मुझे रोहित वेमुला से सहानुभूति नहीं है । यकीन मानिये रत्ती भर भी नहीं । क्यूंकि मेरा ह्रदय संघर्ष से विरत किसी डरपोक, भगोड़े के लिए द्रवित नहीं हो सकता । क्यूंकि मेरी कलम इतनी अशक्त नहीं जो एक कायर का यश गान लिखे । क्यूंकि जिस तरह की गतिविधियों में वो संलिप्त था वो न सिर्फ देश के सामाजिक तानेबाने को छिन्न –भिन्न कर रही थीं वरन देश में अलगाववाद की बयार भी फूंक रही थी । ऐसे इंसान पर मैं आंसू कैसे बहा दूँ जो सतत नकारात्मक कार्यों में लिप्त था ?
वैसे लोग सही कह रहे हैं । रोहित वेमुला की मृत्यु आत्महत्या नहीं है । ये हो भी नहीं सकती । वरन रोहित की मृत्यु नृशंस हत्या है और इसके गुनाहगार दलित समाज के वो कथित रहनुमा हैं जिन्होंने दलित चिंतन के नाम पर उसका ब्रेन वाश कर दिया । वो लोग रोहित के हत्यारे हैं जो खुद एसी अपार्टमेंट में सुख की नींद लेते हैं और पत्थर तोड़ने वाले दलितों के सच्चे हितैषी होने का दावा करते हैं । आज़ादी के बाद जितने भी दलित नेता हुए हैं इन सभी से दलित समाज को आज ये पूछना चाहिए कि इन्होने दलित समाज की उन्नति के लिए किया क्या है ? सत्ता में आने पर अपनी सम्पत्ति बढ़ाने, अपने निकटस्थों को मलाईदार पद देने के अलावा आम दलितों के उद्धार के लिए इन लोगों ने किया क्या है ? क्या इन्होने दलित समाज को कभी वोट बैंक से ज्यादा भी समझा है क्या ? उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने में इन तमाम दलित चिंतकों का क्या योगदान है ?
हमारे देश में आम्बेडकर साहब भी हुए । जीवनपर्यंत उन्होंने जितने शारीरिक और मानसिक कष्ट सहे शायद ही किसी महापुरुष ने सहे हों । लेकिन वो इन सबके घबराये नहीं । इन सब से डर कर उन्होंने आत्महत्या नहीं की । इसके उलट उन्होंने चट्टानों का सीना चीर कर खुद अपने हाथों से अपनी तकदीर लिखी । मुझे तो अभी तक ये समझ नहीं आ रहा कि रोहित वेमुला डॉ. आंबेडकर की तरह दलितों का रहनुमा कैसे हो सकता है ? बाबा साहेब का वंशज रोहित क्योंकर इस्लामी आतंकवादी, मुंबई के हत्यारे याकूब मेनन के पक्ष में उतर पड़ा ? क्या उसे बाबा साहेब के लिखे क़ानून पर विश्वास नहीं था ? और यदि रोहित को उनके लिखे कानून पर भरोसा नहीं था, उसे यदि बाबा साहेब की योग्यता पर भरोसा नहीं था तो उसे अम्बेडकरवाद का अलंबरदार कैसे कहा जा सकता है ?
बाबा साहेब की जाति में जन्म लेकर या उनकी तस्वीर हाथ में लेकर फोटो खिंचवाने से कोई अम्बेडकरवादी नहीं बन जाता । उन जैसा बनने के लिए उनके लिखे को पढना होता है । उसे गुनना होता है । ये बातें समझने की है कि:-
1. तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त जाति-पात और छुआछूत जैसी कुरीतिओं से व्यथित होकर बाबा साहेब ने इस्लाम का दामन क्यों नहीं थामा ?
2. क्योंकर वे ईसाई न हुए ?
3. क्यों उन्होंने इस्लामी और ईसाई मिशनरियों के प्रलोभन को ठुकराकर, हिन्दू धर्म की शाखा बौद्ध बनना श्रेयस्कर समझा ?
4. अपनी किताब “पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ़ इंडिया” में बाहरी आक्रमणकारियों के बारे में आम्बेडकर के क्या विचार थे ?
5. आम्बेडकर के ये विचार आज कोई दलित चिन्तक क्यों नहीं दलित समाज तक पहुंचाता है ?
6. क्या दलित समाज को इस बात पर विचार नहीं करना चाहिए ?
रोहित वेमुला सरीखे नौजवान के मस्तिष्क में जहर के बीज बोने वाले इन कथित रहनुमाओं से दलित समाज को सावधान रहना चाहिए । रोहित की मौत सबक है शतरंज के उन प्यादों के लिए जो अपने आकाओं के इशारों पर आपनी चाले चलते हैं और रोहित वेमुला के हश्र को प्राप्त होते हैं । अब चूंकि रोहित हमारे बीच नहीं है । उसे दलित समाज के नए महापुरुष के रूप में गढ़ने की कोशिश होगी । इन क्षद्म आंबेडकरवादियों के इस तरह के आगामी प्रपंचो से दलित समाज को सावधान रहना होगा । वैसे भी अब दलित समाज ये फैसला कर लेना चाहिए कि वो बाबा साहेब के दिखाए रास्ते पर चलना चाहते हैं या रोहित के ।