राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवक्ता मनमोहन वैद्य ने कोई ऐसी बात नहीं कही, जिसके लिए उन्हें या उनके संगठन को सफाई देनी पड़ती। उन्होंने डॉ. बीआर अंबेडकर के हवाले से कहा कि सबको समान अवसर मिलना चाहिए। दलित, आदिवासियों को लंबे समय तक शिक्षा एवं प्रगति से बाहर रखा गया। इसलिए उन्हें आरक्षण मिला। लेकिन ऐसे प्रावधान को स्थायी बनाना समाज के हित में नहीं होगा। क्या एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन का प्रतिनिधि होने के नाते संघ के नेता स्वतंत्र रूप से ऐसा किसी अन्य विषय पर अपनी राय नहीं जता सकते? बेशक आज देश की सत्ता संघ से वैचारिक प्रेरणा लेने वाली पार्टी के हाथ में है। ऐसे में लाजिमी है कि भाजपा के प्रतिद्वंद्वी दल किसी ऐसे बयान को हवा देंगे, जिनसे उन्हें चुनावी लाभ होने की संभावना हो। लेकिन ऐसी राजनीतिक चुनौतियों का मुकाबला करने में भाजपा को सक्षम होना चाहिए। उसमें यह कहने का साहस होना चाहिए कि हर मुद्दा बहस के लिए खुला है।
आरक्षण पर अगर संघ ने कुछ कहा है, तो मकसद बहस छेड़ना है। तथ्य यह है कि दलित-आदिवासियों के लिए आरक्षण का प्रावधान संविधान में है। ओबीसी आरक्षण में भी राजनीतिक दलों में सहमति बने बिना कोई बदलाव संभव नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आरक्षण की उपयोगिता पर कोई चर्चा ही ना हो। बहरहाल, भाजपा की राजनीतिक मजबूरियां तो फिर भी समझ में आती है, लेकिन संघ की क्या विवशता है? उसे किस बात का भय है? उनके नेता एक बात कहने के बाद उससे पलटने क्यों लगते हैं? आरक्षण के मसले पर पहले ऐसा 2015 में हुआ। तब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण नीति पर पुनर्विचार की जरूरत बताई थी। माना जाता है कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने बिहार विधानसभा चुनाव में उसका फायदा उठाया।
फिलहाल उत्तर प्रदेश एवं चार अन्य राज्यों में चुनाव अभियान छिड़ा हुआ है। बेशक इसी के मद्देनजर वैद्य के बयान के बाद स्पष्टीकरणों का सिलसिला लगा। संघ और भाजपा दोनों ने आरक्षण नीति के प्रति वचनबद्धता दोहराई। बताने की कोशिश हुई कि भाजपा ने केंद्र और अनेक राज्यों में रहते हुए ऐसा कोई कदम कभी नहीं उठाया, जो आरक्षण विरोधी हो। यह सच है। लेकिन क्या संघ इस स्थिति को हमेशा बनाए रखना चाहता है? अगर ऐसा है तो फिर संघ के नेता ऐसी बातें क्यों करते हैं, जिस पर बाद में खुद उन्हें सफाई देनी पड़ती है?
http://www.nayaindia.com/ के संपादकीय से साभार