Thursday, January 16, 2025
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नया मीडिया तूफान की आहट: विजय सहगल

भोपाल। सूचना क्रांति ने नए प्रतिमान खड़े किए हैं तो कई चुनौतियां और सवाल भी खड़े हो गए हैं। नए मीडिया की भूमिका को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं। उत्तरप्रदेश और असम में भड़के दंगों के दौरान नए मीडिया की जो भूमिका रही, उससे नए मीडिया की जिम्मेदारी के भाव और विश्‍वसनीयता पर सवाल खड़े हुए। इस दौरान नए मीडिया की ओर से प्रसारित संदेशों, चित्रों की जांच तक की गई। इसीलिए नए मीडिया को तूफान की आहट तक माना जा रहा है। यह विचार दैनिक ट्रिब्यून के पूर्व सम्पादक विजय सहगल ने व्यक्त किए। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय (एमसीयू) और एशियन मीडिया इन्फार्मेशन एवं कम्युनिकेशन सेन्टर (एमिक) सिंगापुर के संयुक्त तत्वावधान में ‘नवीन मीडिया एवं जनसंवाद’ विषय पर आयोजित दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में बतौर मुख्य वक्ता उपस्थित थे। सेमिनार का आयोजन एमसीयू के सभागार में किया जा रहा है।

श्री सहगल ने कहा कि पत्रकारिता की साख, मूल्य, मर्यादाएं और आचार संहिता से भटकने वाला कोई भी माध्यम मीडिया नहीं रह जाता। इसी कारण नए मीडिया के सामने चुनौती अधिक है। दरअसल, परंपरागत मीडिया के मानदण्ड तय हैं। जबकि नए मीडिया की लाइन अभी तय नहीं। भारत में आज भी मूल्यआधारित पत्रकारिता के लिए ही स्थान है। श्री सहगल कहते हैं कि बाजारवाद और पेड न्यूज के आरोपों के बीच आज भी परंपरागत मीडिया भ्रष्टाचार, आतंकवाद और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ कड़ा रूख अपनाकर अपनी साख को बरकरार रखा है।

भारत में बढ़ रहे हैं समाचार-पत्र:

सेमिनार के उद्घाटन सत्र में एमिक के मण्डल सदस्य डा. विनोद सी. अग्रवाल ने कहा कि भारत दुनिया में एकमात्र ऐसा देश है, जहां समाचार-पत्र लगातार वृद्धि कर रहे हैं। उनकी वृद्धि दर करीब 12 प्रतिशत है। जबकि अन्य देशों में वर्षों पुराने और स्थापित समाचार पत्र बंद हो रहे हैं। इसी बीच में सोशल मीडिया एक नई ताकत बनकर उभर रहा है। सोशल मीडिया के उपयोग के कारण ही लोगों में राजनीतिक जागरूकता और समझ बढ़ी है। हाल ही में हमने एक शोध किया कि सोशल मीडिया के माध्यम से पश्चिम से जो विचार आ रहे हैं उनसे भारतीय मूल्यों और परंपराओं में क्या बदलाव आ रहे हैं? शोध के नतीजे बताते हैं कि न हिन्दू बदल रहा है और न मुसलमान बदल रहा है। पारिवारिक और धार्मिक मान्यताओं की वजह से दोनों मजबूती के साथ अपनी परंपराओं से जुड़े हुए हैं। कहा जा रहा है कि संयुक्त परिवार टूट रहे हैं। लेकिन शोध के नतीजे चैंकाने वाले हैं। आंकड़े बताते हैं कि संयुक्त परिवार टूट नहीं रहे हैं, हालांकि उनकी उम्र कम हो गई है। परिवार और पारिवारिक मूल्यों में कोई कमी नहीं आई है।

विश्‍व की आबादी से दोगुनी होगी वर्चुअल पापुलेशन :

सेमिनार के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता कर रहे एमसीयू के कुलपति प्रो. बीके कुठियाला ने कहा कि दुनिया में दो तरह की सिविलाइजेशन का दौर शुरू हो चुका है, वर्चुअल और फिजीकल सिविलाइजेशन। आने वाले समय में जल्द ही दुनिया की आबादी से दो-तीन गुना अधिक आबादी इंटरनेट पर होगी। दरअसल, कई लोग अलग-अलग पहचान से इंटरनेट यूजर्स बन रहे हैं। इंटरनेट एक ऐसी टेक्नोलाजी के रूप में हमारे सामने आया है, जो उपयोग के लिए सबको उपलब्ध है और सर्वहिताय है। इस दौरान एमसीयू के रजिस्ट्रार चंदर सोनाने, रैक्टर प्रो. रामदेव भारद्वाज, प्रो. सीपी अग्रवाल, डा. श्रीकांत सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. आरती सारंग, आषीष जोषी, पीपी सिंह और डा. अविनाष वाजपेयी सहित अन्य उपस्थित थे।

एमसीयू समाचार का विमोचन:

सेमिनार के दौरान विश्वविद्यालय से संबद्ध केन्द्रों से संवाद स्थापित करने के लिए प्रारंभ की गई त्रैमासिक गृहपत्रिका एमसीयू समाचार का विमोचन किया गया। विमोचन के अवसर पर डा. पवित्र श्रीवास्तव ने पत्रिका की आवश्‍यकता के बारे में बताया।

इन्होंने प्रस्तुत किया शोधपत्र:

पहले दिन नवीन मीडिया एवं सामाजिक संवाद, राजनीतिक संचार और व्यक्ति का सशक्तिकरण विषय पर तीन तकनीकी सत्रों का आयोजन किया गया। इनमें विभिन्न शोधपत्र प्रस्तुत किए गए। तकनीकी सत्र की अध्यक्षता कर रहे एडीजी महान भारत ने कहा कि आज सोशल मीडिया हमारे जीवन को काफी हद तक प्रभावित कर रहा है। सत्र के मुख्य वक्ता डा. चन्द्रभानु पटनायक ने कहा कि जनसंचार के विशेषज्ञों के सामने सोशल मीडिया को सैद्धांतिक रूप से स्थापित करना चुनौती है। दरअसल, सोशल मीडिया भी कहीं न कहीं नियंत्रित हो रहा है, ऐसे में इसे जनमाध्यम कहा जाए या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। शोधपत्र प्रस्तुत करने वालों में डा. पी. शशिकला, डा. मोनिका वर्मा, सुरेन्द्र पाल, मयंक शेखर मिश्रा, सायमा इम्तियाज, बबीता अग्रवाल, रामअवतार यादव, बृजेन्द्र शुक्ला, प्रदीप डहेरिया, आकांक्षा शुक्ला, मुक्ता मरतोलिया, जगमोहन राठौर शामिल रहे।

सेपर्क

(डा. पवित्र श्रीवास्तव)

विभागाध्यक्ष, जनसंपर्क विभाग

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क्यों ज़रुरी है नरेंद्र मोदी इस देश के लिए?

पिछली ८ दिसंबर को आये दिल्ली विधानसभा के नतीजो ने एक नई बहस को जन्म दे दिया। ऐसी बहस जिसमे आम आदमी पार्टी के सयोजक अरविन्द केजरीवाल एक नायक के रूप में उभरे, एक ऐसे नायक जो भ्रष्टाचार के खिलाफ दो – दो हाथ करने को तैयार हो। निश्चय ही अरविन्द केजरीवाल से अब देश की उम्मीदे जुड़ने है, ऐसी उम्मीदे जिसमे देश अपने को भ्रष्टाचार से मुक़्त करने कि सोच सके। देश को भ्रस्टाचार से मुक्त करने की रौशनी की किरण जो अरविन्द केजरीवाल ने जगाई है उसके हम दिल से आभारी हैं। भ्रष्टाचार आज की तारीख में देश के लिए सबसे बड़ा प्रश्न है पर एक यही प्रश्न तो नहीं है जो देश के सामने मुह बाये खड़ा हो। भ्रष्टाचार के अलावा और भी कई प्रश्न है जिनके उत्तर देश मागता है, इन प्रश्नों में जो सबसे बड़ा प्रश्न है वो है की किस तरह से पडोसी दुश्मनो से देश की सरहदों, देश की ज़मीन की रक्षा की जाये। आज हालत ये है की चीन का जब दिल चाहता है वो हमारी देश की सीमाओ में आके केम्प लगा देता है। उसकी जब मर्ज़ी है वो अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम जैसे भारतीयो राज्यो को अपना बताने है, अरुणाचल प्रदेश के लिए तो वो नत्थी वीजा जारी करता है। सन उन्नीस सौ सैतालिस से ही हमारे कश्मीर का एक हिस्सा 'आज़ाद कश्मीर' के नाम पर पाकिस्तान के पास है।

 पाकिस्तान जब तब सीज फायर का उल्लघन करके एल ओ सी पर गोलाबारी करता रहता है। उसकी ढिठाई तो इतनी बढ़ गई है की वो हमारी सीमाओ के अंदर आकर हमारे सैनिको के सर काट ले जाता है। आज पूरी दुनिया जानती है भारत, पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से पीड़ित है। हमारे देश में आतंक की घटनाओ को अंज़ाम देने वाले पाकिस्तान में हीरो कि तरह खुलेआम घूम रहें हैं। आज सिंध में रह रहे अल्पसंख्यक हिन्दुओ की हालत जानवरो से भी बदतर है। वहाँ की हिन्दू लड़कियों की अस्मत बड़ी आसानी से उनके ही परिवार वालो के सामने लूट ली जाती है। बांग्लादेश भी भारत के लिए एक बड़ी समस्या बनके उभरा है। भारत में आतंकवाद के धंधे को चलने के लिए आतंकवादी संगठनो ने अब बांग्लादेश की ज़मीन को भारत के खिलाफ इस्तेमाल करना चालु कर दिया है। आज भारत में बांग्लादेशी घुसपैठिये टिड्डी दल कि तरह घुसते चले आ रहे है। बांग्लादेश के कट्टरपंथी संगठन वहाँ रह रहे हिन्दुओ का ज़बरन धर्म परिवर्तन कर रहें है।वहाँ हिन्दू लड़कियों का निर्ममता से बलात्कार किया जाता है। और अब यही शर्मनाक घटनाये बांग्लादेश से आये घुसपैठिये बांग्लादेश की सीमाओ से लगे भारत के राज्यो में अंज़ाम दे रहें हैं।

चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत को सिर्फ इसलिए परेशां कर पा रहें है क्योंकि भारत की केंद्रीय सत्ता कमज़ोर है। इतिहास गवाह है जब – जब देश में केंद्रीय सत्ता कमज़ोर हुई है तब – तब हमारे ऊपर हमला करने वाले कामयाब हुए हैं। इतिहास में झांके तो तैमूर ने भारत में तब लूटपाट की जब निकम्मा तुग़लक़ सुलतान नसरिउदीन दिल्ली की सत्ता संभाल रहा था। बाबर ने भी पानीपत की पहली लड़ाई में कमज़ोर लोदी सुल्तान इब्राहीम को हराकर भारत में लूटपाट की थी। नादिरशाह भारत को सिर्फ इसलिए लूट सका क्योंकि मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह एक निर्बल बादशाह था। ठीक इसी तरह अब्दाली भी इसलिए कामयाब हुआ क्योंकि कायर अहमदशाह उस वक़्त भारत का बादशाह था। इसके उलट सिकंदर, सेलूकस को भारत में इसलिए सफलता नहीं मिली क्योंकि चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध में सशक्त सत्ता का निर्माण किया था। चीन के शक्तशाली राज्य को धूल में मिला देने वाले भारत में इसलिए धूल में मिला दिया गए क्योंकि स्कंदगुप्त के रूप में सशक्त शासक भारत के केंद्र में मौजूद था। मंगोलो को भारत में लूटपाट करने से रोक सकने में अलउद्दीन खिलज़ी सफलता पाई थी।सशक्त मुग़ल बादशाह अकबर से लेकर औरंगज़ेब तक कोई भी विदेशी ताकत हमें लूट पाने में कामयाब नहीं हो पाई।

आधुनिक भारत में भी जब – जब इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपई सशक्त सरकारे केंद्र में रही, हर बार दुश्मनो धूल चाटनी पड़ी। आज हमारे देश एक ऐसी सशक्त सरकार की जरुरत है जो विश्व में भारत को एक शक्तशाली देश के रूप स्थापित कर सके। जो भारत में हो रही आतंकवादी घटनाओ को रोक सके, जो देश के वीर सैनिको की शहादत को सम्मान दिल सके, उनकी हत्या का प्रतिशोध ले सके। जो अंतराष्ट्रीय स्तर पर देश के रुतबे को कायम कर सके। जो हमारी ज़मीन चीन से वापस ला सके। जो पाकिस्तान में घूम रहे देश के गुनहगारो को सजा दिल सके। कौन दिला सकता है भारत को सम्मान एक सशक्त सरकार के रूप में ?

एक प्रश्न ये भी है। यकीनन आज की राजनीत में सिर्फ नरेंद्र मोदी ही एक ऐसा नाम है जो भारत को आतंकवाद से सुरक्षित रख पाने में सक्षम है। नरेंद्र मोदी ही है जो बेलगाम होते चीन की लगाम कस सकते हैं। नरेंद्र मोदी ही हैं जो पाकिस्तान के नापाक इरादो को धूल में मिला सकते है। यकीनन आज देश में महगाई और भ्रष्टाचार भी बहुत बड़े मुद्दे हैं पर हमें नरेंद्र मोदी की योगयता पर पूरा विश्वास है की वो सीमाओ के बाहर और सीमाओ के अंदर के सारे मुद्दे सफलता पूर्वक हल कर सकते है और एक सशक्त और विकसित भारत का निर्माण कर सकते है। अरविन्द केजरीवाल यकीनन एक ईमानदार व्यक्ति हैं और उनमे दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने की योगयता है, पर इस वक़्त देश के प्रधानमंत्री बनने के योग्य इस वक़्त अगर कोई है तो वो नरेंद्र मोदी है। आज हमारे पास नरेंद्र मोदी और अरविन्द केजरीवाल जैसे योग्य व्यक्ति हैं निश्चय ही अब हमारे देश का भविष्य उज्जवल है। मै उम्मीद करता हूँ कि २०१४ में देश की जनता नरेंद्र मोदी के रूप में भारत को एक सशक्त प्रधानमंत्री देगी और नरेंद्र मोदी एक खुशहाल भारत का निर्माण करेंगे।

संपर्क
 सुधीर मौर्य, गंज जलालाबाद,
जनपद – उन्नाव, २०९८६९

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काँग्रेस ने अपने दुश्मन को देर से पहचाना

विधानसभा चुनाव की जंग और बयानों की उलटबांसियों के बीच एक अचरजभरा बयान केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश की ओर से आया. जीत या हार के कयासों के बीच एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि हमारी लड़ाई भाजपा से नहीं बल्कि आरएसएस यानि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है! इस पर बात आगे बढ़े, उसके पहले एक कथा सुन लीजिये. महाभारत का आधा युद्ध खत्म हो चुका था और रणभूमि पर जिस तरह खून की नदियां बह रही थी, उससे चिंतित महाराज कृष्ण–कौरव और पाण्डव के मध्यस्थ–कौरवों को समझाने पहुंचे लेकिन कौरव नहीं माने तब कृष्ण अफसोस जताते हुए वहां से विदा होने लगे तो कौरवों ने उन्हें यह कहते हुए गिरफ्तार करने की कोशिश की कि सारा खेल इन्हीं का है. ये अर्जुन के सारथी हैं और पाण्डव इन्हीं की रणनीति पर  चलते हुए जीतते जा रहे हैं!

    कांग्रेस को भी ऐन चुनाव के वक्त यह अहसास हुआ कि उसका मुकाबला भाजपा से नहीं बल्कि आरएसएस से है! रमेश ने जो सवाल उठाया है, पूर्व में भी कांग्रेस में इस पर चिंता हो चुकी है लेकिन हम यहां इस सवाल के बहाने कमजोर होती कांग्रेस और आरएसएस रूपी खाद से मजबूत होती भाजपा की चर्चा करेंगे क्योंकि आजादी के 65 साल बाद यदि कांग्रेस को अपने सही दुश्मन की पहचान हुई है तो सवाल यह खड़ा हुआ है कि वह आरएसएस से लडऩे की स्थिति में है भी या नहीं! जनसंघी दौर से लेकर 1990 की मात्र दो लोकसभा सीट से भाजपा यदि 137 तक पहुंची है और कांग्रेस का विकल्प बन चुकी है तो इसके पीछे आरएसएस की वर्षों की तपस्या है.

    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पहले सरसंघचालक हेडगेवार ने 1925 में नागपुर के मोहितेबाड़ा में आरएसएस का बीज बोया और पांच चुनिंदा प्रचारकों को देश के बड़े शहरों में भेजकर संघ-कार्य की शुरूआत की. नींव के पत्थर की भांति इन पांचों ने संगठित हिन्दु के लक्ष्य के साथ आरएसएस की जमीन को सींचना शुरू किया. यह वह दौर था जब लोग देखते-सुनते ही हंसने लगते थे कि क्या आप हिन्दु समाज को एकत्रित करेंगे! क्योंकि ऐसा करना मेंढक़ तौलने जैसा माना जाता है. लेकिन प्रचारकों ने धैर्य नहीं खोया. आज संघ के चार हजार से ज्यादा प्रचारक-जिनमें से कई इंजीनियर-डॉक्टर हैं-घरबार छोडक़र देश और समाज की चिंता कर रहे हैं. 50 हजार से अधिक शाखाएं और विविध क्षेत्रों में कार्यरत 30 से ज्यादा बड़े संगठनों की कार्यक्षमता के दम पर संघ ने करोड़ों भारतीयों को अपने साथ जोड़ रखा है.

    बसपा के कांशीराम भी कभी संघ के कार्यों से प्रभावित हुए थे लेकिन जब विचार नहीं जमे तो उन्होंने संघ से किनारा करते हुए बहुजन समाज पार्टी का विकल्प दिया. हालांकि वहां भी उन्होंने संघ के समतामूलक समाज या दलितों को हिन्दु समाज की मुख्य धारा से जोडऩे का ही काम किया. यह स्वागतेय है कि मायावती भी उसी विजन के साथ आगे बढ़ रही हैं. नानाजी देशमुख ने चित्रकूट में जो प्रकल्प खड़ा किया या दत्तोपंत ठेंगड़ी ने जिस तरह मजदूरों के लिये काम किया, वह भी आरएसएस से ही प्रेरित रहे. देश से लेकर विदेश तक में ना सिर्फ आरएसएस खड़ा हुआ बल्कि विद्या भारती (सरस्वती शिशु मंदिर), विश्व हिन्दु परिषद, मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, स्वदेशी जागरण मंच, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, ग्राम भारती इत्यादि विशालकाय संगठन खड़े किये जिन्होंने जमीन से जुडक़र काम खड़ा और करोड़ों दिलों में देशभक्त संगठन के तौर पर अपनी अमिट पहचान कायम की. चाहे गांधीजी की हत्या हो या फिर भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय आपातकाल, नेहरू युग से लेकर हाल के सोनिया युग तक आरएसएस को बदनाम करने, रोकने की कई साजिशें रची गई, रची जा रही हैं लेकिन संघ ने इसकी परवाह कभी नहीं की.

    कभी समय मिले तो छत्तीसगढ़ के जांजगीर-चांपा में होकर आइयेगा. आरएसएस के एक प्रचारक ने सालों पूर्व वहां जिस कुष्ठ आश्रम की शुरूआत की, आज वह विशालकाय वटवृक्ष बन चुका है. दस हजार से ज्यादा कुष्ठ रोगी अपना इलाज करा चुके हैं. जशपुर, रायपुर और बस्तर में आदिवासियों के लिये जो वनवासी कल्याण आश्रम चलाये जा रहे हैं, उनमें आदिवासियों का भरोसा जबरदस्त ढंग से जमा है. यह तो एक उदाहरण है. पूरे देश में संघ ऐसे हजारों प्रकल्प चला रहा है. क्या कांग्रेस या उसके मातहत काम कर रहे संगठनों ने कभी इस तरह के प्रकल्प चलाने की कोशिश की? महात्मा गांधी से लेकर अम्बेडकर तक संघ के शिविरों में पहुुंचे. वहां का दृश्य देखकर उन्होंने स्वीकारा कि जिस समतामूलक समाज की कल्पना वे करते हैं, संघ उसकी बेहतर नर्सरी साबित हो सकता है.

    संघ रूपी बैसाखियों का सहारा लेकर जहां एक तरफ भाजपा मजबूत होती चली गई तो दूसरी ओर जंग लगी और मुरझाई सोच का प्रयोग करते हुए कांग्रेस अपना परम्परागत वोटबैंक खोती गई बल्कि अपनी जड़ों से कटती चली गई. उदाहरण के तौर पर कांग्रेस आरएसएस को मुस्लिमों का विरोधी बताते रही है मगर दो साल पहले संघ के समर्थन से मुस्लिम राष्ट्रीय मंच प्रारंभ हुआ तो उसे जबरदस्त सफलता मिली. शुरू में मुसलमान हिचके जरूर लेकिन बाद में उन्हें समझ में आ गया कि मन और दिमाग में छाई धुंध को साफ करना ही होगा. आज हजारों मुसलमान मंच से जुड़े चुके हैं. उन्हें समझ में आने लगा है कि धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढक़र कांग्रेस सहित दूसरे राजनीतिक दल महज वोटबैंक की खातिर संघ का हौव्वा दिखाते रहे.

    ताजा चुनाव इसके सबसे बड़े प्रतीक बनकर उभरे हैं. अभी राजस्थान में कांग्रेस ने 14 मुस्लिमों को विधानसभा के टिकट दिये लेकिन जीते एक भी नहीं. जबकि मध्य प्रदेश चुनाव में भाजपा ने चार मुस्लिमों को टिकट दिये जिनमें से दो जीतकर आ गये. संदेश स्पष्ट है कि मुसलमानों को भी कांग्र्रेस पर भरोसा नहीं रहा क्योंकि सालों तक उन्हें सिर्फ वोटबैंक समझा गया. शिशु मंदिरों से हजारों मुस्लिम बच्चे पढक़र निकलते हैं लेकिन उन्हें शिशु मंदिर कभी साम्प्रदायिक नहीं लगा. बात को लम्बा खींचने के बजाय शार्टकट में यह समझने की कोशिश करते हैं कि मात्र अल्पसंख्यकों की बात कहके कांग्रेस जिस तरह बहुसंख्यकों को नजरअंदाज कर रही है, उसका खामियाजा उसे कदर भुगतना पड़ रहा है?

संघ तो कबका ऐलान कर चुका है कि यदि कांग्रेस राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व की चिंता करने लग जाये तो वह भी हमारा समर्थन ले सकती है. यकीन मानिए कि कांग्रेस का बुनियादी ढांचा अभी भी जमींदोज नहीं हुआ है लेकिन उसे खाद, पानी देने की जरूरत है. आज भी कांग्रेस अराजकता, अलगाववाद, आर्थिक आजादी और भारत को महाशक्ति बनाने के सपने के साथ समाज के सबसे निचले तबके तक जा सकती है लेकिन इसके लिये खुद आलाकमान को पहल करनी होगी. उसे पहला संदेश यह देना होगा कि वह सिर्फ अल्पसंख्यकों के लिये नहीं बल्कि पूरे देश की चिंता करती है. जैसे नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि करोड़ों गुजरातियों की चिंता करता हूं.

सिर्फ भाजपा या आरएसएस ही क्यों? वामपन्थी या दक्षिणपंथी पार्टियों को देख लीजिये. द्रमुक से लेकर अन्नाद्रमुक और तृणमूल से लेकर कांशीराम-मायावती तक, सभी ने मेहनत से, नीतियों से अपनी पार्टियों को खड़ा किया जो आपकी छाती पर मूंग दल रही हैं. बसपा सहित इन सभी का वोट बैंक जिस तरह पूरे देश में बढ़ रहा है, कांग्रेस को उससे सीख लेने की जरूरत है. कांग्रेस को एक बार फिर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर लौटना होगा. उसे अपनी जड़ों को सींचना होगा. उसका सपना यदि आरएसएस को पछाडऩा है तो मैं इसमें आरएसएस की हार नहीं देख रहा हूं बल्कि मन में एक उम्मीद जगी है कि कांग्रेस वाकई भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस होने जा रही है!

    (लेखक राजनीतिक टिप्पणीकार हैं)
    Mobile : 09826550374

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लौहपुरुष की स्मृति में मुंबई में दौड़े 30 हजार लोग

मुंबई। लौहपुरुष सरदार पटेल की स्मृति में मुंबई में आयोजित ‘रन फॉर यूनिटी’ में करीब 30 हजार से भी ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। ‘रन फॉर यूनिटी’ के आयोजक विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा एवं सुनील राणे ने इस दौड़ में इतनी बड़ी संख्या में हिस्सा लेने पर मुंबईकरों का आभार जताया है। अगस्त क्रांति मैदान पर पिछले कई सालों में इतनी बड़ी भीड़ कभी नहीं देखी गई। गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी की अगुवाई में देश भर में आयोजित इस दौड़ की मुंबई में अगुवाई बीजेपी के वरिष्ठ नेता वेंकैया नायड़ू ने की। लोकसभा में उपनेता गोपीनाथ मुंडे, बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव किरीट सोमैया एवं पूनम महाजन, विधान परिषद में विपक्ष के नेता विनोद तावड़े, पूर्व मंत्री दत्ता राणे, सिद्धार्थ गमरे एवं मुंबई बीजेपी के अध्यक्ष आशीष शेलार सहित कई प्रमुख लोगों ने भी ‘रन फॉर यूनिटी’ में हिस्सा लिया।

अगस्त क्रांति मैदान पर वेंकैया नायड़ू ने इस दौड़ को झंड़ी दिखाकर विदाई दी। वरली में सरदार पटेल स्मारक पर उनकी आदमकद प्रतिमा को नायड़ू, मुंडे, तावड़े एवं लोढ़ा ने माल्यार्पण किया एवं नमन करके श्रद्धांजलि अर्पित की। ‘रन फॉर यूनिटी’ के समापन स्थल पर यह दौड़ एक विशाल आमसभा में परिवर्तित हो गई, जिसे नायड़ू, मुंडे, तावड़े, लोढ़ा एवं राणे ने संबोधित किया। जगह जगह विभिन्न बिल्डिंगों से लोगों ने ‘रन फॉर यूनिटी’ में दौड़नेवालों पर फूल बरसाए और उनका स्वागत किया। दौड़नेवाले भी हाथों में झंडे लहराते हुए सरदार पचंल अमर रहे के नारे लगाते हुए दौड़ रहे थे। मुंबईकरों में सरदार पटेल को श्रद्धांजलि के लिए अभूतपूर्व उत्साह दिखा। किसी महान व्यक्तित्व की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करने का मुंबई में यह अपने आप में एक अनूठा कार्यक्रम था।    

 ‘रन फॉर यूनिटी’ के मुंबई में आयोजक विधायक मंगल प्रभात लोढ़ा एवं सुनील राणे के मुताबिक सरदार पटेल के सपनों के भारत निर्माण की संकल्पना के  साथ श्री मोदी द्वारा आयोजित ‘रन फॉर यूनिटी’ में मुंबई ने सचमुच जबरदस्त एकता एवं उत्साह का का परिचय दिया। इस दौड़ में कुल 30 हजार से बी ज्यादा लोग आए और 2500 से भी ज्यादा पटेल समाज के लोग अपनी परंपरागत वेशभूषा में सजधज कर खास तौर से आए थे। छह साल के बच्चों से लेकर 88 साल के बुजुर्ग भी इस दौड़ में विशेष रूप से भाग लेने पहुंचे थे। गिरगांव के ‘गजर’ ग्रुप ने महाराष्ट्र की लेजिम संगीत परंपरा का शानदार प्रदर्शन किया।

‘रन फॉर यूनिटी’ में हिस्सा लेने के लिए 25 हजार के आसपास रजिस्ट्रेशन हुए थे, लेकिन उससे भी ज्यादा लोगों ने इस दौड़ में भाग लेकर आयोजन के प्रति अपने अभूतपूर्व उत्साह का परिचय दिया। कई लोग मोदीमय खास पोषाक पहनकर आए थे। सैकड़ों लोग राष्ट्रीय ध्वज, अनेक लोग सरदार पटेल और नरेंद्र मोदी के हैंड बोर्ड, के साथ नारे लगाते दौड़ रहे थे। इस मौके पर बड़ौदा में आयोजित नरेंद्र मोदी के भाषण का लाइव प्रसारण भी किया गया। विधायक लोढ़ा और राणे ने मुंबईकरों का आभार जताते हुए कहा है कि सरदार पटेल को श्रद्धांजलि देने के लिए समाज के सभी वर्गों ने  ‘रन फॉर यूनिटी’  में हिस्सा लिया। उन्होंने कहा कि सरदार पटेल ने राष्ट्र को एक करने के लिए देश की 565 रियासतों को जोड़ा। उनकी कोशिशों की ही परिणाम है कि भारत विविधता की संस्कृति वाला देश होने के बावजूद शक्ति का मजबूत स्रोत है।

 

संपर्क

Prime Time Infomedia Pvt. Ltd, Mumbai. Ph: 9821226894

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मूवीज नाउ पर देखें मेडागास्कर एस्केप 2 अफ्रीका

सुपर मूवी ऑफ द मंथ के रूप में फिल्म के प्रसारण का मजा लें, 21 दिसंबर 2013 को रात 9 बजे

 

मुंबई।  एलेक्स, मार्टी, ग्लोरिया, मेलमैन और चुलबुल पेंग्यूइन्स ने अपनी फिल्म मेडागास्कर से पूरी दुनिया को दीवाना बना दिया था और वे एक बार फिर आपको बहलाने आ रहे हैं। सुपर मूवी ऑफ द मंथ के रूप में 21 दिसंबर 2013 को रात 9 बजे फिल्म के दूसरे भाग मेडागास्कर एस्केप 2 अफ्रीका का प्रसारण देखें।

देखिये कैसे छुट्टियों के मजे लूटकर, ये कुशल जानवर घर लौटने की कोशिश करते हैं। एक दुघर्टनाग्रस्त हवाईजहाज के अवशेषों पर लुढ़कते हुये पेंग्युइंस इसे काम करने की स्थिति में वापस लाते हुये घर के लिए निकल पड़ते हैं। हालांकि, हवाईजहाज अफ्रीका में दुघर्टनाग्रस्त होता है और सभी वहां फस जाते हैं। क्या ये जानवर जंगल का सामना कर पायेंगे या फिर वे सही सलामत न्यू यॉर्क पहुंच पायेंगे?  जानने के लिये मेडागास्कर एस्केप 2 अफ्रीका देखना न भूलें।

इस फिल्म के डायलॉग्स और कॉमिक टाइमिंग आपको हंसने पर मजबूर कर देंगे। इस ब्लॉकबस्टर फिल्म के प्यारे और हास्यजनक किरदार घर-घर में लोकप्रिय तो हो गये हैं, इतना ही नहीं, इन किरदारों को किताबों, खेल, मर्चेंडाइज, थीम पार्क्स और टीवी सिरीज में भी अपनाया गया है। बेन्न स्टिलर, क्रिस रॉक, डेविड श्विममर, जैडा पिन्केट स्मिथ, सशा बैरोन कोहेन को ऐसी भूमिकाओं में देखें, जो आपको अधिक मनोरंजन की मांग करने पर मजबूर कर देंगे।

मूवीज नाउ पर इस सप्ताहांत में यह ब्लॉकबस्टर फिल्म देखें,  जिसने 600 मिलियन डॉलर से अधिक कमाई की थी। 

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पानी की उपलब्धता अल्प जहां, उद्यमिता, समरसता व जीवन्तता अधिक वहां – मेहता

उदयपुर। जिन क्षेत्रों में बरसात की कमी से पानी की उपलब्धता अल्प रही है, वहां के समाज में उद्यमिता, समरसता व जीवन्तता अधिक है। राजस्थान के शेखावटी व मारवाड़ सहित पूरा पश्चिमी राजस्थान इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस क्षैत्र ने उच्च कोटि के साहित्यकार, उद्योगपति, रंगकर्मी दिये है। वहीं जहां पानी की बहुतायतता है, वहां आपसी मनमुटाव, झगड़े ज्यादा है। इस दृष्टि से यह अनुमान कि पानी की कमी युद्व का कारण बनेगी, नकारा जा सकता हैं।

ये विचार विद्या भवन पॉलीटेक्निक के प्राचार्य अनिल मेहता ने भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय द्वारा संचालित भोपाल स्थित फोरेस्ट मैनेजमेन्ट संस्थान के प्रबन्धन विद्यार्थियों की क्षैत्रिय अनुभव सेमिनार में व्यक्त किये। मेहता ने कहा कि जल का बेहतर प्रबन्धन समृद्धि सुनिश्चित करता है, वहीं बैतरतीब दुरपयोग, अतिउपयोग, विनाश का सूचक है।

उदयपुर एवं भोपाल की झीलों की स्थिति का  तुलनात्मक विवेचन करते हुए मेहता ने कहा कि भोपाल का झील संरक्षण मोडल ज्यों का त्यों उदयपुर के लिये लागू नहीं किया जा सकता है। झीलों की सही व वैज्ञानिक परिभाषा व समझ के अभाव में झीलें सिकुढ़ रही है। फोरेस्ट मैनेजमेंट संस्था के भास्कर सिन्हा ने कहा कि पर्यावरण व जल संरक्षण में संस्थाओं के निरन्तर प्रयास निःसन्देह प्रंशसनीय है तथापि सरकार व संस्थाओं में अधिक गतिशील समन्वय स्थापित करना होगा।

इस अवसर पर पॉलीटेक्निक द्वारा संचालित रोजगारोन्मूखी कार्यक्रमों का प्रस्तुतिकरण देते हुए सीडीटीपी के सलाहकार सुधीर कुमावत ने कहा कि तकनीकी व्यवसायों में गांव स्तर पर स्वरोजगार स्थापित होने से पहाड़, पानी सहित समस्त प्रकृति संसाधन बच सकेंगे। विद्या भवन प्रकृति साधना केन्द्र के समन्वयक आर. एल. श्रीमाल ने युवाओं, पहाड़, पानी के संरक्षण के लिये विद्या भवन द्वारा किये जा रहे जमीनी प्रयासों के बारे में जानकारी दी।

चांदपोल नागरिक समिति के तेजशंकर पालीवाल ने युवा समूह को झीलों की पर्यावरणीय स्थिति के बारे में मौके पर ले जा कर अवगत कराया।युवाओं को वन विभाग के अधिकारी डी. के तिवारी ने भी संबोधित किया।

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बैंकों का करोड़ों का कर्ज़ नहीं चुकाया शादी में खर्चे 500 करोड़

जाने-माने धनकुबेर और दुनिया भर में फेमस स्टील टाइकून प्रवासी भारतीय लक्ष्मीनिवास मित्तल के छोटे भाई प्रमोद मित्तल की बेटी की शादी में करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा दिए गए। प्रमोद मित्तल इन पर कई भारतीय बैंकों के करोड़ों रुपए कर्ज हैं। प्रमोद और इनके भाई विनोद मित्तल कॉर्पोरेट कर्ज रीस्ट्रक्चरिंग के सहारे खुद को बैंकों के लोन से बचाते रहे हैं। मित्तल बंधुओं के डिफॉल्टर होने के बावजूद बर्सिलोना में अपनी बेटी सृष्टि की शादी में 60 मिलियन यूरो (करीब 505 करोड़ रुपए) पानी की तरह बहाए।

एक स्पैनिश न्यूज पोर्टल http://www.vanitatis.com/  का दावा है कि इन्वेस्टमेंट बैंकर गुलराज बहल और प्रमोद मित्तल की 26 साल की बेटी सृष्टि मित्तल की शादी दुनिया की पांच महंगी शादियों में से एक है। इस हाई प्रोफाइल शादी में शामिल एक व्यक्ति ने दावा किया कि  शादी के दौरान हुए सभी खर्चों को मिला दिया जाए तो करीब 60 यूरो मिलियन खर्च हुए होंगे। फोर्ब्स पत्रिका का कहना है किइससे पहले अरब के शहजादे मोहम्मद बिन जाएद अल नाहयान और राजकुमारी सलमा ने 1981 में अपनी शादी पर 604 करोड़ खर्च किए थे। 2004 में लक्ष्मी मित्तल ने भी अपनी बेटी की शादी जब भारतीय अरबपति अमित भाटिया से की थी तो 46 मिलियन यूरो चंद दिनों में खर्च किए थे।

2010 के अंत में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने प्रमोद मित्तल को इस्पात इंडस्ट्रीज के लिए 130 करोड़ का लोन दिया था। इस लोन का समायोजन 30 करोड़ में हुआ और मित्तल ने बैंक को 100 करोड़ का चूना लगा दिया।

प्रमोद पर कई और बैंकों को करोड़ों बकाए हैं। इसमें आईसीआईसीआई से लेकर कई छोटे बैंक भी हैं। आईसीआईसीआई ने प्रमोद की कंपनी इस्पात इंडस्ट्रीज को जिंदल स्टील में मर्ज कराने की भी कोशिश की ताकि लोन की रकम निकाली जा सके।

 

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मुस्लिमों ने भाजपा और ‘आप’ को नहीं दिए वोट

हाल ही में आए चार राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों में कांग्रेस को भले मात मिली हो, लेकिन दिल्लील, मध्य‍प्रदेश, छत्तींसगढ़ और राजस्थान में मुस्लिमों ने सबसे ज्यादा वोट कांग्रेस को दिया है। इसका सीधा अर्थ हुआ कि मुस्लिम वोट बैंक आज भी कांग्रेस के साथ जुड़ा हुआ है। चुनाव में लोक लुभावन वादे करने वाली भाजपा, आप और अन्यथ पार्टियां मुस्लिमों के वोट बैंक को अपनी ओर आकर्षित करने में असफल साबित हुई हैं।

चुनाव विश्लेषक एवँ सी वोटर के संपादक यशवंत देशमुख ने एक लेख में चार राज्‍यों में मुस्लिमों के वोट प्रतिशत का ब्‍योरा देते हुए बताया है कि इन राज्‍यों में कहीं भी मुसलमान मतदाताओं ने कांग्रेस को धोखा नहीं दिया।

इस बार चारों विधानसभाओं की कुल 589 सीटों में से सिर्फ आठ मुस्लिम प्रत्‍याशी ही चुनाव जीत पाए हैं जबकि पिछली बार यह संख्‍या 20 थी। इन चुनावों में जीते आठ में से सात ऐसे प्रत्‍याशी हैं, जिन्‍होंने फिर से चुनाव जीता है। सिर्फ दिल्‍ली से एक प्रत्‍याशी ही ऐसा है, जिसने पहली बार चुनाव जीता है। इन चार राज्‍यों में मुस्लिमों की आबादी 7.03 प्रतिशत है। चारों राज्‍यों में भाजपा ने छह, तो कांग्रेस ने 29 मुस्लिम प्रत्‍याशियों को चुनाव में उतारा था। इनमें से भाजपा को दो और कांग्रेस को पांच सीटों पर सफलता मिली।

मध्‍यप्रदेश में मुस्लिमों ने कांग्रेस को सबसे ज्‍यादा वोट दिए हैं। यहां कांग्रेस के खाते में मुस्लिमों के 69.2 प्रतिशत वोट आए हैं। वहीं भाजपा को सिर्फ 18.6 प्रतिशत ही मुस्लिम वोट मिले। बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) को सिर्फ 2.4 प्रतिशत मुस्लिम समुदाय का वोट मिला।

मध्‍यप्रदेश की 230 सीटों पर छह मुस्लिम प्रत्‍याशी ही मैदान में थे। इनमें से कांग्रेस ने पांच सीटों पर, तो भाजपा ने सिर्फ एक सीट पर अपना उम्‍मीदवार उतारा था। इनमें से सिर्फ एक प्रत्‍याशी को जीत मिली। यह सीट भोपाल (उत्‍तर) से कांग्रेस प्रत्‍याशी आरिफ अकील ने जीती। आरिफ यहां से पांचवी बार चुनाव जीते हैं।

छत्‍तीसगढ़ :

छत्‍तीसगढ़ में भी कांग्रेस को मुस्लिम समुदाय के 42.4 प्रतिशत वोट मिले, जबकि भाजपा को सिर्फ 18.6 प्रतिशत मुस्लिमों ने वोट डाले। वहीं बीएसपी को 6.8 फीसदी वोटों से संतुष्‍ट होना पड़ा।

यहां से कोई भी मुस्लिम प्रत्‍याशी चुनाव नहीं जीत पाया है। जबकि पिछली बार दो विधायकों ने जीत हासिल की थी। ये दोनों विधायक इस बार फिर से मैदान में थे, लेकिन हार गए।

राजस्‍थान :

राजस्‍थान में भी मुस्लिमों के लिए कांग्रेस पहली पसंद रही। यहां 55.6 प्रतिशत मुस्लिमों ने कांग्रेस को वोट दिया। भाजपा को 15.5 और बीएसपी को सिर्फ 4.3 प्रतिशत ही वोट मिले।

प्रत्‍याशी जीतने के हिसाब से कांग्रेस के लिए सबसे अजीब स्थिति राजस्‍थान में रही। मुस्लिमों का 50 प्रतिशत से ज्‍यादा वोट हासिल करने वाली कांग्रेस का कोई भी मुस्लिम प्रत्‍याशी यहां से चुनाव नहीं जीत पाया, जबकि कांग्रेस ने 16 प्रत्‍याशी मैदान में उतरे थे। वहीं भाजपा ने चार प्रत्‍याशियों को मैदान में उतारा था, जिनसे से दो ने चुनाव जीता।

दिल्‍ली :

दिल्‍ली में शानदार प्रदर्शन करने वाली� आम आदमी पार्टी� (आप) भी मुस्लिम वोटों को अपनी ओर नहीं खींच पाई। जबकि दिल्‍ली में मात्र आठ सीटों पर जीत पाई कांग्रेस को 45.2 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले। यहां नंबर एक पर रही भाजपा को मुस्लिमों के मात्र 15.5 प्रतिशत वोट ही मिले। बीएसपी के खाते में भी 4.3 प्रतिशत वोट आए।

दिल्‍ली चुनाव में कुल 108 मुस्लिम प्रत्‍याशी मैदान में थे। इनमें से कांग्रेस के 6, भाजपा का 1, आप के 6, बीएसपी के 11 और शेष अन्‍य पार्टियों और निर्दलीय प्रत्‍याशी शामिल थे। इन प्रत्‍याशियों में से सिर्फ पांच ही चुनाव जीते हैं। इनमें से चार सीटें कांग्रेस और एक सीट जनता दल के खाते में आई।

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टीवी पर ‘24’ एक ताज़ा हवा का झोंका

टीवी पर सालों चलने वाले उबाऊ सीरियलों के बीच एक ताजी हवा का झोंका-सा आया दिखता है। पिछले कुछ हफ्तों से एक एंटरटेनमेंट चैनल पर प्रसारित हो रहे अनिल कपूर के सीरियल "२४" को देखकर लगता है, जैसे किसी ने उनींदेपन में झकझोर दिया हो। अनिल कपूर बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने इस बात का अहसास कराया कि आज भी छोटी अवधि के सीरियल ज्यादा असरदार या प्रासंगिक हैं, बजाय सालों चलने वाली उन कहानियों के, जिन्हें दर्शक ऊबकर देखना बंद कर देते हैं, लेकिन कहानी बासी होकर सड़ने की सीमा तक चलती ही रहती है।

"२४" सीरियल आंधी की रफ्तार से आगे बढ़ता है। पूरी कहानी २४ घंटे की। एक शाम को सिंघानिया परिवार हवाई जहाज से दिल्ली से मुंबई जाता है, जहां अगली रात एक बड़ी रैली में सिंघानिया परिवार का बेटा आदित्य देश के प्रधानमंत्री पद के लिए दावा पेश करेगा। एक तरफ परिवार की रैली की तैयारियां, दूसरी ओर पड़ोसी देश से आए एक संघर्षरत उग्रवादी समूह के सदस्यों की आदित्य को जान से मारने की योजना। घटनाक्रम रेस की तरह दौड़ता है। सीरियल में एक अन्य बात जिसने चौंकाया, वह है कहानी की प्रासंगिकता।

�कहानी उस सिंघानिया परिवार की है, जो देश पर शासन करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है। वह यह मान ही नहीं सकता कि देश उनके बिना भी चल सकता है। उस परिवार के एक सदस्य की, जो देश का प्रधानमंत्री था, हत्या कर दी गई थी। हत्या भी पड़ोसी देश में सक्रिय उस लड़ाकू गुट ने की, जिसका मानना था कि भारतीय प्रधानमंत्री ने उनके मुल्क की सरकार को उन्हें हराने में मदद की थी। यह गुट अपने समुदाय के नागरिकों के हक के लिए हिंसक संघर्ष में लिप्त है। जब सिंघानिया परिवार के उस सदस्य की एक चुनावी रैली के दौरान हत्या हुई थी, तब उसका बेटा आदित्य व बेटी दिव्या बहुत छोटे थे। उस समय परिवार की कमान संभाली प्रधानमंत्री की विधवा श्रीमती नैना ने।

उन्होंने अपने जीवन का एक ही मिशन बनाया कि समय आने पर बेटा आदित्य देश का प्रधानमंत्री बने। पार्टी की चेयरपर्सन बनने के बाद श्रीमती नैना के प्रयास और तेज हो गए। उनकी एक दुविधा थी कि बेटा लगातार देश की कमान संभालने के प्रति अनिच्छुक होने के संकेत देता रहता है, लेकिन वे हार मानने वालों में से नही हैं। सीरियल में यह भी दिखाया गया है कि इस योजना में उनकी पूरी मदद उनकी बेटी दिव्या (जिसकी शादी विक्रांत नामक एक भ्रष्ट व्यक्ति से हुई है) करती है।

नैना को शक है कि उनका दामाद सिंघानिया परिवार से निकटता का गैरवाजिब फायदा उठा रहा है। एंटी टेररिस्ट यूनिट का मानना है कि कोई अंदर का आदमी आदित्य के मूवमेंट की खबरें उस उग्रवादी गुट को देता है। गुट के उग्रवादियों ने तय कर रखा है कि जिस रैली में आदित्य अपने प्रधानमंत्री बनने का दावा पेश करने वाला है, उसमें उसकी हत्या कर दी जाएगी। नैना सोच भी नही सकतीं कि आदित्य के हर मूवमेंट की खबर उनका दामाद ही उग्रवादियों तक पहुंचा रहा है। आदित्य सिंघानिया रैली में पहुंच तो जाता है, लेकिन वहां पर हरेक को यह कहकर चौंका देता है कि दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज के अपने विद्यार्थीकाल में घटे एक हादसे के लिए शायद वह जिम्मेदार था। जनता आदित्य की इस स्वीकारोक्ति को सुनकर भौचक है और परिवार स्तब्ध। कुल मिलाकर पूरा घटनाक्रम दर्शक को बांधता है।

इसमें दर्शकों को सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात है, इसकी कुछ घटनाओं का वर्तमान राजनीतिक संदर्भों से सटीक जुड़ाव। मसलन, तत्कालीन प्रधानमंत्री की पड़ोसी देश के उग्रवादी गुट द्वारा हत्या, परिवार की कमान प्रधानमंत्री की विधवा द्वारा संभालना और बेटे को प्रधानमंत्री बनाने का मिशन लेकर चलना, बेटे द्वारा इसमें कोई रुचि न दिखाना और बेटी की शादी ऐसे व्यक्ति से होना, जो परिवार की बदनामी का सबब बन जाता है। इन तमाम प्रसंगों का बेबाक और ईमानदार प्रदर्शन काबिले-तारीफ है। स्पष्ट है कि हमारे पॉलिटिकल "सेंसर" को देखते हुए ऐसा प्रस्तुतीकरण हिम्मत का काम है और इसका निरंतर अबाध चलते रहना भी अनूठी घटना है। पाश्चात्य मानकों के अनुसार भारतीय टीवी और रेडियो पर भी आजादी से विचार व चित्र प्रस्तुत किए जा सकते हैं, यह सीरियल इस बात का केवल संकेत मात्र है, तो भी "२४" साधुवाद का पात्र है।

(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

mathur _mohini@yahoo.com

साभार-दैनिक नईदुनिया से

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हे बेशर्मी तेरा आसरा!

दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा 2009 में जिस समय समलैंगिक संबंधों को वैध कऱार देने संबंधी एक याचिका पर निर्णय सुनाते हुए इसे वैध ठहराया था उस समय भी देश में यह मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना था। गौरतलब है कि 2001 में समलैंगिक संबंधों को वैध ठहराने हेतु ऐसे संबंधों की पैरवी व समर्थन करने वाले कुछ संगठनों ने एक याचिका दायर की थी। इस पर दिल्ली हाईकोर्ट ने अपना निर्णय इनके पक्ष में सुनाया था। उस समय अदालत ने कहा था कि 'अधिकार दिए नहीं जाते बल्कि मात्र इनकी पुष्टि की जाती है अर्थात् मान-स मान का अधिकार,हमारा हिस्सा है और इस दुनिया की किसी अदालत के पास हमारा हक छीनने का अधिकार नहीं हैं।‘ और अपने इसी आदेश के साथ दिल्ली उच्च न्यायालय ने ऐसे संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी थी। परंतु कई धार्मिक संगठनों व अन्य सामाजिक संगठनों ने हाईकोर्ट के इस फैसले का विरोध करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी। परणिामस्वरूप पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के 2009 के निर्णय को रद्द करते हुए भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को पुन: वैध ठहराते हुए यह आदेश जारी किया कि व्यस्क समलैंगिकों के मध्य सहमति से बनाए गए यौन संबंध गैरकानूनी हैं।              

दरअसल, अप्राकृतिक रूप से किन्हीं दो समलैंगिकों के मध्य बनाए जाने वाले यौन संबंध के विरुद्ध बनाया गया यह कानून 153 वर्ष पुराना हैं। इस कानून के तहत यदि कोई भी दो समलैंगिक व्यक्ति सहमति से तथा स्वेच्छा से किसी भी स्थान पर अप्राकृतिक तरीके से यौन संबंध स्थापित करते हैं तो कानून की नज़र में यह एक अपराध होगा। और ऐसा अपराध करने वालों को उम्र कैद की सज़ा तक हो सकती है। वास्तव में यह कानून छोटे बच्चों को अप्राकृतिक यौन हिंसा से बचाने हेतु बनाया गया था। परंतु बाद में किन्हीं दो समलैंगिकों के मध्य सहमति से स्थापित किया गया यौन संबंध भी इसी कानून की परिधि में आ गया।

एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धारा 377 को बरकरार रखने व इसे उचित ठहराने के फैसले के बाद मानवाधिकार के तथाकथित पैरोकार सड़कों पर उतरते दिखाई दे रहे हैं तथा सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की अत्यंत घटिया व निम्र स्तर के शब्दों में आलोचना कर रहे हैं। सर्वोच्च न्यायलय के इस फैसले की निंदा ऐसे शब्दों में की जा रही है जिसे अदालत की मानहानि तक कहा जा सकता है।             

इस प्रकार के अप्राकृतिक संबंधों को वैध ठहराने की पैरवी करने वालों का मत है कि चंूकि दुनिया के अधिकांश देशों में मानवाधिकारों को संरक्षण दिए जाने के तहत ऐसे संबंधों को कानूनी वैधता प्रदान की जा रही है। लिहाज़ा भारत में भी ऐसे संबंधों को कानूनी दर्जा प्राप्त होना चाहिए। इस तर्क के पक्ष में तमाम तथाकथित बुद्धिजीवी व मानवाधिकार कार्यकर्ता खड़े दिखाई दे रहे हैं। इस प्रकरण में सबसे मज़ेदार व दिलचस्प बात यह है कि भारत के जिन प्रमुख धर्मों के धर्मगुरू आपस में धार्मिक मुद्दों को लेकर लड़ते दिखाई देते थे वे सभी समलैंगिकता के विरोध में एक-दूसरे से गलबहियां करते दिखाई दे रहे हैं। और एक स्वर में समलैंगिक संबंध बनाने जैसी व्यवस्था का प्रबल विरोध करते नज़र आ रहे हैं।

ऐसे में इस विषय पर बहस होना लाज़मी है कि आख़िर मानावाधिकार की सीमाएं क्या हों? इन सीमाओं को कोई व्यक्ति अपने लिए स्वयं निर्धारित करेगा या समाज अथवा कानून को किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों की सीमाएं निर्धारित करने का अधिकार है? मानवाधिकार के जो पैरोकार आज समलैंगिक संबंध स्वेच्छा से बनाए जाने को अपने अधिकारों के दायरे में शामिल कर रहे हैं आख़िर इस बात की क्या गारंटी है कि भविष्य में मानवाधिकार के कोई दूसरे पैरोकार मनुष्य व पशुओं के मध्य यौन संबंध स्थापित करने को भी अपने अधिकार क्षेत्र की बात नहीं कहेंगे? अथवा मानवाधिकार के नाम पर पवित्र पारिवारिक रिश्तों को भी कलंकित करने की मांग नहीं खड़ी करेंगे?              

आख़िरकार प्रकृति जोकि सृष्टि की रचनाकार है उसके द्वारा भी कुछ नियम निर्धारित किए गए हैं। पुरुष-स्त्री संबंध के माध्यम से सृष्टि की रचना होते रहना इस नियम की एक सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है। यदि अप्राकृतिक यौन संबंध की प्रकृति पर नज़र में कोई ज़रा सी गुंजाईश होती तो पशु भी इस प्रकार के समलैंगिक संबंध स्थापित करते देखे जा सकते थे। पंरतु बड़े ही आश्चर्य एवं ग्लानि की बात है स्वयं को सबसे बुद्धिमान समझने वाला तथा अपने अधिकारों व कर्तव्यों की बात पूरी सजगता के साथ करने वाला मनुष्य ही समलैंगिक संबंधों जैसे अप्राकृतिक व अनैतिक रिश्तों की पैरवी करने लगा है। यदि यह कहा जाए कि मानवाधिकारों की आड़ लेकर यह वर्ग केवल अपनी वासनापूर्ति को कानूनी शक्ल देना चाहता है तो यह कहना कतई गलत नहीं होगा। ऐसे अप्राकृतिक यौन संबंधों के पक्ष में दिए जााने वाले सारे तर्क भी फुज़ूल के तर्क दिखाई देते हैं। उदाहरण के तौर पर ऐसे संबंधों के पक्षधर यह कह रहे हैं कि ऐसे संबंध सदियों से बनते चले आ रहे हैं लिहाज़ा आगे भी इन्हें वैधता मिलनी चाहिए। आख़िर यह कैसा तर्क है? कोई बुराई यदि सदियों से चली भी आ रही है तो उसे रोका जाना चाहिए अथवा उस बुराई निरंतरता प्रदान की जानी चाहिए? एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि दुनिया के कई देशों में ऐसे संबंधों को मान्यता प्राप्त है। यह तर्क भी इसलिए गलत है कि दुनिया के लगभग सभी देशों की अपनी अलग संस्कृति,स यता तथा सामाजिक व धार्मिक सीमाएं व मान्यताएं हैं। हम जिस देश में रहते हैं वहां ऐसे संबंधों को न तो समाज मान्यता देता है न ही कानून। ऐसे संबंध रखने वालों को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता।               

दूसरे देशों की भारत से तुलना कहां की जा सकती है? कई देशों में पूर्णरूप से नग्र होकर परेड व जुलूस निकाले जाते हैं कई देशों में पोर्नग्राफी आम बात है। पोर्न िफल्मों में समलैंगिक संबंध बनाने वाले कलाकारों को विशिष्ट लोगों की श्रेणी में गिना जाता है। पूर्ण नग्र अवस्था में इक_े होकर पुरुष व महिलाएं सामूहिक चित्र खिंचवाते हैं। हम यह नहीं कहते कि वे लोग कुछ गलत,बुरा अथवा अनैतिक कार्य करते हैं।

यह सब बातें उनकी स यता,संस्कृति तथा समाज का हिस्सा हो सकती हैं परंतु भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसी बातों की कोई गुंजाईश नहीं है। पिछले दिनों पश्चिमी देशों में नंगे रहने न रहने को लेकर महिलाओं द्वारा नग्र अवस्था में एक प्रदर्शन पादरियों के सामने जाकर किया गया। जिसमें नग्र लड़कियों द्वारा यह नारे लगाए गए कि 'मेरा शरीर मेरा कानूनÓ। ज़रा सोचिए भारत वर्ष जैसे देश में जहां लड़कियों को अब भी उच्च शिक्षा हेतु कॉलेज भेजने से अभिभावक कतराते हों, लड़कियों को सूरज डूबने के बाद घर में रहने की हिदायत दी जाती हो, लड़कियों के अकेले कहीं आने-जाने पर पाबंदी लगाई जाती हो क्या ऐसे देश में लड़कियां अपने अधिकारों के नाम पर नग्र अवस्था में घूमने की मांग कर सकती हैं? और क्या मानवाधिकार के पैरोकारों को भी उनके सुर में अपना सुर मिलाना चाहिए?

इस विषय पर विभिन्न धर्मों के धर्मगुरु अथवा धार्मिक संगठनों द्वारा समलैंगिक संबंधों का विरोध  करने से मुद्दा और अधिक पेचीदा क्यों न बन गया हो परंतु वास्तव में यह विषय धर्म व अधर्म से जुड़ा होने के बजाए मानवीय मर्यादाओं तथा सामाजिक नैतिकता के साथ-साथ प्रकृति द्वारा निर्धारित संबंधों से जुड़ा मामला है। इसमें न तो किसी धर्मगुरु द्वारा धार्मिक दृष्टिकोण से दखलअंदाज़ी करने की ज़रूरत है न ही इस विषय को रूढ़ीवाद या उदारवाद से जोडऩे की कोई आवश्यकता है। यह विषय पूरी तरह से प्रकृति,मर्यादा व नैतिकता से जुड़ा विषय है। इसकी रक्षा करना सबसे बड़ा मानवाधिकार होना चाहिए न कि अपनी तुच्छ अप्राकृतिक वासनापूर्ति को ही मानवाधिकार के तथाकथित पैरोकार सर्वोच्च समझें। इन्हें केवल अपनी अप्राकृतिक वासनापूर्ति के बारे में ही नहीं सोचना चाहिए बल्कि यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारे देश के किशोरों पर आख़िर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा?

इस विषय पर एक बात और भी काबिल-ए-गौर है कि टेलीविज़न के अधिकांश खबरिया चैनल इस विषय को और अधिक मसालेदार बना कर तथा दोनों पक्षों में चोंचें लड़वाकर समाज में गलत विषय पर हो रही गलत बहस को प्रोत्साहित कर रहे हैं। अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में ऐसी बहसों को अपने मु य कार्यक्रमों का हिस्सा बनाना मीडिया नीति के भी विरुद्ध है तथा सामाजिक दृष्टिकोण से ाी गलत है। क्या मीडिया तो क्या समलैंगिक संबंधों के पैरोकार व मानवाधिकारों की बातें करने वाले लोग तथा मानवाधिकार संगठन सभी को मानवीय अधिकारों के साथ-साथ इस विषय को प्रकृति द्वारा निर्धारित नियम,मर्यादा तथा नैतिकता के आईने में भी देखना चाहिए।

 

निर्मल रानी                                                        

1618, महावीर नगर
अंबाला शहर,हरियाणा।

 फोन-0171-2535628

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