Wednesday, November 27, 2024
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बकरीद पर गायों की कुर्बानी न करें मुसलमान, देवबंद के मुफ्ती की अपील

विश्र्व प्रसिद्ध इस्लामी इदारे दारुल उलूम देवबंद के मोहतमिम (कुलपति) मुफ्ती अबुल कासिम नोमानी ने हिंदू समाज की धार्मिक भावनाओं का ख्याल रखते हुए ईद-उल-जुहा पर गाय की कुर्बानी न करने की अपील मुसलमानों से की है। 

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मोहतमिम मौलाना अबुल कासिम नोमानी ने सोमवार को जारी बयान में कहा है कि त्योहारों पर सभी लोगों को एक-दूसरे की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। ईद-उल-जुहा पर मुस्लिम समाज के लोगों को चाहिए कि वे हिंदुओं के मजहबी जज्बातों का ख्याल रखें। उन्होंने कहा कि जिन राज्यों में गाय काटने पर प्रतिबंध है, वहां के बाशिंदे कानून और संप्रदाय विशेष की आस्था व धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखते हुए गाय की कुर्बानी बिल्कुल न करें। 

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साथ ही उन्होंने यह भी अपील की कि ईद-उल-जुहा पर कोई भी मुसलमान ऐसा कार्य न करे, जिससे किसी अन्य धर्म के लोगों की भावनाएं आहत हों। बता दें कि इससे पूर्व दारुल उलूम देवबंद द्वारा गाय की कुर्बानी न करने के संबंध में फतवा भी जारी किया जा चुका है।

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राईट टू रिजेक्ट फैसलाः भारतीय लोकतंत्र का स्वर्णीम दिन

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<p><strong>Right to Reject</strong></p>

<p>देश की सर्वच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला देकर भारतीय लोकतंत्र में नए प्राण फूंक दिए हैं।</p>

<p>पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टी (पीयूसीएल) की याचिका पर सुनवाई करते फैसला दिया कि राईट टू रिजेक्ट एक आम मतदाता का संवैधानिक अधिकार है।&nbsp; पीयूसीएल ने यह याचिका 2004 में दायर की थी।<br />
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फ़ैसला सुनाते हुए उन्होंने कहा कि एक जीवंत लोकतंत्र में मतदाताओं को &#39;इनमें से कोई नहीं&#39; का विकल्प चुनने का अधिकार जरूर दिया जाना चाहिए।&nbsp; इस फ़ैसले का लाभ इस साल दिसंबर में दिल्ली, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में होने वाले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं को मिलेगा।&nbsp; चुनाव में अब तक उम्मीदवारों को नकारने वाले वोटों को गिनने की कोई व्यवस्था नहीं है। इससे इसका चुनाव परिणाम पर असर भी नहीं पड़ता। सामाजिक कार्यकर्ताओं की मांग थी कि अगर किसी निर्वाचन क्षेत्र में हुए मतदान में पचास फ़ीसद से अधिक मतदाता &#39;राइट टू रिजेक्ट&#39; का इस्तेमाल करते हैं तो, वहाँ दुबारा मतदान कराया जाना चाहिए।<br />
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&nbsp;मुख्तार अब्बास नकवी नकवी का कहना है कि चुनाव सुधार समय की जरूरत है। पीयूसीएल ने अपनी याचिका में मतदाताओं को सभी उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार देने की मांग की थी। चुनाव आयोग भी इस मांग का समर्थन किया था। लेकिन क्लिक करें केंद्र सरकार इसके पक्ष में नहीं थी। उसका कहना था कि चुनाव का मतलब चुनाव करना होता है, खारिज करना नहीं।<br />
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सभी उम्मीदवारों को नकारने की वर्तमान व्यवस्था में मतदाता मतदान केंद्र पर जाकर पीठासीन अधिकारी से 49 ओ नाम के एक फ़ार्म की मांग करता है और उसे भर कर वापस कर देता है। लेकिन इस तरह के फार्म की गणना नहीं होती है।&nbsp; इस फ़ैसले के बाद भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने एक टीवी चैनल से कहा कि चुनाव सुधार समय की जरूरत है। इसलिए सरकार की ओर इसकी ओर तत्काल ध्यान देना चाहिए।<br />
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&#39;राइट टू रिजेक्ट&#39; और &#39; राइट टू रिकॉल&#39; यानी कि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने की मांग को लेकर अभियान चलाने वाले और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले का स्वागत किया। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इससे लोगों को बहुत अधिक उम्मीद नहीं करनी चाहिए।&nbsp; उन्होंने कहा कि यह सही मायने में तभी सार्थक होगा जब इसके आधार पर चुनाव परिणाम तय हो।सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को दिए अहम फैसले में मतदाता को राइट टू रिजेक्ट का अधिकार देने पर अपनी मुहर लगा दी। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने इसके तहत चुनाव आयोग को वोटिंग मशीन में इसकी व्यवस्था करने के निर्देश दिए हैं।<br />
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इस फैसले के तहत अगर चुनाव में मतदाता को कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं आता तो उसे वोटिंग मशीन (ईवीएम) में &#39;नन ऑफ द एबव&#39; यानी &#39;उपरोक्त में कोई नहीं&#39; के विकल्प पर मुहर लगा सकता है। मुख्य न्यायाधीश पी। सतशिवम की अध्यक्षता वाली पीठ गैर सरकारी संगठन पीयूसीएल की ओर से दाखिल लोकहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए कहा कि यदि एक व्यक्ति को संविधान वोट डालने का अधिकार और उसको खारिज करने का अधिकार भी उसकी अभिव्यक्ति को दर्शाता है।<br />
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यह याचिका पिछले नौ सालों से सुप्रीम कोर्ट में लंबित थी और गत 29 अगस्त को कोर्ट ने सभी पक्षों की बहस सुनकर फैसला सुरक्षित रख लिया था। उम्मीदवार को नकारने के हक पर आए इस फैसले के बेहद दूरगामी परिणाम होंगे। याचिका में मांग की गई है कि वोटिंग मशीन ईवीएम में एक बटन उपलब्ध कराया जाए जिसमें कि मतदाता के पास &#39;उपरोक्त में कोई नहीं&#39; पर मुहर लगाने का अधिकार हो। अगर मतदाता को चुनाव में खड़े उम्मीदवारों में कोई भी पसंद नहीं आता तो उसके पास उन्हें नकारने और उपरोक्त में कोई नहीं चुनने का अधिकार होना चाहिए।<br />
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चुनाव आयोग ने याचिका का समर्थन किया था जबकि सरकार ने विरोध किया था। अभी मौजूदा व्यवस्था में ऐसी कोई बटन ईवीएम में नहीं है। अगर किसी मतदाता को चुनाव में खड़ा कोई भी उम्मीवार पसंद नहीं आता है और वह बिना वोट डाले वापस जाना चाहता है तो उसे यह बात निर्वाचन अधिकारी के पास रखे रजिस्टर में दर्ज करानी पड़ती है।<br />
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याचिकाकर्ता का कहना था कि रजिस्टर में दर्ज करने से बात गोपनीय नहीं रहती। मतदान को गोपनीय रखने का नियम है। ईवीएम में बटन उपलब्ध कराने से मतदाता द्वारा अभिव्यक्त की गई राय गोपनीय रहेगी।<br />
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गौरतलब है कि मतदाताओं को राइट टू रिजेक्ट दिए जाने की मांग अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल करते रहे हैं। दो साल पहले अन्ना ने अनशन के दौरान भी यह मांग तेजी से रखी थी। उनका कहना था कि राइट टू रिकॉल और राइट टू रिजेक्ट जैसे अधिकारों से जनप्रतिनिधियों को सीधे तौर पर नियंत्रित किया जा सकता है।<br />
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गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा की ओर से पीएम पद के उम्मीनदवार नरेंद्र मोदी भी राइट टू रिजेक्ट का समर्थन कर चुके हैं। उन्होंने हाल ही में गांधीनगर में यंग इंडिया कॉनक्लेव में कहा था कि मतदाताओं को नेताओं को खारिज करने के लिए राइट टू रिजेक्ट का अधिकार मिलना चाहिए। उन्होंने साफ कहा कि इस अधिकार के मिलने के बाद गंदी हो चुकी राजनीति में सुधार संभव है।<br />
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केंद्र सरकार भी इस प्रावधान के पक्ष में दिखती है। कानून मंत्री के तौर पर कुछ साल पहले सलमान खुर्शीद ने चुनाव सुधार के लिहाज से राइट टू रिजेक्ट दिए जाने को सही कदम बताया था। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा था कि यह व्यवस्था पूरी तरह समस्या का समाधान नहीं कर सकती।<br />
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चुनाव आयोग भी देश की चुनाव प्रणाली से अपराधी प्रवृत्ति वाले उम्मीदवारों को दूर करने के लिए राइट टू रिजेक्ट के पक्ष में है। निर्वाचन आयुक्त एच।एस। ब्रह्मा ने हाल ही में कहा था, चुनाव आयोग राइट टू रिजेक्ट पहल का स्वागत करता है लेकिन राइट टू रिकॉल का नहीं, क्योंकि यह राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने के साथ ही विकास की गतिविधियों को प्रभावित करेगा। उन्होंने कहा कि आयोग ने दिसम्बर 2001 में सरकार से इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में इनमें से कोई नहीं विकल्प शामिल करने का प्रस्ताव दिया था ताकि मतदाता इसका इस्तेमाल कर सकें।</p>
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अल्लाह का नाम केवल मुसलमानों के लिए, मलेशिया की अदालत का फैसला

मलेशियाई की एक अपीली अदालत ने सोमवार को व्यवस्था दी कि ईसाई अखबार भगवान के संदर्भ में "अल्लाह" शब्द का इस्तेमाल नहीं करेंगे। कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला उस मुद्दे पर आया है, जिसे लेकर इस मुस्लिम देश में धार्मिक तनाव और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर सवाल उठते रहते हैं। 

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मलेशिया की अपीली अदालत के तीन मुस्लिम जजों ने वर्ष २००९ के निचली अदालत के फैसले को पलट दिया। निचली अदालत ने मलय भाषा के अखबार "द हेरॉल्ड" को ईश्वर के लिए "अल्लाह" शब्द के इस्तेमाल की इजाजत दी थी। हालांकि मलेशिया में ईसाइयों को तर्क है कि वो ऐसा सैकड़ों सालों से कर रहे हैं। 

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ईसाइयत का हिस्सा नहीं 

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अपने १०० पेज के फैसले के खास हिस्से पढ़ते हुए मुख्य जज मोहम्मद अपंदी ने कहा- "अल्लाह" शब्द का इस्तेमाल ईसाइयत का अभिन्ना अंग नहीं है। इस शब्द का इस्तेमाल करने से समुदाय में भ्रम की स्थिति पैदा होगी। अदालत ने कहा कि उसका मानना है कि इससे किसी के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन नहीं हुआ है। सरकार की दलील थी कि अल्लाह शब्द मुस्लिमों के लिए है।

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२००८ से चल रहा है मामला 

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गौरतलब है कि २००८ में तत्कालीन गृहमंत्री ने अखबार को इस शब्द के इस्तेमाल की इजाजत देने से इंकार कर दिया था। जिसके बाद अखबार ने इसके खिलाफ अदालत में अपील की। २००९ में अदालत ने उसके पक्ष में फैसला सुनाया। इस फैसले के बाद धार्मिक तनाव फैल गया था और चर्चों और मस्जिदों को निशाना बनाया गया था। सरकार का कहना था कि २००८ में तत्कालीन गृह मंत्री का अखबार को इसे छापने की इजाजत न देने का फैसला लोक व्यवस्था के तहत न्यायोचित था। सोमवार को फैसला आने के बाद अदालत के बाहर सैकड़ों की संख्या में खड़े मुस्लिम समुदाय के लोग बेहद खुश दिखे। मलेशिया की २.८ करोड़ की आबादी में दो तिहाई मुसलमान हैं।

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शिक्षा की अवधारणा ने बदला शिक्षक का महत्व

5 सितम्बर को डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने की परंपरा बहुत पुरानी है। शिक्षक कौन होता है और उसका हमारे जीवन में क्या महत्त्व है?

वास्तव में शिक्षा है क्या?

क्या बच्चों की स्कूली पढ़ाई ही शिक्षा है या इससे कुछ अधिक है? बच्चे जो घर में सीखते हैं, दोस्तों से सीखते हैं, अपने अनुभव से सीखते हैं, वह सब क्या है?

जब शिशु पैदा होता है तो उसके पास केवल प्रकृति प्रदत्त ज्ञान होता है, वह ज्ञान जो प्रकृति के हर प्राणी के पास होता है। जो बात उसे बाकी जीवों से अलग करती है, वह है सीखने की अपार क्षमता। इस क्षमता के कारण वह पैदा होने के बाद से प्रतिदिन कुछ नया सीखता है। इस सीखने का पहला चरण शारीरिक ज्ञान है। इसके अंतर्गत वह अपने शरीर और उसकी आवश्यकताओं जैसे शौच, भूख, प्यास, दर्द, नींद आदि से अवगत होता है। दूसरे चरण में वह भावनात्मक आवश्यकताओं को समझता है जैसे स्नेह, रिश्ते, स्पर्श आदि। तीसरे चरण में सामाजिक आवश्यकताओं को जानता है और चौथा चरण स्वयं से साक्षात्कार का है। शैशव काल से लेकर मृत्युपर्यंत, इन चारों चरणों में व्यक्ति जो भी सीखता है वह शिक्षा है। चाणक्य हों या कबीर, प्लेटो हों या अरस्तु, नेहरु हों या महात्मा गाँधी, लगभग सभी विचारकों ने शिक्षा के क्षेत्र को अत्यधिक महत्त्व दिया और इसकी बेहतरी के लिए प्रयास भी किया।

गुरु और शिक्षक

शिक्षा से ही फिर अन्य दो शब्दों को प्रादुर्भाव हुआ, शिक्षक और शिक्षार्थी। शिक्षा देने वाला शिक्षक और शिक्षा ग्रहण करने वाला शिक्षार्थी। शिक्षा के मानव जीवन में महत्त्व के कारण ही शिक्षक का स्थान भी अत्यधिक महत्वपूर्ण बन गया। जिस प्रकार मानव सभ्यता का प्रारंभ भारत से हुआ उसी प्रकार शिक्षा पर चिंतन भी भारत से ही शुरू हुआ। गुरुकुल की अवधारणा इसका पहला चरण था। आदि काल में शिक्षा का क्षेत्र व्यापक था, पर उसका अधिकार सीमित था। यह अपने विकसित रूप में सबको उपलब्ध नहीं थी। चुनिन्दा जातियां और कुल ही इसके अधिकारी थे। लेकिन शिक्षा का क्षेत्र व्यापक होने के कारण शिष्य को पाकशास्त्र, गायन, नृत्य, शास्त्र, वेद, नीति, अस्त्र-शस्त्र के अलावा लकड़ी काटना तक सिखाया जाता था, भले ही वह राजकुमार ही क्यों न हो। माता-पिता अपनी संतानों को गुरु के सुपुर्द कर देते थे और शिक्षा समाप्त होने के बाद ही वे अपने घर को प्रस्थान करते थे। गुरुकुल में निवास के दौरान छात्रों किसी भी सूरत में परिवार से कोई संपर्क नहीं रहता था और वे पूर्णतया गुरु के ही संरक्षण में रहते थे। इसी कारण वे पूरी तरह गुरु निष्ठ होते थे और उस समय गुरु का आदर ईश्वर के समान ही था। गुरु भी अपने आचरण में इस सम्मान का पात्र बनने का पूरा प्रयास करते थे। उनके लिए शिष्य का हित ही सर्वोपरि था।

आज गुरु का स्थान शिक्षक ने ले लिया है यह कहना पूरी तरह सही तो नहीं होगा, पर और कोई विकल्प भी नहीं है। आज शिक्षा की अवधारणा ही बदल गयी है और इसी कारण शिक्षक का स्थान और महत्त्व भी घट गया है। आज शिक्षा जीवन नहीं, जीवन का एक अंग मात्र है, वह अंग जो जीविकोपार्जन का प्रबंध करता है। शिक्षा का अर्थ बदलने के साथ ही सब कुछ बदल गया। अब वह शिक्षा उपयोगी है, जो आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे। शिष्य अर्थ से संचालित है तो शिक्षक कैसे इससे वंचित रह सकते हैं। सो सबके लिए शिक्षा का अर्थ केवल अर्थ ही रह गया। इसका मूल अर्थ कहीं खो सा गया। लेकिन यह बदलाव केवल प्रयोग में था, इसीलिए शिक्षा की बेहतरी के लिए निरंतर प्रयास चलता रहा। इसी क्रम में सीबीएसई ने सीसीई पैटर्न लागू किया जिसमें बालक के सम्पूर्ण विकास को ध्यान में रखकर पूरा पाठ्यक्रम बनाया गया। इसमें शिक्षक की भूमिका फिर महत्वपूर्ण हो गयी। अब वह केवल कॉपी जांचकर पास-फेल करने वाला कर्मचारी नहीं रह गया। एक बार फिर उसे बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को समझने और उसे निखारने का ज़िम्मा दिया गया। सभी शिक्षक अपने को इस भूमिका में फिट नहीं पाते सो कार्यभार बढ़ने से परेशान रहते हैं लेकिन अपनी सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए उन्हें अपने को इस भूमिका के लिए तैयार करना होगा। उन्हें कबीर का वह कुम्हार बनना होगा जो शिष्य रूपी कुम्भ को आकार देता है।

शिक्षक-छात्र संबंध

यदि देखा जाए तो सीबीएसई की यह पहल जड़ों की ओर लौटने का एक प्रयास ही कहा जायेगा। सीसीई एक तरह से भारतीय गुरुकुल की अवधारणा का ही एक अंग लगती है। अंतर है तो केवल शिक्षक या गुरु के प्रति समर्पण भाव का। यह समर्पण न तो शिक्षार्थियों में है और न ही उनके अभिभावकों में। इसके लिए केवल इन दोनों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। दूसरों का हमारे प्रति समर्पण हमारी पूँजी है और इस पूँजी को कमाने की ज़िम्मेदारी शिक्षक की ही है। जिन शिक्षण संस्थानों ने इसका प्रयास किया है उनके यहाँ अपने लोग अपने बच्चे छोड़ते हैं। यही कारण है कि इतने डे बोर्डिंग स्कूल और होस्टल्स चल रहे हैं।

इस आपसी विश्वास को और सुदृढ़ करना होगा। इस विश्वास को बढ़ाने की ज़िम्मेदारी इतनी संस्थान की नहीं है जितनी शिक्षकों की है क्योंकि अंत में शिक्षक ही वह कड़ी होता है जो बालकों से सीधे जुड़ा होता है। ऐसे में सबसे उत्तम है कि वह स्वयं अपनी ज़िम्मेदारी तय करे। इस ज़िम्मेदारी में केवल योजनाओं का क्रियान्वयन ही नहीं है, बल्कि उसका व्यक्तिगत आचरण भी है। अपने आचरण को आदर्श बनाकर ही वह छात्रों से आदर्श आचरण की अपेक्षा कर सकता है। झूठ बोलकर छुट्टी लेने वाला शिक्षक छात्रों से सत्य की अपेक्षा नहीं कर सकता। शिक्षा का उद्देश्य अपने जीवन में उतारकर ही एक शिक्षक उस उद्देश्य की प्राप्ति कर पायेगा और तब शिक्षक-छात्र का यह संबंध सही मायनों में अपनी आदर्श स्थिति को पा लेगा। वह आदर्श स्थिति, जिससे शिक्षा का आरंभ हुआ, जो गुरु-शिष्य संबंध पर आधारित थी। आदर्श शिक्षक-छात्र संबंध से प्राप्त शिक्षा ही बाकी शिक्षा का भी आधार बनती है।

आदर्श शिक्षक

जिस प्रकार घोड़ा भूखा मरने की हालत में भी मांस नहीं खा सकता, उसी प्रकार स्वस्थ व्यक्तित्व का स्वामी किसी भी परिस्थिति में अनैतिक कार्यों में लिप्त नहीं हो सकता। स्कूली शिक्षा के अलावा भी आज बच्चों के पास सीखने के लिए बहुत सी बातें हैं और वे सभी अच्छी नहीं हैं। आदर्श शिक्षक के छात्र इतने परिपक्व हो जाते हैं कि निर्णय ले सकें कि इस अनंत ब्रह्माण्ड में उन्हें क्या सीखना है और क्या नहीं। यह समझ ही व्यक्ति निर्माण है और इस समझ को विकसित करना हर शिक्षक की ज़िम्मेदारी। इस ज़िम्मेदारी से भागने वाला व्यक्ति शिक्षक नहीं, केवल एक वेतनभोगी कर्मचारी है जिसके लिए शिक्षक दिवस के आयोजन का कोई औचित्य नहीं। अंग्रेज़ी की कहावत है, ‘If you want to be treated like an emperor, behave like one.’ यदि आप राजा का सम्मान पाना चाहते हैं तो राजा की तरह व्यवहार कीजिये। इस सन्दर्भ में कह सकते हैं, कि यदि आप गुरु का सम्मान पाना चाहते हैं तो गुरु की तरह व्यवहार कीजिये।

संपर्क

साध्वी चिदर्पिता

शिक्षाविद्

एमए अंग्रेजी, एलएलबी, एमएड

Sadhvi Chidarpita < chidarpita@gmail.com> .

मूर्तियों के विसर्जन से प्रदूषित होती नदियाँ

<p>उदयपुर। &nbsp;झीलों की नगरी की झीले नये जल से लबालब है। नवरात्री का पर्व &nbsp;समापन की और अग्रसर है।नवरात्रि के दौरान जिन देवी मूर्तियों की पूजा अर्चना की गयी है उनके विषर्जन की तैयारिया चरम पर है।झीलों के जल को निर्मल रखने और देवी प्रतिमाओं का आदर इसी में निहित है कि मूर्तियों का विसर्जन झीलों में न करे।<br />
हाल ही में इलाहबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में संगम में मूर्ति विषर्जन पर रोक लगाई है। जब गंगा और यमुना जैसी सदानीरा बड़ी नदियों का पानी भी मूर्तिओ से प्रभावित होता है ऐसी &nbsp;स्थिति में शहर की &nbsp;झीलों का क्या हश्र होगा। डॉ मोहन सिंह मेहता मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा आयोजित परिसंवाद में उक्त विचार उभर कर आये।<br />
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<p>झील संरक्षण समिति के अनिल मेहता व डॉ तेज राजदान ने कहा कि मूर्ति ,ताजिये या कोई अन्य पूजन या इबादत की सामग्री झील में प्रवाहित करना रुकना चाहिए।पेय जल को गन्दा करना अनुचित है।प्रशासन से बार बार आग्रह करने के उपरांत भी विषर्जन हेतु स्थान का निर्धारण नहीं होना संवेदन हीनता की निशानी है।<br />
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<p>बजरंग सेना के कमलेन्द्र सिंह पवार ने कहा कि झीलों में होने वाले विषर्जन को रोका जाना चाहिए।इस वर्ष एक सो पैतीस मुर्तिया &nbsp;मेलडी माता मंदिर से ले जाई गयी है जो पिछले वर्ष नवरात्री पश्चात् मंदिर में रखी गयी थी।पवार ने आग्रह किया की जो भी गरबा मंडल चाहे मेलडी मातामंदिर में मुर्तिया रख सकेगा और उसे अगले वर्ष पुनः ले जा सकेगा जिससे मूर्ति की हमेशा पूजा अर्चना भी होगी और अगले वर्ष के लिए संरक्षित भी।झील व पर्यावरण संरक्षण के लिए इस वर्ष तिरपन माताजी की तस्वीरे बाटी गयी है तथा जो गरबा मंडल मूर्ति को झील में विषर्जन नहीं करेगा उस गरबा मंडल को इस वर्ष बजरंग सेना द्वारा आयोजित पर्यावरण सम्मान समारोह में सम्मानित किया जायेगा।<br />
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<p>चाँद पोल नागरिक समिति के तेज शंकर पालीवाल ने कहा कि पूजन सामग्री ,मूर्ति आदि का विषर्जन झीलों में करने की रवायत अब रुकनी चाहिए।प्रति वर्ष मूर्ति विषर्जन &nbsp;के पश्चात् झील प्रेमिओ द्वारा मूर्तियों को बहार निकल जाता है किन्तु मूर्तियों पर लगे कठोर और विषेले रंग जल में गुल जाते है जो जलीय जीवो के साथ ही मानव स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुचते है।रेड क्रोमियम व रात को चमकने वाले रंग में युरेनियम ऑक्साइड की मात्रा होती है जो दीर्घ अवधि तक अपना प्रभाव रखती है।<br />
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<p>डॉ मोहन सिंह मेहता ट्रस्ट के सचिव नन्द किशोर शर्मा ने बताया कि झील हितेषियो ,मिडिया ,नागरिक संस्थाओ एवं धार्मिक संघठनो ने मूर्ति ,ताजिये आदि के विषर्जन पर जो चेतना &nbsp;बनायीं है उसे और आगे ले जाने की जरुरत है।मूर्ति विषर्जन झीलों में ना होकर बहार ही हो तथा प्रशासन पुक्ता व्यवस्था करे जिससे इस वर्ष झीलों में विषर्जन रुके। शर्मा ने आगे कहा कि झीलों को स्वच्छ बनाये रखने का दायित्व प्रशासन का है।</p>

<p>&nbsp;नितेश सिंह</p>
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लंदन के डैली मेल ने लिखा- बेशर्म है भारत सरकार!

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<p>लंदन से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी अखबार &#39;डेली मेल&#39; ने अपनी अपनी वेबसाइट &lsquo;मेल ऑनलाइन टुडे&rsquo; में भारत सरकार को &lsquo;बेशर्म&rsquo; कहा है। &lsquo;मेल ऑनलाइन टुडे&rsquo; की एक खबर की हेडलाइन के मुताबिक- &ldquo;Shameless Union Cabinet approves ordinance to protect convict politicians despite Supreme Court efforts&rdquo; जिसका मतलब है- &ldquo;बेशर्म केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने सुप्रीम कोर्ट के प्रयासों के बावजूद अपराधी नेताओं को बचाने के लिए अध्यादेश को मंजूरी दी&rdquo; दरअसल इस शब्द का प्रयोग वेबसाइट ने इसलिए किया क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार ने मंगलवार को अपराधी नेताओं को बचाने के लिए अध्यादेश को मंजूरी दे दी।</p>

<p>जिसके बाद अध्यादेश को राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेज दिया गया है। कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए सरकार पहले विधेयक लाई थी, लेकिन वह लोकसभा में अटक गया। माना जा रहा है कि सरकार के पास शीतकालीन सत्र तक इंतजार करने का समय नहीं है क्योंकि कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य रशीद मसूद का मामला फंस रहा है। मसूद को दिल्ली की एक अदालत भ्रष्टाचार के जुर्म में दोषी ठहरा चुकी है। एक अक्टूबर को उन्हें सजा सुनाई जानी है।</p>

<p>चारा घोटाले में आरोपी लालू के मामले में भी 30 सितंबर को झारखंड की सीबीआई अदालत का फैसला आना है। अगर फैसला उनके खिलाफ गया तो भी अध्यादेश से उनकी सदस्यता बची रहेगी। इन परिस्थितियों में आमतौर पर गुरुवार को होने वाली कैबिनेट की बैठक दो दिन पहले ही बुलाई गई। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में भाग लेने के लिए बुधवार को अमेरिका रवाना होने वाले हैं। इसलिए आनन-फानन में कैबिनेट की बैठक बुलाकर अध्यादेश को मंजूरी दे दी गई।</p>

<p>राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद कानूनन कोई अध्यादेश छह महीने तक प्रभावी रह सकता है। लेकिन, इस बीच अगर संसद सत्र पड़ता है तो अध्यादेश को विधेयक के रूप में पेश कर सदन की मंजूरी लेनी पड़ती है। सुप्रीम कोर्ट ने गत 10 जुलाई को दागी सांसदों-विधायकों को अयोग्यता से बचाने वाली जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 को असंवैधानिक घोषित कर दिया था।</p>

<p>सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, अदालत से दोषी करार होते ही सांसद-विधायक की सदस्यता खत्म हो जाएगी। संसद को अयोग्यता लंबित रखने का कानून बनाने का अधिकार नहीं है। इस फैसले के खिलाफ दाखिल सरकार की पुनर्विचार याचिका भी शीर्ष अदालत खारिज कर चुकी है। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू है।</p>
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पति-पत्नी में मनमुटाव का फायदा उठाता था आसाराम

\nनाबालिग से रेप के आरोप में फंसे आसाराम के कृत्यों की फेहरिस्त में एक और सनसनीखेज खुलासा हुआ है। आसाराम का "शिकार" सिर्फ नाबालिग लड़कियां और युवतियां ही नहीं, बल्कि सुंदर विवाहिताएं भी थीं। खासकर वे जिनका अपने पति से अक्सर विवाद रहता था। आसाराम ऐसी महिलाओं को फंसाने के लिए त्रिकाल संध्या और ध्यान योग शिविर का सहारा लेते थे।

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आसाराम को लेकर यह नया खुलासा किया है शाहजहांपुर निवासी उनके ही तीन पूर्व साधकों ने। आसाराम से दीक्षा लेकर १४ पूनम दर्शन और ध्यान योग शिविर करने वाले ये साधक सात साल से अपनी पत्नी से अलग हैं। अपने अलगाव के लिए वह आसाराम को ही दोषी मानते हैं।

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उन्होंने बताया कि त्रिकाल संध्या और गुरु को ही सर्वस्व मानने के मंत्र ने उनकी जिंदगी बर्बाद कर दी। उन्होंने भी जब आसाराम की बुराई शुरू कर दी तो उनकी पत्नी ने भी गोहत्या का पाप बताते हुए उनसे पूरी तरह संबंध तोड़ लिए और अलग रहने लगी। त्रिकाल पूजासाधकों ने बताया कि आसाराम त्रिकाल पूजा सुबह, दोपहर और शाम को कराते थे।

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इसके लिए खासकर उन महिलाओं को प्रेरित किया जाता था, जिनका पतियों से कुछ मनमुटाव रहता था। त्रिकाल पूजा दंपतियों के बीच फूट की पहली कड़ी होती थी। विवाद बढ़ने पर उसे वैराग्य की संज्ञा दी जाती थी। पूजा के दौरान पति का स्पर्श भी महापाप बताकर उन्हें लगातार अलग रहने को प्रेरित किया जाता था। एक माह, पांच साल और १७ साल की यह साधना होती थी।

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१५ दिन के लिए कुटिया में बुलाता था

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त्रिकाल पूजा के बाद पति से अलग होने वाली महिलाओं के लिए अलग से ध्यान योग शिविर रखा जाता था जिसमें उन्हें बुलाया जाता था। वे १५ दिन तक बापू की कुटिया में रहती थीं। यहां मोक्ष दिलाने के बहाने उनका शारीरिक शोषण होता था।

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पूर्व साधक आज भी अपनी पत्नी से लगाव रखते हैं। उन्हें भरोसा है कि जिस दिन उनकी पत्नी आसाराम की अंधभक्ति छोड़ देगी, उनका घर फिर से आबाद हो जाएगा। उन्होंने कहा कि आसाराम ने उन्हें विवेक शून्य बना दिया है। हालांकि, जब उन्होंने नजदीक से यह सब देखा तो पूजा-पाठ बंद कर दी और घर से आसाराम की तस्वीर हटा दी.

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संजय दत्ते जैसे अपराधियों को जेल क्यों नहीं भेजा जाना चाहिए?

पिछले दिनों 1993 में मुंबई में हुए सीरियल बम ब्लास्ट के कई आरोपियों को अदालत द्वारा सुनाई गई। इन सज़ा पाने वालों में अन्य आरोपियों के विषय में तो शायद देश इतना अधिक परिचित नहीं परंतु इन आरोपियों के साथ ही अवैध रूप से हथियार व गोलाबारूद रखने के मामले में सज़ा पाने वाले फिल्म अभिनेता संजय दत्त के नाम से तो पूरा देश भलीभांति वाकि़फ है। और जब अदालत ने संजय दत्त को भी अवैध रूप से हथियार के मामले में आरोपी बनाते हुए पांच वर्ष की सज़ा सुनाई तो पूरे देश में संजय दत्त को दी गई सज़ा को लेकर अच्छी-खासी बहस छिड़ गई।

हालांकि ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि अदालती फैसले खासतौर पर उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले आने के बाद सार्वजनिक रूप से इस प्रकार की चर्चाएं छिड़े जिसमें अदालतों को सलाह देने या उससे फैसले को बदलने की उम्मीदें रखी जाएं। परंतु संजय दत्त के मामले में तो कम से कम ऐसा ही देखने को मिला। मज़े की बात तो यह है कि इस अदालती फैसले पर असंतोष व्यक्त करने वालों व संजय दत्त को माफी दिए जाने की बात करने की शुरुआत करने वालों में पहला नाम सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश तथा प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू का था। जस्टिज काटजू ने संजय दत्त को माफी दिए जाने की पुरज़ोर वकालत की। उसके पश्चात तो पूरे देश में यह बहस सभी वर्ग में छिड़ी दिखाई दी कि संजय दत्त को अदालत द्वारा माफ किया जाना चाहिए अथवा नहीं?

संजय दत्त के पक्ष में देश के तमाम प्रतिष्ठित लोगों, नेताओं, बुद्धिजीवियों व फिल्म जगत के तमाम लोगों के खड़े होने का जो कारण है वह ज़ाहिर है किसी से छुपा नहीं है। संजय दत्त एक अत्यंत प्रतिष्ठित व सम्मानित फिल्म अभिनेता व केंद्रीय मंत्री रहे सुनील दत्त के पुत्र हैं। उनकी माता नरगिस दत्त भी भारतीय सिनेमा की जानी-मानी अभिनेत्री रही हैं। उनकी बहन प्रिया दत्त भी सांसद हैं। संजय दत्त के अपने व्यक्तिगत रिश्ते भी कांग्रेस व समाजवादी पार्टी तथा शिवसेना सहित लगभग सभी पार्टियों से मधुर हैं। उधर संजय दत्त के पिता सुनील दत्त की असामयिक मृत्यु के पश्चात भी आम लोगों की सहानुभूति संजय दत्त को प्राप्त है। अपने नवयुवक होते संजय दत्त ने कई ऐसे गलत शौक़ भी पाले जिनकी वजह से उन्हें काफी परेशानी उठानी पड़ी तथा बदनामी का भी सामना करना पड़ा।

उनका अपना व्यक्तिगत वैवाहिक जीवन भी सुखमय नहीं रहा। मुंबई में रहते हुए अपनी नौजवानी के दिनों में उनके संबंध अंडरवर्ल्ड के लोगों से भी हो गए थे। और इन्हीं संबंधों का परिणाम उन्हें इस सज़ा के रूप में आज भुगतना पड़ रहा है। उपरोक्त सभी परिस्थितियां ऐसी थीं जिनकी वजह से आम लोगों की सहानुभूति, संजय दत्त के साथ जुडऩा स्वाभाविक सी बात थी। उधर संजय दत्त को मुख्य अभिनेता के रूप में लेकर मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में गत् वर्षों में मुन्ना भाई एमबीबीएस तथा लगे रहो मुन्ना भाई जैसी फिल्में बनाई गर्इं। इन फिल्मों के द्वारा संजय दत्त की छवि को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया गया। काफी हद तक फिल्म जगत द्वारा संजय दत्त की छवि उज्जवल करने व जतना के बीच इन्हें लोकप्रिय बनाने का यह प्रयास सफल भी रहा। पूरे देश में संजय दत्त द्वारा लगे रहो मुन्ना भाई फिल्म में प्रदर्शित की गई उनकी गांधीगिरी की खूब चर्चा हुई। समीक्षकों ने तो यहां तक लिख डाला कि संजय दत्त ने इस फिल्म के माध्यम से गांधी जी व उनके सिद्धांतों को पुन: जीवित कर डाला।

अदालत ने न तो संजय दत्त की पारिवारिक पृष्ठभूमि को मद्देनज़र रखा, न ही फिल्म जगत में दिए गए उनके किसी योगदान का लिहाज़ किया। न ही उनकी किसी ‘बेचारगी’ का ख्याल किया। इन सबसे अलग हटकर कानून ने अदालत के माध्यम से वही फैसला सुनाया जिसकी देश की आम जनता उम्मीद करती है यानी ‘सिर्फ न्याय’। हमारे देश का संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार देता है। कानून की नज़रों में भी सभी व्यक्ति समान हैं। ज़ाहिर है इसी सोच के अंतर्गत अदालत ने संजय दत्त को भी अपने पास अवैध व संगीन हथियार व गोला बारूद रखने का दोषी पाए जाने के जुर्म में सज़ा सुनाई। और संजय दत्त को अन्य दोषियों के समान सज़ा सुनाकर माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि कानून की नज़रों में सभी नागरिक एक समान हैं।

संजय दत्त के प्रशंसकों तथा उन्हें क्षमादान दिए जाने की वकालत करने वालों के द्वारा यह तर्क दिए जा रहे थे कि उनके सामाजिक जीवन व उनकी फिल्म जगत को दी गई सेवाओं के चलते उन्हें माफ कर दिया जाना चाहिए। यहां यह गौरतलब है कि अदालत ने संजय दत्त को सज़ा सुनाते वक्त खुद ही उन्हें दी गई सज़ा में नरमी बरतते हुए यह सज़ा सुनाई है। परंतु अदालत द्वारा संजय दत्त को पूरी तरह माफ कर दिए जाने की बात कहने वालों को ऐसा कहने या ऐसी सलाह देने से पहले यह सोच लेना चाहिए कि भारतीय न्यायालयों द्वारा दिए जाने वाले सभी फैसले एक रिकॉर्ड के रूप में संकलित किए जाते हैं। तथा इन फैसलों को पूरे देश की अदालतों में अधिवक्तागण समय-समय पर व ज़रूरत पडऩे पर एक नज़ीर के रूप में पेश करते हैं।

कानूनी किताबों की श्रंखला एआईआर में भी ऐसे महत्वपूर्ण फैसले प्रकाशित किए जाते हैं। अदालतों द्वारा दिए जाने वाले फैसलों पर देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की नज़रें भी रहती हैं। लिहाज़ा यदि संजय दत्त के साथ अदालत किसी प्रकार का पक्षपात करती तो इसका देश की अंतर्राष्ट्रीय छवि पर प्रभाव पडऩे के साथ-साथ भविष्य में होने वाली दूसरी घटनाओं व मुकद्दमों पर आिखर कैसा प्रभाव पड़ता ? इतना ही नहीं बल्कि देश की वह आम जनता जो आज भी इस बात को लेकर संदेह रखती है कि न्याय गरीबों को मिलता भी है अथवा नहीं कम से कम उस वर्ग को तो बिल्कुल ही यह विश्वास हो जाता कि अदालती फैसले पक्षपातपूर्ण होते हैं तथा आरोपियों व अपराधियों के ‘व्यक्तित्व’ पर आधारित होते हैं।

परंतु अदालत ने संजय दत्त के मामले में अपने फैसले के द्वारा ऐसा कोई भी नकारात्मक संदेश भेजने से परहेज़ किया। संजय दत्त कितने ही बड़े अभिनेता, प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य, समाजसेवी, राजनेता अथवा समय के सताए हुए एक सहानुभूति प्राप्त करने के हकदार व्यक्ति क्यों न रहे हों परंतु उनका व्यक्तित्व कम से कम इंदिरा गांधी के मुकाबले में तो कुछ भी नहीं है। देश ने भारतीय न्यायालय के उस कठोर रुख को उस समय भी देखा था जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राजनारायण द्वारा इंदिरा गांधी के विरुद्ध दायर की गई चुनाव संबंधी एक याचिका के संबंध में अपना निर्णय देते हुए इंदिरा गांधी के विरुद्ध उस समय फैसला दिया था जबकि वे देश की प्रधानमंत्री थीं।

ज़ाहिर है देश में प्रधानमंत्री का पद सर्वोच्च पद है, इंदिरा गांधी का परिवार देश का सबसे प्रसिद्ध,प्रतिष्ठित व सम्मानित परिवार कल भी माना जाता था और आज भी है। इंदिरा गांधी द्वारा देश व दुनिया के लिए किए गए तमाम सामाजिक कार्यों को भी अनेदखा नहीं किया जा सकता। परंतु अदालत ने इन सभी योग्यताओं, उपलब्धियों तथा विशेषताओं को दरकिनार करते हुए एक साधारण नागरिक की ही तरह इंदिरा गांधी के मुकद्दमे की भी सुनवाई की तथा साक्ष्यों के आधार पर उनके विरुद्ध अपना फैसला सुना डाला। हालंाकि इस फैसले का देश की राजनीति पर दीर्घकालीन प्रभाव भी पड़ा। जिसका उल्लेख यहां करना आवश्यक व प्रासंगिक नहीं।

संजय दत्त को सुनाई गई सज़ा के बाद अदालत के फैसले की आलोचना करने अथवा इसे सलाह देने के बजाए सफेदपोश लोगों को विशेषकर सेलेब्रिटिज़, समाजसेवी, राजनेता, उच्चाधिकारी, धर्माधिकारी तथा ग्लैमर की दुनिया से जुड़े लोगों को स्वयं सबक लेना चाहिए तथा उन्हें अपने-आप यह सोचना चाहिए कि चूंकि भावनात्मक रूप से समाज का एक अच्छा-खासा वर्ग उनके साथ जुड़ा रहता है और उन्हें अपना आदर्श व प्रेरणास्रोत मानता है। लिहाज़ा वे खुद ऐसे किसी कार्य में संलिप्त न हों जो उनकी बदनामी व रुसवाई का कारण बने। इसमें कोई शक नहीं कि जब समाज में ‘आईकॅान’ समझे जाने वाले लोग किसी अपराध में शामिल पाए जाते हैं तो उनके समर्थकों व शुभचिंतकों को गहरा धक्का लगता है।

ज़ाहिर है शुभचिंतक व समर्थक होने के नाते यह वर्ग अपने आदर्श व्यक्ति के प्रति पूरी सहानुभूति भी रखता है। ऐसे में निश्चित रूप से वह नहीं चाहता कि उसका आदर्श पुरुष अपमानित हो, गिरफ्तार किया जाए, जेल भेजा जाए या फिर उसे अदालत द्वारा सज़ा सुनाई जाए। इससे बचने के उपाय केवल यही हो सकते हैं कि सेलेब्रिटिज़ अथवा सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त व समाज में ‘आईकॅान’ समझे जाने वाले लोग अपने आचरण में सुधार करें तथा अपना जीवन संयमित होकर पूरी नैतिकता के साथ गुज़ारें। परंतु ऐसे लोगों के किसी अपराध में संलिप्त होने के बाद देश की अदालतों से इनके पक्ष में फैसले दिए जाने की उम्मीद रखना तो कतई मुनासिब नहीं है।
Nirmal Rani (Writer)
1622/11 Mahavir Nagar
Ambala City 134002
Haryana
phone-09729229728.

900 से ज्यादा भारतीय रणबांकुरों के बलिदान ने लिखी थी हैफा-मुक्ति की कहानी

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<p>किसी ने सच ही कहा है कि भारत का सैनिक सेना में नौकरी करने के उद्देश्य से भर्ती नहीं होता, वह भर्ती होता है मातृभूमि पर अपना सब कुछ निछावर करने, अपने कर्तव्य पथ पर अडिग, अनुशासित रहते हुए देश की मिट्टी की रक्षा करने, इंसानियत के दुश्मनों को धूल चटाने।</p>

<p>और यही वह भाव होता है जो हमारे बहादुर सैनिकों में सवा लाख से अकेले टकरा जाने का दमखम भरता है, और अंतत: विजयश्री दिलाता है।<br />
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भारतीय सेना के इतिहास में अनगिनत उदाहरण मिलेंगे जिनमें विपरीत परिस्थितियों में दुश्मन को नाकों चने चबवाकर हमारे जवानों ने किले फतह किए हैं। सिर्फ भारत ही नहीं, विदेशी धरती पर भी हमारे जवानों ने अपने रक्त से शौर्य गाथाएं लिखकर इस धरती के दूध की आन बढ़ाई है। लेकिन हमारे राजनेताओं ने सैनिकों के बलिदानों को हमेशा अपमानित ही किया, उनके गौरव को बढ़ाने की जगह आज भी सैनिकों का मनोबल तोड़ने के दुष्चक्र चलाए जा रहे हैं।<br />
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शायद यही कारण है कि भारत में ऐसे कम ही लोग होंगे जिन्हें इस्रायल के फिलिस्तीन से सटे हैफा शहर की आजादी के संघर्ष में तीन भारतीय रेजीमेंटों-जोधपुर लांसर्स, मैसूर लांसर्स और हैदराबाद लांसर्स- के अप्रतिम योगदान के बारे में पता होगा। ब्रिटिश सेना के अंग के नाते लड़ते हुए इन भारतीय रेजीमेंटों ने अत्याचारी दुश्मन के चंगुल से हैफा को स्वतंत्र कराया था और इस संघर्ष में 900 से ज्यादा भारतीय योद्घाओं ने बलिदान दिया था, जिनके स्मृतिशेष आज भी इस्रायल में सात शहरों में मौजूद हैं और मौजूद है उनकी गाथा सुनाता एक स्मारक, जिस पर इस्रायल सरकार और भारतीय सेना हर साल 23 सितम्बर को हैफा दिवस के अवसर पर पुष्पांजलि अर्पित करके उन वीरों को नमन करती है।<br />
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हैफा मुक्ति की गाथा कुछ यूं है। बात प्रथम विश्व युद्घ (1914-18) की है। ऑटोमन यानी उस्मानी तुर्कों की सेनाओं ने हैफा को कब्जा लिया था। वे वहां यहूदियों पर अत्याचार कर रही थीं। उस युद्घ में करीब 150,000 भारतीय सैनिक आज के इजिप्ट और इस्रायल में 15वीं इम्पीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड के अंतर्गत अपना रणकौशल दिखा रहे थे। भालों और तलवारों से लैस भारतीय घुड़सवार सैनिक हैफा में मौजूद तुर्की मोर्चों और माउंट कारमल पर तैनात तुर्की तोपखाने को तहस-नहस करने के लिए हमले पर भेजे गए। तुर्की सेना का वह मोर्चा बहुत मजबूत था, लेकिन भारतीय सैनिकों की घुड़सवार टुकडि़यों, जोधपुर लांसर्स और मैसूर लांसर्स ने वह शौर्य दिखाया जिसका सशस्त्र सेनाओं के इतिहास में कोई दूसरा उदाहरण नहीं है। खासकर जोधपुर लांसर्स ने अपने सेनापति मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्व में हैफा मुक्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।</p>

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23 सितम्बर 1918 को तुर्की सेना को खदेड़कर मेजर ठाकुर दलपत सिंह के बहादुर जवानों ने इस्रायल के हैफा शहर को आजाद कराया। ठाकुर दलपत सिंह ने अपना बलिदान देकर एक सच्चे सैनिक की बहादुरी का असाधारण परिचय दिया था। उनकी उसी बहादुरी को सम्मानित करते हुए ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें मरणोपरांत मिलिटरी क्रास पदक अर्पित किया था।<br />
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ब्रिटिश सेना के एक बड़े अधिकारी कर्नल हार्वी ने उनकी याद में कहा था, ह्यउनकी मृत्यु केवल जोधपुर वालों के लिए ही नहीं, बल्कि भारत और पूरे ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक बड़ी क्षति है।ह्ण मेजर ठाकुर दलपत सिंह के अलावा कैप्टन अनूप सिंह और से़ ले़ सगत सिंह को भी मिलिटरी क्रास पदक दिया गया था। इस युद्घ में कैप्टन बहादुर अमन सिंह जोधा और दफादार जोर सिंह को उनकी बहादुरी के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट पदक दिए गए थे। आज भी हैफा, यरुशलम, रामलेह और ख्यात बीच सहित इस्रायल के सात शहरों में उनकी याद बसी हैं।</p>

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इतना ही नहीं, हैफा नगर निगम और उसके उप महापौर के प्रयासों से इस्रायल सरकार वहां की स्कूली किताबों में भी इन वीर बांकुरों पर विशेष सामग्री प्रकाशित करने का फैसला कर चुकी है। इसके लिए हैफा के उप महापौर हेदवा अलमोग की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। भारत क्या, दिल्ली के ही बहुत कम निवासी जानते होंगे कि तीन मूर्ति भवन के सामने सड़क के बीच लगीं तीन सैनिकों की मूर्तियां उन्हीं तीन घुड़सवार रेजीमेंटों की प्रतीक हैं जिन्होंने अपनी जान निछावर करके हैफा को उस्मानी तुर्कों से मुक्त कराया था।<br />
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इस 23 सितम्बर 2013 को हैफा के साथ ही हांगकांग, नई दिल्ली, जयपुर, जोधपुर और मुम्बई में भारत को अपनी मातृभूमि मानने और इस देश के विकास में योगदान देने वाले पारसी समाज की सहभागिता से हैफा दिवस मनाया गया। नई दिल्ली के पारसी प्रार्थना गृह जूडाह ह्याम सिनेगॉग में सम्पन्न इस कार्यक्रम में भारत में इस्रायल के राजदूत आलोन उश्पिज, पंजाब के राज्यपाल रहे ले. जनरल जे़ एफ़ आर. जेकब, स्वाड्रन लीडर राणा तेज प्रताप सिंह चिन्ना, राज्य सभा सांसद तरुण विजय, इंडो-इस्रायल फें्रडशिप फोरम के परामर्शदाता रवि अय्यर सहित अनेक विशिष्टजन उपस्थित थे। इस अवसर पर राजदूत आलोन ने बताया कि चूंकि वे खुद हैफा में पले-बढ़े हैं इसलिए बचपन से ही भारतीय सैनिकों के बलिदान की गाथा सुनते आए हैं। उन्होंने बताया कि आज भी उन सैनिकों के प्रति वहां के लोगों में बहुत सम्मान का भाव है। ले. जनरल जेकब ने उस लड़ाई के कुछ अनछुए पहलू सामने रखे। स्वाड्रन लीडर चिन्ना ने इतिहास के पन्नों से उस लोमहर्षक गाथा के कुछ अंश पढ़कर सुनाए।<br />
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तरुण विजय ने भारत-इस्रायल संबंधों को और प्रगाढ़ करने और उन बलिदानी सैनिकों की स्मृति को चिर-स्थायी बनाने के कुछ कदम उठाने की सलाह दी। रवि अय्यर ने बताया कि 2018 में हैफा मुक्ति के 100 साल खूब धूमधाम से मनाए जाएंगे, विशेष कार्यक्रम किए जाएंगे। उन्होंने पारसी समाज के भारत के विकास में योगदान और उस समाज में भारत के प्रति आदर भाव की जानकारी दी। एचआरडीआई के महासचिव राजेश गोगना ने कहा कि हैफा मुक्ति की कहानी हर उस भारतीय को पढ़नी चाहिए जिसे अपने बहादुर सैनिकों पर गर्व है। यह गाथा हमारे दिल-दिमाग पर उन वीरों की अमिट छाप छोड़ जाती है।<br />
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इस मौके पर इंडो-इस्रायल फ्रेंडशिप फोरम और एचआरडीआई की ओर से एक प्रस्ताव भी पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि- &#39;हम इन वीर भारतीय सैनिकों की गाथा इस्रायल की स्कूली किताबों में शामिल करने पर हैफा नगर निगम का धन्यवाद ज्ञापित करते हैं। 2018 में शताब्दी समारोह आयोजित&nbsp; किए जाने का निर्णय स्वागतयोग्य है।&#39; प्रस्ताव में हैफा के नायक मेजर ठाकुर दलपत सिंह शेखावत की याद में एक डाक टिकट जारी करने की मांग की गई। कार्यक्रम के आरम्भ और अंत में कुर्ता-पाजामा पहने और बढि़या हिन्दी बोलने वाले उस पारसी सिनेगॉग के मानद सचिव इजकिल इसाक मालेकर ने हिब्रू भाषा में विश्व बंधुत्व और शांति हेतु<br />
प्रार्थना की।<br />
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स्थानीय लोगों की मदद से ही पक्की होगी ‘जीत’

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सन 1962 के युद्घ में परास्त होने के बावजूद शांति के मोर्चे पर भारत जीत हासिल कर रहा है जबकि चीन जीतने के बावजूद मैकमोहन रेखा के दोनों ओर चुनौतियों का सामना कर रहा है।

सन 1962 के भारत-चीन युद्घ में किसे जीत हासिल हुई? यह सवाल हास्यास्पद प्रतीत होता है, खासतौर पर उन लोगों को जो 20 अक्टूबर 1962 को नामका चू के निकट शुरू हुए उस युद्घ के 50 साल पूरे होने पर आ रहे निराशाजनक आलेखों से जूझ रहे हैं। लेकिन जरा इस तथ्य पर गौर कीजिए : वर्ष 1962 के बाद से अरुणाचल प्रदेश का जबरदस्त भारतीयकरण हुआ है। उसने निरंतर जोर देकर खुद को भारत का हिस्सा बताया है। इस बीच, तिब्बत का मामला धीरे-धीरे सुलग रहा है क्योंकि चीन, साधारण तिब्बती लोगों से पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की ताकत के बल पर निपटने की कोशिश कर रहा है। चीन के सैनिक प्रदर्शनकारियों को विरोध प्रदर्शन शुरू करने से भी पहले गिरफ्तार कर लेते हैं। चीन के हान समुदाय के लोग भारी संख्या में तिब्बत में जननांकीय अतिक्रमण कर रहे हैं और इस तरह वे पशुपालन करके जीवन यापन करने वाले स्थानीय लोगों की संस्कृति को नष्टï कर रहे हैं।

ऐसे में क्या कहा जाए, युद्घ में भीषण पराजय के बाद शांतिकाल में भारत को विजय हाथ लग रही है? और चीन, सन 1962 में भारत को ‘सबक सिखाने के बादÓ और तिब्बत को जबरदस्त दमन के साथ कब्जाए रखने के बाद भी मैकमोहन रेखा के दोनों ओर यानी तिब्बत और अरुणाचल प्रदेश की ओर से चुनौती का सामना कर रहा है।

तिब्बत में वर्ष 2008 के बाद से ही चीन को लगातार भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। भारत की ओर से उसे सेना के बढ़ते जमाव और तिब्बत की निर्वासित सरकार का सामना करना पड़ रहा है जो चीन द्वारा तिब्बत में किए जा रहे दमन पर सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित कराने में लगी हुई है।

इसके ठीक विपरीत भारत ने अरुणाचल प्रदेश (तत्कालीन नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) में संवेदनशीलता से काम लिया है और सैन्य बल प्रयोग के प्रति अपनी अनिच्छा दिखाई है। परिणामस्वरूप वह भारत के एक अंग के रूप में उन स्थानीय लोगों का विश्वास जीतने में कामयाब रहा है जिनके मन में सन 1962 की हार काफी भीतर तक घर कर गई थी। ताकत के ख्ुाले आम प्रयोग से बचने की प्रवृत्ति सन 1951 में तवांग पर भारत के कब्जे के वक्त ही प्रत्यक्ष नजर आई थी जब असिस्टेंट पॉलिटिकल ऑफिसर आर काथिंग ने सीमा पर स्थित इस कस्बे में अद्र्घसैनिक बल असम राइफल्स की केवल एक प्लाटून (36 जवान) के साथ परेड की थी।

इसके अलावा सन 1853 में अचिंगमोरी में जब तागिन जनजाति के लोगों ने असम राइफल्स की प्लाटून का कत्लेआम किया था तब असम सरकार के तत्कालीन विशेष सलाहकार नरी रुस्तमजी ने प्रख्यात तौर पर नेहरू को इसका विरोध करने से रोका था। नेहरू ने चुनौती दी थी कि वह तागिन को नष्टï कर देंगे। इसके बजाय रुस्तमजी ने भारी नागरिक अभियान की शुरुआत की और दोषियों को न केवल पकड़ा और बकायदा बांस के बने अस्थायी न्यायालय में प्रक्रिया चलाकर उनको दंडित भी किया गया। यह बात बहुत जल्दी सारे क्षेत्र में फैल गई थी।

लेकिन यह ध्यान देना होगा कि स्थानीय संवेदनशीलता को राष्टï्रीय हित से ऊपर स्थान देने के कारण ही वर्ष 1962 में पराजय का सामना करना पड़ा था। सैन्य शक्ति पर निर्भर नहीं रहने की जिस बात ने स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने में मदद की उसी के तहत सेना की तैनाती में अनिच्छा और उसकी अपर्याप्त संख्या ने सन 1962 की पराजय में भी अहम भूमिका निभाई। उस वक्त ‘भविष्य की नीतिÓ के रूप में जो अदूरदर्शी तरीका अपनाया गया और जिसके तहत एकतरफा घोषित सीमाओं पर भारतीय चौकियां बनाई गईं, वह भारत की तीखी पराजय की वजह बनी। इस पराजय ने स्थानीय लोगों के मन में भारत की छवि भी धूमिल की।

आज उस घटना के 50 साल बाद जबकि देश अधिक समृद्घ और आक्रामक है, वह सैन्य शक्ति का अधिक इस्तेमाल करने और जवानों की तैनाती को लेकर भी आश्वस्त है। चीन के किसी भी किस्म के आक्रामक रवैये से निपटने की योजना तैयार करने में सन 1950 के दशक के सबक को याद रखना महत्त्वपूर्ण होगा। पहली बात, सेना की मौजूदगी को लेकर अरुणाचल के लोग बहुत अधिक सहज नहीं है। यह हालत तब है जबकि कई बार दूरदराज इलाकों में सेना ही इकलौती ऐसी सरकारी इकाई होती है जिसे लोग देख पाते हैं। सन 1950 और 1960 की तर्ज पर वर्ष 2010 और 2011 में भी अरुणाचल को भारत का अंग बनाए रखने के लिए स्थानीय लोगों का सहयोग उतना ही आवश्यक है जितना कि सेना का।

बहरहाल, सैनिकों की संख्या बढ़ाकर सैकड़ों किलोमीटर लंबी पहाड़ी घाटियों वाले इलाके में संपूर्ण सुरक्षा नहीं हासिल की जा सकती है। सैनिकों की संख्या में लगातार इजाफा करके भारत खुद पाकिस्तान के जाल में फंसते जाने का जोखिम बढ़ा रहा है। वह एक ऐसे पड़ोसी के खिलाफ अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने की कोशिश कर रहा है जिसके पास आर्थिक संसाधनों तथा सैन्य शक्ति की कोई कमी नहीं है।

इसके बजाय भारतीय सेना को अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना चाहिए। उसे सेना की मौजूदगी बढ़ाने के बजाय सन 1950 के दशक की तर्ज पर स्थानीय स्तर की साझेदारी पर भरोसा करना चाहिए। इसके लिए तीन स्तरीय कार्य योजना तैयार की जानी चाहिए। सबसे पहले स्थानीय जनजातियों की 20 प्रादेशिक बटालियन तैयार की जानी चाहिए जो चीन से अपने मातृ प्रदेश की रक्षा करेगी। बजाय कि सेना के उन जवानों पर निर्भर रहने के जो अपने निवास स्थान से हजारों किलोमीटर दूर अनजानी जगहों पर तैनात रहते हैं। रक्षा की प्रथम पंक्ति इन्हीं स्थानीय जनजातीय सेनाओं के जरिये तैयार की जानी चाहिए।

दूसरी बात, सीमा पर चीन की घुसपैठ रोकने के लिए भारी संख्या में जवानों की तैनाती करने के बजाय हमें ऐसे आक्रामक दस्ते तैयार करने चाहिए जो चीन द्वारा किसी भी तरह की घुसपैठ का जवाब तिब्बत में आकस्मिक हमले या घुसपैठ करके दें। हमारे पास हर वक्त 8 से 10 ऐसी योजनाएं तैयार रहनी चाहिए और साथ ही उनको लागू करने के लिए पूरे संसाधन भी हमारे पास होने चाहिए।

तीसरी बात, अरुणाचल प्रदेश और असम में सड़कों और रेलवे का बुनियादी ढांचा विकसित करना जो ऐसे लड़ाकू समूहों का परिवहन तेज करने के काम आएगा। उनको सीमा पर अधिक तेजी से ले जाने में मदद मिलेगी ताकि चीन की किसी भी नकारात्मक योजना को विफल किया जा सके। मेरे खयाल से यह सबसे अधिक जरूरी कदम है क्योंकि इससे सेना और आम जनता दोनों के हित की पूर्ति होगी। मैकमोहन रेखा के आसपास स्थित गांवों में सड़क सुविधा मुहैया कराकर हम वहां के लोगों को वह जीवनरेखा मुहैया करा रहे हैं जो उनको भारत से जोड़ती है।

साभार-बिज़नेस स्टैंडर्ड से.