सड़ांध मारता चौथा खंभा

लोकशाही मे मीडिया को चौथा स्तम्भ की मान्यता है लेकिन वर्तमान परिदृश्य मे एसा लगता है चंद अपवाद को छोड़कर इलेक्ट्रॉनिक हो या प्रिंट मिडीयाकी भूमिका समझ से परे है स्थापित मान्यता ध्वस्त हो गई लोकतांत्रिक व्यव्स्था मे पत्रिकारिता एसा विकृत विभस्त रुप पहले कभी नही देखा आपातकाल मे सेंसरशिप के बावजूद कलम के सिपाहियो ने पत्रकारीय धर्म का का बखुबी निर्वहन किया, आज तो एसा लगता है जैसे अपने ही देश के बाशिंदो के बीच एक एसी विभाजनकारी दीवार खड़ी करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है जिसके दूरगामी दुष्परिणाम क्या होगे सोच कर ही मन सिहर उठता है इन्हे पत्रकार तो कदापि नही कह सकते यधपि सता के गलियारो मे इन्ही की खनक है और इनके मालिको की तिजोरियो मे आकूत धन दोलत का अम्बार…

बचपन मे लोक परलोक मे पत्रकार का किरदार नारद मुनि के रूप मे जाना फिर महाभारत मे संजय की दिव्य दृष्टि से धृतराष्ट्र को रनिंग केमेन्ट्री सुनाना होश सम्भाला अखबार हाथ आया देश-विदेश मे घटित घटनाक्रम को विस्तार से जानने की तलब आधे दिन तक अखबार का बेसब्री से इंतजार रहता क्योकि पिछले चौबीस घंटो मे जो भी आकाशवाणी पर सुना सुन कर घटनाक्रम को विस्तार से ओर प्रमाणिकता सिद्धि के लिए बीबीसी ओर अखबार का ही सहारा होता था।बीबीसी के उद्घोषक उद्घोषिका का क्रेज हीरो से कम नही था अखबार मे उस समय एकमात्र पंसद नईदुनिया जिसके बेनर टाइटल चर्चा के विषय हुआ करते थे संपादकीय, अग्रलेख, समसामयिक विषयो पर आलेख के साथ पत्र संपादक के नाम संपादकीय पृष्ठ की जान हुआ करते थे जहा पाठक बेधड़क बेझिझक निर्भीक अपनी हर विषय पर कलम चलते उस समय कई सुधी पाठको की स्वीकारोक्ति होती थी वह अखबार पढ़ने की शुरुआत उसी पृष्ठ से करते थे।फिर याद आती है साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग, कादम्बिनी, नवनीत, दिनमान, माया,रविवार…साहित्य और पत्रकारीय मिश्री सा मिश्रण अब कहा नसीब…इलेक्ट्रॉनिक मिडीया की शुरुआत दूरदर्शन से जिसके समाचार वाचक वाचिकाओ की नजाकत नफासत के साथ धीर गम्भीर समाचार अनुसार भाव भंगिमा अपनी अमीट छाप छोड़ जाते थे…शम्मी नारंग,सरला माहेश्वरी,सलमा सुल्तान, अवीनाश कोर सरीन,मंजरी जोशी कितने नाम गिनाऊ…विनोद दुआ का जनवाणी राजेश बादल का परख एस.पी.सिंह का आजतक…

.उस दौर मे यानी अस्सी के दशक के मध्य तक निजी चैनल्स का उदय हुआ और जी टीवी ने अपने मोहपाश मे जकड़ा जिसके प्रमुख कारक बने रजत शर्मा जिनकी आपकी अदालत मे हस्तीयो से अपनी मधुर मुस्कान के साथ तंज कटाक्ष भरे तीखे सवाल….आज रजत शर्मा जी का अपना चैनल है, भव्य स्टूडियो है जहा तब का रजत शर्मा कही खो गया ।अरुण पुरी का आजतक ने न्यूज चैनल की दुनिया मे क्रान्ति ला दी आजतक मे एस. पी.सिंह की विरासत का कही दूर दूर पता नही…प्रणव राय अंग्रेजी दा पत्रकार दूरदर्शन से ही जाना पहचाना कालांतर मे एनडीटीवी के माध्यम से घटाटोप अंधेरे मे प्रकाश पुंज नजर आता था सरस्वती साधक लक्ष्मी के साधनो समर्पण कर गए…जैसे आज नईदुनिया की दिशा दशा है उसी तरह यह भी अपनी स्थापित पहचान खोता जा रहा है।

आंनद बाजार पत्रिका को रविवार पत्रिका से जाना समझा इसी समुह के आज दो उत्पाद हमारे समक्ष है एबीपी हिन्दी न्यूज चैनल और द टेलीग्राफ अंग्रेजी दैनिक दोनो मे जमीन आसमान का फर्क है यहा यक्ष प्रशन यह की मालिक एक उसके बाद यह अंतर उंगली कथित पत्रकारो को इंगित करती है…

दूसरी और स्वनामधन्य टीवी चैनल की कल तक जान हुआ करते थे उन्हे पलायन के लिए किसने विवश किया ?

पुण्य प्रसून वाजपेई, अभिसार शर्मा,रवीश कुमार, अजीत अंजुम,साक्षी जोशी…ऐसे कई नाम है।प्रणव राय बरखा दत्त पर तो शुरू से वामपंथ का टेंग चस्पा था बाकीयो ने किसका क्या बिगाड़ा था ।
दूसरी और कुछ चिरकुट याद आ रहे है उनके नाम लिखने मे घिन्न आती है।

आरपार, दंगल, टक्कर, हल्ला बोल ऐसे ही विध्वंसक कई नाम है जहा ये एक दाढ़ी टोपी धारी को इस्लामी स्कॉलर तो दूसरी ओर तिलक चोटी धारी को धर्म गुरु बता कर आनाप शनाप बकवास…इनके जिक्र से ही मुँह कसेला हो गया…वैसे मेने टीवी न्यूज चैनल देखना ढाई तीन साल से बंद ही कर दिया है सुना है अब और अधिक घातक और मारक रूप मे कथित प्राइम टाइम मे विषवमन करते है….निरन्तर

माना कि विज्ञापन मीडिया की प्राणवायु है ,उसकी भी कोई हदबंदी तो हो आज इलेक्ट्रॉनिक ओर प्रिंट दोनो मीडिया मे सरकरी विज्ञापन की एक तरह प्रतिस्पर्धात्मक होड लगी है…पन्द्रह पैसे से पांच रुपए का हुआ अखबार अब अखबार मे खबर ढूंढने के लिए मशक्कत करनी पड़ती है जेकेट मे जेकेट चार छःपेज खंगालने के बाद समाचार प्रकटीकरण होता है…याद पड़ता है तत्कालीन प्रधान मंत्री इन्दिराजी की हत्या के बाद हुए आम चुनाव मे पहली बार फूल पेज के विज्ञापन एक विज्ञापन एजेन्सी नियमित जारी करती थी बड़े ही भावनात्मक होते थे चर्चा का विषय बने थे…आज राज्य सरकार चाहे किसी भी पार्टी की हो मुक्त हस्त से देश भर के अखबारो मे विज्ञापन देकर अपना यशोगान कर रही है जिसका औचित्य समझ से परे है…यही स्थिति न्यूज चैनल की है…पहले मीडिया संस्थानो मे विज्ञापन विभाग हुआ करता था जो कार्पोरेट व सरकार से विज्ञापन संग्रह करता आज यह काम मालिक व संपादक स्वयं कर रहे है…

अब कुलदीप नैयर, राजेन्द्र माथुर, खुशवंत सिंह, प्रभाष जोशी…रामनाथ गोयनका हम ढूंढे तो कहाँ मिलेगे…यहाँ मुझे यह स्वीकार करने मे कोई गुरेज नहीं कि हिन्दी पत्रकारीय धर्म निभाने मे अपनी तमाम व्यवसायिक दिक्कतों के बाद भी दैनिक भास्कर कोताही नही बरतता, बखुबी निभा रहा है…संतुलन के साथ ।

अति सर्वत्र वर्जिते विज्ञापन को लेकर मेरा तो मानना है वर्तमान मे विभिन्न राज्य व केंद्र सरकारो द्वारा विज्ञापन के नाम पर लुटाया जा रहा है वह राष्ट्रीय क्षति ही है…
मे आप से पूछता हू क्या कोई उपयोगीता इन विज्ञापन पर अर्थ शास्त्र ,समाज शास्त्र के विधार्थी के लिए शोध का विषय है सरकारो का विज्ञापन व्यय से कितने शिक्षा/स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किए जा सकते है…

स्वाभाविक है जब करोड़ो के विज्ञापन नियमित डकारने वाले मीडिया समूहो या कहे नोएडा समूह से निष्पक्ष पत्रकारिता की उम्मीद बेमानी है…

लेकिन दुनिया के सबसे बड़े प्रजातांत्रिक देश जहा की विविधता वह फिर पंथ,सम्प्रदाय, जाति,भाषा, वेषभूषा, रिती रिवाज कितनी भिन्नता दुनिया के किस देश मे है यही इसकी विशेषता जिस पर हर भारतीय गर्व करता है इसी भारत माता की वंदना करते माता की ममता वात्सल्य अपने सभी बच्चो पर समान होती है…वहा आजादी के बाद विभाजन की प्रसव पीड़ा के बाद पचहत्तर सालो से दुनिया हमारी एकता अखण्डता की कायल है धर्म के आधार पर बना देश पच्चीस साल भी नही चला खंडित हुआ पाकिस्तान।

आज मीडिया से यही शिकायत है धार्मिक उन्माद, झूठ, प्रपंच परोस कर वह सब करना चाह रही है जो हमारे दुश्मन देश नही कर सके…यधपिउसके मंसूबे कभी पूरे नही होगे तथापि एक विषैला वैमनस्य ता का जो वातावरण बनाया है उससे विविधतापूर्ण छवि निश्चित रूप से आहत हुई है।

(लेखक मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले के महिदपुर रोड में रहते हैं और यहाँ के सरपंच भी रह चुके हैं)