यह अकस्मात नहीं है कि जैन सन्तों एवं आचार्यों द्वारा जैन धर्म के नियमानुसार ली जाने वाली संथारा व संलेखना समाधि पर राजस्थान हाईकोर्ट के द्वारा लगाई गई रोक के विरोध में जैन समाज 24 अगस्त को देश भर में धरना प्रदर्शन व रैली निकालने के साथ कारोबार बंद रखा। रैली के बाद पूरे देश में विरोध स्वरूप ज्ञापन भी जिला प्रशासन को सौंपा गया।
दरअसल श्रमण संस्कृति की अति प्राचीन और अहम धारा जैन धर्म की परम्परा में संलेखना और संथारा को सदैव बहुत उच्च साहसिक त्याग का प्रतीक माना गया है। सर्वविदित है कि शांति प्रिय जैन समाज, अहिंसक मूल्यों की प्रतिष्ठा और उनके अनुपालन के नाम से ही प्रसिद्द है। इसलिए, विरोध और आंदोलन इसके बुनियादी तेवर से बहुत दूर की बात है। किन्तु, संथारे पर बंदिश ने कहीं-न-कहीं से जैन धर्म की दिव्य परम्परा पर सवालिया निशान पैदा कर पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया है। लिहाज़ा, इस निर्णय के विरोध में स्वर उठना स्वाभाविक है। फिर भी, क़ाबिलेगौर है कि जैन धर्म के मूल्यों और न्यायालय की मर्यादा को भी ध्यान में रखते हुए समाज ने मौन रैली सहित शांतिपूर्ण प्रदर्शन का मार्ग अपनाने का फैसला किया।
समरणीय है कि जैन समाज में यह पुरानी प्रथा है कि जब किसी तपस्वी व्यक्ति को लगता है कि वह मृत्यु के द्वार पर खड़ा है तो वह स्वयं अन्न-जल त्याग देता है। जैन शास्त्रों में इस तरह की मृत्यु को संथारा कहा जाता है। इसे जीवन की अंतिम साधना के रूप में स्थान प्रदान किया है। अंतिम समय की आहट सुन कर सब कुछ त्यागकर मृत्यु को भी सहर्ष गले लगाने के लिए तैयार हो जाना वास्तव में बड़ी हिम्मत का काम है। जैन परम्परा में इसे वीरों का कृत्य माना जाता है। यहां वर्धमान से महावीर बनाने की यात्रा भी त्याग, उत्सर्ग और अपार सहनशीलता का ही दूसरा नाम है। यह समझना भूल है कि संथारा लेने वाले व्यक्ति का अन्न जल जानबूझकर या जबरदस्ती बंद करा दिया जाता है। संथारा में व्यक्ति खुद भोजन का त्याग धीरे-धीरे करता जाता है। अन्न जब अपाच्य हो जाय तब स्वतः सर्वत्याग की स्थिति बन जाती है।
जैन धर्म-शास्त्रों के विद्वानों का मानना है कि आज के दौर की तरह वेंटिलेटर पर दुनिया से दूर रहकर और मुंह मोड़कर मौत का इंतजार करने से बेहतर है संथारा प्रथा। यहाँ धैर्य पूर्वक अंतिम समय तक जीवन को पूरे आदर और समझदारी के साथ जीने की कला का नाम है संथारा। यह आत्महत्या नहीं, आत्म समाधि की मिसाल है और समाधि को जैन धर्म ही नहीं, भारतीय संस्कृति में कितनी गहन मान्यता दी गई है, शायद लिखने की ज़रुरत नहीं है। सोचना चाहिए कि किसी भी तरह की बड़ी या छोटी से छोटी हिंसा को भी कभी, कोई अनुमति नहीं देने वाला जैन धर्म आत्महंता नियति को कैसे स्वीकार कर सकता है ? यहाँ तो त्याग ही जीवन और जीवन साधना का शिखर भी है। संथारा आत्मनिष्ठा का अनुपम अनुष्ठान है। वास्तव में यह क्षणभंगुरता के विरुद्ध शास्वत चेतना का शंखनाद है।
जैन समाज ने संथारा पर राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा जारी फैसले के विरोध में खड़े होकर अगर न्याय के मंदिर से अपने ही फैसले की पुनः समीक्षा करने की आवाज़ बुलंद की है तो कहना न होगा कि वह इस मामले में तो लाज़िमी है। आखिर, प्रकृति का न्याय भी यही कहता है धर्म ही तो धरती को धारण किये हुए है। उम्मीद की जानी चाहिए कि परमात्म साधना के साधन यानी संथारा को उसकी यथोचित गरिमा और महिमा के नज़रिये से देखा और समझा जाएगा ताकि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में साधना और उपासना की स्वतंत्रता जैसे संवैधानिक अधिकार की भी रक्षा हो सके।
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लेखक दिग्विजय कालेज, राजनांदगांव में
प्रोफ़ेसर हैं। मो.9301054300