14 जनवरी, इतिहास का एक बड़ा दिन। 259 वर्ष पहले आज ही के दिन पानीपत का तीसरा युद्ध लड़ा गया था (14 जनवरी 1761)।
इस युद्ध मे एक लाख मराठो ने अपना बलिदान दिया। युद्ध सदाशिव राव भाऊ के नेतृत्व में अफगान के बादशाह अहमद शाह अब्दाली के विरुद्ध हुआ था। आज मराठो द्वारा हरियाणा और महाराष्ट्र में इसे शौर्य दिवस के रूप में मनाया जा रहा है।
युद्ध क्या था, कैसे हुआ, इस पर आज कई पोस्ट लिखे जाएंगे मगर युद्ध के बाद क्या हुआ यह जानना अधिक आवश्यक है। मौलाना अबुल कलाम की शिक्षा ने यह कभी जानने नही दिया कि पानीपत के बाद भारत का क्या हुआ विशेषकर उत्तर भारत का।
पानीपत युद्ध से पहले भारत हिंदुराष्ट्र बन चुका था, उड़ीसा से लेकर आज पाकिस्तान के अटक प्रान्त तक मराठा साम्राज्य फैल चुका था। मगर युद्ध के बाद मराठे एक बार फिर महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और गुजरात मे सिमट गए। अब्दाली खुद इस युद्ध मे पूरी तरह बर्बाद हो गया और उसे वापस अफगानिस्तान भी जाना था क्योकि वहाँ ईरान के शाह ने हमला कर दिया।
अब्दाली जानता था कि अब पेशवा अपने भाई रघुनाथ राव को भेजेंगे, रघुनाथ राव से अब्दाली भी डरता था क्योकि राघोबा उसे 3 बार हरा चुके थे। अटक पर मराठो का झंडा लगाने का श्रेय राघोबा को ही जाता है इसलिए अब्दाली ने सुलह का प्रस्ताव रखा।
अब्दाली ने पुणे में पेशवा बालाजीराव को पत्र लिखा “मैंने ताउम्र इतनी जंगे लड़ी मगर सदाशिव जैसा जांबाज नही देखा, ये मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी जंग थी जिसमे सबसे बहादुर कौम मराठो से सामना हुआ। खुदा करे आपकी कौम अपनी सरजमीं पर राज करती रहे। जिस जमीन पर सदाशिव शहीद हुए वहाँ तक की जमीन मराठो की और पंजाब मेरा”
इसके बाद पेशवा बालाजीराव को हदयघात लगा और उनकी मृत्यु हो गयी, उनके बड़े बेटे विश्वास राव शहीद हो चुके थे दूसरे बेटे माधवराव पेशवा बने। जब बात महानता की हो तो माधवराव अपने दादा बाजीराव को भी मात देते थे।
युद्ध मे मराठो को पंजाब गवाना पड़ा, हरियाणा तक उनका राज्य कागजो पर तो कायम था मगर उत्तर में मराठे खत्म हो गए थे। दिल्ली के लाल किले पर भगवा कायम था मगर उसे सलाम करने वाला कोई नही था। सिखों ने फायदा उठाया और अब्दाली के कांधार लौटने के बाद लाहौर पर कब्जा कर लिया इसके बाद सिख अटक में घुसे और उस पर फिर से भगवा फहरा दिया।
अब्दाली दोबारा भारत आया मगर सिर्फ लाहौर तक, अब्दाली ने सिखों का नरसंहार किया और फिर लौट गया। इस घटना ने सिखों को भड़का दिया और 1799 तक सिखों ने पंजाब को जीत लिया उसे अफगानिस्तान से तोड़ कर भारत मे मिला लिया।
शेष उत्तर में मराठो की अनुपस्थिति ने अस्थिरता पैदा कर दी, मगर 1767 में सबकुछ बदल गया। यमुना के तट पर अचानक मराठो ने शंखनाद कर दिया और आगरा के किले में प्रवेश किया। आगरा किले में प्रवेश करने वाला ये मराठा सरदार था महादजी सिंधिया, महादजी सिंधिया को पेशवा माधवराव का आदेश था कि उत्तर में दोबारा सबकुछ हासिल करें।
महादजी सिंधिया और तुकोजी होल्कर ने राजपूताना पर चढ़ाई की और स्वतंत्र हो रही इन रियासतों पर भगवा लहराया। इसके बाद वे उत्तरप्रदेश में आये और अंग्रेजो तथा अवध के नवाब को धोया, वही दक्षिण में पेशवा माधवराव ने मैसूर के सुल्तान हैदर अली और हैदराबाद के निजाम को रौंद दिया।
सन 1771 में महादजी सिंधिया ने दिल्ली में प्रवेश किया और लाल किले पर फिर से भगवा ध्वज फहराया, इस तरह मराठा साम्राज्य वापस पहले जैसा हो गया। अब प्रश्न था दिल्ली में बादशाह को बैठाए या फिर किसी मराठा सरदार को, तीसरा विकल्प था कि माधवराव राजधानी को पुणे से दिल्ली ले आये और स्वयं महाराज बन जाये।
राघोबा को दिल्ली का राजा बनाने की बात हुई मगर पारिवारिक तनाव के चलते माधवराव का भरोसा उन पर से उठ चुका था। पेशवा माधवराव बीमार चल रहे थे, उन्होंने मुगल बादशाह शाह आलम को नाम के लिये सिंहासन पर बैठने का आदेश दिया और सारी कार्यशक्ति सिंधिया के हाथ मे रखी।
इस तरह दिल्ली के सिंहासन पर ना बैठकर भी महादजी सिंधिया दिल्ली के राजा बन गए। पंजाब और कश्मीर में सिख थे तो अंदर मराठे। इस तरह देश 10 वर्ष में ही फिर से हिंदुराष्ट्र हो गया, उस समय इस हिंदुराष्ट्र की जीडीपी पूरे विश्व की 25% थी, धरती सोना उगल रही थी जिससे अंग्रेज आकर्षित हुए।
इस तरह पानीपत एक ऐसा युद्ध था जिसे अब्दाली जीतकर भी हार गया और सदाशिव राव के बलिदान ने उन्हें भारतीय इतिहास में अमर कर दिया।
यदि उस समय सदाशिव नही लड़ते तो कदाचित उत्तर भारत मे अफगानों का सिक्का चलता और भारत मध्यप्रदेश से तमिलनाडु तक ही होता। इसलिए पानीपत के इन वीरों को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।