Sunday, November 24, 2024
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भारत का हर व्यक्ति है बहुभाषीः प्रो.संजय द्विवेदी

कर्नाटक के हिंदी प्राध्यापकों के आयोजन में ‘हिंदी हैं हम’ विषय पर व्याख्यान
भोपाल। भारतीय जन संचार संस्थान के पूर्व महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी का कहना है कि भारत का प्रत्येक व्यक्ति बहुभाषी है। भारत जैसे बहुभाषी देश में हमारा किसी एक भाषा के सहारे काम चल ही नहीं सकता। हमें अपनी बात बाकी लोगों तक पहुंचाने के लिए और उनके साथ संवाद करने के लिए एक भाषा से दूसरे भाषा के बीच आवाजाही करनी ही पड़ती है। इसलिए अंग्रेजी के साम्राज्यवाद के विरूद्ध भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए काम करना होगा। वे यहां कर्नाटक राज्य विश्वविद्यालय कॉलेज हिन्दी प्राध्यापक संघ, बेंगलूरु के तत्वावधान में आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सप्ताह-‘हिन्दी पर्व-2024’ की आनलाइन व्याख्यानमाला को संबोधित कर रहे थे। ‘हिंदी हैं विषय’ पर आयोजित व्याख्यान कार्यक्रम में बड़ी संख्या में कर्नाटक राज्य के हिंदी प्राध्यापकों और शोधार्थियों ने सहभागिता की।
भारतीय भाषाओं का अमृतकालः

प्रो. द्विवेदी ने कहा कि भारत सदैव भाषाई और सांस्कृतिक सद्भावना की बात करता आया है और सभी भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलने के पीछे भी यही सोच है। जहां भाषा खत्म होती है, वहां संस्कृति भी उसके साथ दम तोड़ देती है। भारतीय भाषाओं को महत्व देते हुए हमें यह समझना चाहिए कि आपसी संपर्क का माध्यम हिंदी ही है। उन्होंने कहा कि हमें कोशिश करनी है कि जब दो विविध भाषा बोलने वाले भारतीय मिलें तो उनके संवाद की भाषा हिंदी हो, अंग्रेजी नहीं। प्रो.द्विवेदी ने कहा राजनीतिक परिर्वतन के कारण यह समय भारतीय भाषाओं का भी अमृतकाल है। इस समय का उपयोग करते हुए हमें आत्मदैन्य से मुक्ति लेनी है और सभी भारतीयों के बीच हिंदी संपर्क भाषा के रूप में स्वीकृत हो इसके सचेतन प्रयास करने होंगें।

कार्यक्रम में प्राध्यापक संघ के अध्यक्ष डा. एस.ए. मंजुनाथ,महासचिव डा. विनय कुमार यादव,डा. एम ए पीरां, प्रो. ज्योत्सना आर्या सोनी, डा.तृप्ति शर्मा, डा.सुवर्णा, डा. केए सुरेश, डा. गोपाल विशेष रुप से उपस्थित रहे।

सनातन वैदिक धर्म में तलाक जैसी को़ई चीज ही नहीँ है

वर-वधू को विवाह से पूर्व भली-भाँति देख-भाल और पड़ताल करके अपना साथी चुनने का आदेश दिया गया है – खूब अच्छी तरह परख कर अपना साथी चुनो। पर जब एक बार विवाह हो गया तो फिर विवाह टूट नहीं सकता – तलाक नहीं हो सकता। फिर तो एक दूसरे की कमी और दोषों को दूर करते हुए प्रेम और सहिष्णुता से गृहस्थ में रहो। एक पुरुष की एक ही पत्नी और एक स्त्री का एक ही पति होना चाहिये तथा विवाहित पति-पत्नी में कभी तलाक नहीं होना चाहिये इस विषय पर प्रकाश डालने वाले वेद के कुछ स्थल पाठकों के अवलोकनार्थ यहाँ उद्धृत किये जाते हैं –
√ अथर्ववेद (7.37.1) में पति से पत्नी कहती है – “हे पति तुम मेरे ही रहो, अन्य नारियों का कभी चिन्तन भी मत करो।”

√ अथर्ववेद (2.30.2) में पति पत्नी से कहता है – “हे पत्नी ! तू मुझे ही चाहने वाली हो, तू मुझ से कभी अलग न हो ।”
√ अथर्ववेद के चौदहवें काण्ड और ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 85 वें सूक्त में विवाह के समय नव वर-वधू को उपदेश दिया है कि – “तुम दोनों पति-पत्नी सारी आयु भर इस विवाहित जीवन के बन्धन में स्थिर रहो, तुम कभी एक दूसरे को मत छोड़ो।”
√ अथर्ववेद में वहीं चौदहवें काण्ड में (14.2.64) कहा है – “ये नव विवाहित पति-पत्नी सारी आयु भर एक दूसरे के साथ इस प्रकार इकट्ठे रहें जिस प्रकार चकवा और चकवी सदा इकट्ठे रहते हैं।”

√ ऋग्वेद (10.85.47) में विवाह के समय वर-वधू अपने आप को पूर्ण रूप से एक-दूसरे में मिला देने का संकल्प करते हुए कहते हैं – “सब देवों ने हम दोनों के हृदयों को मिला कर इस प्रकार एक कर दिया है जिस प्रकार दो पात्रों के जल परस्पर मिला दिये जाने पर एक हो जाते हैं।

√ अथर्ववेद (14.1.50) में वर अपनी वधू को सम्बोधन कर के कहता है – “हे पत्नि ! तू मुझ पति के साथ बुढ़ापे तक चलने वाली हो।” “हे पत्नि ! तू मुझ पति के साथ सौ वर्ष तक जीवित रह।” (अथर्ववेद 14.1.52)

वेद के इन और ऐसे ही अन्य स्थलों में स्पष्ट रूप से प्रतिपादन किया गया है कि आदर्श स्थिति यह है कि एक स्त्री का एक पति और एक पुरुष की एक ही पत्नी रहनी चाहिये तथा उनमें कभी तलाक नहीं होना चाहिये।
विवाह वास्तव में वह दिव्य सम्बन्ध है जिस में दो व्यक्ति अपना हृदय एक-दूसरे को प्रदान कर देते हैं। हृदय एक ही बार और एक ही व्यक्ति को दिया जा सकता है। एक बार दिया हुआ हृदय फिर वापिस नहीं लिया जा सकता। इसीलिये वेद एक-पति और एक-पत्नी के व्रत का विधान करते हैं तथा तलाक का निषेध करते हैं। वेद की सम्मति में एक बार पति-पत्नी रूप में जिसका हाथ पकड़ लिया, जीवन भर उसी का हो कर रहना चाहिये।

यदि एक-दूसरे में कोई दोष और त्रुटियां दीखने लगें तो उनसे खिन्न हो कर एक-दूसरे को छोड़ नहीं देना चाहिये। प्रत्युत स्नेह और सहानुभूति के साथ सहनशीलता की वृत्ति का परिचय देते हुए परस्पर के दोषों को सुधारने का प्रयत्न करते रहना चाहिये। जो दोष दूर ही न हो सकते हों उन के प्रति यह सोच कर कि दोष किस में नहीं होते, उपेक्षा की वृत्ति धारण कर लेनी चाहिये। स्नेह और सहानुभूति से एक-दूसरे की कमियों को देखने पर वे कमियां परस्पर के परित्याग का हेतु कभी नहीं बनेंगी। इसी अभिप्राय से वैदिक विवाह संस्कार में वर-वधू मिल कर मन्त्र-ब्राह्मण के वाक्यों से कुछ आहुतियां देते हैं जिन का भावार्थ इस प्रकार हैं – “तुम्हारी मांग में, तुम्हारी पलकों में, तुम्हारे रोमा आवर्तों में, तुम्हारे केशों में, देखने में, रोने में, तुम्हारे शील-स्वभाव में, बोलने में, हंसने में, रूप-काँति में, दाँतों में, हाथों और पैरों में, तुम्हारी जंघाओं में, पिंडलियों में, जोड़ों में, तुम्हारे सभी अङ्गों में कहीं भी जो कोई दोष, त्रुटि या बुराई है, मैं इस पूर्णाहुति के साथ उन सब तुम्हारी त्रुटियों और दोषों को शान्त करता हूं।” विवाह संस्कार की समाप्ति पर ये वाक्य पढ़ कर आहुतियें दी जाती हैं।

इन आहुतियों द्वारा वर-वधू यह संकल्प करते हैं कि हमने एक-दूसरे को उसके सारे गुण-दोषों के साथ ग्रहण किया है। हम एक-दूसरे के दोषों से खिन्न हो कर परस्पर झगड़ेंगे नहीं, और न ही कभी एक-दूसरे का परित्याग करने की सोचेंगे।

हम तो विवाह-संस्कार की इन पूर्णाहुतियों के साथ यह संकल्प दृढ़ करते हैं कि हम सदा परस्पर के दोषों को स्नेह और सहानुभूति से सुधारने और सहने का प्रयत्न करते रहेंगे। विवाह से पहले हमने अपने साथी को इसलिये चुना था कि वह हमें अपने लिये सब से अधिक उपयुक्त और गुणी प्रतीत हुआ था। अब विवाह के पश्चात् हमारी मनोवृत्ति यह हो गई है कि क्योंकि मेरी पत्नी मेरी है और मेरा पति मेरा है, इसलिये मेरे लिये मेरी पत्नी सब से अधिक गुणवती है और मेरा पति मेरे लिये सब से अधिक गुणवान् है। अब हमारे हृदय मिल कर एक हो गये हैं। अब हमें एक-दूसरे के गुण ही दीखते हैं, अवगुण दीखते ही नहीं। और यदि कभी किसी को किसी में कोई दोष दिख भी जाता है तो उसे स्नेह और सहानुभूति से सह लिया जाता है तथा सुधारने का यत्न किया जाता है। विवाह की इन पूर्णाहुतियों में हमने ऐसा संकल्प दृढ़ कर लिया है और अपनी मनोवृत्ति ऐसी बना ली है। जब हमारे दिल और आत्मा एक हो गये हैं तो हमारा ध्यान आपस की ऊपरी शारीरिक त्रुटियों की ओर जा ही कैसे सकता है ?
इस प्रकार वैदिक धर्म में न तो अनेक-पत्नी प्रथा (Polygamy) का स्थान है और न ही अनेक-पति प्रथा (Poliandry) का। इसके साथ वैदिक धर्म में तलाक का भी विधान नहीं है। यह ऊपर दिये गये वेद के प्रमाणों से अत्यंत स्पष्ट है।

[स्रोत : मेरा धर्म, प्रथम संस्करण 1957 ई., पृ 15-18, प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा]

जला है जिस्म अगर, दिल भी जल गया होगा। कुरेदते हो जब राख, जुस्तजू क्या है?

जी.एम.दुर्रानी अपने करियर के शिखर पर थे जब फिल्मी दुनिया से इनका मोहभंग हो गया था। एक बहुत पुराने रेडियो इंटरव्यू में जी.एम.दुर्रानी साहब ने कहा था कि ईश्वर के करीब जाने के लिए साल 1951 में उन्होंने गाना-बजाना छोड़ दिया था। फिल्मी दुनिया छोड़ने के बाद जी.एम.दुर्रानी ने अपनी दाढ़ी बढ़ा ली। इसलिए ताकि लोग फिल्मी दुनिया के लोग उन्हें जल्दी से पहचान ना सकें। अगर कोई फिल्मी दुनिया का इंसान इन्हें दिख भी जाता था तो ये अपनी गर्दन नीची कर लेते थे।

दुर्रानी साहब का कहना है कि जो ज़िंदगी वो फिल्म लाइन में जी रहे थे उससे उन्हें विरक्ति हो गई थी। फिल्मी दुनिया में रहते हुए जी.एम.दुर्रानी ने अच्छा पैसा कमाया था। मगर फिल्म लाइन छोड़ने के बाद वो दान-पुण्य में इतने ज़्यादा मशग़ूल हो गए कि पता ही नहीं चला कब बैंक-बैलेंस खत्म हो गया और वो फक्कड़ हो गए। ज़िंदगी चलाने के लिए उन्होंने एक परीचित से कुछ रुपए उधार लिए और किराने की एक दुकान शुरू कर दी। और फिर यूं ही उनकी ज़िंदगी की गाड़ी आगे बढ़ती चली गई।

8 सितंबर को ग़ुलाम मुस्तफा दुर्रानी उर्फ जी.एम.दुर्रानी का जन्मदिन था। 8 सितंबर 1919 को पेशावर में जी.एम.दुर्रानी साहब का जन्म हुआ था। दुर्रानी सोलह साल के थे जब वो अपनी किस्म आज़माने मुंबई आए थे। ऑल इंडिया रेडियो को दिए एक इंटरव्यू में अपने शुरुआती जीवन के बारे में बात करते हुए जी.एम.दुर्रानी साहब ने बताया था कि जब वो छोटे थे तब उनके घर पर कोई भी चाय पीना पसंद नहीं करता था। सब या तो दूध पीते थे या फिर लस्सी पीते थे। दुर्रानी साहब को भी लस्सी बहुत पसंद थी।

ये जब अपने इलाके के बाज़ार में स्थित दुकानों पर लस्सी पीने जाते थे तो लोग इनकी शख्सियत देखकर कहते थे कि इस लड़के को तो हीरो बनना चाहिए। इसे बंबई चले जाना चाहिए। उन दिनों ये एक पेंटर के यहां भी काम करते थे। और वो पेंटर संगीतकार रफ़ीक गजनवी का बहुत बड़ा फैन था। वो अक्सर उनके कंपोज़ किए गीत गुनगुनाता रहता था। उसी पेंटर को गुनगुनाते देखकर-सुनकर ही जी.एम.दुर्रानी को भी संगीत व गायकी में दिलचस्पी होने लगी थी। ये भी गाने-गुनगुनाने लगे।

इनके दोस्त इनकी गायकी की खूब तारीफें करते थे। दोस्तों से तारीफें मिली तो जी.एम.दुर्रानी ने रफ़ीक गजनवी को अपना गुरू मान लिया। जबकी ये उनसे उस समय तक कभी मिले भी नहीं थे। दुर्रानी जी ने अपने स्तर पर रियाज़ शुरू कर दिया। उसी दौरान दुर्रानी जी के पिता ने उन्हें एक मोटर पार्ट्स की दुकान पर नौकरी पर लगवा दिया। लेकिन वो नौकरी उन्हें ज़रा भी नहीं भाती थी। मगर कहें तो कहें किससे? पिता तो कुछ सुनने-समझने को तैयार ही नहीं होते थे।

आखिरकार एक दिन जी.एम.दुर्रानी ने घर छोड़कर मुंबई, जो तब बंबई हुआ करती थी, वहां जाने का फैसला कर लिया। वैसे भी वो दोस्तों और दूसरे लोगों से मिली तारीफों की वजह से बंबई जाने को मचला करते ही थे। लोगों की बातों ने उनके मन-मस्तिष्क में भी बंबई की हसीन और रंगीन तस्वीरें उकरने लगी। एक दिन 22 रुपए जेब में लेकर वो बंबई भाग ही आए। बंबई शहर उन्हें बहुत पसंद आया। और बंबई घूमने में उनका इतना मन लगा कि पता ही नहीं चला कि कब उनकी जेब खाली हो गई।

जेब खाली हुई तो रोटी की चिंता होने लगी। दुर्रानी ने सोचा कि क्यों ना फिल्मों में काम पाने की कोशिश की जाए। वैसे भी, लोग कहते ही थे कि ये तो बड़े आराम से हीरो बन जाएगा। उन्होंने लोगों से किसी फिल्म स्टूडियो का पता पूछा। इस तरह वो पहुंच गए एक फिल्म कंपनी के ऑफिस। वहां के मालिक को जी.एम.दुर्रानी की पर्सनैलिटी पसंद आई। दुर्रानी को बतौर एक्टर काम पर रख लिया। एक इंटरव्यू में जी.एम.दुर्रानी ने ये भी बताया था कि उन्होंने सिर्फ तीन-चार फिल्मों में ही अभिनय किया था। क्योंकि जब उन्होंने खुद को पर्दे पर देखा तो उन्हें अच्छा नहीं लगा। उनके खानदान में फिल्मों में काम करने वालों को बहुत नीची नज़रों से देखा जाता था। इसलिए उन्होंने एक्टिंग छोड़ दी।

एक्टिंग छोड़ने के बाद चुनौती ये थी कि बंबई में टिके रहने के लिए पैसा कहां से कमाया जाए? क्योंकि एक्टिंग करने से उन्होंने मना किया गया तो उन्हें नौकरी से भी निकाल दिया गया। किस्मत से एक्टिंग करना वो अब तक सीख चुके थे। इसलिए जैसे-तैसे जुगत लगाकर वो ऑल इंडिया रेडियो में ड्रामा आर्टिस्ट की हैसियत से नौकरी पर लग गए। और यूं रेडियो की दुनिया में जी.एम.दुर्रानी की एंट्री हुई। जी.एम.दुर्रानी अपने समय के बहुत मशहूर रेडियो एक्टर बन गए। काम से फुर्सत मिलने पर वो गायन का अभ्यास करते थे।

उन दिनों इंटरव्यू के लिए रेडियो के स्टूडियो में आने वाले गीतकारों व संगीतकारों के साथ भी दुर्रानी भी बैठ जाते थे। उन्हें गाते हुए सुनते थे। संगीत की दुनिया की कई हस्तियों से उनकी जान-पहचान हो गई।

आखिरकार जी.एम.दुर्रानी की किस्मत एक दफा फिर उन्हें फिल्म इंडस्ट्री में ले आई। साल 1935 में सोहराब मोदी साहब ने अपनी फिल्म कंपनी मिनर्वा मूवीटोन में दुर्रानी जी को तीस रुपए महीना की पगार पर नौकरी पर रख लिया। उस वक्त का एक दिलचस्प किस्सा कुछ यूं है कि एक दिन सोहराब मोदी ने जी.एम.दुर्रानी की आवाज़ का टेस्ट लिया। अगले दिन उन्होंने दुर्रानी को मिलने बुलाया।

दुर्रानी जब सोहराब मोदी से मिलने आए तो सोहराब मोदी ने उनसे कहा,”बड़े तीस मार खां बने फिरते हो। लो सुनो, क्या गुल खिलाए हैं तुमने।” ये कहकर सोहराब मोदी ने साउंडट्रैक प्ले कर दिया। और उसमें से इतनी बुरी आवाज़ आई कि जी.एम.दुर्रानी बड़े शर्मिंदा हुए। शर्म के मारे पानी पानी हो गए। उस वक्त उन्हें लग रहा था जैसे उनके गले से किसी इंसान की नहीं, जानवर की आवाज़ निकली थी रिकॉर्डिंग के वक्त। हालात इतने बुरे हो गए कि उनकी आंखों में आंसू आ गए।

उनसे आंसू देख सोहराब मोदी बोले,”बस? यही हिम्मत लेकर इतने बड़े शहर में जीतना चाहता है? अरे पगले, बड़े शहर में रहने के लिए शेर का दिल होना चाहिए। तेरी आवाज़ हमने एक दफा नहीं, कई दफा सुनी है। बहुत अच्छी आवाज़ है। हमने तो बस तुम्हें परेशान करने के लिए साउंडट्रैक उल्टा चला दिया था। आज से तुम हमारी कंपनी में पूरे तीस रुपए महीना की नौकरी करोगे।” तीस रुपए महीना तनख्वाह दुर्रानी जी को कम तो लगी थी। लेकिन शुरुआत के तौर पर उन्होंने वो नौकरी जॉइन कर ली।

चूंकि सोहराब मोदी पारसी थे और अपने समुदाय से बहुत मजबूती से जुड़े थे तो जब ये बात फैली की सोहराब मोदी ने एक नया गायक नौकरी पर रखा है तो पारसी समुदाय में होने वाली शादियों में जी.एम.दुर्रानी को गाने के न्यौते मिलने लगे। वहां से भी उनकी ठीक-ठाक कमाई होने लगी। फिर साल 1936 में आई फिल्म सईद-ए-हवस में जी.एम.दुर्रानी को पहली दफा एक गज़ल गाने का मौका मिला। उस फिल्म का संगीत उस्ताद बुंदू खां ने कंपोज़ किया था। फिल्म में वो गज़ल जी.एम.दुर्रानी पर ही फिल्माई भी गई थी। हालांकि शुरू में वो चाहते नहीं थे कि गज़ल उन पर फिल्माई जाए। लेकिन सोहराब मोदी के आदेश पर वो मान ही गए।

जी.एम.दुर्रानी ने कुछ साल मिनर्वा मूवीटोन में नौकरी की और कई फिल्मों के लिए गायकी की। मगर एक दिन मिनर्वा मूवीटोन बंद हो गया।

रेडियो की नौकरी वो कब के छोड़ चुके थे। इसलिए एक दफा फिर से उनके सामने मुसीबत खड़ी हो गई। उस वक्त उन्होंने एक रेकॉर्ड कंपनी में गायक की नौकरी पकड़ ली। लेकिन तकदीर ने फिर पलटी मारी और उन्हें ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली में नौकरी मिल गई। दिल्ली में दुर्रानी साहब की मुलाकात हुई शायर बेज़ार लखनवी और ज़ेड.ए.बुखारी से। बेज़ार लखनवी वो शायर थे जिनकी लिखी गज़लें गाकर बेग़म अख्तर गज़ल क्वीन कहलाई थी। और ज़ेड.ए.बुखारी वो हस्ती थे जिन्होंने बॉम्बे रेडियो स्टेशन की स्थापना के बाद उसे चलाया था।

दिल्ली ऑल इंडिया रेडियो में जी.एम.दुर्रानी को चालीस रुपए महीना पगार मिलती थी। तीन साल बाद उनकी पगार सत्तर रुपए हो गई। इसी दौरान संगीतकार नौशाद ने उन्हें दर्शन(1941) फिल्म में एक गीत गाने का ऑफर दिया। ऑल इंडिया रेडियो बॉम्बे में नौकरी करने के दौरान जी.एम.दुर्रानी की जान-पहचान नौशाद से हुई थी। दर्शन फिल्म में प्रेम अदीब और ज्योति मुख्य भूमिकाओं में थे। प्रेम अदीब और ज्योति तो अपने गीत खुद गाते थे। लेकिन जिस गीत के लिए नौशाद ने दुर्रानी साहब को गायकी करने का बुलावा दिया था उसके पिक्चराइजेशन में शाकिर नाम का एक एक्टर भी शामिल होना था जिसे ज़रा भी गायकी नहीं आती थी। नौशाद उसी कलाकार शाकिर के लिए दुर्रानी साहब से प्लेबैक सिंगिंग कराना चाहते थे।

दुर्रानी वो गाना गाने फिर एक दफा दिल्ली से मुंबई गए। वो गाना रिकॉर्ड हुआ और बहुत अच्छी तरह से रिकॉर्ड हुआ। नौशाद साहब जी.एम.दुर्रानी की गायकी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने और दो गीतों में जी.एम.दुर्रानी से प्लेबैक सिंगिंग कराई। फिल्म रिलीज़ हुई और उसके गीत सुपरहिट हो गए। जी.एम.दुर्रानी की गायकी लोगों को बहुत पसंद आई। दुर्रानी साहब को खूब शोहरत मिली। फिर तो उनसे पास गायकी के ऑफर्स की कमी ना रही।

इस तरह एक दफा फिर से जी.एम.दुर्रानी फिल्म इंडस्ट्री में लौट आए। दर्शन फिल्म के गीतों की रिकॉर्डिंग के दौरान फिल्म की हीरोइन ज्योति उर्फ सितारा बेगम से जी.एम.दुर्रानी को इश्क हो गया। और इश्क की वो आग इकतरफा नहीं थी। दोनों तरफ बराबर लगी थी। यानि ज्योति भी जी.एम.दुर्रानी को पसंद करती थी। आखिरकार दोनों ने शादी कर ली। ज्योति उर्फ सितारा बेगम से शादी करने के बाद तो जी.एम.दुर्रानी हर दिन तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते चले गए। उन्होंने कई फिल्मों के गीत गाए।

जी.एम.दुर्रानी का करियर बहुत ज़्यादा लंबा नहीं रहा था। मात्र छह या सात साल तक वो फिल्म इंडस्ट्री के शीर्ष गायकों में शुमार रहे थे।

1951 में दुर्रानी साहब ने गायकी छोड़ दी और किराने की दुकान खोल ली। इसका ज़िक्र इस लेख की शुरुआत में किया गया था, आपने पढ़ ही लिया होगा। जिस वक्त दुर्रानी साहब ने फिल्म इंडस्ट्री छोड़ी थी इत्तेफाक से उसी वक्त मोहम्मद रफी का करियर उठना शुरू हुआ। एक वक्त पर मोहम्मद रफी खुद जी.एम.दुर्रानी जैसी गायकी किया करते थे। वो दुर्रानी साहब को अपना आयडल बताते थे। बाद में साल 1956 में आई फिल्म “हम सब चोर हैं” में रफी साहब और दुर्रानी साहब ने एक गीत भी साथ में गाया था। चंद और गीत थे जिसमें इन दोनों गायकों ने साथ गायकी की थी।

रफी साहब के उभार के दौर में ही मुकेश जी व मन्ना डे जी की गायकी भी चमकी। और यूं नए गायकों के आने के बाद जी.एम.दुर्रानी को लोगों ने भुलाना शुरू कर दिया।

उनके गीत कभी-कभार रेडियो पर प्ले ज़रूर किए जाते थे। लेकिन रफी, मुकेश और मन्ना डे की नए ज़माने की गायकी अब लोगों को ज़्यादा भाने लगी थी। उधर जी.एम.दुर्रानी भी अपनी सूफियाना दुनिया में खोते चले गए। और कुदरत का अनोखा इंतज़ाम देखिए साथियों, आठ सितंबर 1988 को जी.एम. दुर्रानी साहब का निधन हो गया। यानि इनके जन्म की तारीख भी आठ सितंबर है और मृत्यु की तारीफ भी आठ सितंबर ही है। किस्सा टीवी भुलाए जा चुके गीतकार जी.एम.दुर्रानी जी को ससम्मान याद करते हुए उन्हें नमन करता है।

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साभार
https://www.facebook.com/share/p/xaSd5YFsakRYxT5D/?mibextid=xfxF2i से

भूत भगाने के चक्कर में अपनाया था ईसाई धर्म, 120 लोग वापस बने हिंदू

झारखंड।
शिव मंदिर प्रांगण में आर्ष कन्या गुरुकुल की बेटियो की ओर से शुद्धि यज्ञ कराया और आचार्यों ने आयोजन को संपन्न कराया। इस दौरान सभी का जनेऊ भी कराया गया।

झारखंड में गत 4 सितंबर, 2024 को 67 परिवारों के 120 लोगों ने सनातन वैदिक धर्म में वापसी की। सभी लोगों ने चंगाई सभा में बीमारी ठीक करने और परेशानी के साथ साथ भूत भगाने के भ्रम में पड़कर ईसाई धर्म अपनाया था।

यह हजारीबाग के इचाक के बरकाखुर्द की घटना है।
शिव चर्चा के बहाने येशु चर्चा कर किया गया भ्रमित
धर्मांतरण करने वाले लोगों ने बताया कि उन्हें पहले सत्संग के नाम पर बुलाया गया और फिर शिव चर्चा के बहाने येशु चर्चा कर भ्रमित किया गया। इस दौरान कई महिलाओं ने बताया कि पदमा प्रखंड के अडार गांव में शिव कुमार यादव झाड़ फूंक करने के बहाने सभी को प्रशिक्षित करता है। उन्हीं के कहने पर वे लोग भी इसमें शामिल हुए थे और इसके लिए पैसे दिए गए थे।

जिला परिषद प्रतिनिधि अशोक मेहता और उसकी टीम के अगुवाई में धर्म वापसी अभियान चलाया गया था।

पूरे कार्यक्रम के दौरान विहिप के प्रांतीय संगठन मंत्री देवी सिंह, प्रांतीय अध्यक्ष चंद्रकांत रायपत, भाजपा जिला अध्यक्ष श्रद्धानंद सिंह, ओबीसी मोर्चा के युवा अध्यक्ष अमरदीप यादव, विहिप के जिला मंत्री अरविंद मेहता, बजरंग दल के संयोजक प्रशांत कुमार सिंह, हिंदू युवा संघ के मनोज मेहता, सुजीत मेहता, संस्कार भारती के कुमार केशव, डॉक्टर प्रमोद कुमार, डॉक्टर कौशल मेहता, एकल विद्यालय की शिक्षिकाएं धर्म प्रसारक संघ के सदस्य के अलावा बरका खुर्द रतनपुर, मनाई आदि मौजूद थे।

कलाद्वर, दरिया सायल खुर्द, सायल कला और ममारख टोला समेत प्रखंड के हजारों सनातनी मौजूद थे।

धर्म वापसी करने वाले लोग रविदास मेहता और भुईंया समाज से जुड़े लोग हैं। उन लोगों से आचार्य पुष्पा शास्त्री के नेतृत्व में हवन कराया गया।

उन्होंने कहा कि समाज को बांटने की सुनियोजित साजिश चल रही है। जो कमजोर हैं, लोग उसे निशाना बना रहे हैं, मजबूत बनेंगे तो ऐसे लोग पास भी नहीं आएंगे।

(वर्तमान में शुद्धि ही आपकी आने वाली पुश्तों की रक्षा करने में सक्षम हैं। याद रखें आपके धार्मिक अधिकार तभी तक सुरक्षित हैं, जब तक आप बहुसंख्यक हैं। इसलिए अपने भविष्य की रक्षा के लिए शुद्धि कार्य को तन, मन, धन से सहयोग कीजिए। )
#shuddhi_andolan #

मीठी मार कर आइना दिखाती फारूक आफरीदी की व्यंग्य रचनाएं

राजस्थान में जोधपुर मूल के फारूक आफरीदी एक ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने काव्य सृजन से साहित्य जगत में कदम रखा परंतु वयंग्य रचना लेखन से राजस्थान ही नहीं, बल्कि देश भर में
साहित्य के राष्ट्रीय पटल पर अपनी पहचान बनाई। इनकी व्यंग्य रचनाओं ने इन्हें लोकप्रियता प्रदान की।
आप साहित्य के अध्येता होने के साथ – साथ सोशल एक्टिविस्ट भी हैं। आप प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलनों में सक्रिय रहे हैं। पीएलएफ जैसे जन साहित्य उत्सवों के आयोजकों में से एक  रहे हैं। साथ ही आप एक लोकप्रिय जनसंपर्क कर्मी और पत्रकार भी हैं।
कहते हैं आजकल अपनी छवि को लेकर चिंता करने का वक्त जाता  रहा। खराब छवियों वाले लोग खूब फल फूल रहे है। लेकिन यह फैशन बन गया  है सामने वाले की छवि सही होनी चाहिए वह बेदाग होना चाहिए यही दोगलापन चल रहा है । इसी को दर्शाती इनकी एक व्यंग्य रचना ‘’अपनी छवि सुधारिये जनाब ’’ से इनकी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत करते हैं…
 अपनी छवि सुधारिए :
 ‘’मेहता मखतूरमल मेरे  मोहल्ले  की शाला के मास्टर और मोतबिर आदमी हैं। बदले हुए युग में भी लोग उन्हें बड़ी इज्जत देते हैं वरना बेचारे मास्टरजी की तो मखौल ही उड़ाई जाती है आजकल। यही मास्टर जी आज सवेरे-सवेरे मेरी चौखट पर दस्तक देने आये।  मुझसे कहने लगे- भइया जी, आप राइटर लोग हो, सोसायटी की क्रीम हो और सारी ऊंच-नीच समझते हो। जरा यह तो बताओ कि मेरी छवि खराब है क्या? यह सुनकर हंसने को जी चाहता था । मैंने कहा – शक्ल सूरत से तो छवि अच्छी लगती है फिर किसने आपकी छवि पर ग्रहण लगा दिया?
वो आला अफसर आज शाला निरीक्षण पर आया था। मुझसे बोला – ‘मेहता, अपनी छवि सुधारो।’  मेहता को मैंने समझाया- मास्टर जी, यह तो इस सदी का मुहावरा है।  पहले मेरे दो प्रश्नों का उत्तर दो। ट्यूशन के क्या हाल हैं?
मास्टर जी बोले – सुसरे स्कूल में जितने छोकरे आते हैं उससे कहीं ज्यादा तो मेरे घर पढ़ने आते हैं। मैंने दूसरा प्रश्न किया – इतनी कमाई करते हो तो ऊपर वालों को खुश भी रखते हो कि नहीं? मेहता के मुख का जुगराफिया एकदम बिगड़ गया और बोला – नहीं, यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं। मैंने भांप लिया कि मेहता की छवि यहीं से खराब हुई। तुरन्त समझाया – बंधु, समझदारी से काम लो। अपने अफसर की मुट्ठी गरम करो और देखो कि तुम्हारी छवि निखरती है कि नहीं। मास्टर हो तो दीन-दुनिया की खबर रखा करो भाई! मुट्ठी गरम करने के भी दो तरीके हैं – कैश और काइंड।
मैंने उदाहरणों का बस्ता खोला। देखो मेहता जी, पिछले बीस साल से साहित्य अकादमी वाले मुझसे कह रहे हैं कि लिक्खाड़   लठ मत मार बल्कि अपनी छवि सुधार। मैं अगर अपनी छवि सुधार लेता तो चार किताबें अब तक छप जाती, उन पर पुरस्कार मिल जाता और साहित्य शिरोमणि का सम्मान भी पाता। बस यह छवि ही नहीं सुधार पाया। अब दूसरा उदाहरण लें।
अपने मौनी बाबा ने पार्टी और खुद की छवि सुधारने का जोरदार अभियान चलाया था। एक झटके में दिग्गजों को उखाड़ कर दरिया में फेंक दिया। मौनी बाबा के ऐसे दुर्दिन आये कि खुद उनकी छवि बिगड़ गई और जिनकी बिगड़ी हुई थी, केसर-पिस्ते का दूध पीकर उन्होंने अपनी छवि सुधार ली। छवि सुधार तो ताकत की खीर है। भुजबल हो या मुट्ठी बल। दोनों हों तो सोने में सुहागा।
अपने विधायक भगदौड़ीलाल को ही देखो। उन्हें छवि सुधारने के लिए डांट पिलाई गई थी। भगदौड़ीलाल ने हाईकमान को एक पेटी पहुंचाई तो उनकी छवि सुधर गई। इधर उनकी छवि सुधरी और उधर काबीना मंत्री की कुर्सी मिली। पासा ऐसा पलटा कि उलटा हाईकमान मुख्यमंत्री को कह रहा है कि अपनी छवि सुधार लो वरना हमारे पास तुम्हारा रिप्लेसमेंट तैयार है। एक उदाहरण और लो। पिछले दिनों अफसर-ए-आला ने हमारे हैड साहब को बुलाकर फटकारा। उसका लब्बो-लुबाब भी यही था कि मिस्टर अपनी छवि सुधारो वरना ऐसी जगह पटक दिये जाओगे कि लोग कहेंगे इस सड़ान्ध से दूर रहो।
हमने कहा – मेहता जी सुनो, कल को तुम्हारा कहीं ट्रांसफर हो गया तो यार लोग यही कहेंगे न कि उसकी तो छवि ही खराब थी। बाद में पता चला कि उनकी छवि सुधर गई निरीक्षण प्रतिवेदन में अफसर ने लिखा –
 ” मिस्टर मेहता इज एन इंटेलिजेंट एण्ड ओनेस्ट टीचर ऑफ द सोसायटी। “
ऐसे बने व्यंग्यकार :
इन्होंने  70’ के दशक में व्यंग्य साहित्य लेखन शुरू किया तब व्यंग्य की दृष्टि से हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रवीद्रनाथ त्यागी का दौर था। इन्हें पढ़ते-पढ़ते उनके भीतर  भी व्यंग्य आकार पाने लगा। शरद जोशी  से तो कई बार प्रत्यक्ष मिलना हुआ और उनकी रचनाओं को लेकर संवाद भी हुआ। अग्रज राजस्थानी भाषा के समर्थ कवि डॉ. तेजसिंह जोधा उन दिनों जोधपुर के दैनिक जलते दीप में एक साप्ताहिक कॉलम लिखते थे ‘मामूलीराम की डायरी।‘
 इस डायरी में वे आमजन के दर्द को व्यंग्यात्मक शैली में उकेरा करते थे। कुछ समय बाद उन्होंने जब अखबार छोड़ दिया तो समाचार संपादक के नाते यह कॉलम फारूक आफरीदी के जिम्मे आ गया। उस समय उनके  पास व्यंजना की वैसी भाषा नहीं थी जिसकी दरकार होती है,लेकिन अपने बुजुर्गों से ऐसी भाषा सुनी और कुछ समझी थी कि कैसे व्यंग्य किया जाता है। वरिष्ठ पत्रकार-व्यंग्यकार गोवर्धन हेड़ाऊ ‘मस्त गोड़वाड़ी की कलम से’ ललकार साप्ताहिक में कालम लिखते थे जो इनकी प्रेरणा का स्रोत बना।
विद्वान मित्रों ने सलाह दी कि कबीर को पढ़ो और यही किया और कबीर के मुरीद हो गए और आज भी हैं। मामूलीराम की डायरी को शनैः-शनैः पाठकों ने पसंद करना शुरू कर दिया। उसके फीडबैक ने भीतर ऊर्जा का संचार किया तो जिम्मेदारी और बढ़ गई । यह तो प्रारंभ में ही जान लिया था कि व्यंग्य लेखन कोई हंसी ठट्ठा नहीं है। यह एक जिम्मेदारी भरा लेखन है जिसमें विचार, करुणा और भाषा की विशिष्ट शैली जरूरी है। परसाई और शरद जोशी के व्यंग्य लेखन ने इस दृष्टि से राह दिखाई। किसी बड़े लेखक की शैली और उसके नक्शे कदम पर चलकर रचा गया सृजन किसी को आगे नहीं बढ़ा सकता। इसका हमेशा अहसास रहा।
पहला व्यंग्य संग्रह ‘मीनमेख’ 1995 में आया जिसका लोकार्पण कथा पुरोधा और संपादक कमलेश्वर ने किया और अपने समय के वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ. यशवंत व्यास ने अध्यक्षता की। लंबे अंतराल के बाद दूसरा व्यंग्य संग्रह ‘धन्य है आम आदमी‘ 2022 में आया जिसकी देश भर के 70 से अधिक प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों ने समीक्षा की। देश-विदेश से प्रकाशित प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के व्यंग्य विशेषांकों और विभिन्न व्यंग्य संकलनों में इनकी व्यंग्य रचनाएं निरंतर स्थान पाती रही हैं।
उपन्यासकार यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’ ने पुस्तक की भूमिका में लिखा , ” फारूक आफरीदी उन व्यंग्यकारों में हैं जिन्होंने वर्तमान की समग्र स्थितियों चाहे वे सामाजिक हों या सांस्कृतिक, आर्थिक हों या सरकारी तंत्र की, व्यक्ति की हों या समष्टि की, अपने हिसाब से उकेरने की चेष्टा की है, जो  वैचारिक दृष्टि भी देती हैं। इनके व्यंग्यों में आज की व्यवस्था के प्रति भयंकर आक्रोश है और आक्रोश है उन खोखले व्यक्तियों के प्रति, जो मुखौटे लगाए हुए ‘महान’ बने फिरते हैं। अनेक स्थलों में उनका अनुभव प्रखर लगता है।‘’
परसाई परम्परा के व्यंग्यकार :
प्रतिष्ठित व्यंग्यकार और ‘’व्यंग्य यात्रा’’ के यशस्वी संपादक डॉ. प्रेम जनमेजय कहते हैं,  ‘’ फ़ारूक आफ़रीदी वह दिन देखना चाहते हैं जब आम आदमी आत्मनिर्भर बन जाएगा, उस दिन कहेगा, ऐ नेता चल हट यहाँ से, अब तेरी ज़रूरत नहीं, हम ख़ुद तेरी जगह चुनाव लडेंगे। आज का आमजन जो सजग हुआ है उसमें फ़ारूक जैसे बुद्धिजीवियों की भूमिका अहम मानते हैं। चाहे आज बुद्धिजीवी भी अपने-अपने राम की तरह अपने अपने दलों की भाषा बोलते हुए कार्यकर्ता-सा धर्म निभा रहे हों पर वे बेहतर विकल्प को तर्को के साथ रख़ते हैं। आफ़रीदी परसाई परम्परा के व्यंग्यधर्मी हैं जो अपने समय की विसंगतियों को न केवल गिद्ध दृष्टि से पकड़ते हैं अपितु उन पर दिशायुक्त प्रखर प्रहार भी करते हैं। इस संकलन ने मेरे मन में उनके प्रति अनेक आशाएं जगाई हैं और मुझे विश्वास है कि वे हिन्दी व्यंग्य को समृद्ध करेंगे । “
 कवि रूप :
व्यंग्य रचनाकार के कवि कर्म पर चर्चा नहीं की जाए तो इनकी साहित्यिक यात्रा अधूरी रहेगी। ये एक संवेदनशील कवि हैं। उनकी कविताओं में जहां एक ओर प्रेम और सद्भाव मुखर है वहीं दूसरी ओर वे समाज के वंचित वर्ग के सशक्त पैरोकार के रूप में सामने आते हैं। व्यवस्था के विरोध में उनकी कविता बहुत कुछ कहती है । इनकी कविता का एक तेवर यह भी देखिए जब विश्व में प्रेम के  विभिन्न उपादान खंडित  होते जा रहे हैं। परिवार संस्था खतरे के निशान को पार कर चुकी है। रिश्तों की हत्या हो रही है। छिन्न-भिन्न होते रिश्तों के समय में ये कवि प्रेम को लेकर आश्वस्त है। इस कविता  में प्रेम का उदात्त रूप प्रतिबिम्बित होता दिखाई देता है और भरोसा दिलाता है कि इसका अस्तित्व सदा बना रहेगा।
” प्यार का कोई बाजार नहीं ” कविता की बानगी देखिए…………
 प्यार का कोई बाजार नहीं
यह अन्तःस्थल में अंकुरित होता है
इसके खेत कभी सूखते नहीं
ये हर अच्छे बुरे मौसम में
पल्लवित होता है
आँधियों से टकराना इसकी फितरत है
प्यार झंझावातों का ही तो दूसरा नाम है
दुःख की घड़ी में इसका मोल और बेशकीमती हो जाता है
ये सन्नाटों और
अकेलेपन का साथी है
दुनिया के किसी कारा में इसे कैद नहीं किया जा सकता।
प्यार को सत्य की भांति परेशान किया जा सकता है
हताशा के भंवर में डाला जा सकता है
लेकिन हर चक्रव्यूह को तोड़कर
उजाले को तलाश लेता है प्यार
जिद्दी होता है प्यार
शर्मीला हो सकता है लेकिन शर्मसार नहीं करता किसी को
अंधकार की सारी कोठरियों से
निकल आता है प्यार
इसे हताश और निराश करने की
कोशिशें की जाती रही हैं अकसर
हर अग्नि परीक्षा के लिए
तैयार रहता है प्यार
बल्कि अभिशप्त है इसके लिए यह
बहुत नसीब वाले ही
देख पाते हैं इसकी परिणति ।
 प्रकाशन :
इनकी अब तक सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  मीनमेख, बुद्धि का बफर स्टाक और धन्य है आम आदमी ( तीनों व्यंग्य संग्रह) हैं,  प्रोढ़ों के लिए ‘गाँधी जी और आधी दुनिया‘और ‘हम सब एक हैं‘ (कहानी),  ‘शब्द कभी बाँझ नहीं होते’ कविता संग्रह है। राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के 5 काव्य संकलनों में कविताएं और 10 व्यंग्य संकलनों में व्यंग्य आलेख प्रकाशित हुए हैं। आपने पचास से अधिक पुस्तकों की भूमिकाएँ भी लिखी हैं।
संपादन – लेखन :
वर्ष 1968 में दलित समाज की मासिक से पत्रकारिता में प्रवेश किया। जोधपुर से कथा साहित्यिक पत्रिका ‘’शेष’’ का सम्पादन और ‘’आगूंच (राजस्थानी) का सह सम्पादन किया।
देश-प्रदेश और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य सहित विविध विषयों पर लगभग एक हजार आलेख प्रकाशित। प्रोढ़ों,नवसाक्षारों और बच्चों के लिए भी कहानियां और कविताओं का लेखन किया।  सूचना एवं जनसंपर्क  विभाग की पत्रिका ‘’राजस्थान सुजस’’ के संस्थापक संपादक रहे और आठ वर्षों तक दैनिक ‘’राष्ट्रदूत’’ में सम्पादकीय लेखन किया।
सम्मान :
समय – समय पर आपको विभिन्न संस्थाओं द्वारा साहित्य सृजन और पत्रकारिता के लिए सम्मानित किया गया। आपको प्राप्त सम्मानों में राष्ट्रभाषा परिषद, जोधपुर द्वारा ‘राजभाषा गौरव सम्मान’ , सबरंग संस्था, जयपुर द्वारा श्रीगोपाल पुरोहित साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान,शबनम साहित्य परिषद, सोजत सिटी द्वारा ‘राही साहित्य सम्मान’ , ‘ढूँढाड री ललकार‘ समाचार पत्र द्वारा ‘ढूँढाड गौरव सम्मान’ ,जयपुर पीस फाउन्डेशन, जयपुर द्वारा व्यंग्य के लिए ‘सारस्वत सम्मान’ ,‘काव्या’ फाउन्डेशन,  यूएसए/ नई दिल्ली द्वारा काव्या सम्मान, इन्द्रावती रणसिंह श्योराण फाउण्डेशन, भादरा द्वारा राष्ट्रीय साहित्य सम्मान ,साहित्य समर्था पत्रिका द्वारा शिक्षाविद् डॉ. पृथ्वीनाथ भान श्रेष्ठ कविता संग्रह सम्मान, सम्मान पीआरएसआई, जयपुर चैप्टर द्वारा ’जनसम्पर्क गौरव अलंकरण ,बैंक नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, जयपुर द्वारा चन्द्रबरदाई भाषा सम्मान, राष्ट्रीय अणुव्रत लेखक सम्मान, साहित्यांचल रत्नाकर पांडे्य साहित्य सम्मान, बी.पी.अवस्थी साहित्य रत्न सम्मान, शिवप्यारी देवी साहित्य विभूषण सम्मान और सामाजिक सद्भाव और लेखन के लिए सुदर्श सम्मान प्रमुख हैं।
परिचय  :
व्यंग्यकार के रूप में पहचान बनाने वाले रचनाकार फारूक आफरीदी का जन्म जोधपुर में  24 दिसम्बर, 1952 को पिता मोहम्मद अहसान एवं माता फखरन निशा के आंगन में हुआ। प्राथमिक शिक्षा पाली जिले के जैतारण में हुई। जोधपुर विश्वविद्यालय (वर्तमान में जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय) से हिंदी साहित्य में एम.ए. और राजस्थान विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा किया। आप “प्रगतिशील राजस्थान” पत्र के मुख्य कार्यकारी निदेशक हैं ।
वर्तमान में राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यकारी अध्यक्ष और अन्तर्राष्ट्रीय ‘काव्या‘ इंटरनेशनल फाउण्डेशन, राजस्थान चेप्टर के महासचिव हैं।आप राजस्थान सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग से संयुक्त निदेशक पद से सेवा निवृत अधिकारी हैं और वर्तमान में साहित्य और पत्रकारिता में सक्रिय हैं।
डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
संपर्क :
बी-70/102, प्रगतिपथ, बजाज नगर, जयपुर-302015 ( राजस्थान )
मोबाइल  94143 35772, 92143 35772
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( लेखक 43 वर्षों से इतिहास, संस्कृति, पर्यटन और साहित्य पर लेखन कर रहे हैं। )

भारत में वक्फ बोर्ड की आवश्यकता ही क्या है?

वक्फ शब्द अरबी भाषा से आया है, इसका अर्थ किसी मुसलमान द्वारा अपनी संपत्ति को धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए समर्पित करना है। वक्फ की गई संपत्ति पर किसी का अधिकार नहीं रह जाता, जिस व्यक्ति ने अपनी संपत्ति वक्फ की है उसके उत्तराधिकारियों को भी।* कहा जाता है कि भारत में मुहम्मद गौरी के समय सबसे पहले संपत्ति के वक्फ करने की शुरूआत हुई थी, जब उसने मुल्तान की जामा मस्जिद के लिए एक गांव को वक्फ कर दिया था।
इसके बाद अंग्रेजों ने 1923 में इस बारे में एक कानून बनाने की कोशिश की थी लेकिन 1954 में भारत में पहला वक्फ अधिनियम संसद से पारित किया गया। हांलाकि उसकी कोई जरूरत नहीं थी क्योंकि धर्म के आधार पर भारत का विभाजन किया जाकर मुस्लिमों के लिए अलग से पाकिस्तान दे दिया गया था। फिर 1995 में नरसिंहराव सरकार ने वक्फ अधिनियम को संशोधित कर और अधिक ताकतवर बना दिया।
इस कानून से मिली शक्तियों का देश भर के 32 वक्फ बोर्डों ने जमकर दुरूपयोग किया। वक्फ बोर्ड द्वारा जमीनों पर अतिक्रमण बढ़ने की शिकायतें आने लगीं और वक्फ बोर्ड जमीनों के पटटे जारी कर उन्हें बेचने लगा, यह बात अलग है कि वक्फ की गई संपत्ति को बेचा नहीं जा सकता। फिर 2013 में मनमोहन सिंह सरकार ने एक बार फिर वक्फ अधिनियम में संशोधन किया जिसमें वक्फ बोर्ड़ों को दान के नाम पर संपत्तियों पर दावा करने के असीमित अधिकार मिल गए, और हद तो तब हो गई जब वक्फ बोर्ड द्वारा दावा की गई संपत्ति के मालिकाना हक के विरोध में कोई सुनवाई तक नहीं हो सकती।* आज वक्फ बोर्ड के पास सेना और रेल्वे के बाद सबसे ज्यादा संपत्ति है। वक्फ बोर्ड देश भर में 9.4 लाख एकड़ में फैली 8.7 लाख संपत्तियों को नियंत्रित करता है, जिसकी अनुमानित कीमत 1.2 लाख करोड़ रूपये है।
प्रश्न यह है कि *क्या भारत में ऐसे किसी बोर्ड या निकाय की आवश्यकता है, जो धार्मिक आधार पर दूसरे मतावलंबियों यहां तक कि सरकार की संपत्तियों पर भी अपना अधिकार जताए और उसके इस दावे के खिलाफ कोई सुनवाई तक ना हो !* वक्फ बोर्ड सिर्फ मुस्लिम संपत्तियों को ही वक्फ करे और मुसलमानों के लिए ही हो तो बात तार्किक हो सकती है, लेकिन पिछले दिनों एक मामला प्रकाश में आया जब तमिलनाडू में कावेरी नदी पर स्थित तिरूचिरापल्ली जिले के तिरुचेंथाराई गांव पर वक्फ बोर्ड ने अपना दावा जता दिया। रोचक तथ्य यह है कि इस गांव में 1500 वर्ष पुराना सुंदेश्वर मंदिर भी है।
समझने की बात यह है कि *वक्फ बोर्ड एक और घाव है जिसे कांग्रेस के नेताओं ने भारत के बहुसंख्यक समाज को दिया है। पाकिस्तान जाने वाले मुस्लिमों की संपत्तियों पर मुस्लिम समाज का ही अधिकार रहे, इसलिए वक्फ बोर्ड बनाया गया। हांलाकि पाकिस्तान से जो हिन्दू शरणार्थी भारत आए उनकी संपत्ति के रखरखाव के लिए पाकिस्तान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हुई।* दूसरी ओर कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों पर चलते हुए 2014 में चुनाव की आचार संहिता लागू होने से एक दिन पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दिल्ली की 123 बहुमूल्य संपत्तियों को वक्फ बोर्ड को दे दिया। जिसे मोदी सरकार ने 5 साल की लम्बी कानूनी प्रक्रिया के बाद वापस ले लिया।
अब जब वक्फ बोर्ड संपत्ति जेहाद पर उतर आया है, मोदी सरकार ने इस अधिनियम को और अधिक तार्किक और पारदर्शी बनाने के लिए संशोधन प्रस्तुत किया है, जिसे संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया है। यह समिति देश भर से प्राप्त अनुशंसाओं के आधार पर सदन में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी। देश भर के मुस्लिम संगठन इस मुद्दे को लेकर मुसलमानों के पास जाकर कह रहे हैं कि यदि ये संशोधन हो गया तो उनकी धार्मिक आजादी छिन जाएगी, उनके कब्रिस्तान और मस्जिदें चली जाएंगी। *आश्चर्यजनक बात यह है कि ये मुस्लिम जमात और संगठन वक्फ बोर्ड के उन फैसलों के खिलाफ अपनी आवाज नहीं उठाते जिनके चलते वे किसी भी व्यक्तिगत संपत्ति, गांव, सरकारी संपत्ति यहां तक कि न्यायिक परिसर को भी वक्फ मान लेते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय का मामला तो अभी ताजा ही है।*
तो *जरूरत इस बात की है कि वक्फ अधिनियम में संशोधन की बजाय इस कानून को ही समाप्त किया जाए, क्योंकि ऐसी किसी संस्था की आवश्यकता भारत में नहीं जो भारत सरकार की संप्रभुता को ही चुनौती देती हो और उसी के समान ही शक्ति संपन्न हो। इसी के साथ आजादी के बाद से गैर मुस्लिमों की वक्फ की गई संपत्तियों को भी वापस करने का प्रावधान भी किए जाने की आवश्यकता है।*
* चतुर्वेदी, जयपुर*
*सेंटर फॉर मीडिया रिसर्च एंड डवलपमेंट*
*10 सितम्बर 2024*

आइए हम सब मिल कर आत्महत्या को रोकेंः – डॉ.अग्रवाल

विश्व अंतर्राष्ट्रीय आत्महत्या विरोधी  दिवस 10 सितंबर 2024
आज विश्व आत्महत्या दिवस पर हम आत्महत्या के आंकड़ों को देखे तो आत्महत्याओं की घटनाएं हमारी आंखे खोल देती हैं। विश्व में प्रति 40 सेकेण्ड में एक मृत्यु आत्महत्या से होती है, प्रतिवर्ष 8 लाख लोग आत्महत्या करते हैं। इस से 25 गुणा ज्यादा आत्महत्या का प्रयास करते हैं।  लिथुनिया, दक्षिण कोरिया, रूस, चीन इत्यादि में आत्महत्या की सर सब से ज्यादा हैं।  हमारे देश में सिक्किम, छत्तीसगढ़, तेलंगाना तमिलनाडू, कर्नाटक इत्यादि में ये डर अधिक है। राजस्थान में प्रति लाख  दर 4.8 प्रतिशत से बढ़ कर इस वर्ष 5.8 प्रतिशत प्रति  लाख हो गई है पिछले वर्ष की तुलना में 2019-20 में आत्महत्या दर में विश्व भर में 3-4 प्रतिशत की वृद्धिदेखी गई है। आज हमारे देश में प्रति 4 मिनट में 1 मृत्यु आत्महत्या से हो रही है। भारत में 1.39 लाख लोग आत्महत्या के कारण मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं। एक आत्महत्या पर 20 असफल प्रयास और करीब 130 अन्य लोग (परिवार, समाज, स्कूल) प्रभावित होते हैं। यह दर सबसे ज्यादा(18-45 वर्ष) के बीच देखी गई हैं।
कोटा में वरिष्ठ मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. एम.एल.अग्रवाल ने बताया कि प्रायः यह देखा गया है कि आत्महत्या करने वाला सहायता की गुहार करता है। नजदीकी लोगों को इस सहायता की पुकार को सुनना है और उसकी सहायता करनी हैं। अधिकतर लोग नींद, भूख नहीं लगना, बात चीत नहीं करना, मरने-मारने की बात करना, अपनी प्रिय वस्तु बाटना, लोगों से माफी मांगना, हिसाब-किताब साफ करने की बात करते हैं। समय से चिन्हों को पहचान, हम लोगों की जान बचा सकते हैं।
हमारे परिवार एवं संस्कारों के कारण भारत में यह दर पश्चिमी देशों की अपेक्षा कम है। हर कोई सहायता कर सकता हैं। डॉक्टर/ स्वास्थ्यकर्मी होना आवश्यक नहीं हैं। यदि आपको कुछ ठीक नहीं लग रहा, तो बात करें और सीधा पूछे की वो अपने को नुकसान पहुंचाना तो नहीं चाह रहे है या आत्महत्या के बारे में सोच तो नहीं रहे है?
 डॉ.अग्रवाल कहते हैं, पारिवारिक ,सामाजिक,आर्थिक, व्यक्तिगत समस्याए, मानसिक रोग (अवसाद) चिंता विकार, आर्थिक समस्या, प्रेम संबंध एवं परीक्षा आदि अन्य कारण  आत्महत्या के लिए जिम्मेदार हैं। फंदा लगा कर मरना (53.6) सबसे मुख्य तरीका हैं साथ ही साथ विषेले पदार्थ का सेवन (विशेषकर किसानों) में धारदार हत्यार, दवाईयां एवं ऊचाई से कुदना अन्य तरीके है। कोरोना काल में आर्थिक समस्याए, अकेलापन, सामाजिक बहिष्कार मुख्यतः जिम्मेदार हैं। जीवन के प्रति संतुलित नजरिया रख कर एवं सकारात्मक सोच को अपना कर इन धटनाओं से बच जा सकता हैं।
डॉ. अग्रवाल  की माने तो अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को सहयोग की पेशकश करें, उनको डॉक्टर को दिखाये, नियमित उपचार लेने के लिए प्रेरित करे । संस्कार द्वारा उनका जीवन अमूल्य है और इश्वरी देन है कि जानकारी दे उनको नियमित व्यायाम प्राणायाम ध्यान और वर्तमान में जीने की कला सिखाने के लिए प्रेरित करें। विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस 10 सितम्बर का नारा है, आइये! हम सब मिलकर आत्महत्या को रोके।
कोटा में आत्महत्या की रोकथाम के लिये होप हेल्प लाइन विगत 10 वर्षों से कोटा एवं आस पास के क्षेत्रों के लिए 24*7 सेवा प्रदान कर रही है। अब तक 12, 000 लोग लाभान्वित हुए है। अनेकों विद्यार्थियों का जीवन बचाया गया है। प्रशिक्षित काउन्सिलरों की सेवा निःशुल्क उपलब्ध है।
0744-23333666 है।
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(  कोटा के मनोरोग विशेषज्ञ डॉ.एम.एल, अग्रवाल से लेखक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल का साक्षात्कार)

देवभूमि की बर्बादी के पीछे कौन

हिमालय की गोद में बसे भारत के दो छोटे राज्य हिमांचल और उत्तराखंड सनातन ऋषि परम्परा के साक्षी तथा वाहक और सरलमना संतोषी निवासियों के कारण देवभूमि कहे जाते हैं। कठिन भौगोलिक परिस्थियों वाले वाले ये राज्य प्रायः ही प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हैं किंतु अब यह दोनों ही राज्य इस्लामिक जिहाद का गढ़़़ भी बनते जा रहे हैं। दोनों ही राज्यों में बांगलादेशी व रोहिंग्या का दायरा बढ़ता जा रहा है। घुसपैठिये धीरे- धीरे  जल, जंगल और जमीन के साथ लव जिहाद तथा अन्य माध्यमों निरंतर धर्मान्तरण का प्रयास भी कर रहे हैं। दोनों ही राज्य हिन्दू संस्कृति की दृष्टि से भीषण खतरे में हैं।

हिमांचल के जिस क्षेत्र में जहां 95 प्रतिशत हिंदू आबादी रहा करती थी वहां पर पांच मंजिल की अवैध मस्जिद बन चुकी है, मस्जिद में आने वाले मुसलमानों ने स्थानीय हिन्दू परिवारों का जीना दूभर कर दिया है, हिन्दू सड़क पर हैं लेकिन सरकार सो रही है। प्रश्न है किआखिर वे कौन से तत्व हैं जो  देवभूमि को बरबाद करने पर तुले हुए हैं? उत्तराखंड और हिमाचल दोनो ही राज्य कानून और व्यवस्था के मामले में अच्छे राज्य गिने जाते थे, चोरी-चकारी, छीना-झपटी  जैसी चीजें वहां होती ही नहीं थीं किंतु घुसपैठियों की बढती संख्या के साथ साथ अब  आपराधिक घटनाओं की बाढ़ सी आ गई है।

दोनों ही राज्यों में अवैध मस्जिदों और मजारों को लेकर लगातार विवाद हो रहे हैं ।उत्तराखंड के जंगलों में अवैध मजारें बना दी गईं, जब सरकारी प्रशासन को पता चला तो वहां पर बुलडोजर चला कर मजारों को ध्वस्त किया गया। ये सभी मजारें अवैध और सुनियोजित साजिश के तहत जमीन जिहाद का एक हिस्सा थीं। इसी क्रम में  ताजा प्रकरण हिमाचल प्रदेश के संजौली का है, जहां एक पांच मंजिला अवैध मस्जिद निर्माण को लेकर स्थानीय जनता आंदोलन कर रही है और सुरक्षा कारणों से कांग्रेस सरकार से मस्जिद को ध्वस्त करने की मांग कर रही है क्योंकि मामला कोर्ट में भी है इसलिए प्रशासन आराम से बैठा है।

संजौली की यह मस्जिद सरकारी जमीन पर बनी है यह राजधानी शिमला के माल रोड से लगभग पांच किलोमीटर दूर है। इस मस्जिद में आने वाले मुसलमाओं में बड़ी संख्या में रोहिंग्या होने के आरोप हैं।  अगर ये आरोप सही है तो प्रश्न उठता है कि बांग्लादेश से आने वाले रोहिंग्या 95 प्रतिशत आबादी वाले हिंदू इलाके में पहुंच कैसे गये ?

महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रदेश की कांग्रेस सरकार के मंत्री अनिरुद्ध सिंह ने ही विधानसभा में इस मस्जिद को अवैध बताया और इसे गिराने की मांग करते हुए कहा कि संजौली  बाजार में महिलाओं का चलना मुश्किल हो गया है, चोरियां हो रही हैं, लव जिहाद जैसी घटनाएं हो रही हैं जो प्रदेश के लिए खतरनाक हैं । दूसरी ओर वक्फ बोर्ड कह रहा है कि ये जमीन सरकार की नहीं अपितु उसकी है। तथ्य ये है कि वर्ष  1967 के सरकारी दस्तावेज इस बात की पुष्टि करते हैं कि ये जमीन सरकार की थी। कुछ सालों पहले तक यह छोटी सी मस्जिद थी जो अब पांच मंजिल की बन चुकी है। मस्जिद का मामला कोर्ट में 14 वर्षों से विचाराधीन है और मुकदमे की 44 बार सुनवाई हो चुकी है।

पर्वतीय प्रदेशों हिमाचल और उत्तराखंड में सुनियोजित तरीके से जनसांख्यिकीय संतुलन बदलने का षड्यंत्र –

हिमांचल का संजोली मस्जिद विवाद गहरा जाने के बाद यह बात जोर पकड़ रही है कि क्या पर्वतीय प्रदेशों में  जनसांख्यिकीय सतुंलन बदलने का सुनियोजित षड्यंत्र चल रहा है ? दोनों ही प्रान्तों में मुसलमानों, मजारों  और मस्जिदों की संख्या तेजी से बढ़ रही है? इन प्रान्तों में हिन्दुओं की आबादी लगातर कम हुई है जबकि मुसलमानों की आबादी में लगातार वृद्धि हुई है। वर्ष 1951 में हिमांचल प्रदेश में  हिन्दुओ की आबादी 98.14 प्रतिशत  थी जो वर्ष 2011 में 95.2 प्रतिशत  हो गई थी। अलग- अलग समय की जनगणना से ये पता चलता है कि जहां एक तरफ हिमांचल प्रदेश में हिन्दुओं की आबादी लगातार कम हुई है और  वहीं मुसलमानों की आबादी लगातार बढ़ रही है। वर्ष 2011 से हमारे देश में जनगणना नहीं हुई है और पिछले 13 वर्षो में  हिमांचल प्रदेश की डेमोग्राफी कितनी बदली हे अभी इसके सटीक आंकड़े हमारे पास उपलब्ध नहीं हैं।

चार साल में बढ़ गई 12 मस्जिदें – स्थानीय लोगों का कहना है कि पिछले 10 से 12 वर्षों में मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ी है और इसका अनुमान हिमांचल में बनी नई मस्जिदों से लगाया जा सकता है। हिमांचल प्रदेश हिंदू जागरण मंच का दावा है कि कोविड से पहले प्रदेश में 393 मस्जिदें थीं जिनकी संख्या कोविड के बाद 520 हो गईं। इन सभी 127 मस्जिदों का निर्माण कोविड के समय हुआ था। ज्ञातव्य है कि कोविड के दौरान लाकडाउन के समय नियमों को तोड़ने की सबसे अधिक घटनाएं मुस्लिम सम्प्रदाय द्वारा ही की गई थीं।

हिमांचल की राजधानी शिमला में पहली बार साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा हुई है और हिन्दू जनमानस को अपनी सुरक्षा के लिए सड़क उतरना पड़ा है। हिन्दुओं की एकमात्र मांग है कि पांच मंजिला अवैध मस्जिद को ध्वस्त किया जाये ओर बांग्लादेशी व रोहिंग्याओ घुसपैठियों को बाहर किया जाये। अब कांग्रेस सरकार के मंत्री ही अपनी सरकार से विनती कर रहे हैं कि इस बात की जांच कराई जाए कि अचानक प्रदेश में बाहरी मुसलमानों की संख्या कैसे बढ़ गई? रेहड़ी पटरी और बाजारों पर रोहिंग्या मुसलमानों का कब्जा कैसे हो गया? इस पर  मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने अपने ही मंत्री को नसीहत दे डाली कि मंत्रियों व विधयाकों को इस तरह के मामलों में नहीं  पड़ना चाहिए।

आंदोलनकारी जनता कह रही है, अगर सरकार इस मस्जिद को नहीं गिराती हे तो वह स्वयं आगे आगे आकर इसे गिरा देंगे। ज्ञातव्य है कि शिमला में ढाई मंजिलसे अधिक ऊँची इमारत बनाने पर प्रतिबन्ध है। देवभूमि क्षेत्रीय संगठन के नेतृत्व तले प्रदर्शनकारियों ने ये यह साफ कर दिया है कि उन्हें शिमला के स्थानीय मुसलमानों से कोई परेशानी नहीं है लेकिन रोहिंग्या और बांग्लादेशी मुसलमान समस्या बन गये हैं।  प्रदर्शनकारी  महिलाओं का कहना है कि शिमला की सड़कों पर लगने वाली दुकानों पर रोहिंग्या मुसलमानों ने कब्जा कर लिया है वे हिन्दुओं को दुकानें नहीं लगाने देते, बहन बेटियों को छेड़ते हैं, विरोध करने पर खून खराबे पर उतर आते हैं।

फैसला होगा उसका पालन सरकार करायेगी ?

अब इस  प्रकरण पर सभी मुस्लिम हितैषी कूद पड़े हैं, एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने राहुल गांधी से सवाल पूछा कि, “मुहब्बत की दुकान में इतनी नफरत कहां से आ गई? मस्जिद का मुकदमा कोर्ट में है तो हिंदू उसे गिराने की मांग कर रहे हैं, कांग्रेस के मंत्री उनकी बातों का समर्थन कर रहे हैं। टीवी चैनलों व सोशल मीडिया  पर भी बहस प्रारम्भ हो गई है। हर बार की तरह उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाजवादी पार्टी व अन्य क्षेत्रीय दल बहस में जोरदार ढंग से मुस्लिम तुष्टिकरण कर रहे हैं। संविधान के रक्षक इंडी गठबंधन के सभी दल अवैध मस्जिद को वैध बता रहे हैं और बयान दे रहे हैं कि भारत में कोई भी व्यक्ति कहीं भी किसी भी स्थान पर रह सकता है।

इन परिस्थितियों से स्पष्ट प्रतीत प्रतीत हो रहा है कि भारत में अवैध नागरिकों का प्रवेश कांग्रेस व इंडी गठबंधन के लोग ही करा रहे हैं और डेमोग्राफी बदलने की साजिश रच रहे हैं। कांग्रेस सांसद इमरान  मसूद ने कहा कि कांग्रेस मंत्री अनिरुद्ध सिंह लव जिहाद और रोहिंग्या घुसपैठियों जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके भाजपा की जुबान बोल रहे हैं।

उत्तराखंड में चार जिलों में  डेमोग्राफिक बदलाव – उत्तराखंड के चार जिलों में भी तीव्रता के साथ डेमोग्राफिक  बदलाव देखने को मिल रहा है। चार मैदानी जिलों हरिद्वार, ऊधम सिंह नगर, नैनीताल और देहरादून में मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ी है। वर्ष 2001 में हरिद्वार में हिन्दुओं की आबादी 65.3 प्रतिशत  जो 2011 में घटकर 64.3 प्रतिशत  रह गई जबकि मुसलमानों की आबादी में 1.3 प्रतिशत  की वृद्धि हुई और ये 33 से 34.3 प्रतिशत  तक पहुंच गई। इसी प्रकार देहरादून में हिन्दुओं की आबादी 0.7 प्रतिशत  घट गई । विगत 10 वर्षों में ऊधम सिंह नगर में हिन्दुओं की आबादी 0.4 प्रतिशत  कम हो गई जबकि मुसलमानों  की आबादी 2 प्रतिशत  बढ़ गई।

उत्तराखंड में भी अपराध बढ़ गये हैं जिसमें बालिकाओं के साथ दुष्कर्म व छेड़छाड़, लव जिहाद, लोगों के पर्स व मोबाइल आदि छीनकर भाग जाना, बाजारों में चोरी चकारी जैसी घटनाएं तेजी से बढ़ गई हैं। अभी हाल ही में कुछ भगवाधारी नकली साधुओं को पकड़ा गया जो वास्तव में बांग्लादेशी रोहिंग्या निकले । एक नकली बाबा बद्रीनाथ धाम को बदरुद्दीन की मजार बता रहा था । हिंदू आस्था के सबसे बड़े केंद्रों को नकली भगवा चोला ओढ़कर मजार व मस्जिद बताया जा रहा है इससे बड़ा षड्यंत्र और क्या होगा ? यही नकली बाबा धार्मिक स्थलों पर माहौल  खराब करने की भी साजिश रच रहे हैं। अब यह समय हिन्दुओं के लिए सतर्कता व सजगता का है।

प्रेषक – मृत्युंजय दीक्षित

फोन नं. – 9198571540

हिन्दी सिनेमा के बाल गीतों का बालमन पर प्रभाव

अंतर्राष्ट्रीय वामा हिंदी साहित्य अकादमी एवं सलिला संस्था के संयुक्त तत्वावधान में ऑनलाइन अंतर्राष्ट्रीय बाल साहित्य संगोष्ठी का आयोजन हुआ। जिसकी अध्यक्षता इंडिया नेट बुक्स के प्रकाशक डॉ. संजीव ने की। मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे लंदन से पुरवाई वेब पत्रिका के संपादक तजेंद्र शर्मा। संगोष्ठी की संयोजक व संचालक सलिला संस्था की अध्यक्ष डॉ. विमला भंडारी थी।  विषय विशेषज्ञ वक्ता ऑस्टेलिया से हेमा बिष्ट, गाजियाबाद से रजनीकांत शुक्ल एवं भोपाल से डॉ. लता अग्रवाल “तुलजा” थी।
इस अवसर पर डॉ. लता “तुलजा” जी ने फिल्मी लोरियों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ लगभग 35 फिल्मी लोरियों का भी जिक्र किया। लोरियों के बालमन पर प्रभाव के संबंध में बताते हुए कहा कि लोरियां बालमन को आत्मबल देती है, उनके मन मस्तिष्क को हौंसला देती है। यद्यपि शिशु इस अवस्था में शब्दों की शक्ति से अनभिज्ञ होता है किंतु लोरी की सुर और नाद उसके स्नायु तंत्र को शिथिल करते हुए उसे निंद्रा के आगोश में ले जाता है। लोरियां भावनात्मक संबंध को प्रगाढ़ करती है।
मेलबॉर्न से हेमा बिष्ट ने एनिमेशन फिल्मों के गीतों के बारे में अपना शोध प्रस्तुत करते हुए बताया कि कैसे ये गीत बच्चो में सकारात्मकता का भाव जाग्रत करते हैं। इस संबंध में उन्होंने छोटा भीम, मोगली एवं कई एनिमेशन फिल्म गीतों का उदाहरण गेयता के साथ देते हुए बताया कैसे उनकी बेटी लड्डू खाकर स्वयं को “मैं हूं छोटा भीम” गा उठती है।
रजनीकांत शुक्ल ने साहिर लुधियानवी के बाल गीतों पर बात की। उन्होंने मंच पर उनके लिखे अनेक फिल्मी गीतों का वाचन किया। उन्होंने बताया साहिर के हर गाने में एक संदेश छिपा होता है। विशेषकर उन्होंने बच्चो के लिए कई देश प्रेम से ओत-प्रोत व नैतिक मूल्यों के गीत गेयता के साथ प्रस्तुत किए।
डॉ. संजीव कुमार ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में इस आयोजन को अनूठा बताया।  फिल्मों से जुड़े बाल साहित्य पर चर्चा की आवश्यकता बतायी। अनेक फिल्मी बाल गीतों से मंच को समृद्ध किया। साथ ही फिल्मी बाल गीतों के संकलन को प्रकाशित करने का निर्णय लिया। उनका मत था कि गीतों और साहित्य के बीच लक्ष्मण रेखा नहीं खींची होनी चाहिए।
 मुख्य अतिथि के रूप में  श्री तजेंद्र शर्मा इस कार्यक्रम से जुड़े। बाल गीतों से रचा बसा संगोष्ठी का सुंदर संचालन डॉ. विमला भंडारी ने किया। इस दौरान आपने कई बाल गीतों का स स्वर गायन किया।
यह संगोष्ठी परिचय, वार्ता और परिचर्चा के तीन चरण पर पूरा हुआ। परिचर्चा के दौरान कई विद्वानों ने अपने विचार साझा किए।  बच्चों का देश बाल पत्रिका के सह संपादक प्रकाश तातेड़ कहा कि हमने फिल्मों को बच्चों से अलग मान लिया है जबकि यह भी बाल साहित्य का एक अंग है। नीना सोलंकी ने इस आयोजन को बच्चों के लिए बहुत उपयोगी बताया। संध्या गोयल ने मंच से अनुरोध किया, आज भी बाल साहित्यकारों द्वारा बहुत अच्छे गीत रचे जा रहे हैं किंतु उनकी फिल्म तक पहुंच नहीं बन पा रही। इसके लिए मंच से प्रयास करना अच्छा होगा। नॉर्वे से जुड़े शरद आलोक पूरे उत्साह से अपनी अगली भारत यात्रा में एक बैठक बना कर कुछ बाल गीतों पर टेली फ़िल्म बनाने की योजना भी बना डाली।
 एक विचार जो साझा हुआ वो ये कि साहित्य को फ़िल्मी गीतों से दूरी नहीं बनानी चाहिए। ये भी प्रश्न उठा कि क्या गीत साहित्यिक नहीं होते हैं? सभी सुधीजन इतने उत्साहित थे कि ऐसे कई बिंदु कार्यक्रम में शामिल हो गये। कुल मिलाकर, गोष्ठी बहुत ही सुंदर और ज्ञानवर्धक रही।

11 सितंबर इतिहास के सबसे चर्चित भाषण का दिन

दुनिया के सर्वश्रेष्ठ व्याख्यानों में से एक, स्वामी विवेकानंद जी के भाषण की तारीख 11 सितंबर। क्या था वो भाषण जिसने अमेरिका को नहीं पूरे पश्चिम को भारत का मुरीद बना दिया। नरेंद्र नाथ दत्त, जिन्हें पूरा विश्व विवेकानंद के नाम से याद करता है। 11/9 क्यों याद किया जाना चाहिए, क्योंकि उस दिन भारत के एक युवा सन्यासी ने पश्चिम के सूट-बूट वालों को बौना साबित किया था। क्योंकि उस दिन सनातन संस्कृति को विश्व पटल पर स्थापित किया गया था। सितंबर 11 को न्यूयार्क के लिए नहीं, शिकागो के लिए याद किया जाना चाहिए। विध्वंस के लिए नहीं विश्व शांति के लिए याद किया जाना चाहिए। आतंकवाद के लिए नहीं, सनातन संवाद के लिए याद किया जाना चाहिए।लादेन के लिए नहीं, नरेंद्र के लिए याद किया जाना चाहिए।

शब्दों के जादूगर: विवेकानंद के संवाद का ये जादू शब्दों के पीछे छिपी चिर –पुरातन भारतीय संस्कृति, सभ्यता, अध्यातम व उस युवा के त्यागमय जीवन का था। जो शिकागो से निकला व पूरे विश्व में छा गया। उस भाषण को आज भी दुनिया भुला नहीं पाती। इस भाषण से दुनिया के तमाम पंथ आज भी सबक ले सकते हैं। इस अकेली घटना ने पश्चिम में भारत की एक ऐसी छवि बना दी, जो आजादी से पहले और इसके बाद सैकड़ों राजदूत मिलकर भी नहीं बना सके।

 स्वामी विवेकाननंद के इस भाषण के बाद भारत को एक अनोखी संस्कृति के देश के रूप में देखा जाने लगा। अमेरिकी प्रेस ने विवेकानंद को उस धर्म संसद की महानतम विभूति बताया था। और स्वामी विवेकानंद के बारे में लिखा था, उन्हें सुनने के बाद हमें महसूस हो रहा है कि भारत जैसे एक प्रबुद्ध राष्ट्र में मिशनरियों को भेजकर हम कितनी बड़ी मूर्खता कर रहे थे। यह ऐसे समय हुआ, जब ब्रिटिश शासकों और ईसाई मिशनरियों का एक वर्ग भारत की अवमानना और पाश्चात्य संस्कृति की श्रेष्ठता साबित करने में लगा हुआ था।

चिर पुरातन नित्य नूतन के वाहक: अतीत को पढ़ो, वर्तमान को गढ़ो और आगे बढ़ो यही विवेकानंद जी का मूल संदेश रहा। जो समाज अपने इतिहास एवं वांग्मय की मूल्यवान चीजों को नष्ट कर देता है, वह निष्प्राण हो जाते हैं और यह भी सत्य है कि जो समाज इतिहास में ही डूबे रहते हैं, वह भी निष्प्राण हो जाते हैं। वर्तमान समय में तर्क और तथ्य के बिना किसी भी बात को सिर्फ आस्था के नाम पर आज की पीढ़ी के गले नहीं उतारा जा सकता। ॉ

भारतीय ज्ञान को तर्क के साथ प्रस्तुत करने पर पूरी दुनिया आज उसे स्वीकार करती हुई प्रतीत भी हो रही है। विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 शिकागो भाषण में इस बात को चरितार्थ भी करके दिखाया था। जहां मंच पर संसार की सभी जातियों के बड़े – बड़े विद्वान उपस्थित थे। डॉ. बरोज के आह्वान पर 30 वर्ष के तेजस्वी युवा का मंच पर पहुंचना। भाषण के प्रथम चार शब्द ‘अमेरिकावासी भाइयों तथा बहनों’ इन शब्दों को सुनते ही जैसे सभा में उत्साह का तूफान आ गया और 2 मिनट तक 7 हजार लोग उनके लिए खड़े होकर तालियाँ बजाते रहे। पूरा सभागार करतल ध्वनि से गुंजायमान हो गया।

युवा दिलों की धड़कन:- उम्र महज 39 वर्ष, अपनी मेधा से विश्व को जीतने वाले, युवाओं को अंदर तक झकझोर कर रख देने वाले, अपनी संस्कृति व गौरव का अभिमान विश्व पटल पर स्थापित करने वाले स्वामी विवेकानंद जिनमें सब कुछ सकारात्मक है नेगेटिव कुछ भी नहीं। कल्पना कीजिए विवेकानंद के रुप में उस एक नौजवान की। गुलामी की छाया न जिसके विचार में थी, न व्यवहार में थी और न वाणी में थी। भारत माँ की जागृत अवस्था को जिसने अपने भीतर पाया था। ऐसा एक महापुरुष जो  पल- दो पल में विश्व को अपना बना लेता है। जो पूरे विश्व को अपने अंदर समाहित कर लेता है। जो विश्व को अपनत्व की पहचान दिलाता है और जीत लेता है। वेद से विवेकानंद तक, उपनिषद से उपग्रह तक हम इसी परंपरा में पले बढ़े हैं। उस परंपरा को बार-बार स्मरण करते हुए, सँजोते हुए भारत को एकता के सूत्र में बांधने के लिए सद्भावना के सेतु को जितना बल हम दे सकते हैं, उसे देते रहना होगा।

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी: विवेकानंद के जीवन को पढ़ने से ही रोंगटे खड़े हो जाते है। कैसे एक बालक विवेकानंद, योद्धा सन्यासी विवेकानंद के रुप में पूरे विश्व की प्रेरणा बन गया। स्वामी विवेकानंद का सम्पूर्ण जीवन बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व का धनी रहा है। हमारे आज के जो सरोकार हैं, जैसे शिक्षा, भारतीय संस्कृति का सही रूप, व्यापक समाज सुधार, महिलाओं का उत्थान, दलित और पिछड़ों की उन्नति, विकास के लिए विज्ञान की आवश्यकता, सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों की आवश्यकता, युवकों के दायित्व, आत्मनिर्भरता, स्वदेशी का भाव, भारत का भविष्य आदि। भारत को अपने पूर्व गौरव को पुनः प्राप्त व स्थापित करने के लिए, समस्याओं के निदान के लिए स्वामी विवेकानंद के विचारों का अवगाहन करना होगा।

भारत बोध की प्रेरणा: दुनिया में लाखों-करोड़ों लोग उनके विचारों से प्रभावित हुए और आज भी उनसे प्रेरणा  प्राप्त कर रहे हैं। सी राजगोपालाचारी के अनुसार “स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू धर्म और भारत की रक्षा की”। सुभाष चन्द्र बोस के कहा “विवेकानंद  आधुनिक भारत के निर्माता हैं”।  महात्मा गाँधी मानते थे कि ‘विवेकानंद ने उनके देशप्रेम को हजार गुना कर दिया । स्वामी विवेकानंद ने खुद को एक भारत के लिए कीमती और चमकता हीरा साबित किया है। उनके योगदान के लिए उन्हें युगों और पीढ़ियों तक याद किया जायेगा’। जवाहर लाल नेहरु ने ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में लिखा है- “विवेकानंद दबे हुए और उत्साहहीन हिन्दू मानस में एक टॉनिक बनकर आये और उसके भूतकाल में से उसे आत्मसम्मान व अपनी जड़ों का बोध कराया”।

कुल मिलाकर यदि यह कहा जाए कि स्वामी विवेकानंद आधुनिक भारत के निर्माता थे, तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह इसलिए कि स्वामीजी ने भारतीय स्वतंत्रता हेतु भारतवासियों के मनों में एक स्वाभिमान का  माहौल निर्माण किया। आज के समय में विवेकानंद के मानवतावाद के रास्ते पर चलकर ही भारत एवं विश्व का कल्याण हो सकता है। वे बराबर युवाओं से कहा करते थे कि हमें ऐसे युवकों और युवतियों की जरूरत है जिनके अंदर ब्राह्मणों का तेज तथा क्षत्रियों का वीर्य हो। आज शिकागो भाषण के दिन विवेकानंद के जीवन को पढ़ने के साथ ही उसे गुनने की भी जरूरत है। हम भाग्यवान है कि हमारे पास एक महान विरासत है।

तो आईए, उस महान विरासत के गौरव को आधार बना युवा मन के साथ संकल्पबद्ध होकर आगे बढ़े। आज चारों ओर जिस प्रकार का बौद्धिक विमर्श दिखाई दे रहा है, उसमें युवा होने के नाते अपनी मेधा व बौद्धिक क्षमता का परिचय हम को देना ही होगा। यही वास्तव में आज हमारी ओर से सच्ची आहुति होगी। इसके लिए अपनी सर्वांगीण तैयारी कर देश के लिए जीना इस संकल्प को ओर अधिक बलवान बनाना होगा। स्वामी विवेकानंद जी भी कहते थे “बस वही जीते हैं, जो दूसरों के लिए जीते हैं”।


(लेखक मीडिया विभाग, जे. सी. बोस विश्वविद्यालय, फरीदाबाद में एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष है)

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