Tuesday, December 24, 2024
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मेरी माँ मेरा गाँव : मर्म-स्पर्शी ओड़िशी डाक्यूमेंटरी

मुझे चन्द दिन पहले एक ओड़िशी डाक्यूमेंटरी “मो बोऊ मो गान “देखने का अवसर मिला। यक़ीन मानिए यह इतनी गहरे तक असर करने वाली और उद्वेलित करने वाली थी कि इसने तीन चार रात ठीक से सोने नहीं दिया। इसकी परिकल्पना और निर्माण सुबाश साहू ने किया है और इसका कथाक्रम उनकी माँ और उनके पुश्तैनी गाँव के इर्द गिर्द ही घूमता है।
आप जानना चाहेंगे कि सुबाश साहू कौन हैं? सुबाश साहू फ़िल्म एवं टेलीविज़न संस्थान पुणे के स्नातक रह चुके हैं, फ़िल्म उद्योग में उन्हें साउंड रिकार्डिंग और साउंड डिजाइनिंग के एक महारथी के रूप में जाना जाता है। उन्हें अपनी इस विधा में “कमीने” (2009), “NH10”(2015), “नीरजा” (2016), “तुम्हारी सल्लू” (2017 ) के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए मिल चुका है, इसके साथ ही अभी हाल ही में उनकी फ़िल्म “शैतान“ भी रिलीज़ हुई है।

लेकिन इस समय हम सुबाश साहू के एक अलग अभिगोपित से पक्ष के बारे में बात करने जा रहे हैं। उन्हें अपने साउंड डिजाइनिंग के व्यवसाय के साथ ही साथ डॉक्युमेंटरी बनाने का शौक़ भी रहा है। अतीत में उन्होंने सरकार द्वारा कमीशंड कई डॉक्युमेंटरी बनायी हैं। लेकिन उनके अनुसार सरकार के लिए बनाने में रचनात्मकता को वो खुलापन और विस्तार नहीं मिल पाता जिसकी उन्हें तलाश थी। इसलिए उन्होंने अपनी साउंड रिकॉर्डिंग से होने वाली सीमित आमदनी से अपने मिज़ाज की डॉक्युमेंटरी बनाने का निर्णय लिया। इसकी शुरुआत उन्होंने “The Sound Man Mangesh Desai” से की जो फीचर फ़िल्म की लंबाई की थी। निर्माण 2010 में प्रारंभ हुआ और काम 2017 पूरा हुआ, यह फ़िल्म हिन्दी फ़िल्मों के साउंड रिकार्डिंग के पितामह मंगेश देसाई के जीवन के जाने अनजाने पक्षों की बड़े रोचक तरीक़े से पड़ताल करती है।

इस फ़िल्म से सुबाश साहू को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिली, यह फ़िल्म MAMI के साथ ही न्यूयार्क, माल्टा,, लॉस एंजलिस जैसे चालीस प्रतिष्ठित फ़िल्म समारोहों में प्रदर्शित हुई और सराही गई। अभी तक यह फ़िल्म भारत में व्यावसायिक रूप से सिनेमा हाल के दर्शन नहीं कर पायी है क्योंकि इसमें प्रयुक्त कई क्लिप के इस्तेमाल की आधिकारिक अनुमति मिलनी बाक़ी है। इसके बाद साहू ने एक सच्चे आख्यान पर क्राइम थ्रिलर “Knock Knock” बनाई जिसकी शूटिंग मंत्री सीरीन बिल्डिंग में की और इसके कलाकार भी इसी बिल्डिंग के है। यह लघु फ़िल्म IFFI, MIFF के प्रतियोगी श्रेणी में दिखाई गई। इसके बाद उनकी ओडिशी डाक्यूमेंट्री “तीन अध्याय- उत्पत्ति, विपत्ति, चक्र” आई यह फ़िल्म भी कई फ़िल्म समारोह में दिखाई गई।

लेकिन यहाँ हम “मेरी माँ मेरा गाँव” पर चर्चा करेंगे। यह फ़िल्म सुबाश साहू ने अपनी माँ और उनके गाँव बलूरिया को फ़ोकस करके बनाई है। ख़ास बात यह है कि इस के फ़िल्मांकन करने में उन्हें पूरे अट्ठारह वर्ष लगे हैं। उनकी माँ सेबा बोऊ अपने गाँव के लिए एक चलती फिरती संस्था थीं, उन्हें वैष्णव आध्यात्मिक परंपरा के साथ ही सदियों से विरासत में मिली परंपरागत कढ़ाई, बुनाई, हस्तशिल्प, रीति रिवाजों का ज्ञान तो था ही इसे वे बड़े कारण से लगातार कई पीढ़ियों की युवतियों को सिखाती रहीं, एक तरह से देखा जाय तो वे अपने गाँव की युवतियों के लिए फ़िनिशिंग स्कूल भी थीं। माँ के बहाने इस डाक्यूमेंट्री में उड़ीसा के आंचलिक जीवन का भी बेहतरीन चित्रण हुआ है, बलूरिया गाँव एक नदी के किनारे पर बसा है यह नदी न सिर्फ़ इस गाँव को शहर से जोड़ती है साथ ही यह बलूरिया गाँव के सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु है, यहाँ गाँव वासी तैराकी, स्नान से लेकर पूजा पाठ, संस्कार, गीत राग सभी कुछ करते हैं। गाँव में होने वाली किसी भी शादी ब्याह के अवसर पर पूरा गाँव एक हो जाता है, लड़की के शादी-साक्षात्कार से लेकर, भारतीयों की आवभगत, दूल्हे की मनुहार, विदाई तक पूरा गाँव एक जुट हो जाता है।

बेहतर काम के अवसरों के लिए गाँव के कई सारे परिवारों के अधिकांश सदस्य शहर में बस गये हैं। ऐसा ही एक परिवार सुबाश साहू का भी है। शहर में बसे परिवार के सदस्य माँ की उम्र को देखते हुए शहर ले जाते हैं, माँ का शरीर बेशक शहर में आ गया है लेकिन आत्मा गाँव में बसी हुई है, नब्बे पार होने पर उसका मन शहर में निस्तेज है, फिर बेटे तय करते हैं कि अगर माँ वापस गाँव जाए तो वह शायद बेहतर हो जाए, सचमुच गाँव पहुँचते ही अपने मूल परिवेश से जुड़ कर अंतिम दिनों में जीवंत हो जाती है। बाद में माँ अपने अंतिम क्षणों में गाँव की आत्मा से एकाकार हो जाती है। माँ की अंतिम विदाई, दाह क्रिया, राख के नदी में विसर्जन के दृश्य बेहद मार्मिक बन पड़े हैं।

अठारह वर्षों के विभिन्न फॉर्मेट के फ़िल्मांकन को एक जगह गूँथना और उसे साठ मिनट की एक चुस्त स्क्रिप्ट का रूप देना बेहद चुनौती पूर्ण काम था जिसे सुबाश साहू के एफटीआईआई के पुराने साथी सुबीर नाथ और उनकी टीम ने चुनौती के रूप में लिया। इस फ़िल्म की दो और विशेषताएँ हैं, पहली बात तो यह कि पिछले दशक में आंचलिक ओडिशा की समृद्ध परंपरा में शहरी प्रभाव की दखल ने वहाँ के सामाजिक ताने बाने को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है, मसलन अब गाँव की लड़कियों बड़ों और बुजुर्गों की इच्छा नहीं अपनी मर्ज़ी से वर चुनने लगी हैं जिसके कारण गाँव में कई बार मनमुटाव और दोफाड़ भी हो जाता है, यह तथ्य भी सहज रूप में इस डाक्यूमेंट्री में अभिलिखित हो गया है। दूसरा, ओडिशा के गाँव गाँव घूमते हुए एकतारा वादक ग्रामीण परिवेश, वहाँ के सोच, मान्यताओं को अपनी गायकी में समाहित करते रहे हैं, ऐसे ही एक वादक की खोज फ़िल्म की टीम ने की और उसके एक परंपरागत गान को जो वस्तुतः इस डॉक्युमेंटरी का निचोड़ है उसे टाइटिल सॉंग के रूप में शामिल किया है। यह डॉक्युमेंटरी देखा जाये तो मानवीय मूल्यों की पड़ताल करने के साथ ही उड़ीसा के ग्रामीण अंचल का एक महत्वपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक दस्तावेज भी बन गई है।

(लेखक फिल्म व संगीत समीक्षक हैं)

 

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