Sunday, June 30, 2024
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नया कानून बनेगा-बहुसंख्यक वर्ग अपराधी और अल्पसंख्यक पीड़ित की श्रेणी में

संसद का शीतकालीन सत्र आज से शुरू हो चुका है। इसके साथ ही प्रस्तावित सांप्रदायिक हिंसा निरोधक विधेयक पर बहस गर्मा गई है। इस विवादित विधेयक के अनुसार महज बहुसंख्यक होने के नाते किसी भी व्यक्ति को अपराधी और महज अल्पसंख्यक होने के नाते किसी भी व्यक्ति को पीड़ित माना जा सकता है! इसकी रूपरेखा सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) द्वारा तैयार की गईहै, जो कि हर लिहाज से एक संविधानेतर संस्था है और उसके सदस्य सोनिया गांधी द्वारा चुने जाते हैं।

प्रस्तावित विधेयक का जाहिर मकसद तो यह है कि देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर लगाम लगे। निश्चित ही यह एक नेक खयाल है। लेकिन विधेयक के प्रावधानों को गौर से पढ़ने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि यदि यह पारित हो गया तो पहले ही सांप्रदायिक विद्वेष का सामना कर रहे समाज में ध्रुवीकरण की प्रक्रिया और तीव्र हो जाएगी। निश्चित ही इस विधेयक को पारित करने के पीछे कांग्रेस का मकसद तुष्टीकरण की नीति को बढ़ावा देते हुए वोटबैंक की राजनीति करना है।

प्रस्तावित विधेयक के अनुसार सांप्रदायिक हिंसा का मुजरिम कौन है, इसका निर्धारण दंगों में किसी व्यक्ति द्वारा निभाई गई भूमिका से नहीं, बल्कि इस बात से होगा कि वह बहुसंख्यक है या अल्पसंख्यक। यह प्रावधान तो इस नियम के पूरी तरह उलट है कि : "अपराधी का कोई मजहब नहीं होता।" प्रस्तावित विधेयक के अनुसार सांप्रदायिक तनाव या हिंसा या नफरत फैलाने वाली बातों के लिए अल्पसंख्यक तबके का कोई व्यक्ति जिम्मेदार नहीं होता। न तो कानून और न ही तथ्य इस बात को सही ठहरा सकते हैं। अब जब देश का मिजाज धीरे-धीरे सांप्रदायिक सौहार्द की ओर बढ़ रहा है, मसौदा विधेयक का यह कहना निश्चित ही पक्षपातपूर्णव विभेदकारी है कि सांप्रदायिक तनाव की स्थिति केवल बहुसंख्यक समुदाय द्वारा निर्मित की जाती है व इसके लिए उन्हें ही सजा मिलना चाहिए!

विधेयक के अनुसार यदि दंगों के दौरान किसी मुस्लिम महिला के साथ दुराचार होता है तो इसे अपराध माना जाएगा, लेकिन यदि किसी हिंदू महिला के साथ ऐसा होता है तो इसे अपराध नहीं माना जाएगा! यह बात तो पूरी तरह बेतुकी है, क्योंकि दंगों की स्थिति में कोई भी हिंसा या दुराचार का शिकार हो सकता है। इस विधेयक के जरिए जिस समुदाय का संरक्षण होगा, उसे केवल "समूह" कहकर पुकारा गया है। इस "समूह" से वास्ता रखने वाले अल्पसंख्यक समुदायों को अजा-अजजा की श्रेणी के साथ रखा गया है। इस तरह के कदमों से हिंदू समाज बंटेगा और सामाजिक असंतोष फैलेगा। शिया-सुन्नी संघर्षों से पूरी दुनिया वाकिफ है, लेकिन इस तरह के संघर्षों को विधेयक में सांप्रदायिक हिंसा की श्रेणी में नहीं रखा गया है! यह सीधे-सीधे वोटबैंक की राजनीति है। याद रखा जाना चाहिए कि जब यहूदियों, पारसियों और सीरियाई ईसाइयों पर उनके देशों में जुल्म हुए तो उन्हें भारत के हिंदुओं द्वारा आश्रय दिया गया। इस सहिष्णु समुदाय को दोषी साबित करने की कोशिशें देश के हित में नहीं होंगी।

प्रस्तावित विधेयक आपराधिक न्याय के मानकों को भी उलटने की कोशिश करता है। विधेयक के अनुसार जो व्यक्ति नफरत फैलाने की कोशिशों में लिप्त पाया जाता है, उसे निर्दोष साबित होने तक दोषी माना जाएगा। जबकि भारतीय संविधान का तो यह कहना है कि जब तक किसी व्यक्ति का दोषसिद्ध न हो, तब तक उसे निर्दोष माना जाए। यदि यह विधेयक कानून बन गया, तो किसी व्यक्ति को जेल की सलाखों के पीछे भेजने के लिए उसके खिलाफ कोईआरोप लगाना ही काफी होगा। आरोप को ही उसके खिलाफ साक्ष्य माना जाएगा।ऐसे में आरोपी के लिए अपनी बेगुनाही साबित करना नामुमकिन हो जाएगा। सीआरपीसी के अनुभाग १६१ के तहत कोई बयान नहीं दर्ज किए जा सकेंगे, जबकि पीड़ित के बयान सिर्फ अनुभाग १६४ के तहत अदालत के समक्ष लिए जा सकेंगे। इस कानून के तहत सरकार को संदेशों के आदान-प्रदान को रोकने या दूरसंचार को बाधित करने के भी अधिकार होंगे।

प्रस्तावित विधेयक के मुताबिक मुकदमे की कार्यवाही संचालित करने वाला विशेष लोक अभियोजक "पीड़ित के हित में" कार्य करेगा। पीड़ित शिकायतकर्ता के नाम और पहचान को गुप्त रखा जाएगा। यहां तक कि न्यायिक गतिविधियों पर भी नजर रखी जाएगी। साथ ही यदि किसी संगठन विशेष के व्यक्ति पर आरोप लगाए जाते हैं तो उस संगठन के प्रमुख को भी जिम्मेदार माना जाएगा। इस प्रावधान का गुप्त एजेंडा यह है कि इसकी मदद से हिंदू संगठनों और उनके प्रमुखों पर शिकंजा कसा जाए!

यदि यह बिल पारित हो जाता हैतो केंद्र सरकार बड़ी आसानी से राज्य सरकार के अधिकारों में अतिक्रमण कर सकती है। कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार के हाथ में होती है, लेकिन यह कानून बनने के बाद ऐसा नहीं रह जाएगा।

विधेयक में एक सात सदस्यीय समिति का प्रावधान किया गया है, जो सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित मामलों की जांच करेगी और फैसले लेगी। सात सदस्यीय समिति में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के साथ चार सदस्य अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे। यह तो संविधान की प्रस्तावना के ही प्रतिकूल होगा। जरा सोचिए, यदि सर्वोच्च अदालत, उच्च न्यायालय, चुनाव आयोग सहित अन्य संस्थाओं का गठन इस प्रकार के अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक प्रतिनिधित्व के आधार पर किया जाए, तो क्या होगा? अल्पसंख्यकों की बहुसंख्या वाली उपरोक्त समिति को असीमित अधिकार दिए गए हैं। समिति न केवल पुलिस और सशस्त्र बलों को आदेशित कर सकती है, बल्कि उसके समक्ष दिए गए किसी भी कथन या साक्ष्य को न्यायालय के समक्ष दिए गए कथन या साक्ष्य के समकक्ष समझा जाएगा। विधेयक प्रशासनिक अधिकारियों पर भी इस तरह के दबाव निर्मित करता है कि वे हर परिस्थिति में अल्पसंख्यकों का साथ देने को विवश हो जाएंगे।

 

साभार-देनिक नईदुनिया से

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टाईम पत्रिका के सर्वे में मोदी को मात देने के लिए फर्जीवाड़ा !

राजनेताओं द्वारा सोशल मीडिया में और ऑनलाइन प्रचार के लिए पब्लिक रिलेशन कंपनियों का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है और यह भी अक्सर सुनने में आता है कि कई कंपनियाँ अपने ग्राहक को अधिक लोकप्रिय दिखने के लिए फ़र्ज़ी तौर-तरीक़े अपनाती हैं. कोबरा पोस्ट के खुलासे के बाद ऐसी चर्चाओं को अब ठोस आधार भी मिल गया है. नई तकनीक के आने के पहले नेताओं की लोकप्रियता का पैमाना या तो चुनाव हुआ करता था या कुछ पत्रिकाएँ/चैनल सर्वेक्षण द्वारा बताते थे कि कौन कितने पानी में है. सोशल मीडिया और ऑनलाइन के कारण अब यह हर दिन का मामला बन गया है. संयोग से, कोबरा पोस्ट का यह ‘खुलासा’ उसी समय आया है जब दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका टाइम अपने चर्चित ‘वर्ष का व्यक्ति’ चुनने की प्रक्रिया में है. अंतिम चयन तो पत्रिका के सम्पादकों द्वारा ही किया जाता है और उस प्रक्रिया में ऑनलाइन मतदान का कोई मतलब नहीं होता है लेकिन 1998 से शुरू इस मत-प्रक्रिया ने एक ख़ास मुक़ाम बना लिया है और हर बार मत-प्रक्रिया के दौरान के उतार-चढ़ाव और अंत में सबसे अधिक मत पाये हुए लोगों को लेकर चर्चा होती रहती है. हमारे समय की हर चर्चा की तरह इसमें भी विवादों का बड़ा हिस्सा होता है और वे अक्सर आधारहीन भी नहीं होती हैं.

नरेंद्र मोदी
टाइम के इस चुनाव-प्रक्रिया में जो अंतिम नाम चुने गए हैं, उनमें गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा की ओर से 2014 में होने वाले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उमीदवार भी हैं. मोदी का नाम आने से इस मत-प्रक्रिया में भारतीय मीडिया की दिलचस्पी स्वाभाविक भी है. इसी पत्रिका द्वारा निकाले जाने वाली वार्षिक सूची विश्व के 100 सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति की 2012 की सूची में नरेंद्र मोदी का नाम शामिल हुआ था किन्तु उसके ऑनलाइन मतदान में लम्बे समय तक पहले स्थान पर बने रहने के बावज़ूद कंप्यूटर हैकर-कार्यकर्ताओं के अंतरार्ष्ट्रीय समूह एनॉनमस ने आख़िरी कुछ घंटों में तेज़ी से बढ़त बनाते हुए भारी अंतर से पहला स्थान हथिया लिया था. तब कॉंग्रेस पार्टी ने यह आरोप लगाया था कि मोदी के समर्थन में बड़े सुनियोजित और प्रायोजित ढंग से मतदान कराया जा रहा है. उधर मोदी के पिछड़ने के बाद उनके समर्थकों ने टाइम पत्रिका से चेंज डॉट ऑर्ग पर जारी ऑनलाइन याचिका के तहत यह मांग की थी कि एनॉनमस की बढ़त को खारिज़ कर दिया जाये क्योंकि उस समूह ने इस प्रक्रिया में तकनीकी घपला किया था जो अनैतिक है. उस याचिका में यह भी कहा गया था कि मोदी के विरोध में मत देने की घृणापूर्ण अपील भी की गई थी. याचिका की एक मज़ेदार बात यह थी जिसमें याचिकाकर्ता ने कहा था कि नरेंद्र मोदी जैसे महान प्रशासक और राजनेता के लिए ऐसे ऑनलाइन मतदानों का कोई महत्व नहीं है लेकिन ‘ईमानदारी और आदर्शों’ के लिए इनमें शुचिता सुनिश्चित करना ज़रूरी है. यह भी मज़ेदार बात है कि नरेंद्र मोदी को जहाँ उस मतदान में ढाई लाख से अधिक मत मिले थे, वहीं किशोर त्रिवेदी नामक व्यक्ति द्वारा जारी इस याचिका में सिर्फ़ 470 लोगों का समर्थन ही मिल सका था. ख़ुद को मोदी-समर्थक कहने वाले एक व्यक्ति ने इंटरनेट से जुड़े मसलों की लोकप्रिय साइट मैशेबल पर दिए बयान में भी एनॉनमस पर घपले का आरोप लगाया था. इस व्यक्ति ने अपनी असली पहचान नहीं बताई थी और वह ट्विटर पर सत्यभाषणम् के नाम से सक्रिय है और उसके परिचय में दिए गए वेबसाइट पर इस्लाम-विरोधी दुष्प्रचार होता है. एनॉनमस ने अपने ऊपर लगे आरोपों को ख़ारिज़ कर दिया था. 2012

2009पिछले साल के इस टाइम 100 के बाद और कोबरा पोस्ट के ‘खुलासे’ से पहले भी नरेंद्र मोदी को लेकर ऐसा एक विवाद सामने आया था. अंग्रेज़ी अखबार द हिन्दू के एक लेख में इस साल अक्टूबर में माहिम प्रताप सिंह ने यह बताया था कि ट्विटर पर नरेंद्र मोदी के अनुयायियों की बड़ी सख्या फ़र्ज़ी है. बहरहाल, हम वापस लौटते है टाइम के ‘वर्ष का व्यक्ति’ चुनाव पर. अगर सच में नरेंद्र मोदी का प्रचार-तंत्र उन्हें इस प्रतियोगिता में शीर्ष पर पहुँचाने की क़वायद में लगा है तो उसे पिछले साल के अनुभव के कारण बार-बार एक ख़ास नाम डरा रहा होगा. मज़े की बात यह है कि यह डर सिर्फ़ मोदी-प्रचार-तंत्र को ही नहीं, बल्कि टाइम के तकनीकी टीम को भी डरा रहा होगा. इंटरनेट और सोशल मीडिया के इतिहास में चर्चित नाम तो कई हैं लेकिन इनकी किंवदंतियों के नायकों की संख्या बहुत थोड़ी है. क्रिस्टोफर पूल उन्हीं गिने-चुने लोगों में हैं. इंटरनेट की तरंगों में उनका छद्म नाम मूट गूंजता है. मोदी समर्थकों और विरोधियों के आलावा जिस किसी को भी इस पत्रिका के इस वार्षिक चुनाव में रूचि है, उसे मूट के बारे में ज़रूर जानना चाहिए. 6 दिसंबर को प्रकाशित होने वाले ऑनलाइन मतदान के परिणाम पर मूट की कोई भूमिका हो या न हो, लेकिन हर बार की तरह फिर उनका नाम ज़रूर आएगा. इंटरनेट और सोशल मीडिया और उसके पब्लिक स्फेयर में जिनकी दिलचस्पी है, उन्हें तो पूल उर्फ़ मूट को ज़रूर जानना चाहिए. मूट को जानना हमारे लिए इसलिए भी ज़रूरी है कि जहाँ इंटरनेट और सोशल मीडिया का इस्तेमाल ख़तरनाक इरादों, बेईमानी और स्वार्थ-सिद्धि के लिए किया जा रहा है, वहीं मूट जैसे नौजवान इसका इस्तेमाल बड़ी ताक़तों के विरुद्ध और इंटरनेट की व्यापक स्वतंत्रता के लिए कर रहे हैं. जब थोड़ा सा तकनीक का ज्ञान लेकर कुछ युवा बाज़ार में पैसे की हवस बुझाने के लिए खड़े हैं, वहीं पूल जैसे निपुण और मेधावी युवा अपने ज्ञान का इस्तेमाल बहुजन हिताय करने का संकल्प लेकर खड़े हैं.

क्रिस्टोफर पूल
न्यूयॉर्क निवासी क्रिस्टोफर पूल ने अपने सोने के कमरे में बैठकर 2003 में किशोरों के लिए एक वेबसाइट 4चान डॉट ऑर्ग शुरू की थी जिस पर बिना किसी पंजीकरण के और पहचान बताये तस्वीरें, चुटकुले, टिप्पणियाँ आदि का आदान-प्रदान किया जा सकता था. तब पूल की उम्र सिर्फ 15 साल थी और ऑनलाइन की दुनिया में उसे मूट के नाम से जाना जाता था. ऐसा माना जाता है कि अकेली कामकाजी माँ के साथ रहते हुए पूल ने कुछ कमाई के इरादे से यह साइट शुरू की थी. देखते-देखते यह साइट बहुत लोकप्रिय हो गया. एक और जहाँ यह साइट आम किशोरों के मनोरंजन का अड्डा बना, वहीं हैकरों और प्रयोगधर्मी किशोरों ने इसे कर्मस्थली भी बनाया जिसके निशाने पर बड़े-बड़े साइट आए. ऐसा माना जाता है कि एनॉनमस की शुरूआती प्रयोगशाला यहीं बनी और विरोधियों, बैंकों, सरकारों आदि के साइट हैक कर 4चान के उपयोगकर्ताओं ने विकिलीक्स तथा दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चलने वाले आन्दोलनों को भी बहुत समर्थन दिया. वाशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार इंटरनेट के इतिहास के सबसे बड़े और चर्चित ऑनलाइन हमलों में से कई इसी साइट के उपयोगकर्ताओं ने अंजाम दिए. गार्डियन अखबार ने एक दफ़ा इनको ‘पागल, बचकाना, प्रतिभाशाली, बेतुका और ख़तरनाक’ कहा था. इस साइट के प्रभाव का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 2008 में ब्राज़ील के एक बड़े पत्रकार लियोपोल्दो गोदोय  ने इसे पाश्चात्य वेब संस्कृति का नाभि-केंद्र कहा था. आज इंटरनेट पर इस्तेमाल होनेवाले बहुत से शब्द, चित्र-भंगिमाएँ, स्टाईल आदि की शुरुआत इसी साइट के विभिन्न पन्नों से हुई थी. तबतक इसके कर्ता-धर्ता मूट की असली पहचान किसी को नहीं मालूम था. 9 जुलाई 2008 को वाशिंगटन पोस्ट और टाइम ने अलग-अलग रिपोर्टों में पहली बार मूट के असली नाम क्रिस्टोफर पूल के नाम से लोगों का परिचय कराया. 

अगले साल यानि 2009 के शुरू में टाइम ने विश्व के सर्वाधिक प्रभावशाली लोगों की वार्षिक सूची ‘टाइम 100′ में पूल की ऑनलाइन पहचान ‘मूट’ को शामिल किया. यहाँ से मूट, और 4चान के साथ टाइम के इन दो वार्षिक सूचियों का विवादस्पद सम्बन्ध शुरू होता है जो आजतक जारी है. 4चान के उपयोगकर्ताओं ने आपस में यह निर्णय लिया और देखते-देखते मूट उस सूची में भारी मतों के अंतर से पहले स्थान पर जा पहुँचा. इतना ही नहीं, इनलोगों ने सामूहिक कारवाई करते हुए अगले बीस स्थान भी अपनी मर्जी से निर्धारित कर दिए. इसी तरह 2012 के ‘टाइम 100′ के मतदान में नरेंद्र मोदी की लगातार बढ़त को लांघते हुए एनॉनमस ने भारी अंतर से पहला स्थान ले लिया था. यह करामात बस चंद घंटों में कर दिखाया गया था. 2012 के ‘वर्ष का व्यक्ति’ के मतदान में हैकरों ने मज़ा लेते हुए उत्तर कोरियाई तानाशाह किम जोंग उन को पहले स्थान पर ला दिया और साथ ही अगले 13 स्थान भी अपने हिसाब से निर्धारित कर दिया. कुछ रिपोर्टों में इस साल के अभी चल रहे मतदान में मिली साइरस की बढ़त के पीछे भी इनका हाथ माना जा रहा है लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि साइरस पूरे साल भर चर्चा में रही हैं जिसका लाभ उन्हें मिल सकता है. 

इन पंक्तियों के लिखे जाने तक तुर्की के प्रधानमंत्री एर्दोआं दूसरे और मिस्र के फ़ौज़ी कौंसिल के मुखिया फ़तह अल-सिसी तीसरे स्थान पर हैं. नरेंद्र मोदी पहले स्थान से लुढ़कते-लुढ़कते तीन दिन में चौथे स्थान पर आ गए हैं. जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि अंतिम चुनाव पत्रिका के सम्पादकों द्वारा होता है और उसमें इस मतदान प्रक्रिया का कोई मतलब नहीं होता. लेकिन अगर इसमें मोदी पहले स्थान पर आ जाते हैं तो आगामी चुनावों को देखते हुए प्रचार महिमा से आक्रांत मोदी-समर्थकों के लिए बड़ी बात होगी. वैसे सम्पादकों द्वारा मोदी को चुने जाने की सम्भावना न के बराबर है. मेरे हिसाब से ईरान के नए राष्ट्रपति हसन रूहानी के ‘वर्ष का व्यक्ति’ चुने जाने की प्रबल सम्भावना है.

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मीडिया के लिए ‘वेक अप कॉल’ है तहलका केसः इंडियन मीडिया सेंटर (आईएमसी)

नई दिल्ली। इंडियन मीडिया सेंटर (आईएमसी) तहलका के संपादक तरुण तेजपाल द्वारा प्रथम द्रष्टया एक महिला पत्रकार के साथ यौन उत्पीड़न के गंभीर मामले की भर्त्सना करता है और मीडिया की सत्यनिष्ठा व जनहित में इस मामले की संबंधित प्राधिकारी द्वारा उचित जांच की मांग करता है। एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर इंडियन मीडिया सेंटर के अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद चन्दन मित्रा, उपाध्यक्ष बृजकिशोर कुठियाला, कार्यकारी निदेशक के. जी. सुरेश और सचिव शिवाजी सरकार ने ये यह मांग रखी है.

कोई भी कॉर्पोरेट या संपादकीय प्रमुख अपने लिये सजा तय नहीं कर सकता। पत्रिका के प्रबंधन को उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित विशाखा दिशानिर्देशों के आधार पर त्वरित कार्रवाई करनी चाहिए थी। इस तरह के गंभीर मामले में तहलका प्रबंधन द्वारा अपना कर्तव्य न निभाकर ‘आंतरिक जांच’ बिठाना अक्षम्य है और बिल्कुल स्वीकार्य नहीं है। यह संस्थागत विफलता का एक स्पष्ट मामला है और इस मामले में देश के कानून के अनुसार चलना उचित होगा।

इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को पूरे मीडिया के लिए भी एक ‘वेक अप कॉल’ के रूप में देखा जाना चाहिए और संस्थागत तंत्र को विशाखा दिशानिर्देशों के उल्लंघन के छोटे से मामलों का भी संज्ञान लेते हुए कानून को अपना कार्य करने देना चाहिए। सरकार को भी अपने स्तर पर तत्काल प्रभाव से प्रभावी कानूनों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए एक सुदृढ़ तंत्र विकसित करना चाहिए। यह सुझाव है कि इस कार्य की जिम्मेदारी महिला आयोग को दी जानी चाहिए।    

आईएमसी द्वारा इस मुद्दे पर निकट भविष्य में संबंधित संगठनों और समरुचि के लोगों के साथ मिलकर एक राष्ट्रीय विमर्श का आयोजन किया जाएगा। आईएमसी प्रिंट, इलैक्ट्रॉनिक और वेब पत्रकारिता में उच्चतम मानकों को समर्पित एक स्वतंत्र और गैर लाभकारी संस्था है।  इसकी देश में 16 इकाइयां हैं। 

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धारा 370 को लेकर सार्थक बहस छेड़ी नरेंद्र मोदी ने

जम्मू-कश्मीर में धारा 370 के मुद्दे पर भाजपा ने नई बहस छेड़ दी है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की रविवार को राज्य में पहली जनसभा थी। इसमें उन्होंने कहा, 'धारा 370 से राज्य को फायदा हुआ या नहीं? इस पर चर्चा तो करो।' पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने तो यहां तक कह दिया कि यदि इस धारा से राज्य को फायदा हुआ है तो पार्टी इसका समर्थन करेगी। संविधान की धारा-370 जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देती है। संसद में बने सभी कानून राज्य में लागू नहीं होते। विधानसभा की मंजूरी उसके लिए जरूरी है। जम्मू-कश्मीर के नागरिक देशभर में कहीं भी बस सकते हैं। संपत्ति खरीद सकते हैं। लेकिन अन्य राज्यों के नागरिक जम्मू-कश्मीर में न तो बस सकते हैं और न संपत्ति खरीद सकते हैं।

भाजपा जनसंघ के जमाने से ही इस धारा को खत्म करने की मांग करती रही है। मोदी ने अपने भाषण में धारा-370 को खत्म करने की मांग को जायज ठहराने की कोशिश भी की। उन्होंने कहा, 'अब धारा-370 का इस्तेमाल कवच के तौर पर होता है। इसे सांप्रदायिकता से जोड़ा जा रहा है। इस पर विचार होना चाहिए कि पंडित (जवाहरलाल) नेहरू की सोच सही थी या श्यामा
प्रसाद मुखर्जी की। 60 साल के इतिहास को देखने पर तो मुखर्जी की ही सोच सही लगती है।'

मोदी ने दावा किया कि सौंदर्य और श्रद्धा के लिए यहां अच्छा टूरिज्म है। लेकिन अब राज्य का टूरिज्म प्रभावित हो रहा है। पर्यटक हिमाचल प्रदेश जा रहे हैं। बॉलीवुड अपने 100 साल सेलिब्रेट कर रहा है। कई फिल्में यहां शूट हुई है। जम्मू-कश्मीर में एक फिल्म इंस्टीट्यूट क्यों नहीं बन सकता? दुख है कि विकास और तरक्की में उनकी (राज्य सरकार की) रुचि ही नहीं है। सरकार लद्दाख में टूरिज्म बढ़ाने के लिए लेह से कैलाश मानसरोवर का रास्ता बनाने पर विचार क्यों नहीं करती?

मोदी ने आरोप लगाया कि दिल्ली की सरकार सोई हुई है। उसे किसी की चिंता नहीं है। चीन की सीमा पर पड़ोसी देश ग्रामीणों को मुफ्त में सिम कार्ड बांट रही है। मैं पूछना चाहता हूं कि क्या हमारा दूरसंचार मंत्रालय यह नहीं कर सकता? आतंकवाद से लड़ते हुए कई देशभक्त सिपाही शहीद हो गए। लेकिन आतंकवाद से निपटने के मुद्दे पर दि?ल्ली की सरकार की नींद नहीं टूटी।

मोदी को सुनने के लिए लाखों की तादाद में भीड़ दिखाई दी। जम्मू जैसे राज्य में मोदी के लिए जुटी इस भीड़ ने पूरी भाजपा पार्टी को गदगद कर दिया। निश्चित ही इस बात ने सभी राजनीतिक दलों की चिंता बढ़ा दी है।
प्रदेश भाजपा के प्रभारी रह चुके गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ललकार रैली के दौरान जम्मू की नब्ज पर हाथ रखा। अपने सियासी जीवन के राज्य में बिताए शुरुआती दिनों को याद किया। अवाम को महाराजा हरि सिंह, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित प्रेमनाथ डोगरा के योगदान की याद दिलाई। जम्मू कश्मीर में अब तक शहीद हुए नागरिकों और सुरक्षा बलों को नमन किया। गुज्जर, बकरवालों, अनुसूचित, जनजाति और ओबीसी वर्ग के अलावा भेदभाव और शिया समाज के मसलों को उठाकर मोदी ने स्थानीय अवाम की भावनाओं को सहलाया। गुज्जरों से मोदी ने गुजरात का नाता जोड़ा। महाराजा हरि सिंह के रियासत के लिए योगदान से लेकर अब तक जम्मू कश्मीर में शहीद हुए सुरक्षा बलों को नमन किया।

श्री नरेंद्र मोदी ने �ललकार रैली की सफलता का श्रेय अवाम को देते हुए इसे माता वैष्णो देवी की कृपा बताया। रैली में जुटी भीड़ से गदगद मोदी ने कहा, माता वैष्णो की कृपा से उन्हें जम्मू कश्मीर में विशाल जन दर्शन हुए हैं। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक और हौसला बढ़ाने वाली घटना है। इसके बाद सीधे मोदी महाराजा हरि सिंह का राज्य के योगदान में जिक्र किया। उन्होंने कहा कि अगर महाराजा हरि सिंह को जम्मू कश्मीर पर निर्णय की प्रक्रिया में शामिल किया गया होता तो आज हालात अलग होते। मोदी ने कहा कि राज्य के देश से विलय समेत महाराजा ने कन्या शिक्षा को प्राथमिकता के साथ अनुसूचित जाति वर्ग का मंदिरों में प्रवेश आदि कई महत्वपूर्ण कदम उठाए थे।

उन्होंने जनसंघ के पहले अध्यक्ष पंडित प्रेम नाथ डोगरा के प्रजा परिषद के आंदोलन, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह, मेजर सोमनाथ शर्मा, कर्नल रिंकचन और टीका लाल टपलू की शहादतों के अलावा राष्ट्रवादी मकबूल शेरवानी और अब्दुल अजीज के योगदानों का जिक्र किया। अखनूर निवासी चमेल सिंह की पाकिस्तान की कोटलखपत जेल में मौत को उन्होंने केंद्र सरकार की नालायकी करार दिया। यह नालायकी तब साबित हुई, जब सरबजीत सिंह को भी उसी तरीके से उसी जेल में मारा गया। उन्होंने राज्य के रिफ्यूजी, अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी वर्ग को आरक्षण संबंधी पूरे अधिकार नहीं मिलने का मुद्दा उठाकर स्थानीय अवाम के करीबी होने का संकेत दिया। जम्मू संभाग में ही सबसे अधिक ओबीसी और सिर्फ अनुसूचित जाति वर्ग है। मोदी ने स्पष्ट किया कि वह हिंदू मुसलमान की बात नहीं कर रहे। राज्य के सवा सौ करोड़ लोगों की बात कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि जम्मू और लद्दाख से भेदभाव की आवाजें क्यों उठती हैं। कारगिल का शिया समाज, क्योंकि बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। इसका जवाब केंद्र और राज्य सरकार को देना होगा।

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‘गोरी तेरे प्यार में’ में श्री देवी की खिल्ली उड़ाई

इस शुक्रवार प्रदर्शित हुई फिल्म ‘गोरी तेरे प्यार में’ श्रीदेवी को नाराज कर सकती है। हालांकि अभी तक श्रीदेवी चुप हैं। 22 नवंबर को रिलीज हुई पुनीत मल्होत्र की फिल्म ‘गोरी तेरे प्यार में’ श्रीदेवी को नाराज कर सकती है। इस फिल्म में श्रीदेवी के नाम को एक नहीं बार-बार गलत तरीके से कहा गया है। इस फिल्म के नायक इमरान खान का फिल्म में नाम श्रीराम है। श्रीराम को तोड़ मरोड़कर श्रीदेवी कहा गया। कई सीन ऐसे हैं जहां श्रीदेवी की जगह श्रीदेवी भाई कहा गया।

नायिका को जब भी नायक को नीचा दिखाना होता है, वह श्रीराम के बजाय उसे श्रीदेवी कहती है। फिल्म में कम से कम 50 बार श्रीदेवी और श्रीदेवी भाई का उपयोग किया गया है। श्रीदेवी के अलावा इस फिल्म में लगान का जिक्र करने के साथ लगान फिल्म के गाने भी दिखाए गए हैं।

 

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एलआईसी की 34 पालिसियाँ बंद होगी

बीमा कंपनी जीवन बीमा निगम (एलआईसी) नए दिशानिर्देशों की पालना के तहत 34 जीवन बीमा पॉलिसियों की बिक्री दिसंबर में बंद कर देगी। इसमें जीवन आनंद, जीवन मधुर और जीवन सरल जैसी पॉलिसियां भी शामिल हैं।

एलआईसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि नॉन लिंक्ड इंश्योरेंस प्रोडक्ट्स, लिंक्ड इंश्योरेंस प्रोडक्ट्स और हेल्थ इंश्योरेंस प्रोडक्ट्स के संबंध में जारी नए दिशानिर्देशों के प्रावधानों को पूरा करने के तहत दिसंबर में 34 जीवन बीमा पॉलिसी की बिक्री बंद कर दी जाएगी।

इन 34 प्रोडक्ट में जीवन अमृत की बिक्री 7 दिसंबर से, जीवन सुरभि की 14 दिसंबर से जबकि दो अन्य पॉलिसियों की बिक्री क्रमश: 21 दिसंबर और 28 दिसंबर से वापस ले ली जाएगी। इसके अलावा, शेष 28 पॉलिसियों की बिक्री 31 दिसंबर से बंद हो जाएगी।

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आज भी आवाज़ की दुनिया में अमीन सयानी जैसा कोई नहीं….

सन्‌ १९५६ के आते-आते बिनाका गीतमाला ने फिल्म संगीत की दुनिया में तहलका मचाना शुरू कर दिया था। उन दिनों कोई और रेडियो प्रोग्राम नहीं था, जिससे कि हिंदी फिल्मी गीतों की लोकप्रियता का सही अंदाजा लगाया जा सके। उस लोकप्रियता ने कई संगीतकारों को संगीत प्रेमियों के दिलों में बसा दिया था, जैसे कि अनिल बिस्वास, नौशाद, शंकर जयकिशन, हेमंत कुमार, सी रामचंद्र, एस डी बर्मन, मदनमोहन, सलिल चौधरी, ओ पी नैयर और वसंत देसाई। १९५७ में बिनाका गीतमाला की वार्षिक पायदानों पर दो और संगीतकार एन दत्ता तथा एस एन त्रिपाठी चमके और वह भी काफी छलांगें लगाकर! १९५८ के आते-आते बिनाका गीतमाला के शुरू और आखिर में जो संगीत बजता था, वह बदल गया। उस साल संगीतकारों में रवि और चित्रगुप्त भी जोरदार तरीके से उभरे और बिनाका गीतमाला न सिर्फ धूम-धड़ाके से चल रही थी बल्कि दौड़ रही थी। सभी बड़े समाचार पत्रों में गीतमाला की चर्चा होने लगी।

चाय और पान की दोगुनी बिक्री!

कई जगहों जैसे चाय, पान की दुकान और पार्क वगैरह में जब रेडियो लगाया जाता, तो गीतमाला सुनने के लिए एक बड़ा-सा जनसमूह एकत्रित हो जाता, जिसके कारण ट्रैफिक जाम की स्थिति भी बन जाती थी। चाय और पान की दुकान वाले तो धन्यवाद-पत्र भेजा करते थे! वे इस पत्र में जिक्र करते थे कि जिस दिन गीतमाला का प्रसारण होता है, उस दिन हमारी बिक्री दोगुनी हो जाती है। इस तरह सफलता का पर्याय बन गई थी "बिनाका गीतमाला"। वर्ष १९५९ में संगीतकारों की प्रतिस्पर्धा हुई। उसमें शंकर जयकिशन का नाम सबसे ज्यादा उभरा। दस टॉप गीतों में से सात गीतों में उन्हीं का संगीत था। मगर प्रथम गीत की धुन शंकर जयकिशन ने नहीं, बल्कि एस डी बर्मन ने बनाई थी। किशोर कुमार और आशा भोंसले की आवाज में "चलती का नाम गाड़ी" का यह गीत था "हाल कैसा है ज़नाब का, क्या खयाल है आपका…"। इस गीत से हिंदुस्तानी संगीत प्रेमी किशोर कुमार की "यूडलिंग" से रूबरू हुए।

सन्‌ १९५५ से लेकर १९६० तक "जरा सामने तो आओ छलिये…" को छोड़कर शेष सभी लोकप्रिय गीतों में पश्चिमी संगीत की छाप थी। मगर १९६० के आते-आते संगीतकारों को यह अहसास होने लगा कि संगीत के जितने अलग-अलग रंग इस देश में मिल सकते हैं, अगर उन्हीं में गहरे उतरकर धुनें बनाई जाएं, तो फिल्म संगीत को एक नया जीवन, एक नया अपनापन प्रदान किया जा सकता है। नतीजा यह हुआ कि १९६० के दस सबसे लोकप्रिय गीतों में से सात गीत ऐसे थे, जिनमें हिंदुस्तानी संगीत की खुशबू थी। उसी साल संगीत की दुनिया में दो नए नाम और उभरेः संगीतकार कल्याणजी-आनंदजी और गायक महेंद्र कपूर। और हां, कुछ प्रारंभिक असफलताओं के बाद एक लाजवाब संगीतकार रोशन ने "बरसात की रात" से सुखद वापसी की।

अवॉर्ड नहीं, गीतमाला ने दिलाई शोहरत

बिनाका गीतमाला को स्थायित्व देने वाले इन वर्षों के हिट गीतों की सूची देखता हूं, तो एक खास बात नजर आती है। वह यह कि इन वर्षों में अधिकांशतः दो ही मधुर आवाजें सबसे ज्यादा गूंजीं, ये आवाजें थीं सुरों की मलिका लताजी और प्लेबैक गायकों के बादशाह मोहम्मद रफी साहब की। एक और बहुत ही महत्वपूर्ण बात बिनाका गीतमाला के बारे में। वह यह कि जब "फिल्मफेयर पुरस्कार" की स्थापना हुई, तो शुरूआती कई वर्षों तक इसमें सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक एवं गायिका की श्रेणी ही नहीं थी। सिर्फ संगीतकार को ही इस पुरस्कार से सम्मानित किया जाता था। लिहाजा, बेहतर गायिकी के बावजूद गायक न तो सम्मानित हो पाते थे और न ही उन्हें वह शोहरत मिल पाती थी, जिसके वे वास्तविक हकदार थे। ऐसी स्थिति में गायक-गायिकाओं को नाम व शोहरत दिलाने में बिनाका गीतमाला की भूमिका अविस्मरणीय रही। बाद में लता मंगेशकर के प्रयासों से फिल्मफेयर पुरस्कार की श्रेणी में गायकों को भी शामिल कर लिया गया।

सन्‌ १९५२ से शुरू हुआ फिल्मी गीतों की प्रतिस्पर्धा का यह रोचक साप्ताहिक कार्यक्रम रेडियो सीलोन पर लगातार १९८३ तक चला। १९८३ में ही "सिबा" कंपनी का उत्पाद "बिनाका" का नाम बदलकर "सिबाका" हो गया। अतः १९८३ से १९८९ तक यह कार्यक्रम ऑल इंडिया रेडियो के विविध भारती पर "सिबाका गीतमाला" के नाम से प्रसारित हुआ। कुछ वर्षों के अंतराल के बाद यह कार्यक्रम पुनः २००३ तक "कोलगेट सिबाका गीतमाला" के नाम से प्रसारित हुआ। इस प्रकार गीतमाला के इस कार्यक्रम ने ४२ वर्षों का शानदार सफर तय किया।

नकल मत करो, नया करो

बदलाव जमाने का होता रहता है। इसका मतलब यह नहीं कि मुझे भी बदल जाना चाहिए। मैं तो जो था, सो हूं। उस जमाने में भी गड़बड़ करता था, धीरे-धीरे संभल गया। मैंने अपने प्रोफेशन में हमेशा सरलता के साथ आगे बढ़ने की कोशिश की क्योंकि सरलता जब तक नहीं होगी, संचार का मजा नहीं आएगा। मुझे सरलता अपनाना पड़ी, इसलिए क्योंकि मुझे और कोई अच्छी भाषा आती नहीं है। मैं तो गुजराती स्टूडेंट था, अंग्रेजी ब्रॉडकास्टर था। उर्दू ज्यादा सीखी नहीं थी। मेरा यह अनुभव रहा कि सिर्फ हिंदी में लिखी स्क्रिप्ट पढ़ने भर से ही उद्‌घोषणा नहीं होती, बल्कि बोली जाने वाली भाषा पर संपूर्ण अधिकार होना चाहिए। बहुत कम लोग जानते हैं कि १९६० से १९६२ तक मैंने टाटा ऑइल मिल के मार्केटिंग विभाग में भी शाखा प्रबंधक की हैसियत से काम किया है। अपने ८१ वर्ष के जीवन में से मैंने लगभग ६५ वर्ष रेडियो को दिए हैं।

रेडियो सीलोन के लिए ही मैंने नए-नए उद्‌घोषकों को प्रशिक्षण भी दिया। एक समय में प्रशिक्षण देने वालों में मेरे साथ अभिनेत्री मधुबाला की छोटी बहन मधुर भी थीं। कई वर्षों तक ऐसा देखने में आया कि नए-नए उद्‌घोषक मुझे अपना गुरू मानकर मेरी नकल करते थे। मैंने हमेशा यही कहा कि उन्हें मेरी नकल न करके कुछ नया करना चाहिए क्योंकि स्वयं मैंने ही अपना वह स्टाइल जिसकी वे नकल करते हैं, कई वर्ष पहले छोड़ दिया है।

 

साभार- दैनिक नईदुनिया से

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अंगोला के बहाने इस्लाम को प्रतिबंधित करने की साजि़श?

पश्चिमी देशों द्वारा इस्लामी देशों में लगातार की जा रही दखलअंदाज़ी और सैन्य हस्तक्षेप  इस्लामी जगत में पश्चिमी देशों के विरुद्ध आक्रोश तथा हिंसा व आतंकवाद का रूप धारण करता जा रहा है। यह स्थिति गत 2 दशकों से यह संकेत दे रही थी कि हो न हो एक दिन इस्लाम धर्म को तथा इस्लाम धर्म के अनुयाईयों को संदेह की दृष्टि से देखा जा सकता है। इतना ही नहीं बल्कि यह भी महसूस किया जाने लगा कि इस्लाम धर्म को प्रतिबंधित करने की साजि़श भी रची जा सकती है। हालांकि इसकी शुरुआत किसी पश्चिमी देश से तो नहीं हुई परंतु ब्रिटेन के सबसे घनिष्ठ दक्षिणी अफ्रीकी देश अंगोला से ऐसी खबरें प्राप्त हो रही हैं कि यहां सभी गैर इसाई अल्पसंख्यक समुदाय व विश्वास के धर्मों व समुदायों को प्रतिबंधित करने का काम शुरु कर दिया गया है।
 
1975 में पुर्तगाल से स्वतंत्रता प्राप्त करने वाला अंगोला हालांकि अपने इस प्रकार के किसी आदेश को अंगोला के संविधान तथा वहां के कानून के अंतर्गत् उठाया जाने वाला कदम बता रहा है। अंगोला के कानूनों के मुताबिक यहां किसी भी धार्मिक संगठन,समुदाय अथवा विश्वास के सदस्यों को धार्मिक मान्यता प्राप्त करने के लिए उनकी कम से कम एक लाख से अधिक की सं या होना ज़रूरी है। इसके अतिरिक्त देश के 18 में से कम से कम 12 प्रांतों में उनकी उपस्थिति होना भी अनिवार्य है। इस अनुपात तक पहुंचने पर ही किसी भी धर्म,विश्वास अथवा समुदाय के लोगों को अंगोला में अपना धर्मस्थल निर्माण करने,धार्मिक स्कूल अथवा संस्था बनाने की अनुमति मिल सकती है तथा इसके लिए उन्हें लाईसेंस जारी किया जा सकता है। परंतु वर्तमान समय में अंगोला की लगभग 18 मिलियन की आबादी में मुसलमानों की सं या केवल 90 हज़ार है।
               
 
अंगोला के उपरोक्त कानून की आड़ में सबसे पहले इस्लाम धर्म व इससे जुड़े धर्मस्थल विशेषकर मस्जिदों व शिक्षण संस्थाओं को निशाना बनाया जा रहा है। हाँलाकि मुसलमानों के धर्मस्थलों के विरुद्ध कार्रवाई की शुरुआत 2010 से ही हो चुकी है। गत् दो वर्षों में अंगोला में आठ मस्जिदों को ध्वस्त करने, उन्हें गिराए जाने अथवा जलाए जाने का समाचार है। अंगोला में पूरे देश में कुल 78 मस्जिदें हैं जिनमें राजधानी लुआंडा के अतिरिक्त अन्य सभी मस्जिदें सरकार द्वारा यह कहकर बंद करा दी गई हैं कि इनके पास मस्जिद बनाने अथवा इन्हें संचालित करने का उपयुक्त लाईसेंस नहीं है। लुआंडा सरकार द्वारा उठाए जाने वाला इस्लाम विरोधी कदम वहां की इसाई बाहुल्य जनता का भी मनोबल बढ़ा रहा है।
 
अंगोला सरकार जिस किसी मस्जिद को अवैध घोषित करती है उसे स्वयं मुसलमानों के हाथों से गिराए जाने के लिए 73 घंटों की समय सीमा निर्धारित करती है। समय सीमा बीत जाने के बाद सरकारी अमले के लोग तथा इस्लाम विरोधी इसाई जनता स्वयं आकर मस्जिद को या तो ध्वस्त करने लग जाती है या फिर उसमें आग लगा देती है। अंगोला सरकार द्वारा गैर इसाई धर्मों के विरुद्ध इस प्रकार का कदम उठाए जाने का कारण देश का सांस्कृतिक संरक्षण भी बताया जा रहा है।
               
 
अंगोला की इस घटना के बाद पूरे विश्व में इस बात को लेकर व्यापक बहस छिड़ गई है कि क्या अपने सांस्कृतिक संरक्षण के नाम पर दूसरे धर्म व विश्वास के लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता छीन लेना जायज़ है? क्या किसी देश को इस बात का हक हासिल है कि वह कानून की आड़ में किसी धर्म व आस्था को गैर कानूनी या अवैध ठहरा सके? वैसे तो अंगोला में खुद इसाई धर्म से संबंध रखने वाले लगभग एक हज़ार विभिन्न समुदाय के लोग रहते हैं। परंतु उनमें कैथोलिक इसाईयों की सं या आधी से अधिक है जबकि एक चौथाई लोग प्रोटेस्टेंट विचारधारा से जुड़े इसाई हैं। जबकि मुसलमानों की जनसं या अंगोला की कुल जनसं या का मात्र एक प्रतिशत है। और यह लगभग सभी विदेशी हैं तथा पश्चिमी अफ्रीकी देशों तथा अन्य दूसरे देशों से अंगोला आए हैं। इन मुसलमानों में अधिकांशत: सुन्नी मुसलमान हैं। यहां विदेशी इसाई मिशनरीज़ भी काफी सक्रिय हैं। अंगोला की स्वतंत्रता से पूर्व यानी 1975 से पहले तो पूरे अंगोला में मिशनरीज़ का बोलबाला था। परंतु अब अंगोला सरकार द्वारा कुछ स ती किए जाने के बाद पश्चिमी देशों द्वारा प्रायोजित मिशनरीज़ की संख्या में काफी कमी आ चुकी है। अंगोला सरकार का मानना है कि मिशनरीज़ का देश में प्रचार-प्रसार यहां के नागरिकों में देश की स्वतंत्रता से पूर्व की भावनाओं का पोषण करता है।
               
 
बहरहाल,दक्षिण अफ्रीकी देश अंगोला का नाम अब दुनिया के पहले ऐसे देश के रूप में लिया जाने लगा है जिसने इस्लाम धर्म को प्रतिबंधित करने जैसा विवादित कदम उठाया है। खबरें हैं कि वहां राष्ट्रीय संस्कृति के संरक्षण के नाम पर दूसरे कई बाहरी धर्मों व मतों पर पाबंदी लगाए जाने का काम भी अंगोला सरकार द्वारा शुरु कर दिया गया है।
 
अंगोला की सांस्कृतिक मंत्री रोसा क्रूज़ के अनुसार-'न्याय और मानवाधिकार मंत्रालय ने इस्लाम को अंगोला में कानूनी वैधता नहीं दी है इसलिए अगले आदेश तक देश की सभी मस्जिदें बंद रहेंगीÓ। इतना ही नहीं बल्कि अंगोला की सभी मस्जिदों को गिराए जाभने के आदेश दिए जाने का भी समाचार है। सरकारी सूत्र इन आदेशों को किसी पूर्वाग्रह के अंतर्गत् उठाया गया कदम मानने के बजाए यह कहकर अपने आदेश को उचित ठहरा रहे हैं कि अंगोला के कानून व नियम पूरे न होने के कारण मस्जिदों को प्रतिबंधित किया गया है। सरकारी सूत्रों की मानें तो इनके पास उचित लाईसेंस नहीं है।
 
परंतु अंगोला में सक्रिय इस्लामी संगठन का आरोप है कि इस देश में गैर इसाई धर्मों व मतों के अनुयाईयों के साथ काफी लंबे समय से सौतेला बर्ताव होता आ रहा है। उदाहरण के तौर पर यहां की सरकार ने देश के सभी धर्मस्थलों,धार्मिक संस्थाओं व संस्थानों में सरकार की ओर से एयरकंडीशंड लगवाए जाने का आदेश जारी किया था। परंतु अब तक अंगोला में जिन 83 स्थानों पर एसी लगाए गए हैं वे सभी स्थान या तो इसाई धर्म के चर्च हैं या इसाई धर्म से जुड़ी अन्य संस्थाएं। जबकि मुसलमानों की ओर से अपने धर्मस्थलों व धार्मिक संस्थानों में लगाए जाने हेतु जो 194 प्रार्थना पत्र दिए गए थे उनमें से किसी एक पर भी आदेश नहीं किया गया है। अंगोला सरकार द्वारा पक्षपात पूर्ण फैसले लिए जाने का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है?
               
 
अंगोला में यदि कोई मुस्लिम लड़की स्वेच्छा से स्कार्फ या हिजाब सिर पर रखकर स्कूल जाती है तो उसे मिशनरी स्कूल की अध्यापिका कक्षा में दाख़िल नहीं होने देती। इसाई मिशनरी ऐसी स्कार्फधारी लड़की को अपनी सभ्यता व संस्कृति के विरुद्ध मानती है। हालंभकि इन स्कूलों के पास स्कार्फ या हिजाब पहनने वाले बच्चों को कक्षा में दाख़िल न होने देने संबंधी कोई लिखित आदेश नहीं है फिर भी अध्यापिकाएं ऐसी लड़कियों को कक्षा में प्रवेश नहीं देतीं।
 
हिजाब का विरोध करने वाले लोग अंगोला में साफतौर पर यह कहते सुनाई देते हैं कि देश छोड़ो या परदा छोड़ो। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अभी कुछ वर्ष पूर्व तक ही गृह युद्ध की त्रासदी का सामना करने वाले अंगोला के लिए किसी धर्म अथवा मत के विरुद्ध कानून बनाना, उन्हें अमल में लाना तथा इस प्रकार दूसरे मत व विश्वासों के लोगों की भावनाओं को आहत करना किसी भी कीमत पर मुनासिब नहीं है। अंगोला सरकार द्वारा अल्पसंख्यकमतों के लोगों के विरुद्ध उठाया जाने वाला इस प्रकार का कदम जहां उन शक्तियों को बल प्रदान करेगा जोकि इस्लाम धर्म को आतंकवाद से जोड़कर देखने की कोशिश कर रही हैं। वहीं यह कदम मुस्लिम जगत में एक और आक्रोश का कारण भी बन सकता है।इतना ही नहीं बल्कि अंगोला सरकार के इस कदम से इस्लाम धर्म में सक्रिय आतंकवादी ताकतों को भी सक्रिय होने का एक और बहाना मिल सकता है।
               
 
अंगोला सरकार द्वारा उठाए गए इस कदम के परिणामस्वरूप दुनिया के कई उन मुस्लिम बाहुल्य देशों में भी इसका प्रभाव नकारात्मक पड़ सकता है जहां इसाई समुदाय के लोग अल्पसं या में रहते हैं। लिहाज़ा न केवल अंगोला बल्कि किसी भी देश के द्वारा उठाया जाने वाला ऐसा कोई कदम सामुदायिक संघर्ष को हवा देने वाला कदम ही माना जाएगा। दुनिया के किसी भी देश को यह अधिकार कतई नहीं होना चाहिए कि वह  छोटी से छोटी सं या रखने वाले समुदाय के धर्म,मत तथा विश्वास को मान्यता प्रदान करने अथवा न करने जैसे आदेश जारी करे या कानून बनाए। यदि दुनिया का कोई देश किसी भी धर्म तथा विश्वास को समान आदर,स मान,सुविधाएं तथा प्राथमिकताएं नहीं दे सकता तो कम से कम उसे अपमानित करने अथवा उसके विरुद्ध साजि़श रचने या उसके धर्मस्थलों को गिराकर अथवा उनके धर्मग्रंथों को जलाकर उसकी भावनाओं को आहत करने का अधिकार अपनी राष्ट्रीय संस्कृति के नाम पर तो कतई नहीं होना चाहिए।    

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अमिताभ जाते जाते गँवई हुलिए में आएंगे केबीसी में

केबीसी में अमिताभ एक लुक में दिखने जा रहे हैं। यह नया अंदाज दर्शकों को चौंका सकता है। दिसंबर के पहले सप्ताह में प्रसारित होने वाले एक एपिसोड में अमिताभ इस तरह से नजर आएंगे। कौन बनेगा करोड़पति के अंत में अमिताभ बच्चन अब अपने दर्शकों को मनोरंजन की दोगुनी सौगात देंगे। बिगबी एक अनोखी भूमिका के साथ शो में अवतरित होंगे। जो दर्शकों अवश्य ही पसंद आएगी। रिएलिटी शो कौन बनेगा करोड़पति अब अपने अंतिम चरण में पंहुच गया है। जिसके चलते शो के बचे एपिसोड में बिगबी कुछ नया प्रयोग करने की सोच रहे हैं, जिससे दर्शकों का पूरा मनोरंजन हो सके। अमिताभ अब पहली बार शो में डबल रोल में नजर आएंगे। बिगबी का ये गेटअप पूरी तरह से एक गांव वाले का होगा। बॉलीवुड मंत्र वेबसाइट पर इस लुक में अमिताभ की फोटो भी जारी हो गई है। यही नहीं गांव वाले बनकर अमिताभ हॉट सीट पर भी बैठेंगे।

 

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महिला पुलिस अधिकारी के सामने रो दिए तरुण तेजपाल

तहलका के संस्‍थापक संपादक तरुण तेजपाल रविवार को रो पड़े। गोवा पुलिस के क्राइम ब्रांच दफ्तर में उनसे करीब पांच घंटे पूछताछ हुई और उनका सामना हुआ गोवा की सबसे सख्त पुलिस अधिकारी से।

इस मामले की जांच का जिम्मा संभाल रहीं सुनीता सावंत गोवा पुलिस की क्राइम ब्रांच की सबसे सख्त अधिकारी मानी जाती हैं। पूर्व पर्यटन मंत्री मिकी पचेको को उनका नाम जरूर याद होगा,‌ जिनसे उन्होंने दस घंटे पूछताछ की थी। जब वह पूछताछ से बाहर निकले, तो ऐसे लग रहे थे मानो जोर का झटका लगा हो।

एक अधिकारी ने साफ कर दिया, "तेजपाल से गहन पूछताछ की जाएगी।"

सुनीता सावंत राज्य में गैर-कानूनी खनन मामले की जांच करने वाली टीम का हिस्सा भी रहीं। इस विवाद ने दो साल पहले गोवा में बवाल मचा दिया था।
सुनीता ने डीजीपी किशन कुमार से इजाजत बिना तेजपाल से जुड़ी कोई भी टिप्पणी करने से मना कर दिया। जो लोग उनसे वाकिफ हैं, उनका कहना है कि सुनीता एक प्रोफेशनल और प्रतिबद्ध अधिकारी है। जल्द ही डीएसपी पद पर उनका प्रमोशन होने वाला है।

एक जानकार ने बताया, "वह क्राइम ब्रांच में सबसे अनुभवी हैं। वह सख्त है और सच बाहर निकालना जानती हैं। उन्होंने कई मामले सुलझाए हैं, विधायकों से सवाल-जवाब किए हैं। वह जानती हैं कि क्या करना है और क्या नहीं। वह भ्रष्ट नहीं हैं।"

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