Saturday, November 23, 2024
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मालदीव में चुनाव… भारत पर वैश्विक दबाव

मालदीव में राष्ट्रपति पद के लिए मतदान शुरू होने से ठीक पहले अचानक चुनाव प्रक्रिया रोकने से माली में लोकशाही के भविष्य पर संकट गहरा गया, लेकिन इस निर्णय से हतप्रभ विश्व समुदाय का भारत पर वहां जल्द लोकतंत्र स्थापित कराने में अहम भूमिका निभाने का दबाव बढ़ गया है।
       
मालदीव दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (दक्षेस) का सदस्य देश है और वहां 19 अकटूबर को चुनाव होना था। मतदान से ठीक एक घंटा पहले चुनाव आयुक्त फवाद तौफीक ने यह कह कर दुनिया को हतप्रभ कर दिया कि दो प्रत्याशियों द्वारा मतदाता सूची को सत्यापित नहीं करने और पुलिस का समर्थन नहीं मिलने के कारण चुनाव स्थगित कर दिया गया है। देश के सभी 200 द्वीपों में चुनाव की तैयारियां पूरी हो चुकी थी और मतदान केंद्रों पर मतदान पेटियां पहुंच चुकी थी, लेकिन मतदान प्रक्रिया शुरू होती, इससे पहले ही चुनाव रोक दिए गए।
       
मालदीव सरकार का यह फरमान पूरी दुनिया के लोकतंत्र प्रेमियों के लिए चौंकाने वाला था। भारत ने चुनाव रद्द किए जाने की कडी निंदा की है और वहां जल्द चुनाव कराए जाने की मांग की है। इसके लिए भारत ने एक तरह से लॉबिंग भी की है। विदेश सचिव सुजाता सिंह जिस उल्लास के साथ चुनाव प्रक्रिया को देखने के लिए माले गई थी, उससे कहीं अधिक मायूस होकर वह स्वदेश लौटी और उन्होंने विश्व के कई देशों के राजनयिकों से मुलाकात कर मालदीव की स्थिति से उन्हें अवगत कराया है।
       
भारत की सक्रियता से दुनिया की यह उम्मीद बंधी है कि मालदीव जल्द ही लोकतंत्र की राह पर लौट आएगा। सैकड़ों द्वीपों को मिलाकर बना यह देश दक्षेस का भी सदस्य है और इस समूह में भारत ही सबसे बडा राष्ट्र है, इसलिए नई दिल्ली पर दुनिया ने एक तरह से दबाव बनाना शुरू कर दिया है, कि वह मालदीव में लोकतंत्र की स्थापना में अपनी अहम भूमिका निभाए, ताकि वहां जल्द से जल्द चुनाव सुनिश्चित किए जा सकें।  
       
दुनिया की पांच बडी शक्तियों अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस तथा चीन के साथ ही जर्मनी ने भी भारत से कहा है कि वह मालदीव में चुनाव प्रक्रिया समय पर पूरी कराने के लिए काम करे। इन देशों के अलावा दक्षेस सदस्य बंगलादेश तथा श्रीलंका भी भारत पर यही उम्मीद लगाए बैठे हैं। ऑस्ट्रेलिया को भी उम्मीद है कि भारत की पहल पर माले की कुर्सी के लिए जल्द ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। मलेशिया और सऊदी अरब जैसे देशों ने भी इस मामले में भारत की तरफ उम्मीदभरी निगाह से देखना शुरू कर दिया है। चारों तरफ से भारत पर वहां लोकतंत्र की बहाली के लिए चुनाव प्रक्रिया जल्द शुरू कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने का दबाव लगातार बढ़ रहा है।
        
मालदीव में चुनाव प्रक्रिया रद्द किए जाने की अब तक स्पष्ट वजह सामने नहीं आई है। राष्ट्रपति पद के लिए नया चुनाव कब होगा, इस बारे में चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट की राय लेगा और उसके बाद ही चुनाव कराए जाएंगे। कोर्ट में प्रोग्रेसिव पार्टी ऑफ मालदीव तथा जमूहरी पार्टी ने चुनाव प्रक्रिया को लेकर अर्जी लगाई थी, लेकिन कोर्ट ने अर्जी पर दलील सुनने से यह कहते हुए मना कर दिया कि यह राष्ट्रीय मामला है और इसमें कोर्ट के सातों न्यायाधीशों की मौजूदगी जरूरी है। एक न्यायाधीश विदेश यात्रा पर हैं और उनके आने के बाद ही याचिका पर सुनवाई हो सकती है।
         
राष्ट्रपति मोहम्मद वहीद हसन का कहना है कि देश में 26 अक्टूबर तक चुनाव करा लिए जाएंगे। संविधान के अनुसार वहां अगले माह 11 नवंबर तक राष्ट्रपति को शपथ ग्रहण कर लेनी चाहिए, इसलिए 10 नवंबर तक चुनाव प्रक्रिया पूरी होनी जरूरी है। इससे पहले वहां सात सितंबर को दूसरी बार आम चुनाव कराए गए था, लेकिन किसी उम्मीदवार को जरूरी 50 फीसदी मत नहीं मिले, इसलिए 28 सितंबर को दूसरे चरण के मतदान कराने का फैसला किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद्द कर 20 अक्टूबर तक नया चुनाव कराने का आदेश दिया था, लेकिन शनिवार को चुनाव प्रक्रिया शुरू होती, उससे पहले ही चुनाव आयुक्त ने बताया कि पुलिस ने आयोग का काम रोक दिया है।  
      
मालदीव 1190 छोटे छोटे द्वीपों का देश है और वहां 200 द्वीपों पर आबादी बसी है। देश में 80 से अधिक रिसॉर्ट हैं। इस देश की अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से पर्यटन और मछली पकड़ने के व्यवसाय पर ही टिकी है। यह देश अंग्रेजों की दासता से 1965 में मुक्त हुआ और वहां की शासन व्यवस्था दूसरी सल्तनत के हाथों शुरू हुई।  
      
पहली बार 2008 में वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत चुनाव हुए और डॉक्टर मोहम्मद नशीद लोकतांत्रिक व्यवस्था से देश के पहले राष्ट्रपति चुने गए, लेकिन सात फरवरी 2012 को उपराष्ट्रपति वहीद ने तख्ता पलट करके उन्हें हटा दिया और स्वंय राष्ट्रपति बन गए। इसी बीच उन्होंने डॉक्टर नशीद को बंधक बनाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें वहां भारतीय दूतावास में शरण दी गई, ताकि मालदीव में लोकतंत्र फिर से शुरू किया जा सके। भारत की वहां बडी भूमिका है और विश्व समाज का मानना है कि माले में भारत की अहम भूमिका की वजह से लोकतंत्र स्थापित हो सकता है।
        
मालदीव राष्ट्रमंडल देशों का भी सदस्य है और अगले माह श्रीलंका में इन देशों के प्रमुखों की बैठक होनी है। इस बैठक में मालदीव की स्थिति पर गंभीरता से विचार विमर्श हो सकता है। इस बीच डॉक्टर नशीद ने भी विश्व समुदाय से मालदीव में लोकतंत्र की बहाली के लिए हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई है। पिछले माह हुए चुनाव में उन्हें बहुमत के लिए आवश्यक 50 प्रतिशत की तुलना में 45 फीसदी मत मिले थे, जबकि उनके निकटतम प्रतिद्वंद्वी को महज 25 प्रतिशत मत ही मिले थे।

(लेखक पत्रकार हैं और हिन्दुस्तान टाइम्स समूह से जुड़े हैं।)

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Ankur Vijaivargiya
Senior Correspondent
Hindustan Times Media Limited
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बॉस [हिंदी]

दो टूक :  कहते हैं रिश्ते वो नहीं होते जो खून से बनते हैं रिश्ते वो होते हैं जो खून में चढ़कर आपका साथ देते हैं . बस यही  छोटा सा सन्देश देती है निर्देशक अन्थोनी डिसूजा के साथ अक्षय  कुमार, अदिति राव हैदरी, शिव पंडि , मिथुन चक्रवर्ती, डैनी, जॉनी लीवर, परीक्षित साहनी,रोनित रॉय, आकाश दाद्भंडे, संजय मिश्रा, हैरी जोश,  गोविन्द नामदेव, मुकेश  तिवारी, गोविन्द नामदेव, सुदेश बेरी, शक्ति कपूर और सोनाक्षी सिन्हा के साथ प्रभु देवा के अभिनय वाली फिल्म बॉस भी यही कहानी कहती है.
 
कहानी : फिल्म की कहानी सूर्या उर्फ़ बॉस [अक्षय कुमार ] की है जो अपने पिता सत्याकांत  [मिथुन चक्रवर्ती]  के खिलाफ कुछ नहीं सुन सकता है और जो ऐसा करता है उसे वो सबक सिखा देता है . उसके पिता उसकी इस आदत से परेशां होकर उसे घर से निकाल देते हैं तो बिग बॉस [डैनी] उसे सूर्या को बॉस बनाकर गलत धंधों में लगा देते हैं। बॉस का एक छोटा भाई शिवा [ शिव पंडित ]  भी है, जो एक वर्दी वाले गुंडे आयुष्मान [रॉनित रॉय] की बहन अंकिता [ आदिती राव   हैदरी ] से प्रेम करता है।  इसके चलते आयुष्मान शिवा को मंत्री के बेटे विशाल [आकाश आकाश दाद्भंडे] के साथ प्रताड़ित  करता है तो हारकर आदर्शवादी पिता अपने बिगड़ैल बेटे बॉस की शरण लेता है। इसके बाद शुरू होती है बॉस की अपने भाई को मुक्त करने और पिता के लिए खुद को साबित करने की शुरुआत . फिल्म 2010 में आई मलयालम पोक्किरी राजा का रीमेक है जिसमें अक्षय कुमार की भूमिका ममूटी ने और शिव पंडित की भूमिका पृथ्वीराज ने निभाई थी। 

 गीत संगीत : फिल्म में कुमार , मनोज यादव , साहिल कौशल लील गोलू के  गीत और  संगीत मीत बंधुओं, यो यो हनी सिंह  भट्ट और पी ए दीपक का है लेकिन  गानों के नाम पर बॉस और पार्टी ऑल द नाइट को  छोड़ दें तो कोई गीत ऐसा नहीं है जो याद रखा जाये . हाँ एक गीत यहां जांबाज के गीत हर किसी को नहीं मिलता को जरुर आप एन्जॉय कर सकते हैं .

अभिनय : पहली बात . अक्षय फिल्म में उन्नीस मिनट बाद आते हैं और फिर पूर फिल्म में छाये रहते हैं लेकिन कुछ ऐसा नहीं करते जो नया है . सिर्फ उनकी भाषा , कपडे चल ढाल बदली है बाकी अंदाज नहीं . अब कोई हिरोइन नहीं है सिर्फ नायक ही नायक .अदिति ठीक हैं लेकिन अदिति के पास अभिनय के नाम पर दो-तीन रोमांटिक गाने, कुछ बिकिनी दृश्य  ही हैं और सोनाक्षी बस नाम को है . डैनी कमाल करते हैं हर बार और वो अपनी भूमिका को ईमानदार से निभा देते हैं और मिथुन भी . रोनित रॉय नए अंदाज में खलनायकी करते हैं और अक्षय को टक्कर देते हैं . शिव पंडित ठीक हैं और गोविन्द नाम देव के साथ  मुकेश  तिवारी , सुदेश बेरी , शक्ति कपूर निराश नहीं करते.

निर्देशन : कायदे से देखा जाए तो बॉस में कुछ भी नया नहीं है सिवाय इसके की उसे नए मसालों और तकनीक  साथ हमारे सामने परोस दिया गया है . फिल्म में नायक के एक्शन , हजारों बार दोहराए  जा चुके फारुमुले , तेज संगीत, बेवजह संवादों में आने वाले चुटकुले , बदमाशों की पिटाई, कॉमेडी, कैमरे के कमाल  सब कुछ है लेकिन कहानी नहीं  है यही कारण है क फिल्म में पिता पुत्र के रिश्ते को लेकर  गढ़ी गयी कहानी में भी कोई गति और स्वाभाविकता नहीं आ आ पायी है . भद्दे मजाक, फूहड़ संवाद और कई पुरानी लेकिन दक्षिण की रिमेक्स की तरह बॉस बहुत प्रभाव नहीं छोड़ते . फिर भी आप चाहें तो अक्की बॉस की ये फिल्म देख  लें.

फिल्म क्यों देखें : अक्षय और उनके हरियाणवी अंदाज के लिए .
फिल्म क्यों न देखें : अब महंगी फिल्म को क्यों घाटे में ले जाएँ .एक बार देख लें . 

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इंडियन ऑइल कर्मचारी संघ द्वारा अशोका विजयादशमी पर नागपुर में सेवा कार्य

<p><span style="line-height:1.6em">मुंबई। महामानव परम पूज्य डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने देश के तमाम गरीबों का दु:ख निवारण करते हुए &nbsp;द्रारिद्र, विषमता जाति-भेद आदि को खत्म करने के लिए अहिंसा के मार्ग से क्रांति करके, बौध्द धर्म का स्वीकार किया| &nbsp;14 अक्टूबर अशोका विजयादशमी के दिन मानव मुक्त्ति का मार्ग दिखानेवाले और कोटि-कोटि दलित समाज के जीवन में प्रगति, कल्याण लाने के लिए, &nbsp;उनके योगदान प्रति कृतज्ञता भाव &nbsp;प्रगट करने के उद्देश से उनके क्रांति के प्रति स्मरण और उनके स्मृति को अभिवादन करने के लिए सारे देशभर से लाखों &nbsp;की तादाद में लोग दीक्षाभूमि नागपुर में आते है | इन सभी लोगों को अत्यावश्यक सेवा, सुविधा सरकार उपलब्ध कराती है | विविध कामगार संघटन जैसे सामाजिक संगठन, अनाज, जल और मेडीकल सेवाएं उपलब्ध कराती है|</span><br />
&nbsp;<br />
इंडियन ऑयल कंपनी और इंडियन ऑयल रिज़्व्हर्ड कॉटेगरीज एन्ड मॉयनोरिटीज एम्प्लाईज असोसिएशन के सहयोग से इस साल दि. 13 अक्टूबर को दीक्षाभूमि, नागपुर में मुफ्त चश्मा वितरण, चिकित्सा सेवा भोजन सेवाएं उपलब्ध कराएगी|</p>

<p>इस सेवा के लिए इंडियन ऑईल कं. लि. के तरफ से रु. 1,00,000/- (रु.एक लाख मात्र) का योगदान प्राप्त हुआ है | हम कंपनी के श्री एस. कृष्णाप्रसाद, मुख्य लाईसन अधिकारी एस सी /एस टी, श्री एस.एस. बेदी, कार्यकारी निदेशक (मानव संसाधन), श्री एस. सतीया वाघेश्वरन, महाप्रबंधक (मानव संसाधन), श्री एम कालीकृष्णा (सी.सी) इनके आभारी है |</p>

<p><span style="line-height:1.6em">सदर कामगार संघटन के राष्ट्रीय महासचिव राष्ट्रपाल बौध्द, श्री संदेश घोलप, श्री शाम कांबळे, श्री विश्वास आढाव, श्री राम आरोळकर, श्री सुरेंद्र माने, श्री एस साळवे, श्री एस एस तागडे, श्री एल सी आवळे, श्री एम एस भिडे, श्री संतोष राकटेके, श्री एस रंगारी, श्री पराग डोंगरे, श्रीमती स्मिता कांबळे सभी कार्यकर्ताओं ने कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए महत्त्व पूर्ण योगदान दिया |</span></p>
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नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में आएंगे 10 हजार एनआरआई

<p><span style="line-height:1.6em">एनआरआई इस बार जाड़े की छुट्टियां भारत में मनाने का मूड बना रहे हैं। इस बार का जाड़ा उनके लिए कुछ अलग होगा और बड़ी संख्या में देश आने वाले एनआरआई एक गंभीर बिजनस यानी नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में वॉलनटिअरी शिरकत करेंगे। एनआरआई ऑर्गेनाइजेशंस से ईटी को मिली जानकारी के अनुसार, अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप और साउथ ईस्ट एशियाई देशों के करीब 10,000 एनआरआई मोदी के चुनाव प्रचार में अलग-अलग तरीके से योगदान करेंगे। इसीलिए वे दिवाली और दूसरी छुट्टियों को फिलहाल टाल रहे हैं।&nbsp;</span></p>

<p>इनमें से कुछ लोग अपने पैतृक गांव और शहर में जाकर बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के लिए कैंपेन करेंगे, तो कुछ लोग मोदी की टीम में शामिल होकर काम करेंगे। &nbsp;सिंगापुर में काम करने वाली एडिक्शन काउंसलर स्मिता बरूआ भी जनवरी से तीन महीने की छुट्टी भारत आने का प्लान कर रही हैं। वह भारत में आकर बीजेपी के लिए कैंपेन करेंगी। भारतीय अमेरिकी बिजनसमैन चंद्रकांत पटेल भी छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और दिल्ली में अगले महीने होने वाले विधानसभा चुनावों के दौरान होंगे। यह अमेरिका में बीजेपी के ओवरसीज फ्रेंड्स के हेड हैं। वह कहते हैं कि अगले साल होने वाले चुनाव में 5,000 भारतीय अमेरिकी भारत आएंगे।</p>

<p>वे कहते हैं, &#39;हमारी युवा टीम अमेरिका में लाखों भारतीयों को अपने को बतौर वोटर रजिस्टर करने के लिए सेंसेटाइज कर रही है, ताकि वे चुनाव के समय भारत में रहकर वोट डाल सकें।&#39; &nbsp;ब्रिटेन से करीब 3,500 एनआरआई आम चुनाव के दौरान भारत आने की प्लान बना रहे हैं। बीजेपी के ओवरसीज फ्रेंड्स के जनरल सेक्रटरी (ब्रिटेन और यूरोप) अमित तिवारी ने बताया, &#39;हममें से अधिकतर लोग दिसंबर के सालाना विजिट को टाल रहे हैं, ताकि चुनाव के समय मोदी के कैंपेन के लिए मौजूद रह सकें।&#39; तिवारी एनआरआई को स्थानीय और क्षेत्रीय बीजेपी वर्कर्स के साथ काम करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।&nbsp;</p>

<p>मोदी के कैंपेन में शामिल होने वाले इन एनआरआई की अप्रत्याशित भागीदारी को किस तरह देखा जा सकता है? एनआरआई और कमेंटेटर मेघनाद देसाई कहते हैं, &#39;यह चेतन भगत की पीढ़ी के हैं। यह बदलाव चाहते हैं। मोदी को एनआरआई बदलाव करने की क्षमता को बढ़ाने वाले के रूप में देखते हैं।&#39; समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता कहते हैं, &#39;विदेशों में रह रहे बीजेपी के कट्टर समर्थक कथित तौर पर कॉर्पोरेट फ्रेंडली हैं और अधिकतर माइग्रेंट भारतीय कॉर्पोरेट अमेरिका से उनके असोसिएशन का फायदा उठाते हैं। इस वजह से वे ज्यादा अपीलिंग लगते हैं।&#39;</p>

<p>साभार-इकॉनामिक्स टाईम्स से&nbsp;</p>
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मोबाईल कंपनियों ने इंटरनेट सेवा महंगी की

<p><span style="line-height:1.6em">प्रमुख दूरसंचार कंपनियों एयरटेल, आइडिया सेल्युलर व वोडाफोन ने २जी मोबाइल इंटरनेट के कुछ चुनिंदा प्लान्स महंगे कर दिए हैं। इन प्लान्स पर डाउनलोडिंग की सीमा या प्लान की वैधता घटा दी है, जिससे ग्राहकों को इंटरनेट का इस्तेमाल महंगा पड़ेगा। अपनी बिक्री और मुनाफा बढ़ाने के लिए कंपनियों ने यह कदम उठाया है।&nbsp;</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">अब दिल्ली में १ जीबी डेटा यूज के लिए एयरटेल के ग्राहकों को १५६ रुपए व आइडिया के ग्राहकों को १५४ रुपए देने होंगे, जो कि पहले १२५ रुपए में मिलता था। इस प्लान की वैधता २८ दिन की है। वोडाफोन के ग्राहकों को १ जीबी डेटा यूज के लिए १५४ रुपए देने होंगे और इस प्लान की वैधता ३० दिन की होगी। एयरटेल ने दिल्ली में ९८ रुपए वाले पैक की वैधता २८ दिन से घटाकर १४ दिन कर दी है और इसपर डेटा यूसेज लिमिट भी कम कर दी है। अब १२५ रुपए वाले प्लान में सिर्फ ५२५ एमबी की डाउनलोडिंग मिल सकेगी। इसी तरह मुंबई में १ जीबी का पैक एयरटेल व आइडिया पर १५४ रुपए में व वोडाफोन पर १५५ रुपए में मिलेगा, जो ३० दिन तक वैध होगा। हालांकि कंपनियों ने यह नहीं बताया है कि बदली हुई दरें कब से लागू होंगी। भारत के मोबाइल इंटरनेट बाजार में इन तीन कंपनियों की सम्मिलित हिस्सेदारी ५३ प्रतिशत है।</span></p>

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हरियाणा के राज्यपाल पहाड़िया ने नयपद्म सागर महाराज से मुलाकात की

मुंबई। हरियाणा के राज्यपाल महामहिम जगन्नाथ पहाड़िया ने मुंबई में विख्यात जैन संत नयपद्म सागर महाराज से मुलाकात की एवं उनसे आशीर्वाद लिया। इस अवसर पर नयपद्म सागर महाराज ने देश में त्वरित न्याय प्रक्रिया शुरू करने पर बातचीत की तथा कानून एवं व्यवस्था को और अधिक समृद्ध बनाने पर राज्यपाल श्री पहाड़िया से चर्चा की।

ताड़देव स्थित अरविंद कुंज में चातुर्मास पर बिराजमान नयपद्म सागर महाराज के दर्शन के लिए आए राज्यपाल जगन्नाथ पहाडिया का ट्रस्ट मंडल की तरफ से बाबूलाल वर्धन, गोरखचंद संघवी एवं दलीचंद जैन ने साफा, हार एवं तिलक लगाकर स्वागत किया गया। इस अवसर पर सोमतमल दोशी, पृथ्वीराज कोठारी, राजेश वर्धन, नेमीचंद संघवी, मनोहर कानूंगो, सुरेश सेठ, नरेंद्र भंडारी, अनिल डिंपल, दूधराज मेहता, मुकेश दोशी एवं कई अन्य प्रमुख लोगों ने राज्यपाल की अगवानी की। राज्यपाल और जैन संत नयपद्म सागर महाराज के बीच करीब एक घंटे तक चली बातचीत के दौरान पर्यावरण, सामाजिक सुरक्षा, परस्पर सहयोग, एवं राजनीति में शुद्धता आदि विभिन्न विषयों पर दोनों के बीच चर्चा हुई। नयपद्म सागर महाराज ने पर्यावरण के प्रति सरकारी प्रयासों को और अधिक ज्यादा सजग बनाने पर भी राज्यपाल से चर्चा की। उन्होंने वर्तमान परिदृश्य में देश की प्रगति के लिए सरकार के प्रयासों में और तेजी लाने के लिए प्रदेशों की सरकारों को अतिरिक्त कोशिश करने पर भी उनसे बातचीत की। इस अवसर पर राज्यपाल पहाड़िया के राजस्थान के मुख्यमंत्री एवं केंद्र में वित्त राज्य मंत्री रहते हुए किए गए जनसेवा के कार्यों की नयपद्म सागर महाराज ने सराहना भी की। 

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भारतीय पत्रकारिता का एक शर्मनाक और काला चेहरा!

ये कहानी भारतीय पत्रकारिता के उस काले चेहरे की कहानी है, जिस चेहरे को स्वर्गीय रामनाथ गोयनका शायद स्वर्ग में बैठकर कभी पढ़ना नहीं चाहेंगे या कभी जानना नहीं चाहेंगे। देश के एक वरिष्ठ पत्रकार ने मुझसे कहा कि अगर आज श्री रामनाथ गोयनका ज़िंदा होते, तो या तो अपने संपादक को बर्ख़ास्त कर देते और अगर नहीं कर पाते तो मुंबई के एक्सप्रेस टावर के पेंट हाउस से नीचे छलांग लगाकर अपनी जान दे देते। स्वर्गीय श्री रामनाथ गोयनका ने जिस आदर्श को छुआ था, वो आदर्श प्रो-पीपुल जर्नलिज़्म का अद्भुत उदाहरण था। रामनाथ गोयनका ने अपने अख़बार के ज़रिये भारतीय पत्रकारिता की ऐसी ऊंचाइयां छुई थीं, जिनका लोग हमेशा उदाहरण देते थे।

 

उन्होंने कभी हथियारों के दलालों, पूंजीपतियों, सत्ताधीशों के पक्ष की पत्रकारिता नहीं होने दी। इसीलिए उनके समय के संपादकों के नाम भारतीय पत्रकारिता के इतिहास के जगमगाते हुए पन्ने हैं। लेकिन आज क्या हो रहा है। विवेक गोयनका रामनाथ गोयनका के उत्तराधिकारी हैं। विवेक गोयनका अपने अंग्रेज़ी अख़बार में पत्रकारिता के आदर्शों की धज्जियां उ़डते हुए देखकर अगर चुप हैं, तो इसका मतलब है कि विवेक गोयनका में रामनाथ गोयनका का अंशमात्र भी, सम्मान के लिए ल़डने की ताकत का अंश नहीं बचा है। ये पत्रकारिता जर्नलिज़्म ऑफ़ करेज नहीं है, जर्नलिज़्म ऑफ़ करप्शन है, जर्नलिज़्म ऑफ़ दलाली है, जर्नलिज़्म ऑफ़ टीनेशनलिज़्म है।

 

ये स़ख्त शब्द हमें इसलिए कहने प़ड रहे हैं, क्योंकि एक समय पत्रकारिता के महानायक के पद पर बैठा हुआ श़ख्स अगर अपराध-नायक बनने की तरफ़ ब़ढने लगे और सत्ता में बैठे अपने दोस्तों के ज़रिये पैसे कमाने लगे और अख़बार का इस्तेमाल देशद्रोही ताक़तों को मदद पहुंचाने के लिए करने लगे, तो लिखना ज़रूरी हो जाता है। ये कहानी भारतीय पत्रकारिता के दूसरे अख़बारों के संकोच की कहानी भी है, कम हिम्मत की कहानी भी है और हमारे आज के राजनीतिक दौर में किस तरह देशप्रेम, देशभक्ति एक तरफ़ रख दी जाती है और किस तरह देशद्रोह को आदर्श मान लिया जाता है, उसकी कहानी भी है।

 

ये कहानी शुरू होती है, जब जनरल वी. के. सिंह भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष बने। जब जनरल वी के सिंह भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष बने थे, उस समय भारतीय सेना में ख़रीदे जाने वाले हर हथियार के पीछे हथियारों के सौदागरों की भूमिका थी। हथियारों से संबंधित लॉबी साउथ ब्लॉक में टहलती रहती थी। देश के कुछ ब़डे नाम देश की सेना को सप्लाई होने वाले हर हथियार के ऊपर असर डालते थे। उनके पास रक्षा मंत्रालय से और भारत की सेना से जानकारियां पहुंच जाती थीं कि रक्षा बजट में हथियारों की ख़रीद का कितना प्रतिशत हिस्सा है और उसके हिसाब से वो योजना बनाने लगते थे। वो जानते थे कि युद्घ नहीं होने वाला है, इसलिए भारत की सेना को उन्होंने घटिया हथियारों की आपूर्ति की।

 

भारतीय सेना हथियारों के दलालों के जाल में इस कदर जक़डी हुई थी कि चाहे वो टाट्रा ट्रक हों, चाहे वो राइफलें हों, चाहे वो तोपें हों या चाहे गोला-बारूद हो, हर जगह सब-स्टैंडर्ड सामान भारत की सेना में आ रहा था। जनरल वी के सिंह ने इस स्थिति के ख़िलाफ़ कमर कसी और उन्होंने ऐसे नियम बनाने शुरू किए, जिन नियमों की वजह से हथियारों के दलालों को अपना काम करना मुश्किल लगने लगा। जनरल वी के सिंह द्वारा उठाए गए क़दमों ने उन लोगों को असहज कर दिया, जो लोग भारत की सेना को बेचे जाने वाले हथियारों से फ़ायदा उठाते थे।

 

जनरल वीके सिंह द्बारा किया गया ट्वीट �शेखर गुप्ता की कंपनी का डाटा: वे और उनकी पत्नी नीलम जॉली ने 2002 में ग्रीनपाइन एग्रो प्राइवेट लिमिटेड नाम से एक कंपनी शुरू की। ग्रीनपाइन पति-पत्नी द्वारा शुरू की गई कंपनी है। उनकी कंपनी कॉमनवेल्थ खेलों में भी भागीदारी कर रही थी। सालों तक इसका कोई रिकॉर्ड दर्ज नहीं हुआ। 2003 से 2009 तक सारे रिकॉर्ड रिटर्न ऑन कैपिटल के साथ 2010 में दर्ज किए गए और चालू वर्ष मई 2010 में दर्ज किया गया। शेखर गुप्ता ने ईईएस (इंटरप्राइज एम्प्लॉय सिनर्जी) जमा करके अगस्त, 2010 में कंपनी बंद कर दी। इसके बाद सभी अकांउट में हेरफेर कर दिया गया।

 

2002 में उन्होंने एक लोन लिया। यह मात्र 12 लाख रुपये का था, जबकि इस दौरान उन्होंने दो एक़ड के तीन फार्म खरीदे। अगस्त, 2010 में उन्होंने कंपनी बंद कर दी। बैलेंस सीट दिखाती है कि 2004 में उन्होंने 45 लाख का अनसेक्योर लोन लिया, लेकिन बाद में फार्म हाउस के मामले में बैलेंस सीट्स को साफ कर दिया गया। तमाम खोजी रिपोर्ट छापने वाले संपादक ने आठ साल बाद 18 जनवरी, 2010 को एक बैलेंस सीट फाइल की।दिल्ली में मालचा रोड पर 55 करो़ड का मकान (यह ज्यादा का भी हो सकता है) हो सकता है उन्हें यूपीए सरकार के लिए काम करने के लिए मिला हो।

 

इसमें कोई शक नहीं है कि जो लोग कांग्रेस के निर्लज्ज भ्रष्टाचार के खिलाफ ल़ड रहे हैं, उन पर झूठे आरोप लगाने के लिए शेखर गुप्ता इंडियन एक्सप्रेस को एक माध्यम के रूप में इस्तेमाल करते हैं।

 

ये रिपोर्ट, जो हम आपके सामने रख रहे हैं, ये रिपोर्ट न तो जनरल वी के सिंह ने हमें बताई और न ये रिपोर्ट सेना के देशभक्त अफसरों द्वारा लीक की गई। ये रिपोर्ट हमारी छानबीन का नतीजा है, जो हम भारत के पाठकों के सामने इस आशा से रख रहे हैं कि अगर भारत की जनता इस बात को जान जाएगी, तो कम से कम हम अपने उस कर्तव्य का पालन कर पाएंगे, जो एक पत्रकार को करना चाहिए। जनरल वी के सिंह से पहले जितने जनरल हुए, उन्होंने सेना के जवानों में या भारत की पूरी सेना में हौसला भरने का काम पूरे तौर पर नहीं किया। एक बार तो सेना में ये स्थिति आ गई थी कि मनोवैज्ञानिक रूप से सिपाही और अफसर आपस में ही ल़डने लगे थे। आठ महीने से ज़्यादा चीन बॉर्डर के ऊपर भारत की सेना बिना किसी लक्ष्य के बैठा दी गई थी।

 

हमारी जानकारी के हिसाब से जब जनरल वी के सिंह भारत के सेनाधयक्ष बने, तो उनके सामने हथियारों के दलालों को रक्षा मंत्रालय में घुसने से रोकना एक काम था, वहीं दूसरा काम भारत की सीमाओं को भारत के प़डोसियों से सुरक्षित रखना था। भारत में तीन तरफ़ की सीमाओं से घुसने के रास्ते बने हुए थे। आतंकवादी पाकिस्तान की तरफ़ से, नेपाल की तरफ़ से और बांग्लादेश की तरफ़ से हिंदुस्तान में घुसते थे। कभी कुछ पक़डे जाते थे, कुछ मारे जाते थे, लेकिन ज़्यादातर घुस आते थे। जनरल वी के सिंह के सामने शायद ये ब़डा प्रश्‍न था कि हमारी सेना के ऊपर हमले न हों और हमारी सीमाएं चाक-चौबंद, सिपाहियों की निगरानी में हों।

 

मुंबई हमले के बाद ऐसे किसी खतरे से निपटने के लिए रणनीति की जरूरत महसूस हुई और जनरल वी के सिंह ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की सलाह और रक्षा मंत्री के आदेश पर भारतीय सेना में एक जांबाज़ यूनिट बनाई, जिसका नाम टेक्निकल सर्विसेज डिवीज़न रखा। टीएसडी इस डिवीज़न का शॉर्ट नाम है, जिस तरह रिसर्च एंड एनालिसिस विंग का शॉर्ट नाम रॉ है। रिसर्च एंड एनालिसिस विंग हमारे देश की ऐसी ख़ुफ़िया एजेंसी है, जो विदशों में काम करती है और विदेशी जानकारी भारत सरकार को देती है। विदेशों में भारत के हितों को लेकर जासूसी करना जिस तरह भारत का अधिकार है, उसी तरह से दूसरे देशों का अपने देश के लिए जासूसी करना उनका अधिकार है। उनके जासूस हमारे देश समेत कई देशों में बिखरे पड़े हैं और हमारे जासूस भी प़डोसी देशों सहित कई देशों में बिखरे पड़े हैं। जासूस पक़डे भी जाते हैं, जासूस ख़बरें भी भेजते हैं, उन ख़बरों में जो देश की सुरक्षा से जुडी ख़बरें होती हैं, उन ख़बरों के ऊपर अमल होता है और बाक़ी ख़बरें रद्दी की टोकरी में डाल दी जाती हैं।

 

जनरल वीके सिंह ने टीएसडी को इसी तर्ज पर बनाया। सेना की मजबूरी होती है कि वो तभी आगे ब़ढ पाती है जब उसे आदेश मिलता है। लेकिन टीएसडी इस तर्ज पर बनाई गई कि हमारी सीमाएं भी सुरक्षित रहें और हमारी सेना भी सुरक्षित रहें। टीएसडी का टास्क, पाकिस्तान का बॉर्डर, नेपाल का बॉर्डर, बांग्लादेश का बॉर्डर और इन बॉर्डर पर हमारे जवान, न प़डोसी देशों के सेना के सीधे निशाने पर आएं और न इन देशों से होकर हमारे देश में घुसने वाले आतंकवादियों के निशाने पर आएं, ये इस डिवीज़न का टास्क था। इस डिवीज़न को यह आदेश नहीं था कि वो दूसरे देश में घुसकर कोई ऐक्शन ले। इस डिवीज़न की ज़िम्मेदारी थी कि वो हमारी सीमावर्ती हिस्से के आसपास अगर कोई गतिविधियां हो रहीं हैं तो उन गतिविधियों को रोकने में अपने जान की बाज़ी लगा दें, ताकि सेना तब तक चौबंद होकर, अगर उसे आदेश मिलता है तो अपने टास्क की पूर्ति करे।�

 

टीएसडी की गतिविधियों से भारत में घुसपैठ कम हुई। जब टीएसडी की गतिविधियों की वजह से पाकिस्तान और चीन परेशान होने लगे, तो उन्होंने भारत में अपने एजेंटों से टीएसडी के बारे में जानकारी हासिल की। जनरल वीके सिंह ने टीएसडी को इस अंदाज में बनाया था कि टीएसडी के बारे में कोई जानकारी पाकिस्तान और चीन को नहीं मिल पा रही थी। टीएसडी है ये तो पता चल रहा था, लेकिन टीएसडी के कार्य करने की शैली, टीएसडी में कौन अफसर और जवान हैं, उनके टारगेट्स क्या-क्या क्या हैं। उनको ऑर्डर कौन देता है। उनके पास हथियार क्या-क्या हैं। इसको लेकर के पाकिस्तान और चीन में बहुत बडा भ्रम था। चूंकि उन्हें कोई जानकरी नहीं मिल पा रही थी, इसलिए उनके स्थानीय एजेंट उन दोनों सरकारों को डरा रहे थे। उन्होंने टीएसडी को एक हौवा बनाकर अपनी सरकारों को इसलिए बताया क्योंकि उनके पास सचमुच कोई ख़बर थी ही नहीं। पर उन्हें कोई न कोई ख़बर तो भेजनी ही थी।

 

टीएसडी पाकिस्तान और चीन के लिए एक डरावना हौवा बन गया और दोनों सरकारों को और दोनों सेनाओं को जब कुछ पता नहीं चला, तो इस बीच हथियारों के दलालों ने जनरल विजय कुमार सिंह की तस्वीर बर्बाद करने की सारी कोशिशें शुरू कर दीं। इन कोशिशों में जनरल वी.के. सिंह की उम्र का विवाद देश में उछाला गया। जनरल वीके सिंह की उम्र के विवाद की भी यह विडंबना है कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय जनरल वीके सिंह के हाईस्कूल के सर्टीफिकेट में लिखी हुई उम्र प्रामाणिक नहीं मानता, लेकिन रेप केस में सबसे ज़्यादा रोल निभाने वाले एक अपराधी के बालिग या नाबालिग होने के विषय में हाईस्कूल के जन्म प्रमाणपत्र को सही मानता है। शायद भारत के सुप्रीम कोर्ट को ही ऐसा अंतर्विरोध शोभा देता है। जनता में इस फैसले की थू-थू भी हुई, पर हथियारों के सौदागरों ने, जिनमें सेना के कुछ ब़डे अफसर भी शामिल थे, �कुछ राजनीतिक नेताओं का साथ लेकर एक अख़बार के ज़रिये इस मुद्दे पर जनरल वीके सिंह के ख़िलाफ़ अभियान चला दिया।�

 

इस बीच जनरल वीके सिंह रिटायर हो गए, लेकिन जनरल वीके सिंह ने जो क़दम उठाए थे, उन क़दमों से सेना के भीतर हथियारों के दलालों का काम, जहां एक तरफ़ मुश्किल हुआ, वहीं अभी भी टीएसडी को लेकर पाकिस्तान और चीन के मन में भयानक डर बैठा हुआ था। वे किसी भी तरह से टीएसडी की जानकारी चाहते थे और टीएसडी को डिफंक्ट करना चाहते थे। रामनाथ गोयनका के इस अख़बार ने इस काम में हथियारों के दलालों की और पाकिस्तान तथा चीन की ज़बरदस्त मदद की। इस अखबार ने इस तरह की ख़बर अपने पहले पन्ने पर, पहली हेडिंग केसाथ छापी कि जनरल वीके सिंह इस देश में लोकतंत्र को ख़त्म कर सेना का शासन स्थापित करना चाहते थे। और जिसके लिए उन्होंने सेना की दो टुक़िडयों को दिल्ली की तरफ़ कूच करने का आदेश दे दिया था।

 

जनरल वीके सिंह इस ख़बर के छपने के समय सेना अध्यक्ष थे। और ये वार बहुत ख़तरनाक वार था। इस वार की असली कहानी यह है कि रामनाथ गोयनका जी के अख़बार के संपादक ढाई घंटे से ज़्यादा जनरल विजय कुमार सिंह के सरकारी आवास आर्मी हाउस में रहे, उनके साथ उन्होंने दोपहर का खाना खाया। एक-एक सवाल उन्होंने पूछा और सवाल पूछने के लिए उन्होंने एक मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार किया। उन्होंने कहा, कि उनका भारतीय सेना से काफ़ी पुराना रिश्ता है, अगर मैं भूल नहीं रहा हूं तो ये कहा कि उनके भाई भी सेना में हैं। अपने रिश्तेदारों के नाम गिनाए। किस कोर, किस डिवीज़न में हैं, इसके नाम गिनाए। कुछ कहानियां बताईं कि किस तरी़के से उनके साथ सेना की स्मृतियां जु़डी हुई हैं। और इसके बाद उन्होंने इन ट्रूप्स के दिल्ली कूच करने की हकीक़त पूछी। जनरल वीके सिंह ने उन्हें एक-एक चीज़ बताई कि किस तरह की यह रूटीन एक्सरसाइज़ है और दिल्ली के आसपास कुछ टुक़िडयां इसलिए रहती हैं, ताकि अगर दिल्ली में कहीं कुछ हो जाए, जैसे बंबई में 26-11 को हुआ था, तो सेना की टुकडियां इतनी दूर पर रहें कि वो दो घंटे के भीतर दिल्ली पहुंच सकें। और टाइम-टू-टाइम ये एक्सरसाइज होती रहती है कि अगर दिल्ली में कुछ होता है तो राजधानी को बचाने के लिए सेना कितनी तेज़ी से स्ट्राइक कर सकती है। और ये हर मौसम में होता है। चाहे गर्मी हो, बरसात हो, धुंध हो। उस बार की एक्सरसाइज धुंध में हुई थी।

 

लेकिन दूसरे दिन, एक दिन छो़डकर उसके अगले दिन इंडियन एक्सप्रेस के महान संपादक शेखर गुप्ता ने अपने एक रिपोर्टर के नाम से स्टोरी छापी कि भारत की सेना जनरल वीके सिंह के आदेश पर सत्ता पर कब्ज़ा करना चाहती है। रामनाथ गोयनका के वारिस विवेक गोयनका के अख़बार में त़ख्तापलट की कोशिश के बारे में जब रिपोर्ट छपी तो उसका सबसे काला अध्याय ये था कि इसके संपादक ने ये नहीं बताया कि वो कुछ घंटे पहले भारत के सेनाध्यक्ष के साथ दोपहर का खाना खाकर आया है और उसने ये सारे सवाल भारत के सेनाध्यक्ष से पूछे और सेनाध्यक्ष ने न केवल उनका खंडन किया, बल्कि विस्तार से बताया कि ये सारी चीज़ें क्यों होती हैं।

 

अगर संपादक, जिसे ये सारी जानकारी संबंधित व्यक्ति से मिली थी, तो उस रिपोर्ट में ये लिख सकता था कि हमारा ये मानना है कि त़ख्तापलट की कोशिश हुई, लेकिन भारत के सेनाध्यक्ष ने इससे सिरे से इन्कार किया और आर्मी की कंपनियों के मूवमेंट के भी कारण बताए। ये न लिखना इस अख़बार की पत्रकारिता के सिद्घांतों को तिलांजलि देना है और ये जर्नलिज़्म ऑफ कावर्डनेस, जर्नलिज़्म ऑफ झूठ, जर्नलिज़्म ऑफ करप्शन, जर्नलिज़्म ऑफ एंटीनेशनलिज़्म कहलाता है या कहा जा सकता है।�

 

इस रिपोर्ट को सरकार ने हास्यास्पद क़रार दिया। विपक्ष ने हास्यास्पद क़रार दिया। सेना के रिटायर्ड जनरलों ने हास्यास्पद क़रार दिया। लेकिन ये अख़बार इतना बेशर्म हो गया कि उसने इस रिपोर्ट पर माफ़ी तक नहीं मांगी। एक सबूत अख़बार के पास नहीं और अख़बार ने हिंदुस्तान के लोकतंत्र को समाप्त करने की सेना की साज़िश की ख़बर भारत में फैला दी। हर तरफ़ इस रिपोर्ट को लेकर थू-थू हुई। लेकिन ये अख़बार अपनी इस रिपोर्ट पर क़ायम रहा। मज़े की चीज़ ये है कि इस अख़बार ने भारत के राजनीतिक तंत्र के उन लोगों के नाम नहीं छापे, जिन्होंने उसकी इतनी ब़डी रिपोर्ट छपने के बाद क्यों सेना के उन अफसरों के ऊपर और जनरल वीके सिंह के ऊपर कार्रवाई नहीं की, जिन्होंने अख़बार के अनुसार दिल्ली की सत्ता पर कब्ज़ा करने की कोशिश की थी? क्या इस त़ख्तापलट की योजना में ख़ुद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री शामिल थे? अपने ही ख़िलाफ़ वो कुछ करना चाहते थे? या वो इतने ग़ैर-ज़िम्मेदार प्रधानमंत्री और गृहमंत्री थे, जिन्होंने इतनी ब़डी रिपोर्ट के छपने के बाद कुछ नहीं किया?दरअसल, आज़ाद हिंदुस्तान की ये सबसे घटिया और सनसनीख़ेज रिपोर्ट थी।

 

सनसनीख़ेज इस मामले में, क्योंकि ये पूरी तौर पर हथियारों के दलालों और इस अख़बार के विदेशी संपर्कों के इशारे पर लिखी हुई भारत की सेना को बेइज़्ज़त करने वाली रिपोर्ट थी। इसके बाद, इस अख़बार ने टीएसडी का सवाल उठाया। मूर्खता भरी रिपोर्ट विवेक गोयनका का अख़बार ही छाप सकता है, जिसने लिखा कि जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार को उखा़डने के लिए एक करो़ड 19 लाख की रिश्‍वत जम्मू-कश्मीर के एक मंत्री को दी गई। भारत के एक मंत्री गुलाम नबी आज़ाद ने साहसिक काम किया और उन्होंने कहा, ऐसा कोई काम नहीं हुआ है, न कोई राज्य सरकार को उखा़डने की कोशिश हुई है और यह रिपोर्ट ठीक वैसी ही हास्यास्पद और बेसलेस है, जैसी भारत की सत्ता पर सेना के कब्ज़ा करने की रिपोर्ट थी और ये दोनों रिपोर्ट एक ही अख़बार ने छापी।

 

आख़िर ये रिपोर्ट रामनाथ गोयनका के वारिस विवेक गोयनका के अख़बार में ही क्यों छप रही हैं? इसलिए छप रही हैं, क्योंकि इस अख़बार के संपादक और इस अख़बार के पत्रकारों के रिश्ते हथियारों के दलालों से हैं। इनके रिश्ते चीन और पाकिस्तान की उन ताक़तों से हैं, जो टीएसडी से भयभीत थे। इन्होंने दबाव डालकर टीएसडी को बंद करने का ़फैसला करवाया। टीएसडी के बंद होने के फैसले ने ही इन्हें संतुष्ट नहीं किया। ये टीएसडी में कौन-कौन अफसर और जवान शामिल थे, उनके नाम जानना चाहते थे और ये अख़बार देशद्रोही गतिविधियों का ऐसा हिस्सा बन गया कि वह हमारे जवान और अफसरों की जान का दुश्मन बन गया। वो इन सारी चीज़ों के ख़ुलासे की मांग करने लगा, ताकि अफसरों की और टीएसडी में शामिल सभी लोगों की कार्यप्रणाली भी सामने आए, उनके नाम भी सामने आएं ताकि आसानी के साथ पाकिस्तान और चीन के जासूस उनकी हत्या कर दें।

 

विवेक गोयनका के इस अख़बार ने देशद्रोही पत्रकारिता की ये सर्वोच्च मिसाल कायम की। भारत सरकार के मंत्रियों में भी, हथियारों के दलालों से और उन दलालों के ज़रिये चीन और पाकिस्तान से रिश्ता रखने वाले कुछ मंत्रियों का एक ग्रुप है, जो ग्रुप टीएसडी को लेकर और जनरल वीके सिंह द्बारा बनाए गए नियमों को समाप्त करवाना चाहता है। ये अख़बार, अख़बार के संपादक इस गिरोह के कोर कमेटी का हिस्सा दिखाई दे रहे हैं।

 

कुछ आंकड़े गौर करने लायक हैं। जनरल वी के सिंह के कार्यकाल के दौरान ही मुंबई का 26/11 का मशहूर कांड हुआ, जिसमें ताज होटल में आतंकियों ने एक बड़ी आतंकी घटना को अंजाम दिया था। इस समय की एक घटना और बताते हैं। कोलकाता से कुछ सिमकार्ड खरीद गए। कोलकाता के मिलिट्री इंटेलीजेंस को पता चला कि कुछ लोगों ने सिमकार्ड ख़रीदे हैं और हिंदुस्तान में कहीं पर कोई वारदात होने वाली है, जिनमें इन सिमकार्डों का इस्तेमाल होने वाला है।

 

वो जानकारी सर्वोच्च स्तर पर भारत के तत्कालीन इंटेलीजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को दी गई। इन दोनों ने इस जानकारी का इस्तेमाल नहीं किया, जबकि इन सिमकार्डों के नंबर तक सेना ने मुहैया करा दिए थे। जब 26/11 घटित हो गया और फोन के ऊपर बातचीत इंटरसेप्ट हुई तो ये वही नंबर थे, जो सेना ने डायरेक्टर ऑफ इंटेलीजेंस ब्यूरो और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को मुहैया कराए थे। और जो उस समय सबसे बड़ी चूक हुई, जिसके ऊपर भारतीय सेना को आज तक अफ़सोस है कि भारत के पास इतने जैमर हैं, लेकिन उन 24 घंटों के दौरान जब ताज होटल में आतंकवादी घटना को अंजाम दे रहे थे, कम्युनिकेशन जाम नहीं किया गया। अगर कम्युनिकेशन जाम हो जाता तो पाकिस्तान से आतंकवादियों को निर्देश नहीं मिल पाते, क्योंकि वे सेटेलाइट फोन नहीं थे। सेटेलाइट फोन भी जाम किए जा सकते हैं, लेकिन उसे जाम करने में थोड़ा व़क्त लगता है। लेकिन अपने हिंदुस्तान के टॉवर से जाने वाले इंडियन सिमकार्ड से होने वाली बातचीत फौरन जाम की जा सकती है। यह जाम क्यों नहीं किया गया, अभी तक ये रहस्य बना हुआ है। अगर जाम कर दिया गया होता तो मुठभे़ड इतनी देर तक चलती ही नहीं।जनरल वी के सिंह जब तक भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष रहे, देश में आईएसआई की गतिविधियां नियंत्रित रहीं, क्योंकि आईएसआई को भारत की सेना के टीएसडी डिवीज़न से डर था।

 

जनरल वी के सिंह के समय हमारी सीमाओं पर शांति रही। चाहे पाकिस्तान के सैनिक हों या चीन के, उन्होंने कोई हरकत करने की कोशिश नहीं की। क्योंकि उन्हें जनरल वी के सिंह से भी डर था और जनरल वी के सिंह द्वारा बनाए गए दस्तों से भी डर था। इसीलिए जैसे ही वी के सिंह हटे, हमारी सीमा पर युद्धविराम तोड़ने की कोशिश हुई। आतंकवादी भेजे जाने लगे और हमारे जवानों की सिरकटी लाशें देश में आने लगीं। चीन की सीमा पर चीन टहलता हुआ लद्दाख और अरुणाचल में घूमने लगा। हमारी सेना की तरफ से कार्रवाई नहीं हुई। कार्रवाई हो भी नहीं सकती, जब तक राजनीतिक फैसला न लिया जाए। लेकिन चीन को कोई डर ही नहीं था, उन्हें यह भी पता कि अब भारतीय सेना स्ट्राइक नहीं करेगी, क्योंकि टीएसडी डिवीज़न जो सेना के ऑफिसियल स्ट्राइक करने से पहले अपनी सेना की तरफ़ बढ़ने वाले क़दमों को रोकने के लिए ढाल का काम करती थी, वह अब है ही नहीं।

 

जो काम चीन और पाकिस्तान ख़ुद नहीं करवा सके, उन्होंने भारत के पत्रकारिता के आदर्श रहे रामनाथ गोयनका के वारिस विवेक गोयनका के इस अख़बार के द्वारा करवा दिया। कहा तो यह भी जा रहा है कि इस अख़बार के संपादक सहित अन्य लोगों का उठना बैठना उस समय के गृहमंत्री के साथ काफ़ी ज्यादा था और इन सारी चीज़ों के पीछे तत्कालीन गृहमंत्री के इशारे, हथियारों के दलालों के सीधे हस्तक्षेप और पाकिस्तान और चीन के हितों में काम करने वाले हिंदुस्तान के लोगों का हाथ था।

झूठ किस तरी़के से फैलाया जा सकता है। टीएसडी के ऊपर आरोप लगा दिया कि वह हिंदुस्तान के रक्षा मंत्री तक की बातें भी सुन रही है। उसने इंटरसेप्ट रिकॉर्ड करने वाले इंस्ट्रूमेंट ख़रीदे हैं। उसने जम्मू-कश्मीर की सरकार को गिराने के लिए पैसा दिया है। पहले भारत सरकार को गिराने के लिए सेना की टुकड़ियों का मूवमेंट और अब गप्प कि जम्मू-कश्मीर की सरकार को गिराने के लिए एक करोड़ 19 लाख। न संपादक को कोई शर्म और न रिपोर्टर को शर्म कि जिसे पढ़ते ही पाठक अख़बार के ऊपर थूक दे और देखने से ही जो रिपोर्ट सुपरफिशियल लगे, ये भारतीय पत्रकारिता को शर्मसार करने वाली घटना है।

 

और टीएसडी पर छपी इस अख़बार की रिपोर्ट के समर्थन में तत्काल भारत सरकार के कुछ मंत्री खड़े हो गए। उन्हें यह शर्म नहीं आई कि वे अपनी ही सेना के उस डिवीज़न का विरोध कर रहे हैं, जो डिवीज़न देश की रक्षा के लिए काम करती है। उन्हें यह भी शर्म नहीं आई कि वे अपने जांबाज़ अफसरों का अपमान कर रहे हैं जो देश में कहीं भी कुछ करने की शपथ लिए, जान देने का जज़्बा लिए सेना में शामिल होते हैं। हथियारों के दलालों, चीन और पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसियों और भारत के किसी ज़माने में पत्रकारिता में सिरमौर रहे अख़बार के गठजो़ड की यह नापाक कहानी है, जिस कहानी ने भारत की पत्रकारिता को शर्मसार कर दिया है।

 

लगभग सारे पत्रकार इस रिपोर्ट को ग़लत मानते हैं, लेकिन वो अपने में यह हिम्मत नहीं जुटा पा रहे कि इस अख़बार की गलत रिपोर्टिंग की शैली का वे मुखर विरोध करें। लगभग हर बड़े पत्रकार ने मुझसे यह कहा कि यह हमें शर्मसार कर देने वाली स्थिति लगती है, लेकिन वे इसलिए नहीं बोलते क्योंकि आख़िर वे भी एक पत्रकार हैं। यह भारतीय पत्रकारिता की कायरता का दूसरा चेहरा है। यह रिपोर्ट भारतीय सेना के जवानों को मारने के षडयंत्र का हिस्सा है। इसलिए श्री रामनाथ गोयनका के वारिस विवेक गोयनका के अख़बार की इस रिपोर्ट का हम जमकर विरोध करते हैं और इसे भारतीय पत्रकारिता की सबसे काली रिपोर्ट के रूप में देखते हैं।

 

पत्रकारिता का महानायक बनता हुए एक शख्स़ कैसे महाअपराधी नायक की श्रेणी में बदल जाता है और कैसे उसका पूरा व्यक्तित्व भ्रष्टाचार के समर्थन में खड़े बेशर्म इन्सान के रूप में तब्दील हो जाता है, इस अख़बार को पढ़कर देखा जा सकता है। अफ़सोस की बात तो यह है कि यह रिपोर्ट सेना के भ्रष्टाचार को लेकर नहीं है। इस अख़बार ने यह रिपोर्ट सेना के अंदरूनी घटनाओं को लेकर नहीं छापी है, यह व्यक्तित्वों के टकराव की कहानी नहीं है।

 

यह रिपोर्ट भारतीय सेना के जांबाज़ अफसरों और सिपाहियों की भारत के रक्षाहितों के लिए की जाने वाली कार्वाइयों का खुलासा है। यह रिपोर्ट भारतीय सेना के अफसरों व जवानों को मारने के षडयंत्र का हिस्सा है। इसलिए श्री रामनाथ गोयनका के वारिस विवेक गोयनका के अख़बार की इस रिपोर्ट का हम जमकर विरोध करते हैं और इसे भारतीय पत्रकारिता की सबसे काली रिपोर्ट के रूप में देखते हैं।

पत्रकारिता का महानायक बनता हुए एक शख़्स कैसे महाअपराधी नायक की श्रेणी में बदल जाता है और कैसे उसका पूरा व्यक्तित्व भ्रष्टाचार के समर्थन में खड़े बेशर्म इन्सान के रूप में तब्दील हो जाता है, इसे देखना हो तो रामनाथ गोयनका के वारिस विवेक गोयनका के नेतृत्व में चलने वाले अंग्रेज़ी अख़बार को पढ़कर देखा जा सकता है। यह अख़बार भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ रिपोर्ट नहीं करता, बल्कि भ्रष्टाचारियों के समर्थन में रिपोर्ट करता है, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ने वाले को यह अख़बार कन्फ्यूज्ड आदमी बताता है और भ्रष्टाचार करने वाले लोगों को नायक बनाता है, इस अख़बार में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ रिपोर्ट तलाशनी हो, तो आपको बहुत मेहनत करनी पड़ेगी, लेकिन जो लोग भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं या आवाज़ उठा रहे हैं, उनके ख़िलाफ़ यह अख़बार पहलवानी करता दिखाई दे रहा है। यह भारत की पत्रकारिता का सबसे गंदा चेहरा है।

लेखक के बारे मेः

संतोष भारतीय चौथी दुनिया (हिंदी का पहला साप्ताहिक अख़बार) के प्रमुख संपादक हैं। संतोष भारतीय भारत के शीर्ष दस पत्रकारों में गिने जाते हैं। वह एक चिंतनशील संपादक हैं, जो बदलाव में यक़ीन रखते हैं। 1986 में जब उन्होंने चौथी दुनिया की शुरुआत की थी, तब उन्होंने खोजी पत्रकारिता को पूरी तरह से नए मायने दिए थे।

 

साभार- http://www.chauthiduniya.com/ से

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किसान के बेटे ने बनाया नायाब उपकरण

कहावत है, दीवारों के भी कान होते हैं। एक किसान के बेटे ने वाकई यह 'कान' बना दिया। सौ मीटर के दायरे में मोबाइल फोन पर या आपस में कनबतिया हो रही हैं, तो यह 'कान' सुन लेगा। इसके निर्माण पर लागत आई है मात्र पांच हजार रुपये और नाम रखा गया है मल्टीटॉस्किंग मशीन।

ये कमाल किया है मथुरा के बाजना क्षेत्र के सदीकपुर गांव के निवासी अमित चौधरी ने। बाबा साहब अम्बेडकर पॉलीटेक्निक से मैकेनिकल में डिप्लोमा कर रहे अमित के पिता ब्रह्मजीत सिंह साधारण किसान हैं। विज्ञान के नए आविष्कार करने का शौक अमित को कुछ साल पूर्व लगा। उसने गांव में ही मोबाइल रिपेयरिंग की दुकान खोली, तो मोबाइल उपकरणों को आपस में जोड़ते समय उसके दिमाग में नए विषयों पर काम करने की सोच पनपी। उसे लगा कि इनके उपयोग से वह नए आविष्कार कर सकता है। इसी के साथ प्रयास शुरू किया। काम में वक्त न दे पाने के कारण उसकी दुकान बंद हो गई।इसी बीच उसने मोबाइल की तर्ज पर बिना किसी खर्च के आवाज सुनने को उपकरण बनाने का प्रयास जारी रखा। उसकी मेहनत 5000 रुपये के खर्च के साथ लगभग एक साल में सफल हुई।

अमित ने ऑडियो फ्रीक्वेंसी, आइसी, मोबाइल लीड के वायर, लैपटॉप की बैटरी, मोबाइल की बैटरी, एक स्पीकर और वायरलेस हेडफोन की मदद से 100 मीटर के दायरे में आवाज सुनाने वाला उपकरण आखिर तैयार कर ही लिया। उसने अपने इस उपकरण को मल्टीटास्किंग मशीन का नाम दिया है। उसका यह उपकरण किसी की भी जासूसी कर सकता है।

तीन हिस्सों में बंटा है उपकरण

अमित का यह उपकरण तीन हिस्सों में बंटा हुआ है। इसका एक हिस्सा बल्ब के रूप में है। इसमें माइक लगाया गया है। जासूसी करने वाली जगह पर यह टांगा जा सकता है। इसके बल्ब के साथ लगे होने के कारण इस पर किसी को शक भी नहीं होगा। वहीं दूसरे हिस्से में एक आइसी और मशीन है। इसे भी बल्ब से 100 मीटर की दूरी तक कहीं भी छिपाकर आसानी से रखा जा सकता है। तीसरा हिस्सा वायरलेस हेडफोन है। इसे चालू करने से बल्ब के पास हो रही बातचीत को सुना जा सकता है।

बड़े काम की मशीन

मथुरा। अमित की मल्टीटास्किंग मशीन बड़े ही काम की है। इसमें सिम लगाकर फोन की तरह बात भी कर सकते हैं। वहीं इससे टैबलेट और मोबाइल को चार्ज भी कर सकते हैं। यही नहीं, इसे टीवी या मोबाइल से कनेक्ट कर गाने भी सुने जा सकते हैं।

क्रैश हो गया था सिंगल सीटर हेलीकॉप्टर

अमित इस समय 18 फुट लंबा सिंगल सीटर हेलीकॉप्टर तैयार करने में जुटे हैं। उन्होंने जून में 40,000 रुपये की व्यवस्था कर इसे तैयार भी कर लिया था। मगर टेस्टिंग के दौरान यह क्रैश हो गया। दोबारा पैसे जुटाकर वे इसे बनाने की तैयारी में हैं। उनके मुताबिक वे इसे स्कूटर के इंजन, फाइबर की बॉडी, बाइक की गिरारी और घर के पंखों की मदद से तैयार कर रहे हैं।

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दल से पहले देश राजनीति का लक्ष्य हो

<p><span style="line-height:1.6em">महर्षि व्यक्ति पराक्रम करते हैं और अपने पराक्रम से शत्रुओं पर विजय प्राप्त करते हैं। एक साधु के लिए अपेक्षा है कि वह विजयी बनें। वह प्रतिकूलताओं को भी सहन करे और अनुकूलताओं को भी सहन करे। अनुकूलता और प्रतिकूलता में समताभाव रह सके, मानसिक संतुलन रह सके, ऐसी साधना साधु में होनी चाहिए। साधु में तो होनी ही चाहिए, पर मैं राजनीति पर ध्यान दूं तो मेरा ऐसा सोचना है कि कुछ अंशों में यह समता की साधना राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्तियों में भी होनी चाहिए, तभी राजनीति स्वच्छ रह सकती है।</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">हम साधु लोग राजनीति से असंपृक्त हैं और भी बहुत से लोग हैं, जो राजनीति से दूरी बनाए रखते हैं। न किसी राजनीतिक पार्टी का प्रचार करते हैं, न किसी व्यक्ति या पार्टी विशेष को वोट देने का परामर्श देते हैं। हां, इतना जरूर है कि साधु-संन्यासी राजनीतिक क्षेत्र के लोगों को मार्गदर्शन देने वाले हो सकते हैं। ऐसा प्राचीनकाल में भी होता रहा है। मेरा मानना है कि राजनीति पर नैतिकता का अंकुश या धर्म का अंकुश रहता है तो राजनीति सम्यक्तया संचालित हो सकती है। जहां राजनीति पर धर्म का, नैतिकता का अंकुश न हो, केवल सत्ता प्राप्ति का ही लक्ष्य हो तो उसे राजनीति का दुर्भाग्य मानना चाहिए।</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">मेरा मंतव्य है कि गृहस्थों के लिए राजनीति कोई अस्पृश्य चीज नहीं है। राजनीति सेवा का एक अच्छा माध्यम हो सकती है। अपेक्षा यह है कि राजनीतिक क्षेत्र के लोग नैतिकता के संकल्प से संकल्पित हों। अणुव्रत इसमें बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। एक घटना-प्रसंग मैं अपनी शैली में प्रस्तुत कर रहा हूं। बहुत पहले की बात है, परमपूज्य आचार्य तुलसी के पास एक मंत्रीजी आए। बातचीत के प्रसंग में मंत्रीजी बोले- &lsquo;&lsquo;आचार्यश्री! मेरे मन में धर्म के प्रति रुचि है और मैं धर्म करना भी चाहता हूं किन्तु समस्या यह है कि व्यस्तता के कारण मैं इसके लिए समय नहीं निकाल पाता।&rsquo;&rsquo;</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">कार्याधिक्य और गुरुतर दायित्व के कारण कुछ लोगों के सामने समय का अभाव हो सकता है। लेकिन मेरा तो चिंतन है कि व्यस्त होना एक बात है और अस्त-व्यस्त होना दूसरी बात है। व्यस्त होना कोई बुरी बात नहीं। ज्यादा काम हो तो व्यक्ति व्यस्त भी हो सकता है, पर उसका मस्तिष्क शांत रहना चाहिए। अशांति की स्थिति आदमी को अस्त-व्यस्त कर देती है।</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">गुरुदेवश्री ने कहा- &lsquo;&lsquo;मंत्रीजी, आप व्यस्त हैं, धर्म के लिए आपको समय नहीं मिल पाता तो मैं ऐसे धर्म में आपको प्रवृत्त नहीं करना चाहता जो आपकी व्यस्तता को और ज्यादा बढ़ा दे। आपकी व्यस्तता को देखते हुए आपको ऐसा धर्म बताता हूं, जिसके लिए आपको अलग से समय निकालने की जरूरत नहीं पड़ेगी।&rsquo;&rsquo;</span></p>

<p>मंत्रीजी ने ऐसे धर्म के बारे में आतुर भाव से जिज्ञासा की तो आचार्य ने कहा- &lsquo;&lsquo;वह धर्म है नैतिकता। आपके पास अपने विभाग से संबंधित फाइलें तो आती ही होंगी, आप उनके कार्य संपादन में प्रामाणिकता रखें। अपने दैनंदिन जीवन में नैतिक और प्रामाणिक बने रहें, यह नैतिकता का संकल्प ही आपके लिए धर्म हो जाएगा। धर्म करने के लिए आपको किसी धर्मस्थान में जाने की जरूरत नहीं रह जाएगी।</p>

<p><span style="line-height:1.6em">अणुव्रत का संदेश है-आप किसी की भी उपासना करो, आप राम को मानो या महावीर को, बुद्ध, नानक, मुहम्मद, ईसा-किसी को भी मानो या न भी मानो, आपकी इच्छा पर है, अणुव्रत का इससे कोई लेना-देना नहीं है। अणुव्रत का मात्रा इतना ही कहना है कि आप जो भी कार्य करें, उसमें नैतिकता और प्रामाणिकता रहे। मैं तो यहां तक भी कहता हूं कि कोई व्यक्ति नास्तिक विचारधारा का हो, परलोक, पुनर्जन्म-पूर्वजन्म और आत्मा को नहीं मानता हो तो ऐसा नास्तिक आदमी भी अणुव्रतों को स्वीकार कर सकता है। परलोक को भले ही कोई न माने, वर्तमान की दुनिया या इहलोक को तो मानता ही होगा, क्योंकि वह तो आंखों के सामने है। व्यक्ति कम से कम इस जीवन को शांतिपूर्ण बनाने के लिए तो नैतिकता के रास्ते पर चले।</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">राजनीति का क्षेत्र भी सेवा का एक माध्यम है, जिसकी बड़ी आवश्यकता होती है। राजनीति के बिना दुनिया का काम भी कैसे चलेगा? व्यवस्था चलाने के लिए कोई प्रमुख, कोई मार्गदर्शक, कोई नियंता न हो और सामान्य लोग राग-द्वेष से जुड़े हुए हों तो मेरा मानना है कि वह समाज के लिए दुर्भाग्य की बात है। ऐसी स्थिति में समाज और राष्ट्र का संचालन होगा भी तो कैसे? इसलिए राजनीति आवश्यक है। शर्त यही है कि राजनीति में काम करने वाले व्यक्ति योग्य और ईमानदार होने चाहिए।</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">भारत लोकतांत्रिक शासन प्रणाली वाला राष्ट्र है। लोकतंत्र में भी प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। जनता को भी प्रशिक्षण मिलना चाहिए और देश का संचालन करने वाले कर्णधार भी प्रशिक्षित होने चाहिए। अगर लोकतंत्र में कर्तव्यनिष्ठा न हो, चुनाव में भय, प्रलोभन, प्रभाव से वोट लिए और दिए जाते हों तो मुझे लगता है कि यह लोकतंत्र के लिए शुभ शकुन नहीं होता है, प्रशस्त तरीका नहीं होता है। लोकतंत्र में वोट देने वाले और लेने वाले प्रशिक्षित हों तो यह विशिष्ट बात होती है। सत्ता के आसन पर बैठने वाले लोग योग्यता संपन्न होने चाहिए, राष्ट्र हित को प्रमुखता देने वाले होने चाहिए। भारत में अनेक राजनीतिक दल हैं, उनका अपना महत्व भी है। वास्तव में देखा जाए तो राजनीतिक पार्टियां भी देश की सेवा के लिए हैं। एक ओर राष्ट्र और दूसरी पार्टी हो तो राष्ट्र का पहला स्थान मिलना चाहिए। दल से राष्ट्र बड़ा है। नीतिशास्त्र में कहा गया है-</span></p>

<p>त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।</p>

<p>ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थ सकलं त्यजेत्।।</p>

<p><span style="line-height:1.6em">एक ओर कुल परिवार की बात हो और दूसरी ओर एक व्यक्ति की तो वहां कुल को महत्व देते हुए उसे प्राथमिकता मिलनी चाहिए। एक ओर परिवार का प्रश्न हो और दूसरी ओर गांव का तो गांव के हित को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। अध्यात्म की दृष्टि से जहां आत्मा के हित की बात है, उसके लिए सब कुछ छोड़कर साधना के पथ पर आगे बढ़ जाना अभीष्ट है।</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">सन् 2002 में आचार्य श्री महाप्रज्ञ अहमदाबाद के पास प्रेक्षा विश्वभारती में चातुर्मासिक प्रवास कर रहे थे। मेरी स्मृति के अनुसार एक दिन उन्हें सूचना मिली कि कुछ ही समय बाद राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आपके दर्शनार्थ पहुंच रहे हैं। राष्ट्रपतिजी आए। बातचीत के क्रम में आचार्यश्री ने जो कहा, उसका भाव लगभग इसी प्रकार रहा होगा- &lsquo;&lsquo;हमारे गुरु आचार्य तुलसी कहा करते थे कि धर्म का स्थान पहला है, सम्प्रदाय का स्थान उसके बाद का है। मैं इसी बात को इस रूप में कहना चाहता हूं-राष्ट्र का स्थान पहला है, पार्टी का स्थान दूसरे नम्बर पर होना चाहिए।&rsquo;&rsquo; राष्ट्रपतिजी ने आचार्यश्री के इस कथन पर अत्यंत प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा- &lsquo;&lsquo;यह बहुत बढ़िया है। अब आपके पास जो भी राजनेता आए, आप उनसे कहें कि राष्ट्र का स्थान हमेशा नम्बर एक पर और दल का स्थान नम्बर दो पर होना चाहिए।&rsquo;&rsquo;</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">पार्टी तो अपनी-अपनी होती है, किन्तु राष्ट्र तो किसी एक का नहीं, सबका है। इसलिए राष्ट्रहित को वरीयता मिलनी चाहिए। राजनीति के लोगों के लिए मेरा परामर्श है कि पार्टी के बारे में वे सोचते हैं, इसमें कोई दिक्कत की बात नहीं, किन्तु राष्ट्र को सामने रखकर सोचें कि हमारा पहला दायित्व किसके प्रति है? राष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में ही वे पार्टी के बारे में सोचें, राष्ट्रहित को कहीं आंच नहीं आनी चाहिए। अगर राजनेताओं में राष्ट्र के प्रति निष्ठा हो और सत्ता-सुख की आकांक्षा से उपरत होकर सेवा कार्य करें तो राजनीति में नैतिकता की संभावना रह सकती है। राजनीति में आने वाला व्यक्ति सेवा का लक्ष्य न रखे, जनता की भलाई न करे तो राजनीति में आने की उसकी सार्थकता क्या है?</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">सन् 2004 में आचार्य श्री महाप्रज्ञ महाराष्ट्र की यात्रा कर रहे थे। वहां जलगांव में मर्यादा महत्सव का आयोजन था। उन दिनों एक बार महाराष्ट्र के एक राजनेता आचार्यश्री के पास में खड़े थे। उनके समक्ष आचार्यवर ने एक संस्कृत श्लोक फरमाया-</span></p>

<p>अधिकारपदं प्राप्य नोपकारं करोति यः।</p>

<p>अकारो लोपमात्रेण ककारो द्विततां व्रजेत्।।</p>

<p>अधिकार मिलता है उपकार करने के लिए। राजनीति में आकर कोई अधिकार का पद प्राप्त कर ले, किन्तु उसे प्राप्त करने के बाद उपकार न करे तो अधिकार शब्द में से प्रथम अक्षर &lsquo;अ&rsquo; को निकाल देने और &lsquo;का&rsquo; से पहले &lsquo;क्&rsquo; लगाने के बाद जो शब्द बनता है, वह उसका अधिकारी है। अधिकार मिला है तो किसी लालच में न आकर निष्ठा और निष्काम भाव से सेवा की भावना काम्य होती है। जिस राजनेता में गलत तरीके से अर्थार्जन की भावना न हो और सेवा की भावना प्रशस्त हो, वह राजनीति में नैतिक मूल्यों को अक्षुण्ण रख सकता है। एक संस्कृत के श्लोक में कहा गया है-</p>

<p>राज्याधिकारं संप्राप्य यः प्रजां नैव रंजति।</p>

<p>अजागलस्तनस्येव तस्य जन्मनिरर्थकम्।।</p>

<p>राज्याधिकार यानी राजसत्ता को प्राप्त करके जो व्यक्ति प्रजा को संतुष्ट न करे यानी प्रजा की सेवा न करे, राजनेता का जन्म उसी तरह व्यर्थ, जैसे बकरी के गले का स्तन।</p>

<p>राजा या शासक का प्रथम कर्तव्य है प्रजा का पालन करना, सज्जन लोगों की रक्षा करना। उसका दूसरा कर्तव्य है दुर्जन और असामाजिक तत्वों पर नियंत्रण करना। तीसरा कर्तव्य है-भले-बुरे जो भी लोग हैं, उनकी उदरपूर्ति करना। जनता की न्यूनतम जरूरतें पूरी करना राजा का कर्तव्य है। प्रजा को भरपेट भोजन मिलता है या नहीं, शिक्षा, चिकित्सा और सुरक्षा की समुचित व्यवस्था है या नहीं, यह देखना भी शासक का दायित्व है।</p>

<p><span style="line-height:1.6em">राजा की नीति ही तो राजनीति होती है। राजनीति को कभी-कभी लोग अपकर्ष में ले जाते हैं। &lsquo;यह व्यक्ति राजनीति करता है&rsquo;-इस कथन में राजनीति के प्रति एक प्रकार का हेयभाव ध्वनित होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि राजनीति को कुछ लोग तुच्छ और गर्हित रूप में लेते हैं। सबकी अपनी-अपनी दृष्टि है। मेरी दृष्टि में तो राजनीति हेय नहीं, बहुत काम की और उपयोगी चीज है, सेवा का एक अच्छा माध्यम है, किन्तु कब? जब राजनीति पर नैतिकता और धर्म का अंकुश रहे। ऐसी नैतिकतापूर्ण राजनीति जहां होती है, वह राष्ट्र सद्भाग्यशाली होता है।</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">भारत ऐसा देश है, जहां कितनी-कितनी त्याग-तपस्या हुई है और आज भी कुछ अंशों में हो रही है। अध्यात्म विद्या के साथ-साथ यह देश ज्ञान के विशाल भंडार से कितना समृद्ध रहा है। हम संस्कृत, प्राकृत भाषा के प्राचीन ग्रंथों को देखें, उनमें कितना ज्ञान-विज्ञान का भंडार भरा पड़ा है। यह भी राष्ट्र के लिए मेरी दृष्टि में गौरव की बात है। इस संपदा का समुचित मूल्यांकन होता रहे, यह अपेक्षा है। यह ऋषि-मुनियों की भूमि है, जिन्होंने त्याग-तपस्या और साधना की है।</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">आज भी कितने-कितने संत अपने-अपने ढंग से साधना करते हुए जनता का पथदर्शन कर रहे हैं। मेरा तो मानना है कि राष्ट्र के धार्मिक-आध्यात्मिक और नैतिक-चारित्रिक विकास में संतों का बड़ा योगदान है। आज भी भारत की जनता में संतों के प्रति आस्था का भाव है। आम आदमी की बात पर कोई ध्यान दे, न दे, लेकिन आमतौर पर संतों की बात के प्रति सम्मान की भावना देखने को मिलती है।</span></p>

<p><span style="line-height:1.6em">हमारा चिंतन है कि राजनीति कोई खराब चीज नहीं, अस्पृश्य नहीं, बस, राजनीति में मूल्यवत्ता रहनी चाहिए। वह धर्म और नैतिकता से प्रभावित होनी होनी चाहिए। अगर ऐसा होता है तो राजनीति और नैतिकता दोनों का एक प्रकार से संगम हो जाता है और ऐसा होना राष्ट्र के लिए भी सौभाग्य का सूचक बन सकता है।</span></p>

<p>प्रस्तुतिः</p>

<p>ललित गर्ग</p>

<p>ई-253, सरस्वती कुँज अपार्टमेंट</p>

<p>25 आई॰ पी॰ एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92</p>

<p>फोनः 22727486, 9811051133</p>
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संजय को प्रवक्ता सम्मान

भोपाल। देश की महत्वपूर्ण वेबसाइट प्रवक्ता डाट काम (http://www.pravakta.com/) के पांच साल पूरे होने पर कांस्टीट्यूशन क्लब, दिल्ली के स्पीकर हाल में आयोजित समारोह में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी को ‘प्रवक्ता सम्मान-2013’ से सम्मानित किया गया। यह सम्मान उन्हें न्यू मीडिया के क्षेत्र में विशिष्ठ योगदान के लिए दिया गया है। प्रख्यात पत्रकार श्री राहुल देव ने संजय द्विवेदी को शॉल एवं प्रतीक चिन्‍ह भेंटकर सम्‍मानित किया।

इस अवसर वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह, जगदीश उपासने, जयदीप कार्णिक सहित अनेक महत्वपूर्ण पत्रकार, साहित्यकार एवं बुद्धिजीवी मौजूद थे। संजय द्विवेदी पिछले 20 वर्षों में पत्रकारिता, लेखन, संपादन और सामाजिक कार्यों से जुड़े हुए है। वे ‘मीडिया विमर्श’ पत्रिका के कार्यकारी संपादक भी हैं।

-संजय द्विवेदी कॉ ब्लॉग एवं वेब साईट
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