भोपाल। अन्य सभी चुनावी राज्यों की अपेक्षा मध्यप्रदेश में ज्यादा गहमागहमी है। राजनीतिक सरगर्मी पर पार्टियों की नजर है। राजनीतिक विश्लेषक इस बात का अंदाजा लगाने में हैं कि उंट किस करवट बैठेगा। प्रदेश में 25 नवम्बर को मतदान होगा। 8 नवम्बर को नामांकन की अंतिम तारीख है। 8 दिसंबर को मतों का पिटारा जनता के सामने होगा। इसी दिन यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि बाजी किसके हाथ लगी।
गौरतलब है कि अधिकांश चुनावों में यहां कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर रही है। यह सच है कि बसपा, सपा और गोगपा जैसी पार्टियां मतों में सेंधमारी कर भाजपा-कांग्रेस का खेल बिगाड़ती रही हैं। मध्यप्रदेश में पिछले चुनावों के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि कांग्रेस और भाजपा के बीच 6 प्रतिशत से अधिक मतों का अंतर नहीं रहा। वर्ष 1980, 1985 और 2003 के आंकड़े जरूर भिन्न रहे। 1980 में हुए विधानसभा चुनाव में अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस को 47.51 प्रतिशत, जबकि भाजपा को 30.34 प्रतिषत मत मिले थे। तब कांग्र्रेस ने दो तिहाई बहुमत से सरकार बनाई थी।
इस चुनाव में अन्य दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को 22.15 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे। इसी प्रकार 1985 में हुए चुनाव में कांग्रेस को श्रीमती इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस को सहानुभूति का लाभ मिला और उसकी झोली में 48.57 आये। 1980 और 1985 के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच क्रमश: 17.17 प्रतिशत और 19.10 प्रतिशत मतों का अंतर रहा। 1990 के चुनाव में कांग्रेस को भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण लोगों की नाराजगी झेलनी पड़ी और कांग्रेस 33.49 प्रतिशत मतों पर खिसक गई। 39.12 प्रतिशत मत लेकर भाजपा ने कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया। निर्दलीय सहित अन्य दलों को इस चुनाव में 26.39 मत मिले थे। 6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाये जाने के बाद तीनों राज्यों सहित मध्यप्रदेष की भाजपा सरकारें बर्खास्त कर दी गई थीं। 1993 में हुए चुनाव में भाजपा सहानुभूति नहीं ले पाई। भाजपा को कांग्रेस से 2 प्रतिषत कम मत मिले। इसी प्रकार 1998 में हुए चुनाव में भाजपा मात्र 1.25 प्रतिशत मत से सत्ता से दूर रह गई। इस चुनाव में कांग्रेस को 40.79 प्रतिषत जबकि भाजपा को 38.82 प्रतिशत मत मिले। इस साल भी निर्दलीय एवं अन्य को 20.39 प्रतिशत मत मिले।
वर्ष 2003 में भाजपा साध्वी उमाश्री भारती के नेतृत्व में कांग्रेस और दिग्विजय सिंह के कुशासन और बिजली, पानी और सड़क को मुददा बना चुनाव लड़ी। जनता ने भाजपा के वायदे पर भरोसा कर 42.50 प्रतिशत मत देकर दो तिहाई बहुमत दिया। कांग्रेस इस बार 31.61 प्रतिशत वोट मिला। हालांकि 2008 में भाजपा के मतों में कमी हुई, लेकिन कांग्रेस से 5 प्रतिशत मत अधिक लेकर वह फिर सरकार बनाने में सफल रही।
यह चुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए आर-पार की लडाई है। कांग्रेस की स्थिति अभी नही तो कभी नहीं की है। कांग्रेस के लिए अपने अस्तित्व को बचाने की चुनौती है तो भाजपा के लिए दिल्ली का किला फतह करने की पूर्व-पीठिका। मध्यप्रदेश सहित अन्य चार राज्यों में प्राप्त सफलता ही भाजपा के लिए दिल्ली का रास्ता साफ करेगा। अगर भजपा विधानसभा में असफल रही तो दिल्ली उसके लिए दूर हो सकती है।
बहरहाल मध्यप्रदेश में भाजपा जहां शिवराज सिंह के चेहरे और 10 वर्षों के सुशासन के नाम पर फिर से जनता का समर्थन मांग रही है, वहीं कांग्रेस ने प्रदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार को खास मुद्दा बनाया है। कांग्रेस अपनी गुटबाजी और दिग्विजय सिंह के कुशासन को ज्योतिरादित्य सिंधिया के चेहरे से छुपाने की कोशिश कर रही है। भाजपा ने कांग्रेस के कुशासन, भ्रष्टाचार और महंगाई के बहाने कांग्रेस का चेहरा जनता के सामने ले जायगी। भाजपा ने कांग्रेस के खिलाफ आक्रामक नारा दिया है – ‘‘यह युद्ध आर-पार है, अंतिम यह प्रहार है।’’ एक कदम और आगे बढ़कर भाजपा ने कांग्रेस को खत्म करने के गांधीजी के सपने को पूरा करने का इरादा जता दिया है। भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेसमुक्त देश-प्रदेश का नारा देकर अपने आक्रमण का अहसास कांग्रेस के नेताओं को करा दिया है। चुनावी तैयारी में भाजपा आगे-आगे और कांग्रेस पीछे-पीछे दिख रही है। कांग्रेस को डर है कि इसबार की असफलता से कहीं उसकी स्थिति बिहार और उत्तरप्रदेश की तरह न हो जाये।
हालांकि कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में एकजुटता का पूरा प्रयास कर रही है। लेकिन कांग्रेसी क्षत्रपों की गुटबाजी कम होने का नाम नहीं ले रही है। एक तरफ जहां पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का राजनीतिक कैरियर दांव पर है, वहीं कमलनाथ, भूरिया, पचौरी, अजय सिंह ‘राहुल’ और सत्यव्रत चतुर्वेदी अपना-अपना दांव खेलने से बाज नहीं आ रहे हैं। सिंधिया के चेहरे के पीछे दिग्गजों का दांव-पेंच जारी है। मुख्यमंत्री की ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ के जवाब में कांग्रेस ने पूरे प्रदेश में ‘सत्ता परिवर्तन रैली’ के जरिये अपना चुनावी अभियान चलाया है। मुख्यमंत्री की अधूरी घोषणाओं और विभिन्न योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को कांग्रेस ने मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया है।
यह चुनाव मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए भी अग्नि परीक्षा जैसा ही है। भाजपा में गुटबाजी भले ही हो, लेकिन मध्यप्रदेश में उनके नेतृत्व को कोई चुनौती नहीं है। वे मध्यप्रदेश में भाजपा के सबसे लम्बे समय तक रहने वाले मुख्यमंत्री का इतिहास रच गए हैं। स्वर्णिम मध्यप्रदेश और अपना मध्यप्रदेश बनाओ का नारा देकर शिवराज सिंह चौहान ने लोगों को प्रदेश की भावनात्मक अस्मिता और पहचान से जोड़ने की कोशिश की है। लाडली-लक्ष्मी, अन्त्योदय और दीनदयाल उपचार सरीखी योजनाएं भाजपा सरकार के लिए वरदान सिद्ध हो सकती हैं।
यह सच है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियां गुटबाजी और आंतरिक कलह से जुझ रही हैं। लेकिन यह भी सच है कि जहां कांग्रेस की कलह अंत समय तक पार्टी को नुकसान पहंचाती है, वहीं भाजपा की कलह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हस्तक्षेप से नियंत्रित हो जाती है। भाजपा को विचार परिवार के संगठनों का समर्थन अंत समय में मिलना सुनिश्चित है। यही कारण है कि सत्ता विरोधी भावना होने के बावजूद भाजपा की तीसरी बार सरकार बनना लगभग तय है।
तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद न तो भाजपा और न ही समविचारी संगठनों के कार्यकर्ता यह चाहेंगे कि कांग्रेस के हाथ में सत्ता चली जाए। एक जो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है जो मध्यप्रदेश में कांग्रेस के खिलाफ और भाजपा के पक्ष में है, वह है विधानसभा की जीत से भाजपा के प्रधानमंत्री के उम्मीदवार नरेन्द्र भाई मोदी को ताकत मिलना। भाजपा नेता इस बात से आश्वस्त हैं कि मतदान के अंतिम दिनों में मोदी की रैलियों और सभाओं का भाजपा को बड़े पैमाने पर लाभ मिलेगा। मध्यप्रदेश में लगभग 35 प्रतिशत नये और युवा मतदाता हैं। इनपर मोदी का जादू चलना तय है। यही युवा और नये मतदाता सत्ता की चाबी हैं। राजनीतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि चुनाव के अंतिम दिनों में मोदी की सभाओं से लगभग 3 से 5 प्रतिशत मतदाता जो भाजपा के परंपरागत समर्थक नहीं हैं वे भाजपा के पक्ष में आ जायेंगे। यही वोट भाजपा की सरकार बनायेगी।
(लेखक मीडिया एक्टिविस्ट और स्टेट न्यूज चैनल के सलाहकार संपादक हैं)
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