संसद का शीतकालीन सत्र आज से शुरू हो चुका है। इसके साथ ही प्रस्तावित सांप्रदायिक हिंसा निरोधक विधेयक पर बहस गर्मा गई है। इस विवादित विधेयक के अनुसार महज बहुसंख्यक होने के नाते किसी भी व्यक्ति को अपराधी और महज अल्पसंख्यक होने के नाते किसी भी व्यक्ति को पीड़ित माना जा सकता है! इसकी रूपरेखा सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) द्वारा तैयार की गईहै, जो कि हर लिहाज से एक संविधानेतर संस्था है और उसके सदस्य सोनिया गांधी द्वारा चुने जाते हैं।
प्रस्तावित विधेयक का जाहिर मकसद तो यह है कि देश में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर लगाम लगे। निश्चित ही यह एक नेक खयाल है। लेकिन विधेयक के प्रावधानों को गौर से पढ़ने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि यदि यह पारित हो गया तो पहले ही सांप्रदायिक विद्वेष का सामना कर रहे समाज में ध्रुवीकरण की प्रक्रिया और तीव्र हो जाएगी। निश्चित ही इस विधेयक को पारित करने के पीछे कांग्रेस का मकसद तुष्टीकरण की नीति को बढ़ावा देते हुए वोटबैंक की राजनीति करना है।
प्रस्तावित विधेयक के अनुसार सांप्रदायिक हिंसा का मुजरिम कौन है, इसका निर्धारण दंगों में किसी व्यक्ति द्वारा निभाई गई भूमिका से नहीं, बल्कि इस बात से होगा कि वह बहुसंख्यक है या अल्पसंख्यक। यह प्रावधान तो इस नियम के पूरी तरह उलट है कि : "अपराधी का कोई मजहब नहीं होता।" प्रस्तावित विधेयक के अनुसार सांप्रदायिक तनाव या हिंसा या नफरत फैलाने वाली बातों के लिए अल्पसंख्यक तबके का कोई व्यक्ति जिम्मेदार नहीं होता। न तो कानून और न ही तथ्य इस बात को सही ठहरा सकते हैं। अब जब देश का मिजाज धीरे-धीरे सांप्रदायिक सौहार्द की ओर बढ़ रहा है, मसौदा विधेयक का यह कहना निश्चित ही पक्षपातपूर्णव विभेदकारी है कि सांप्रदायिक तनाव की स्थिति केवल बहुसंख्यक समुदाय द्वारा निर्मित की जाती है व इसके लिए उन्हें ही सजा मिलना चाहिए!
विधेयक के अनुसार यदि दंगों के दौरान किसी मुस्लिम महिला के साथ दुराचार होता है तो इसे अपराध माना जाएगा, लेकिन यदि किसी हिंदू महिला के साथ ऐसा होता है तो इसे अपराध नहीं माना जाएगा! यह बात तो पूरी तरह बेतुकी है, क्योंकि दंगों की स्थिति में कोई भी हिंसा या दुराचार का शिकार हो सकता है। इस विधेयक के जरिए जिस समुदाय का संरक्षण होगा, उसे केवल "समूह" कहकर पुकारा गया है। इस "समूह" से वास्ता रखने वाले अल्पसंख्यक समुदायों को अजा-अजजा की श्रेणी के साथ रखा गया है। इस तरह के कदमों से हिंदू समाज बंटेगा और सामाजिक असंतोष फैलेगा। शिया-सुन्नी संघर्षों से पूरी दुनिया वाकिफ है, लेकिन इस तरह के संघर्षों को विधेयक में सांप्रदायिक हिंसा की श्रेणी में नहीं रखा गया है! यह सीधे-सीधे वोटबैंक की राजनीति है। याद रखा जाना चाहिए कि जब यहूदियों, पारसियों और सीरियाई ईसाइयों पर उनके देशों में जुल्म हुए तो उन्हें भारत के हिंदुओं द्वारा आश्रय दिया गया। इस सहिष्णु समुदाय को दोषी साबित करने की कोशिशें देश के हित में नहीं होंगी।
प्रस्तावित विधेयक आपराधिक न्याय के मानकों को भी उलटने की कोशिश करता है। विधेयक के अनुसार जो व्यक्ति नफरत फैलाने की कोशिशों में लिप्त पाया जाता है, उसे निर्दोष साबित होने तक दोषी माना जाएगा। जबकि भारतीय संविधान का तो यह कहना है कि जब तक किसी व्यक्ति का दोषसिद्ध न हो, तब तक उसे निर्दोष माना जाए। यदि यह विधेयक कानून बन गया, तो किसी व्यक्ति को जेल की सलाखों के पीछे भेजने के लिए उसके खिलाफ कोईआरोप लगाना ही काफी होगा। आरोप को ही उसके खिलाफ साक्ष्य माना जाएगा।ऐसे में आरोपी के लिए अपनी बेगुनाही साबित करना नामुमकिन हो जाएगा। सीआरपीसी के अनुभाग १६१ के तहत कोई बयान नहीं दर्ज किए जा सकेंगे, जबकि पीड़ित के बयान सिर्फ अनुभाग १६४ के तहत अदालत के समक्ष लिए जा सकेंगे। इस कानून के तहत सरकार को संदेशों के आदान-प्रदान को रोकने या दूरसंचार को बाधित करने के भी अधिकार होंगे।
प्रस्तावित विधेयक के मुताबिक मुकदमे की कार्यवाही संचालित करने वाला विशेष लोक अभियोजक "पीड़ित के हित में" कार्य करेगा। पीड़ित शिकायतकर्ता के नाम और पहचान को गुप्त रखा जाएगा। यहां तक कि न्यायिक गतिविधियों पर भी नजर रखी जाएगी। साथ ही यदि किसी संगठन विशेष के व्यक्ति पर आरोप लगाए जाते हैं तो उस संगठन के प्रमुख को भी जिम्मेदार माना जाएगा। इस प्रावधान का गुप्त एजेंडा यह है कि इसकी मदद से हिंदू संगठनों और उनके प्रमुखों पर शिकंजा कसा जाए!
यदि यह बिल पारित हो जाता हैतो केंद्र सरकार बड़ी आसानी से राज्य सरकार के अधिकारों में अतिक्रमण कर सकती है। कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार के हाथ में होती है, लेकिन यह कानून बनने के बाद ऐसा नहीं रह जाएगा।
विधेयक में एक सात सदस्यीय समिति का प्रावधान किया गया है, जो सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित मामलों की जांच करेगी और फैसले लेगी। सात सदस्यीय समिति में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के साथ चार सदस्य अल्पसंख्यक समुदाय से होंगे। यह तो संविधान की प्रस्तावना के ही प्रतिकूल होगा। जरा सोचिए, यदि सर्वोच्च अदालत, उच्च न्यायालय, चुनाव आयोग सहित अन्य संस्थाओं का गठन इस प्रकार के अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक प्रतिनिधित्व के आधार पर किया जाए, तो क्या होगा? अल्पसंख्यकों की बहुसंख्या वाली उपरोक्त समिति को असीमित अधिकार दिए गए हैं। समिति न केवल पुलिस और सशस्त्र बलों को आदेशित कर सकती है, बल्कि उसके समक्ष दिए गए किसी भी कथन या साक्ष्य को न्यायालय के समक्ष दिए गए कथन या साक्ष्य के समकक्ष समझा जाएगा। विधेयक प्रशासनिक अधिकारियों पर भी इस तरह के दबाव निर्मित करता है कि वे हर परिस्थिति में अल्पसंख्यकों का साथ देने को विवश हो जाएंगे।
साभार-देनिक नईदुनिया से
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