याद आता है कि अपने साहित्य के क्षेत्र में भी ऐसा बहुत बार हुआ है कि साहित्यकार छद्म नाम से लिखा करते थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र को पुनर्जागरण का अग्रदूत कहा जाता है। उन्होंने ‘रसा’ नाम से गजलें लिखीं। कुछ ने तो दो-तीन नामों का भी प्रयोग किया। जयशंकर प्रसाद भी पहले ‘झारखंडी’ और ‘कलाधर’ के नाम से लिखते थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सुकवि किंकर’ और ‘कल्लू अल्हैत’ नाम से लिखा। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘व्योमकेश शास्त्री’ और ‘बैजनाथ द्विवेदी’ नामों का प्रयोग किया। मैथिलीशरण गुप्त ने ‘रसिकेंद्र’ और ‘मधुप’ उपनाम से सृजन किया। इसी तरह, गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, ‘त्रिशूल’, ‘तरंगी’ उपनाम से प्रतिष्ठित हुए। जगन्नाथ दास आज भी ‘रत्नाकर’ और ‘जकी’ नाम से जाने जाते हैं। शरद जोशी शुरूआत में छद्म नामों से अखबारों और पत्रिकाओं में लिखते थे
नागार्जुन ने ‘यात्री’ के नाम से बहुत कविताएं लिखीं। अज्ञेय ने भी ‘कुट्टीचातन’ नाम से निबंध लिखे तो पाण्डेय बैचेन शर्मा उग्र ने अष्टावक्र नाम से कहानियां लिखी डॉ रामविलास शर्मा का अगिया बैताल आज भी चर्चा में बना हुआ है |अमृतलाल नागर ने तस्लीम लखनवी छद्मनाम से पत्र -पत्रिकाओं ,में लेखन किया | आश्चर्य की बात यह है कि उन्हें असली नाम के मुकाबले इस नाम से लिखने पर अधिक पारिश्रमिक मिलता था। लेकिन इन उपनामों और छद्म नामों में लेखन के बाद भी आज इन साहित्यकारों की पहचान उनके मुख्य नाम से ही होती है।
कहने का मतलब यह कि इनके नाम बदलने के पीछे कोई स्वार्थ नहीं था। दूसरी ओर, यह जगजाहिर तथ्य है कि प्रख्यात लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि ने बार-बार कहे जाने पर भी अपना सरनेम ‘वाल्मीकि’ नहीं बदला और एक अदद घर के लिए दर-दर भटकते रहे।नाम परिवर्तन किसी भी व्यक्ति का निजी मामला हो सकता है और किसी भी दूसरे व्यक्ति को इस बात पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए।