बल्कि वे शिव के अंशावतार ईश्वर के रूप में पूजे जाने लगे थे। उनके इस पूज्यभाव के प्रमाणस्वरूप उनकी मूर्तियां दक्षिण भारत से लेकर सुदूर पूर्व में इंडोनेशिया तक में पाई गयी हैं।
कालांतर में “अगस्त्य पीठ” भले ही समय की धार में विलुप्त हो गयी लेकिन कला, साहित्य, ज्योतिष, युद्ध व विज्ञान के शोध में उनकी कई पीढ़ियों ने जो ज्ञान संचित किया वह “अगस्त्य संहिता” में संकलित किया जाता रहा।
इस संहिता में आश्चर्यजनक रूप से हॉट एयर बैलून, वायु उड्डयन सिद्धांत, सैल के निर्माण व उसके द्वारा विद्युत उत्पादन की विधियों का वर्णन है।
इन्हें कब लिपिबद्ध किया गया यह तो नहीं पता लेकिन कहते हैं कि स्वयं माइकल फैराडे ने अपने संस्मरण में लिखा कि उनके स्वप्न में एक हिन्दू ऋषि ने उन्हें विद्युत का रहस्य समझाया था।
यह ऋषि तथा कोई नहीं अगस्त्य की चेतना ही थी जिसने समय की धारा में विलुप्त ज्ञान को योग्य मस्तिष्क में स्थानांतरित कर दिया था।
साभार- https://www.indictoday.com/ से