Tuesday, November 26, 2024
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पाकिस्तानी ग़ज़ल गायक महफ़िल हसन की जड़ें शेखावटी में थीं

फूल यह तूने जो बालों में लगा रखा हैं
एक दिया है जो अंधेरों में जला रखा है ………
यह ग़ज़ल अपनी जवानी के दिनों में हम सभी ने सुनी है और उसमें इश्क़ के बहुत सारे रंग देखे हैं. इस बेहतरीन ग़ज़ल को  गायक मेहदी हसन ने युवाओं का गीत बना दिया था.

भारत और सीमा पार के जिन गायकों ने ग़ज़ल गायकी को बुलंदी पर पहुँचाया उनमें निस्संदेह एक अज़ीम  नाम मेहदी साहब का भी है . उनकी गायी ग़ज़लों में लोग उन्हें इतना गहराई तक डूबा पाये हैं कि उसके शायर की जगह उसे  मेहदी साहब  की ग़ज़ल कहते हैं . जो लोग उन्हें पाकिस्तानी गायक समझते हैं उन्हें शायद ही पता हो कि उनकी जड़ें भारत और ख़ासकर राजस्थान की लोकगायकी में बसी हुई हैं.

शेखावटी इलाके के  झुंझुनूं ज़िले की  अलसीसर तहसील के एक गाँव लूणा में मुस्लिम गवैयों के कुछ परिवार लंबे समय से रहते आ रहे थे. इलाक़े भर में ध्रुपद गायकी का बड़ा नाम माने जाने वाले उस्ताद अज़ीम खान इसी लूणा की गायकी परंपरा से थे और अक्सर अपने छोटे भाई उस्ताद इस्माइल खान के साथ रईसों की महफ़िलों में गाने जाते थे. शेखावटी के रईसों ने कला और संगीत को हमेशा  संरक्षण दिया था.
18 जुलाई 1927 को इन्हीं अज़ीम खान के घर एक बालक जन्मा जिसे मेहदी हसन नाम दिया गया. मेहदी यानि ऐसा शख्स जिसे सही रास्ते पर चलने के लिए दैवीय रोशनी मिली हुई हो. गाँव के बाकी बच्चों की तरह मेहदी हसन का बचपन भी लूणा की रेतीली गलियों-पगडंडियों के बीच बकरियां चराने और खेल-कूद में बीत जाना था लेकिन वे एक कलावन्त ख़ानदान की नुमाइंदगी करते थे सो चार-पांच साल की आयु में पिता और चाचा ने उनके कान में पहला सुर फूंका. उस पहले सुर की रोशनी में जब इस बच्चे के मुख से पहली बार ‘सा’ फूटा, एक बार को समूची कायनात भी मुस्कराई होगी. आठ साल की उम्र में पड़ोसी प्रांत पंजाब के फाजिल्का में मेहदी हसन ध्रुपद और ख़याल गायकी की अपनी पहली परफॉर्मेंस दी. आगे के  दस-बारह साल जम के रियाज़ किया  और  अपने बुजुर्गों की शागिर्दी करते हुए मेहदी हसन ने ज्यादातर रागों को उनकी जटिलताओं समेत साध होगा.
1947 में  विभाजन के बाद हसन ख़ानदान पाकिस्तान चला गया वहाँ साहीवाल जिले के  चिचावतनी क़स्बे में नई शुरुआत की  , लेकिन पाकिस्तान में सब कुछ हसन परिवार के मन का नहीं हुआ  परिवार की जो भी थोड़ी-बहुत बचत थी वह कुछ ही मुश्किल दिनों का साथ दे सकी. पैसे की लगातार  तंगी के बीच संगीत खो गया.
दो जून की रोटी के लिए मेहदी हसन ने पहले मुग़ल साइकिल हाउस नाम की साइकिल रिपेयरिंग की एक दुकान में नौकरी हासिल की. टायरों के पंचर जोड़ते, हैंडल सीधे करते करते कारों और डीजल-ट्रैक्टरों की मरम्मत का काम भी सीख लिया. जल्दी ही उस  इलाके में मेहदी नामी मिस्त्री के तौर पर जाने जाने लगे और अड़ोस-पड़ोस के गांवों में जाकर इंजनों के अलावा ट्यूबवैल की मरम्मत के काम भी करने लगे.
संगीत के नाम पर एक सेकंड हैंड  रेडियो था. काम से थके-हारे लौटने के बाद वही उनकी तन्हाई का साथी बनता. किसी स्टेशन पर क्लासिकल बज रहा होता तो वे देर तक उसे सुनते. फिर उठ बैठते और तानपूरा निकाल कर घंटों रियाज़ करते रहते.
उस दौर में भी मेहदी हसन ने रियाज़ करना न छोड़ा. इंजन में जलने वाले डीजल के काले धुएं की गंध और मशीनों की खटपट आवाजों के बीच उनकी आत्मा संगीत के सुकूनभरे मैदान पर पसरी रहती. रात के आने का इंतज़ार रहता.
इसी तरह रियाज़ करते हुए दस साल बीत गये  तब कहीं जाकर 1957 में उन्हें रेडियो स्टेशन पर ठुमरी गाने का मौक़ा हासिल हुआ. उसके बाद सालों बाद उन्हें अपनी रुचि के लोगों की सोहबत मिली . पार्टीशन के बाद के पाकिस्तान में इस्लाम के नियम क़ायदे हावी होते जा रहे थे और कला-संगीत को प्रश्रय देने वाले दिखते ही नहीं थे . बड़े गायक और वादक जैसे तैसे अपना समय काट रहे थे. सत्ता की भी उनमें कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं  थी.
पच्चीस साल लगातार सुर साधना  करने के बाद मेहदी हसन इस नैराश्य को स्वीकार करने वाले नहीं थे. अच्छी बात यह हुई कि इस बीच उन्होंने संगीत के साथ-साथ शहरी में  भी गहरी समझ पैदा कर ली थी. उस्ताद शायरों की सैकड़ों गज़लें उन्हें कंठस्थ थीं , दोस्तों के साथ बातचीत में वे शेरों को कोट किया करते थे.

फिर अचानक  मेहदी हसन ल ने विशुद्ध क्लासिकल छोड़ ग़ज़ल गायकी को अपना अभिव्यक्ति माध्यम बना लिया पाकिस्तानी फ़िल्मों में गाया लेकिन वहाँ की फ़िल्म इंडस्ट्री बहुत छोटी थी , असली शोहरत मंच से मिली और और पूरे भारतीय उप महाद्वीप में उनकी गायकी गूंज उठी. उन्होंने मीर, ग़ालिब और फैज़ जैसे उस्ताद सूत्रों को तो गाया ही और फरहत शहज़ाद, सलीम गिलानी और परवीन शाकिर जैसे अपेक्षाकृत नए शहरों को भी अपनी गायकी में शामिल किया. उनकी प्रस्तुति में दो कला-विधाओं यानी शायरी और गायकी का  चरम  था उन्होंने अपने  सुरों में  ग़ज़लों को अलग ऊँचाई दी और अपनी परफॉरमेंस में रदीफ़-काफ़ियों ने नई नई पोशाकें पहनाईं .

मेहदी हसन के पास बेहद लम्बे और कभी न थकने वाले अभ्यास की मुलायम ताकत थी जिसकी मदद से उन्होंने संगीत की अभेद्य चट्टानों के बीच से रास्ते निकाल दिए. पानी भी यही करता है.
(लेखक स्टैट बैंक के सेवा निवृत्त अधिकारी हैं और  स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं) 

हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा

(14 सितंबर हिंदी दिवस पर विशेष लेख)
   इस बार भी 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाएगा और हिंदी भाषी राज्यों में परम्परा के अनुसार सरकारी खर्च पर सरकारी संस्थानों में खूब तालियां और थालियां बजेगी, और बधाइयां भी बंटेगी। मुझे इस बात की खुशी भी है कि साल में एक दिन हिंदी भाषा के प्रकाश स्तंभ रचनाकारों के चित्र प्रकाशित होते हैं। लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्रों का ये पुराना दर्द भी छलकता है कि हिंदी भाषा को आजादी के 77 साल बाद भी हम हिंदी को एक राष्ट्रभाषा का सम्मान क्यों नहीं दे पा रहे हैं। आप जानते ही हैं कि 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने केवल राजभाषा का दर्जा दे रखा है और तब से हिंदी भाषा, भारत की राष्ट्र भाषा नहीं मानी जा रही है।
   इस दर्द को समझने के लिए मैं खुद हिंदी भाषा का लेखक होने के नाते ये कहना चाहता हूं कि पहले हिंदी प्रदेशों में, अहिंदी प्रदेशों की भारतीय भाषाओं के प्रति आदर और अनुराग की भावना भी दिखाई-सुनाई पड़नी चाहिए। भारत का भाषा परिवार हम से ये उम्मीद करता है कि कोई एक भाषा किसी दूसरी भाषा पर थोपी नहीं जानी चाहिए। क्योंकि हिंदी भाषा की संरचना, प्रांतीय भाषाओं और बोलियों से ही सृजित और समृद्ध हुई है। राजभाषा और राष्ट्रभाषा का ये वाद-विवाद और संवाद ही आज भाषाई वर्चस्व की राजनीति का रूप ले चुका है।
   दूसरे रूप में हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान की राजनीति ने भी इस हिंदी भाषा को राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अस्मिता से जोड़ दिया है और ये माना जाने लगा है कि जब हिंदी प्रदेशों (उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हिमाचल, हरियाणा) से ही केंद्र सरकार का भविष्य तय होता है तो फिर भाषाओं का भविष्य भी बहुमत के शासन द्वारा ही तय किया जाएगा। भारत के अधिकतर प्रधानमंत्री इन हिंदी प्रदेशों की देन हैं और हिंदी भाषा की सृजन परम्परा इन्हीं हिंदी प्रदेशों से आती है। यानी कि हिंदी भाषा को शुरू से ही एक वर्चस्व की भाषा बनाया गया है जबकि संस्कृत, तमिल, तेलगू जैसी अनेक भाषाएं शास्त्रीय भाषा की तरह बहुत समृद्ध हैं। इस भाषाई सत्ता व्यवस्था की राजनीति ने बंगला, असमिया, मलयालम, कन्नड़ और गुजराती, राजस्थानी, बुंदेलखण्डी, भोजपुरी जैसे अनेक समृद्ध भाषाओं को वर्चस्व की हिंदी मानसिकता ने हाशिए से बाहर धकेल दिया है।
   मेरा इस पृष्ठभूमि में विनम्र सुझाव है कि हिंदी भाषा-भाषी हिंदी को अधिक विवाद रहित बनाने के लिए पहले अहिंदी भाषा-भाषियों के साथ सृजन संवाद और सांस्कृतिक सौहार्द बढ़ाएं और अनुवाद के पुल अधिक बढ़ाएं। उर्दू, अंग्रेजी के साथ हिंदी का तालमेल लगातार अनुवाद से ही बढ़ रहा है। मेरा ये भी अनुरोध है कि हिंदी जगत को इस बात का गर्व होना चाहिए कि आज हिंदी यत्र-तत्र-सर्वत्र है और बाजार और सरकार के साथ टेक्नोलाॅजी और शिक्षा के माध्यम के रूप में भी प्रायः सर्वमान्य है। प्रचार के सभी माध्यम, फिल्म उद्योग, प्रसारण तंत्र-हिंदी को घर-घर ले जा रहे हैं। ऐसा है कि हिंदी तो खुद एक बहता हुआ पानी है जो खुद अपना रास्ता बना रहा है। आज लाल किला भी हिंदी भाषणों से ही जनता के दिल और दिमाग पर राज कर रहा है और अंग्रेजी से अधिक विश्व मंचों पर कामयाब है।
   ऐसे में हिंदी आज बाजार, व्यवहार और बहुमत की राजनीति का सफलतम उदाहरण है। शिक्षा की नई नीति में हिंदी, अंग्रेजी और तीसरी कोई प्रांतीय भाषा का त्रिभाषा फार्मूला भी यही संवाद और समन्वय बनाता है। अतः हिंदी भाषा-भाषियों को उदारता और भाषाई-पारिवारिकता की समझ के साथ, सबका साथ-सबका विश्वास और सबका विकास की गैर बराबरी से मुक्त बात करनी चाहिए। क्योंकि हिंदी प्रथम है किंतु सभी की पंक्ति में समान है। केवल हिंदी का आग्रह और दुराग्रह एक तरह की संकीर्णता है।
   अतः हिंदी को विविधता में एकता का आधार बनाए हैं। हिंदी के लिए एक दिन का सरकारी कर्मकांड अब बंद होना चाहिए। क्योंकि ये अब जनता के धन का दुरुपयोग है। उचित ये है कि राजभाषा के नाम पर चल रहे सभी अखाड़े अब अहिंदी भाषी राज्यों में सक्रिय बनाने चाहिए। ताकि प्रांतीय भाषाओं से हमारा भाईचारा बढ़े और सांस्कृतिक आदान-प्रदान विकसित हो। दूसरों को सम्मान देकर ही आप उनसे सम्मान ले सकते हैं। क्योंकि उत्तर की संकीर्ण राजनीति भी बढ़ती है। हिंदी भाषी लोगों को अन्य भारतीय भाषाओं को पढ़ना-लिखना और बोलना भी चाहिए ताकि हिंदी भारत में भाषाई एकता का चंदन पानी बन सकें। इसलिए अपना दर्द बताएं तो दूसरों का दर्द भी समझें। इसी संदर्भ में
साहित्यकार अल्लामा इक़बाल ने कहा था “सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसितां हमारा।”
 (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पत्रकार हैं)

हिन्दी – कल आज और कल

भाषा आदमी को आदमी से जोड़ने का जरिया मात्र नहीं है, बल्कि भाषा हमारी भूतकालिक विरासत को संरक्षित भी करती है । ये भाषा का ही कमाल है कि शताब्दियों से लिखा गया चिंतन आज एक भाषिक विरासत की तरह हमें मार्ग-दर्शन दे रहा है। भाषा सामाजिक व्यवहारों पर निर्भर करती है। इसलिए इसमें बोलने वाले समूहों की जातिगत विविधता और उनकी संस्कृति अभिव्यक्ति पाती है।

हमारी ऐसी ही समर्थ भाषा है, इसने हमारी अभिव्यक्ति की भाषा, संपर्क भाषा, राज्य भाषा, राष्ट्र भाषा, टंकण और मुद्रण की भाषा, संचार की भाषा, कम्प्यूटर की भाषा का सफर तय करते हुए हमारी अस्मिता को विश्व के विशाल धरातल पर सुशोभित किया है।

इसकी धारा जनजीवन में सदा से प्रवाहित है। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के समय ये समझ लिया गया था कि हिन्दी ही स्वाधीनता के पश्चात् अंग्रेजी का विकल्प हो सकती है। विशाल भारतीय जनसंख्या की भाषा होने के कारण भी राष्ट्रीय मुख्य धारा हिन्दी ही थी । फलतः 14 सितम्बर 1949 को देश की राजभाषा बनाने संबंधी अनुच्छेद स्वीकृत किये गये ।

‘हिन्दी’ शब्द का मूल अर्थ है – हिन्दी का भारत का अर्थात् भारतीय । जैसे जापान का जापानी, चीन का चीनी इसलिए तो एक गीत
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा में कहा गया है। “हिन्दी है हम, वतन है” । हिन्दोस्तां हमारा
यहाॅ ‘हिन्दी’ हैं हम
‘हम’ से तात्पर्य भारतीय है।

ये तो हम सभी जानते है कि आज जिसे हम मानक हिन्दी कहते है, वह खड़ी बोली का विकसित रूप है, इसे ‘कौरवी’ भी कहा जाता है। दिल्ली, मेरठ, बिजनौर, मुरादाबाद के पूर्वी भागों में आज भी अपने मूल रूप में ये बोली जाती है। 14वीं शताब्दी में सर्वप्रथम अमीर खुसरों ने हिन्दी की इसी खड़ी बोली में काव्य रचना की, इसलिए इन्हें हिन्द का तोता भी कहा जाता है। इनकी पहेलियाँ आपने भी शायद पढ़ी होंगी
एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा । चरों ओर वह थाली फिरे, मोती उनके एक न गिरे । ।

यही खड़ी बोली ही हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का आधार है । हिन्दी शब्द का आरंभिक प्रयोग पंडित विष्णु शर्मा की पुस्तक ‘पंचतंत्र’ की भाषा के लिए हुआ। यह पुस्तक संस्कृत में लिखी गई थी पर इसका अनुवाद प्राचीन ईरानी में किया गया और पुस्तक की भूमिका में लिखा था- – यह अनुवाद जबाने हिन्दी से किया गया है। इस तरह जबाने हिन्दी ही हिन्दी भाषा बनी ।

यह खड़ी बोली ही हिन्दी, उर्दू और हिन्दुस्तानी का मूल आधार है । हिन्दी जब संस्कृत के तत्सम शब्दों के साथ प्रयुक्त हुई तो हिन्दी कहलायी और अरबी, फारसी शब्दों के साथ बोली गई तो उर्दू कहलायी। इस तरह हिन्दी और उर्दू एक मॉ की दो संतान है।

आपको जानकर ताज्जुब होगा कि हमारी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अहिन्दी भाषी भारतीय और अंग्रेजों का विशेष योगदान रहा सर्वप्रथम 1800 ईस्वीं के कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना करने वाले एक अंग्रेज प्रो. गिल काईस्ट थे। उस समय नवागत अंग्रेज अफसरों के प्रशिक्षण की व्यवस्था थी । इस प्रशिक्षण में भारतीय भाषाओं की जानकारी भी शामिल थी पढ़ाने के लिए राम प्रसाद निरंजनी, लल्लू लाल और सदल मिश्र को नियुक्त किया गया। इन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी गद्य में पुस्तकें लिखी । अंग्रेजों के द्वारा

शुद्ध व्यावसायिक मुनाफे के लिए बिछाये गये रेलों के जाल से भी दूरगायी लाभ मिले। पहले से ही हिन्दी देश के बड़े भू-भाग की भाषा थी । रेल और यातायात के साधनों ने इसे फैलने में मद्द की । हिन्दी की राष्ट्रीय भूमिका को अहिन्दी प्रदेशी भारतीय नेताओं जैसे तिलक, गांधी, सुभाशचन्द्र बोस, अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं ने पहचाना। सन् 1883 में स्वामी दयानंद ने अपना प्रसिद्ध ग्रंथ “सत्यार्थ प्रकाश” हिन्दी में लिखा ।

एंग्लो वैदिक कॉलेज में छात्रों के लिए हिन्दी पढ़ना अनिवार्य था । इस प्रकार हिन्दी अपने वूते संपर्क भाषा बनी। कश्मीर से कन्याकुमारी और कलकत्ता से कच्छ तक के भू-भाग के लोगों को आपस में जोड़ती है। इस विस्तार में हिन्दी के अनेक रूप रंग मिलते हैं ।

भाषा के लिए कहा गया है – “चार कोस में पानी बदले आठ कोस में बानी ।”

परिवर्तन सृष्टि का नियम है, जहाँ परिवर्तन है, वहाँ गति है और जहाँ गति है, वहाॅ जीवन । कहने का तात्पर्य है जीवंत भाषा अपने को उदार और उन्मुक्त बनाये रखती है। दूसरी भाषा के शब्दग्रहण करके उसे अपने स्वभाव का अंग बना लेती है। हिन्दी में ये विशेषता खूब रही है। विदेशी भाषा और अन्य भाषा के शब्द इसमें इतने अधिक रच बस गए हैं कि इन्हें छॉट कर अलग करना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल अवश्य है ।

पारिभाषिक शब्दावली, तकनीकी शब्दावली, नये-नये शब्द आविष्कारों से संबंधित नये शब्द गढ़े जा रहे हैं, जो हिन्दी के विकास को गति दे रहे हैं । सबसे बड़ी बात चलन भी है, व्यवहार भी है, आज आप रिक्शेवाले या ऑटो वाले से कहें – लौहपथगामिनी स्थल ले चलिए तो वो पूछेगा – ये कौन सी जगह है? लेकिन रेल्वे स्टेशन कहने से वह झट से समझ जायेगा ।

हिन्दी व्यावहारिक शब्दों को समेटते हुए चल रही है। इस सन्दर्भ में पंडित गिरधर शर्मा ने म्या खूब कहा है-
हजारों लब्ज आयेंगे नये, आ जायें क्या डर है? पचा लेगी उन्हें हिन्दी, कि है जिन्दा जुंबा हिन्दी ।

शतरूपा हिन्दी के अनेक रूप हैं-जनभाषा, राजभाषा, राष्ट्रभाषा, संपर्क

भाषा, मशीनी भाषा, टकसाली भाषा । इन दिनों हिन्दी के एक और रूप की संभावना उभरी है यह नया रूप है हिन्दी विश्व भाषा या अंतर्राष्ट्रीय भाषा रूप। चूँकि हिन्दी विश्व के एक महानतम लोकतंत्र की भाषा है, इसलिए इस भाषा ने अनेक देशों को आकर्शित किया है। कुछ देश ऐसे हैं जहाॅ भारत के मूल निवासी बड़ी संख्या में बसे हैं, जैसे मारीशस, फ़ीजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद । इसी तरह कुली मजदूर के रूप में विदेशों में गये भारत वांशियों ने अपने त्याग और तपस्या से हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा बना दिया है। उन्होंने अपने श्रम और साधना के बल पर अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर हिन्दी को जो गरिमा प्रदान की है, वह स्वर्ण अक्षरों में लिखने योग्य है ।

भूमंडलीकरण और निजीकरण के चलते आज पूरे विश्व की निगाह भारत पर है- क्योंकि भारत सबसे बड़ा बाजार है। एक विशाल उपभोक्ता क्षेत्र है । यही कारण है कि आज विदेशी कंपनियाँ प्रचार सामग्री हिन्दी में छपवाते हैं । आज टी.वी. के सारे चैनल हिन्दी का प्रयोग कर रहे हैं। बी. बी. सी. भी अपना वैज्ञानिक कार्यक्रम डिस्कव्हरी भी हिन्दी में प्रसारित कर रही है।

इन सबके बाद भी हमें यह ध्यान रखना है कि जैसे हमारा अपना संस्कार होता है, भाषा की भी संस्कृति होती है । भाषा के संस्कार शब्द के मूल अर्थ में होते हैं, जो उसकी आत्मा होती । आज हिन्दी साहित्य बोलचाल की सौम्य एवं अनुशासित भाषा से अलग ही तेवर में प्रयुक्त हो रही है। हिन्दी ‘आप’ पर

‘तू’ भारी हो गया है, मुझे-तुझे का स्थान मेरे को तेरे को ने ले लिया है।

इसके अलावा अपून तो यहीच्च रहना मांगता: कट ले, कल्टी कर ले, तेरी तो वॉट लग गई जैसे जूमले लोगों की जुबान पर चढ़ गये हैं ।

विकास, परिवर्तन और गति यही जीवन है, पर विकास हो, विनाश नही । आज भाषा को ध्वनि संकेत एस. एम. एस. के प्रतीकों में सीमित कर महज एक यांत्रिक उत्पाद में बदल दिया गया है- एक विज्ञापन में कहा जाता है न ” कर लो दुनिया मुट्ठी में” सही है, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के जरिये कर लिया आपने दुनिया मुट्ठी में । सिमट गई दुनिया मुट्ठी में पर बिखर गई दूरियाँ दिलों की, संवेदनाओं की । मेरी मतलब भाषा के संक्षिप्तीकरण से है ।

अब चूँकि भाषा संप्रेषण का माध्यम है- साथ ही गतिशील है, इसलिए परिवर्तन जरूरी है, पर ध्यान रहे, परिवर्तन की इस प्रक्रिया में उसका मूल स्वरूप उसकी आत्मा बरकरार रहे, हिन्दी का शुद्ध और परिनिष्ठित रूप भी बना रहे। भाषा तो वही होनी चाहिए न जो मुझ तक आपकी बात या मेरी बात आप तक इस तरह पहुॅचा दे कि वो आपकी अपनी बात बन जाये

देखिए गुफतार की खूबी, कि जो उसने कहा।
हमने ये समझा कि, गोया वो मेरे दिल में था । ।

लेखिका हिन्दी शासकीय काव्योपाध्याय हीरालाल महाविद्यालय, अभनपुर, जिला – रायपुर (छत्तीसगढ में सहायक प्राध्यापक हैं)
(साभार -GJRA – GLOBAL JOURNAL FOR RESEARCH ANALYSIS से ) 

केवल हिन्दी ही होनी चाहिए भारत की राष्ट्रभाषा

भाषाओं की मर्यादाएँ, सीमाएँ न केवल संवाद की मध्यस्थता तक हैं बल्कि राष्ट्र के समृद्ध सांस्कृतिक वैभव का परिचय भी भाषाओं के उन्नयन से ही होता है। जिस तरह समग्र विश्व में आज भारत की पहचान में तिरंगा, राष्ट्रगान वन्दे मातरम और राष्ट्रगीत जन-गण-मन है, उसी तरह भारत का भाषाई परिचय हिन्दी से होता है, और होना भी हिन्दी से ही चाहिए क्योंकि जनगणना 2011 के शासकीय आँकड़ों के आलोक में देश की लगभग 59 प्रतिशत आबादी प्रथम, द्वितीय अथवा तृतीय भाषा के रूप में हिन्दी बोलती, सुनती और समझती है।

अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति हिन्दी की तुलना में आधी भी नहीं है। साथ ही, वैश्विक भाषा का ढोल पीटने वाली अंग्रेज़ी भाषा की स्थिति भी भारत में 7% तक भी नहीं है। ऐसी स्थिति में बहुसंख्यक होने के बावजूद भी आज तक हिन्दी महज़ राजकार्य की भाषा यानी संवैधानिक दृष्टि से केवल राजभाषा के रूप में विद्यमान है।

जिस तरह एक राष्ट्र के निर्माण के साथ ही ध्वज, पक्षी, खेल, गीत, गान और चिह्न तक को राष्ट्र के स्वाभिमान से जोड़कर संविधान सम्मत बनाने और संविधान की परिधि में लाने का कार्य किया गया है तो फिर भाषा क्यों नहीं?

किसी भी राष्ट्र में जिस तरह राष्ट्रचिह्न, राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज, राष्ट्रगीत, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पशु की अवहेलना होने पर देशद्रोह का दोष लगता है परन्तु भारत में हिन्दी के प्रति इस तरह का प्रेम राजनैतिक स्वार्थ के चलते राजनीति प्रेरित लोग नहीं दर्शा पाए, उसके पीछे मूल कारण में तात्कालीन राजनीतिक दल के दक्षिण के पारंपरिक वोट बैंक टूटना भी है, परंतु अब हालात बदले हैं।

हाशिए पर आ चुकी बोलियाँ जब केन्द्रीय तौर पर एकीकृत होना चाहती हैं तो उनकी आशा का रुख सदैव हिन्दी की ओर होता है, हिन्दी सभी बोलियों को स्व में समाहित करने का दंभ भी भरती है, साथ ही, उन बोलियों के मूल में संरक्षित भी होती है। इसी कारण समग्र राष्ट्र के चिन्तन और संवाद की केन्द्रीय भाषा हिन्दी ही रही है।

विश्व के 178 देशों की अपनी एक राष्ट्रभाषा है, जबकि इनमें से 101 देश में एक से ज़्यादा भाषाओं पर निर्भरता है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि एक छोटा-सा राष्ट्र है ‘फ़िज़ी गणराज्य’, जिसकी आबादी का कुल 37 प्रतिशत हिस्सा ही हिन्दी बोलता है, पर उन्होंने अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को घोषित कर रखा है। जबकि हिन्दुस्तान में 50 प्रतिशत से ज़्यादा लोग हिन्दीभाषी होने के बावजूद भी केवल राजभाषा के तौर पर हिन्दी स्वीकारी गई है।

राजभाषा का मतलब साफ़ है कि केवल राजकार्यों की भाषा।

आखिर राजभाषा को संवैधानिक आलोक में देखें तो पता चलता है कि ‘राजभाषा’ नामक भ्रम के सहारे सत्तासीन राजनैतिक दल ने अपने कर्त्तव्यों की इतिश्री कर ली। उन्होंने दक्षिण के बागी स्वर को भी समेट लिया और देश को भी झुनझुना पकड़ा दिया।

राजभाषा बनाने के पीछे सन् 1967 में बापू के तर्क का हवाला दिया गया, जिसमें बापू ने संवाद शैली में राष्ट्रभाषा को राजभाषा कहा था। शायद बापू का अभिप्राय राजकीय कार्यों के साथ राष्ट्र के स्वर से रहा हो परन्तु तात्कालीन एकत्रित राजनैतिक ताक़तों ने स्वयं के स्वार्थ के चलते बापू की लिखावट को ढाल बनाकर हिन्दी को ही हाशिए पर ला दिया। किंतु दुर्भाग्य है कि हिन्दी को जो स्थान शासकीय तंत्र से भारत में मिलना चाहिए, वो कृपापूर्वक दी जा रही खैरात है। हिन्दी का स्थान राष्ट्र भाषा का होना चाहिए न कि राजभाषा का ।

जब अखिल विश्व में हिन्दुस्तानी प्रतिभा का लोहा माना जा रहा हो, राष्ट्राध्यक्षों की आँखें हिन्दुस्तान की ओर उम्मीद से देख रही हों,  विश्व के तमाम बड़े व्यापारी भारत की ओर उम्मीद भरी टुकटुकी नज़रों से व्यवसाय की समृद्धता देख रहे हों, राष्ट्र में शासन करने वाले ही हिन्दी के समर्थक हों, उसके बाद भी हम अभी तक अपने देश में अब तक संवैधानिक रूप से अपनी ही भाषा को राष्ट्रभाषा घोषित नहीं कर सके, यह दुर्भाग्य है।

जबकि स्वतंत्र भारत की पहली संविधान सभा ने मात्र 15 वर्षों के बाद ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करने का निश्चय किया था और यह इसीलिए ताकि देश में हिन्दी का ज्ञान और प्रचलन व्यापक रूप से हो सके, तथा नौकरशाही हिन्दी सीख सकें परन्तु इस घोषित लक्ष्य को पूरा करने या क्रियान्वित करने की दिशा में शासन की ओर से कोई पहल नहीं हुई।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने की कल्पना महात्मा गांधी ने की थी। अंग्रेज़ी भाषा में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की थी, परन्तु वे राष्ट्र के विकास में राष्ट्रीय एकता में राष्ट्रभाषा के महत्त्व को समझते थे और उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के पीछे जो तर्क दिये थे, उसमें सबसे मज़बूत तर्क देश में हिन्दी का व्यापक जनआधार होना था। गांधी जी का कहना था कि जो भाषा देश में सर्वाधिक बोली या समझी जा सकती है, वह हिन्दी है, और हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने से

महात्मा गांधी ने इन्दौर से संकल्प लेकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव दिया था, फिर राष्ट्रभाषा के प्रचार का काम शुरु किया था, तो उसकी शुरुआत दक्षिण और तमिलनाडु से की थी। परन्तु अब तमिलनाडु के शासक अपने निहित स्वार्थों के लिए हिन्दी के प्रयोग के विरोध में हैं, हालांकि दूसरा पक्ष यह भी है कि दक्षिण की जनता हिन्दी विरोधी मानसिकता की नहीं है। दक्षिण में हिन्दी फ़िल्में और हिन्दी गानों का चलन बहुतायत में है। हिन्दी फ़िल्मों के नायक भी वहाँ काफ़ी प्रशंसा और लोकप्रियता पाते हैं।

स्व. डॉ. लोहिया ने जब अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन का सूत्रपात किया था तो उनका भी यह कहना था कि हिन्दी और क्षेत्रीय भाषायें परस्पर बहने हैं, राज्यों का कामकाज राज्य भाषा में हो और देश में हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में काम का आधार बने। उनका नारा था, ’’अंग्रेज़ी में काम न होगा, फिर से देश गुलाम न होगा, चले देश में देशी भाषा।’ डॉ.लोहिया अंग्रेज़ी को साम्राज्यवाद और शोषण की भाषा मानते थे और यह निष्कर्ष तथ्यपरक भी है।

आज भी अंग्रेज़ी देश में विषमता की भाषा है तथा देश के बहुसंख्यक लोगों का इसलिये शोषण हो पाता है क्योंकि वे अंग्रेज़ी नही जानते।  देश की अदालतों में और शासकीय दफ़्तरों में इसलिए लुटना पड़ता है, क्योंकि वहाँ अंग्रेज़ी चलती है। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज अदालतों की भाषा अंग्रेज़ी है, कानून अंग्रेज़ी में, सरकारी आदेश अंग्रेज़ी में होते हैं और इसलिए भारत का नागरिक उस अंग्रेज़ी का शिकार और शोषित होता है।

अब महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हिन्दी राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पा रही है? इसके कारणों पर विचार किया जाना चाहिए। हमारा देश कुछ मामलों में बड़ा स्वपनदर्शी और भावुक भी है। अगर हमारा कोई शासक संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी बोल दे तो हम इसे शासक का दायित्व नहीं बल्कि एक ऐसी महान घटना के रूप में देखते हैं जैसे शासक ने भारत के ऊपर कोई कृपा कर दी हो। इतने ही मात्र से हम उसकी तारीफ़ के कसीदे पढ़ना शुरु कर देते हैं, और यह प्रश्न पूछना भूल जाते है कि अगर वे मानते हैं कि हिन्दी का प्रयोग करना शासक और शासन का नितांत आवश्यक गुण है तो फिर अपने देश में हिन्दी को राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बनाते? दरअसल, हमारे देश के शासकों में संकल्प शक्ति का बड़ा अभाव रहा है। राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव के कारण अब तक हिन्दी अभागन की तरह राष्ट्र के मुकुट के रूप में स्थापित नहीं हो पाई है।

हाँ! हम भारतवंशियों को कभी आवश्यकता महसूस नहीं हुई राष्ट्रभाषा की, परन्तु जब देश के अन्दर ही देश की राजभाषा या हिन्दी भाषा का अपमान हो, तब मन का उत्तेजित होना स्वाभाविक है। जैसे राष्ट्र के सर्वोच्च न्याय मंदिर ने एक आदेश पारित किया है कि न्यायालय में निकलने वाले समस्त न्यायदृष्टान्त व न्यायिक फ़ैसलों की प्रथम प्रति हिन्दी में दी जाएगी, परन्तु 90 प्रतिशत इसी आदेश की अवहेलना न्यायमंदिर में होकर सभी निर्णय की प्रतियाँ अंग्रेज़ी में दी जाती हैं और यदि प्रति हिन्दी में माँगी जाए तो अतिरिक्त शुल्क जमा करवाया जाता है।

दक्षिण में हिन्दीभाषियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार भी सार्वभौमिक हैं। साथ ही, कई जगहों पर तो हिन्दी साहित्यकारों को प्रताड़ित भी किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में कानून सम्मत भाषा अधिकार होना यानी राष्ट्रभाषा का होना सबसे महत्त्वपूर्ण है ।

कमोबेश हिन्दी की वर्तमान स्थिति को देखकर सत्ता से आशा ही की जा सकती है कि वे देश की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने के लिए, संस्कार सिंचन के तारतम्य में हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर इसे अनिवार्य शिक्षा में शामिल करें। इन्हीं सब तर्कों के संप्रेषण व आरोहण के बाद ही हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सूर्य देखने को मिलेगा और देश की सबसे बड़ी ताक़त उसकी वैदिक संस्कृति व पुरातात्विक महत्त्व के साथ-साथ राष्ट्रप्रेम जीवित रहेगा।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
पत्रकार एवं लेखक
पता: 204, अनु अपार्टमेंट,

21-22 शंकर नगर, इंदौर (म.प्र.)
संपर्क: 9893877455 | 9406653005
अणुडाक: arpan455@gmail.com
अंतरताना:www.arpanjain.com

[ लेखक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]

हवा में मार करने वाली मिसाइल का सफल परीक्षण

रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) और भारतीय नौसेना ने ओडिशा तट से दूर चांदीपुर में एकीकृत परीक्षण रेंज (आईटीआर) से 12 सितंबर 2024 को लगभग 1500 बजे वर्टिकल लॉन्च शॉर्ट रेंज सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल (वीएल-एसआरएसएएम) का सफलतापूर्वक उड़ान परीक्षण किया। यह उड़ान परीक्षण एक भूमि-आधारित ऊर्ध्वाधर लांचर से किया गया था, जिसमें कम ऊंचाई पर उड़ रहे उच्च गति वाले एक हवाई लक्ष्य पर निशाना साधा गया था। मिसाइल प्रणाली ने सफलतापूर्वक लक्ष्य का पता लगाया और उसे भेद दिया।

इस परीक्षण का उद्देश्य प्रॉक्सिमिटी फ्यूज और सीकर सहित हथियार प्रणाली के कई अद्यतन तत्वों को मान्य करना था। इस प्रणाली के प्रदर्शन की आईटीआर चांदीपुर में तैनात रडार इलेक्ट्रो-ऑप्टिकल ट्रैकिंग सिस्टम और टेलीमेट्री जैसे विभिन्न उपकरणों द्वारा सावधानीपूर्वक निगरानी व पुष्टि की गई।

रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने डीआरडीओ और भारतीय नौसेना की टीमों की उनकी उपलब्धि के लिए सराहना करते हुए कहा कि यह परीक्षण वीएल-एसआरएसएएम हथियार प्रणाली की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता की पुष्टि करता है।

डीआरडीओ के अध्यक्ष तथा रक्षा अनुसंधान एवं विकास विभाग के सचिव डॉ. समीर वी. कामत ने भी इस परीक्षण में शामिल टीमों को बधाई दी और इस बात पर जोर दिया कि यह प्रणाली भारतीय नौसेना की परिचालन क्षमताओं को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ाएगी और बल गुणक के रूप में कार्य करेगी।

देवी स्थान के शिखर पर महादेवी…

अग्निधर्मा :महादेवी वर्मा पुण्यतिथि विशेष

 (जन्मः  26 मार्च 1907 – निधनः 11 सितंबर 1987)

वही धूप है, वही पहाड़ी बादल,
वही जंगल की वनैली, सरसराती हवा;
सिर्फ वे आँखें नहीं हैं,
जो कभी डेस्क से उठकर
खिड़की के पार उन्हें टोका करती थीं
रामगढ़ का वह घर, जो एक छोटी- था, धीरे-धीरे एक तपोवनी आश्रम में बदलता गया। हिन्दी के अनेक कवि और साहित्यकार – इलाचन्द्र जोशी, सुमित्रानन्दन पन्त, धर्मवीर भारती समय-समय पर वहाँ आकर रुकते थे। कहते हैं, स्वयं महादेवीजी ने अपने कविता-संग्रह ‘दीपशिखा’ की रचना इसी भवन में रहकर की थी।
महादेवीजी की मृत्यु के बाद :- जैसा अक्सर हमारे देश में स्मृति स्थलों के साथ होता है-यह भवन जर्जर, उपेक्षित अवस्था में पड़ा रहा। सौभाग्य से श्री बटरोही कुछ संवेदनशील कुमाऊँनी प्राध्यापकों और लेखकों ने नैनीताल के जिलाधिकारियों के सहयोग से इस भवन को ‘महादेवी साहित्य संग्रहालय’ में विकसित करने का बीड़ा उठाया। संग्रहालय के उद्घाटन केअवसर पर जो सन् 1996 में हुआ था मुझे श्री अशोक वाजपेयी के साथ पहली बार वहाँ जाने का संयोग मिला। रामगढ़ के जिन सेब-बगीचों को मैं सिर्फ बस की खिड़की से लालायित आँखों से देखता था, वहाँ पहली बार कभी महादेवीजी के निमित्त ठहरने का मौका मिलेगा, यह कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था।
एक सँकरी-सी चढ़ाई उस संग्रहालय तक जाती है, जहाँ कभी महादेवीजी धीरे-धीरे चलते हुए अपने घर जाती थीं। तब क्या वह अनुमान लगा सकती थीं कि वर्षों बाद उनके पाठकों प्रशंसकों की लम्बी कतार उनके पदचिह्नों पर चलते हुए एक ऐसी ऊँचाई पर पहुँचेगी, जहाँ वह तो कहीं पहाड़ों के पीछे लुप्त हो जाएँगी, किन्तु अपने पीछे आनेवालों के लिए अपने कतिपय स्मृति- अवशेष छोड़ जाएँगी। कुछ किताबें, जो अलमारी के भीतर एक-दूसरे से सटी, धूल में सनी दिखाई दे जाती हैं। चौके में चूल्हा, उन दिनों के कुछ पुराने बरतन, लकड़ी का पटरा – वही सादी स्वच्छ-सात्त्विक-सी घरेलू चीजें, जिनसे उनकी छोटी-सी गृहस्थी चलती थी। उनके अध्ययन कक्ष में एक आसन और डेस्क दिखाई दिए, जहाँ वह अधिकांश समय, एकान्त की घड़ियों में, लिखने, पढ़ने, सोचने में गुजारती थीं। वहीं शायद चित्र भी बनाती थीं। शायद यही कारण था कि भवन में उनके बनाए जो चित्र सुरक्षित हैं, वे अधिकांश लैंडस्केप हैं, सूर्यास्त की कोमल रोशनी, पहाड़ों पर झरता आलोक, पेड़ों के झुरमुट से खेलती हुई धूप, हवा, छाया ।
वही धूप है, वही पहाड़ी बादल, वही जंगल की वनैली, सरसराती हवा; सिर्फ वे आँखें नहीं हैं, जो कभी डेस्क से उठकर खिड़की के पार उन्हें टोका करती थीं।महादेवीजी के डेस्क और आसन को देखकर मुझे वाराणसी के घाट पर बसा एक अन्य आश्रम याद आ गया… बहुत वर्षों से उसे देखने की उत्कट साध थी, जहाँ आनन्दमयी माँ वर्ष के कुछ महीने रहा करती थीं। मेरी बड़ी बहन आनन्दमयी माँ की अर्पित आराधिका थीं और बचपन में उन्हीं के साथ उन्हें देखने-सुनने जाया करता था। आज मुझे कुछ और नहीं, उनके सुन्दर, सात्त्विक चेहरे पर खेलती मुस्कराहट याद रह गई है… बिलकुल वैसी ही जैसी मैंने पहली बार और आखिरी बार महादेवीजी के चेहरे पर देखी थी ।
यह भी क्या देवी संयोग था कि महादेवीजी के अध्ययन कक्ष में जाकर ही मुझे आनन्दमयी माँ का वाराणसीवाला साधना-कक्ष याद आता रहा; वह भी खिड़की के पास बैठा करती थीं, जिसके पार धूप में चमकता गंगा का असीम, निस्पन्द विस्तार दिखाई देता था। दोनों स्थानों के बीच एक दुर्लभ, अलौकिक साम्य था- हिमालय की पावन धवल अटलता और गंगा की सतत प्रवाहमयता… और तब महादेवीजी की चौकी के पास बैठा हुआ मैं सोचने लगा कि दोनों के बीच भौगोलिक दूरी के बावजूद कितना गहन सान्निध्य था ! महादेवी शब्द की पवित्रता में सृष्टि को साकार करती थीं, आनन्दमयी माँ सृष्टि की पवित्रता में ईश्वर से साक्षात् करती थीं। खिड़की से ये दृश्य भले ही अलग-अलग दिखाई देते हों, कवि और साधक में कोई अलगाव नहीं था; दोनों ही द्रष्टा थे।ॉ
यह भी एक विचित्र संयोग ही रहा होगा कि महादेवी ने अपने लिए जो निवास स्थान चुना था, उससे लगभग तीन किलोमीटर दूर सबसे ऊँची पहाड़ी पर कभी कवीन्द्र रवीन्द्र रहा करते थे। वह सन् 1903 में अपनी बीमार बेटी के स्वास्थ्य लाभ के लिए यहाँ आए थे। उन्होंने अपनी कुटी का नाम ‘गीतांजलि’ रखा था, जिसकी कुछ कविताएँ उन्होंने यहाँ लिखी थीं।
आज उनके घर के नाम पर सिर्फ पत्थरों के दूह दिखाई देते हैं। कितना अजीब है, जिस कृति के नाम पर रवीन्द्रनाथ को विश्व – ख्याति मिली, उसी के नाम का आवास-स्थल आज खंडहरों में दिखाई देता है।
महादेवी निर्मल वर्मा की नजर से (सर्जना पथ के सहयात्री कुछ अंश)

एआईसीटीई और आप्प इंडिया का पूरे देश के कॉलेजों में ‘जनरेशन ग्रीन’ अभियान

नई दिल्ली। ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन (AICTE) और OPPO India ने आज देश में इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट जागरुकता अभियान (ई-वेस्ट) के अंतर्गत रामजस कॉलेजदिल्ली यूनिवर्सिटी में जनरेशन ग्रीन’ अभियान के दूसरे चरण की शुरुआत की। इसके साथ ही यह कॉलेज इस कार्यक्रम के अंतर्गत पहला ईको-कॉन्शियस चैंपियन इंस्टीट्यूट’ बन गया है। OPPO India और AICTE ने कार्यक्रम के पहले चरण में भारत में कॉलेजों के युवाओं को इंटर्नशिप प्रदान करके उनमें हरित कौशल को बढ़ावा दिया। इन इंटर्नशिप्स के लिए 1,400 से ज्यादा संस्थानों के 9,000 से ज्यादा विद्यार्थियों ने आवेदन किया थाजिनमें से 5000 विद्यार्थियों का चयन किया गया। अब इन विद्यार्थियों को जागरुकता के सत्रोंई-सर्वेग्रीन डे जश्नों के आयोजनों जैसी सस्टेनेबिलिटी की गतिविधियों में लगाया जा रहा है।

कार्यक्रम के दूसरे चरण में युवाओं को इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट मैनेजमेंट की बढ़ती चुनौतियों के बारे में शिक्षित किया जा रहा है। इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट में खराब तारमोबाईल फोनचार्जरबैटरी आदि आते हैंजिन्हें एक सस्टेनेबल भविष्य के लिए प्रभावी तरीके से संभाला जाना आवश्यक है। दूसरे चरण के लॉन्च कार्यक्रम में डॉ. अनिल सहस्रबुद्धेचेयरपर्सननेशनल एजुकेशन टेक्नोलॉजी फोरम (एनईटीएफ) ने मुख्य अतिथि के रूप में हिस्सा लिया। इस अवसर पर अन्य गणमान्य लोगों के साथ श्री राकेश भारद्वाजहेडपब्लिक अफेयर्सOPPO India  और प्रोफेसर अजय कुमार अरोड़ाप्रिंसिपलरामजस कॉलेजदिल्ली यूनिवर्सिटी भी मौजूद थे। इस दो दिवसीय कार्यक्रम में विभिन्न सोसायटीज़जैसे लिटरेरी सोसायटीडांसिंग सोसायटीम्यूज़िक सोसायटीफोटोग्राफी सोसायटीक्विज़ सोसायटीफाईन आर्ट्स सोसायटी आदि के विद्यार्थियों को विभिन्न गतिविधियों में संलग्न किया गया है।

नेशनल एजुकेशन टेक्नोलॉजी फोरम के चेयरपर्सनडॉ. अनिल सहस्रबुद्धे ने कहा, ‘‘ई-वेस्ट का जिम्मेदारीपूर्वक प्रबंधन हमारे पर्यावरण और जन स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।’’ उन्होंने कहा, ‘‘शिक्षा के क्षेत्र में सस्टेनेबिलिटी एक रिपल प्रभाव उत्पन्न करने के लिए जरूरी हैताकि समाज में व्यापक परिवर्तन लाने में मदद मिले। जनरेशन ग्रीन’ जैसे अभियान युवाओं को इस समस्या के समाधान में सक्रिय भूमिका निभाने में समर्थ बनाते हैं। युवाओं को शिक्षित करके और उनमें जिम्मेदारी के भाव का विकास करके हम एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण कर सकते हैंजो सस्टेनेबल विधियों को प्राथमिकता देउचित ई-वेस्ट मैनेजमेंट सुनिश्चित करे और सभी के लिए एक हरित एवं स्वस्थ भविष्य के निर्माण में योगदान दे।’’

एक महीने के अंदर हीस्कूलों और कॉलेजों के 1 लाख से ज्यादा विद्यार्थियों ने कम ऊर्जा का उपयोग करने और जिम्मेदारीपूर्वक ई-वेस्ट प्रबंधन का संकल्प लिया हैजिससे ज्यादा सस्टेनेबल जीवनशैली में योगदान मिलेगा। इस कार्यक्रम का उद्देश्य 2024 के अंत तक भारत में कम से कम 10 लाख विद्यार्थियों तक पहुँचना है।

OPPO India में हेडपब्लिक अफेयर्सराकेश भारद्वाज ने कहा, ‘‘OPPO India में हम भारत सरकार के नेट-ज़ीरो के लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध हैं। हम एक सस्टेनेबल भविष्य की ओर राष्ट्रीय अभियान का नेतृत्व कर रहे हैंजो युवाओं की शक्ति से संचालित हो।’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘इस अभियान में उनकी तल्लीनता और गतिशीलता से उनका सक्रिय योगदान प्रदर्शित होता हैजो कुछ ही हफ्तों में 1 लाख से ज्यादा हरित संकल्पों तक पहुँच चुका है। युवा लोग आगे आ रहे हैंजिम्मेदारी ले रहे हैंऔर पर्यावरण के प्रति जिम्मेदार जीवनशैली अपनाने में सबका नेतृत्व कर रहे हैं। पहले चरण में हमारे साथ 20 राज्यों और 3 केंद्रीय प्रांतों के 5,000 सस्टेनेबिलिटी चैंपियन जुड़ेजो अब अन्य लोगों को स्वच्छ और सस्टेनेबल भविष्य की ओर प्रयास करने की प्रेरणा दे रहे हैं। दूसरे चरण के साथ ये युवा नेतृत्वकर्ता भारत के कॉलेजों में सक्रिय सहभागिता द्वारा ई-वेस्ट मैनेजमेंट पर ध्यान केंद्रित करेंगेऔर एक विकसित होती हुई हरित अर्थव्यवस्था के लिए हरित मानसिकता का निर्माण करेंगे।’’

United Nations Trade and Development (UNCTAD) की रिपोर्ट के अनुसारभारत में 2010 से 2022 के बीच screens, computers, and small IT and telecommunication equipment (SCSIT) द्वारा इलेक्ट्रॉनिक कचरे के निर्माण में दुनिया में सबसे ज्यादा 163 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई। इससे एक बड़ी चुनौती और प्रभावशाली ई-वेस्ट मैनेजमेंट की क्षमता की जरूरत प्रदर्शित होती है।

प्रोफेसर अजय कुमार अरोड़ाप्रिंसिपलरामजस कॉलेजदिल्ली यूनिवर्सिटी ने कहा, ‘‘हमें खुशी है कि रामजस कॉलेज को OPPO India के जनरेशन ग्रीन’ अभियान का दूसरा चरण शुरू करने के लिए चुना गया है। सस्टेनेबिलिटी के लिए प्रतिबद्ध संस्थान के रूप में हम निरंतर अपने परिसर की संस्कृति में ईको-फ्रेंडली विधियों को शामिल करने का प्रयास करते हैं। हमारा यह सहयोग युवाओं में पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी का भाव विकसित करने के हमारे उद्देश्य के अनुरूप है। अपने विद्यार्थियों और भारत के युवाओं को ई-वेस्ट की गंभीर चुनौती का समाधान करने में समर्थ बनाकर हम एक स्वच्छ और हरित भविष्य का निर्माण करने की ओर एक महत्वपूर्ण कदम उठा रहे हैं। हमें इस अभियान का नेतृत्व करने पर गर्व है। हम इस राष्ट्रव्यापी अभियान में पहले ईको-कॉन्शियस चैंपियन इंस्टीट्यूट के रूप में अपना दायित्व निभाएंगे।’’

अगले कुछ हफ्तों में ई-वेस्ट जागरुकता अभियान को प्रतिष्ठित संस्थानोंजैसे सेंट ज़ेवियर कॉलेजमुंबईएमिटी यूनिवर्सिटीझारखंडसिल्वर ओक यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद; दयानंद सागर यूनिवर्सिटी, बैंगलोर; एसआरएम यूनिवर्सिटी, दिल्ली-एनसीआर, सोनीपत; जेईसीआरसी यूनिवर्सिटी, जयपुर आदि में ले जाया जाएगा। यहाँ विद्यार्थियों, कर्मचारियों और नजदीकी संस्थानों को ई-कचरा इकट्ठा करने और उसका केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा अधिकृत कंपनियों के माध्यम से जिम्मेदारीपूर्वक निपटान करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। इन कॉलेजों के विद्यार्थियों को सस्टेनेबिलिटी इंटर्न के रूप में नियुक्त किया जाएगा, जो कैंपस एंबेसडर के रूप में सस्टेनेबल विधियों को प्रोत्साहित करेंगे।

National Institutional Ranking Framework (NIRF) 2025 में एक नई सस्टेनेबिलिटी रैंकिंग की श्रेणी शुरू होने वाली है, जिसमें पर्यावरणीय सस्टेनेबिलिटी, एनर्जी एफिशिएंसी, और हरित परिसर पहलों के आधार पर संस्थानों का मूल्यांकन किया जाएगा। जनरेशन ग्रीन अभियान संस्थानों को उनके सस्टेनेबिलिटी के प्रयासों को बढ़ाने में मदद करता है।

(चित्र परिचय-प्रो. अजय अरोड़ा, प्रिंसिपल, रामजस कॉलेज; डॉ. अनिल सहस्रबुद्धे, चेयरपर्सन, NETF; श्री राकेश भारद्वाज, प्रमुख, पब्लिक अफेयर्स, OPPO इंडिया; डॉ. हरदीप कौर, उप प्रिंसिपल, रामजस कॉलेज )

Deepika Guleria 

संभाग स्तरीय हिन्दी दिवस समारोह 2024

कोटा। भाषा एवं पुस्तकालय विभाग के अधीन राजकीय सार्वजनिक मण्डल पुस्तकालय कोटा द्वारा डॉ एस.आर.रंगानाथन कनवेशनल हाल मे संभाग स्तरीय हिन्दी दिवस  समारोह 2024 का आयोजन किया गया | कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ रामवातार मेघवाल एसोशिएट प्रोफेसर हिन्दी विभाग राजकीय कला महाविद्यालय कोटा , मुख्य अतिथि डॉ विवेक कुमार मिश्र प्रोफेसर हिन्दी विभाग राजकीय कला महाविद्यालय कोटा, अति विशिष्ट अतिथि डॉ आदित्य कुमार गुप्ता प्रोफेसर हिन्दी विभाग राजकीय कला महाविद्यालय कोटा, बीज भाषण एवं विशिष्ट अतिथि प्रोफेसर के.बी. भारतीय, विशिष्ट अतिथि डॉ गोपाल कृष्ण भट्ट “आकुल” आमंत्रित व्याख्यान डॉ. मधु सनाढय शिक्षाविद डीएवी पब्लिक स्कूल कोटा , गेस्ट ऑफ ऑनर डॉ रश्मि श्रीवास्तव , मंच संचालन श्री सत्येंद्र वर्मा उप प्राचार्य राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय बपावर कोटा रहे | इस कार्यक्रम की का केंद्रीय विषय “हिन्दी का वैश्विक संदर्भ : चुनौतियाँ एवं संभावनाए” रहा |

उदघाटन सत्र को संबोधित करते हुए संभागीय पुस्तकालय अध्यक्ष डॉ दीपक कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि – हिंदी और तकनीक के संयोजन से बना देश तरक्की की ओर बढ़ता हैजहाँ पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक नवाचार मिलते हैं। हिंदी भाषा की शक्ति और तकनीक की क्षमता मिलकर देश को विकास की नई ऊंचाइयों पर ले जाती हैं।”अर्थातहिंदी और तकनीक के मेल से देश तरक्की की राह पर चलता हैजहां पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक नवाचार एक साथ मिलते हैं।

 इस अवसर पर बीज भाषण देते हुये प्रोफेसर भारतीय ने कहा कि – हिन्दी दिवस की प्रासंगिकता यही हे कि जीवन के जिन क्षेत्रो मे हिन्दी का व्यवहार अछूता है , हम वंहा तक इसे पाहुचाने के लिए कृत संकल्पित है | अति विशिष्ट अतिथि डॉ गुप्ता ने कहा कि – आज बाजार मे हिन्दी विज्ञापन की मांग को देखते हुये हम इसके सुखद भविष्य की कल्पना कर सकते है | मुख्य अतिथि डा मिश्र ने कहा कि – विदेशो मे हिन्दी की पत्र पत्रिकाओ का जो विस्तार हुआ है वह हिन्दी के व्यापक संसार को अभिव्यक्त करता है | 

अध्यक्षीय उदबोधन मे डॉ रामवातार मेघवाल ने कहा कि शिक्षा नीति मे भाषा संबंधी इस प्रकार के प्रावधान हो कि बालक हिन्दी भाषा से पूरे अध्ययन काल मे जुड़ा रहे | आमंत्रित व्याख्यान के अंतर्गत शिक्षाविद डॉ मधु सनाढ्य ने “हिन्दी का वैश्विक संदर्भ : चुनौतियाँ एवं संभावनाए” विषय पर प्रकाश डाला वही डॉ रश्मि श्रीवास्तव ने “भारत की धड़कन है हिन्दी” विषय पर पत्र वाचन किया | 

 समारोह में डॉ गोपाल कृष्ण भट्ट “आकुल” द्वारा संपादित 100 छंद एवं 100 गीतिकाओ पर आधारित पुस्तक “इंद्रधनुष बन जाऊँ मै” का विमोचन मंचासीन अतिथियों द्वारा किया गया| कृति पर प्रकाश डॉ भट्ट तथा उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश डॉ दीपक कुमार श्रीवास्तव ने डाला |

“हिन्दी सेवी अलंकरण” सम्मान 2024 से सम्मानित होने वाले हिन्दी मनीषियों मे डॉ रामवातार मेघवाल ,डॉ विवेक कुमार मिश्र ,डॉ आदित्य कुमार गुप्ता प्रोफेसर के.बी. भारतीय, डॉ. मधु सनाढय डॉ रश्मि श्रीवास्तव , सत्येंद्र वर्मा , डॉ गोपाल कृष्ण भट्ट “आकुल” ,डॉ शशि जैन एवं नरेंद्र शर्मा अधिवक्ता सम्मानित हुये |

हिन्दी बाल प्रतिभा सम्मान -2024 से मास्टर नव्या शर्मा, वेदांशी शर्मा, मानविक पुरोहित, हिमांशी जैन, प्रियांशी सेन, निहारिका वर्मा,देवयांश वर्मा, निलिशा विजय , अंशिका कुमारी, आर्या कुमारी , सिमरन दीक्षित, आर्या अग्रवाल, लव चावला, गीत दाहवा, रिया दाहवा, खुशाल दाहवा, खुश दाहवा , अवनी सिंह, रक्षा सिंह, हर्षवर्धन शर्मा, प्रियंका शर्मा, तन्मया खंगार एवं उन्नति मिश्रा समेत 25 प्रतिभाए सम्मानित हुई |

हिन्दी युवा युवा प्रतिभा सम्मान 2024 से अंकिता सोनीप्रियंका नागर,चेतनामधु मण्ड़लदुष्यन्त सिंह,कोमल मीणा,नीरज राठोर,विजय शर्मा,विनय प्रताप,धारा सिंह मीणा,अंकित राठोर,अशोक कुमार अहीर,अरूण कुमार,सिमरन,जितेन्द्र्र कुमार मीणा,लोकेन्द्र सिंह गुर्जर,रविन्द्र जाटव,विष्णु वर्मा,प्रवीण कुमार जाटव, संध्या, अनिता भाट, दौलत सोनी, उषा कुमार, दिलखुश मेघवाल, प्रिया मीणा,रविन्द्र मेघवाल,नीरज कुमार नागर, जसवंत कुमार मीणा,विजय शर्मा,नीतु, हेमा नामा, ललित किशण मीणा, रूबी मेहता, अकिंत बंसल, नंदलाल वर्मा, राहुल कुमार प्रजापत, बबली मीणा, नवल किशोर, विशाल प्रजापती, अक्षय नागर, अनुराधा शर्मा, प्रविण वेदी, युगल किशोर नागर, नवीन शर्मा एवं शंकर सिंह सम्मानित हुये |

Dr. D. K. Shrivastava
INELI South Asia Mentor
IFLA WALL OF FAME ACHIEVER
Divisional Librarian and Head
Govt. Divisional Public Library Kota (Rajasthan)-324009
Cell No.+91 96947 83261
 
Librarians Save lives by handling the right books at right time to a kid in need.

जी हाँ हुज़ूर मैं सम्मान बेचता हूँ

मैं व्यापारी हूँ अलग क़िस्म के सामान बेचता हूँ।
सही समझ रहे हैं तरह तरह के सम्मान बेचता हूँ।
धंधा बहुत ही चंगा सी है हर सीजन में चलता है।
सम्मान कार्यक्रमों से मेरे घर का खर्चा चलता है।

मेरा ब्रौशर देखो इसमें कई किसिम के पैकेज हैं।
उससे अलग चाहिए तो कस्टम बिल्ट बैगेज हैं।
कवियों और कथाकारों हेतु कई श्रेणियाँ हैं इनमें।
जैसा माल लगाओगे वैसा सम्मान मिलेगा इनमें।

पैसा एडवांस आते ही सारी तैयारी शुरू हो जाएगी।
श्रोता, हाल , संचालन में कसर नहीं छोड़ी जाएगी।
सम्मानित करने को महामहिम तक आ सकते हैं ।
खर्चा जरा लगेगा लेकिन बेहतर कवरेज पा सकते हैं।
बढ़िया न्यूज़ छपेगी टीवी पर भी दिखला सकते हैं।
पैसे ज्यादा डालोगे तो कई चैनल कवर कर सकते हैं।

एकल सम्मान आयोजित करना जरा महँगा पड़ता है।
संयुक्त कार्यक्रमों में सम्मानित होना सस्ता रहता है।
शिरोमणि, भूषण , विभूषण जैसी कई श्रेणी शामिल हैं।

जितना बड़ा सम्मान होगा उतनी अच्छी कवरेज रहती है।
क्या कहा , ऐसे ही ऑफर सस्ते से औरों से भी आए हैं।
अरे भाई इस फ़ील्ड में नौसिखिये भी उतर आए हैं।
जिनका कोई स्तर नहीं है न ही हम सा नेटवर्क है।
न ही कोई बड़ा नाम है न ही उनकी कोई नेटवर्थ है।

वो तो इतने गिरे हुए हैं क़स्बों को भी नहीं छोड़ा है।
ऐसे आयोजन करके सम्मानों का क़द किया छोटा है।
महानगरीय और राष्ट्रीय स्तरीय प्लेयर सीमित ही हैं।
हर साल नये भी आते उनका सर्वाइवल मुश्किल ही है।

और कहीं न जाने दूँगा कुछ वैल्यू एडिशन करवा दूँगा।
कुछ सम्मानित कवियों से फीडबैक भी दिलवा दूँगा।
टैलेंट नहीं हो फिर भी हम सब कुछ संभव कर देते हैं भ
लिखवा के बुक किसी घोस्ट से नाम आपके कर देते हैं।
इन्हीं कारणों से अपनी साख अव्वल नम्बर पर है।

अपना अगला प्रोजेक्ट दूसरे सम्मानों पर फ़ोकस है।
जिसमें पैसा अधिक आ सके चिक चिक बहुत कम है।
ये फ़ोकस होंगे शिक्षा, बैंकिंग , राजभाषा आदि पर।
इसमें बिना श्रम किए मिल जाते हैं अनेकों स्पॉन्सर
बेहतर होगा एक लंबी मीटिंग हेतु आ जाएँ गर।
सारे संशय दूर करूँगा चर्चा में शामिल हो कर।

शीघ्र प्रकाश्य नए संग्रह से

भारत का हर व्यक्ति है बहुभाषीः प्रो.संजय द्विवेदी

कर्नाटक के हिंदी प्राध्यापकों के आयोजन में ‘हिंदी हैं हम’ विषय पर व्याख्यान
भोपाल। भारतीय जन संचार संस्थान के पूर्व महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी का कहना है कि भारत का प्रत्येक व्यक्ति बहुभाषी है। भारत जैसे बहुभाषी देश में हमारा किसी एक भाषा के सहारे काम चल ही नहीं सकता। हमें अपनी बात बाकी लोगों तक पहुंचाने के लिए और उनके साथ संवाद करने के लिए एक भाषा से दूसरे भाषा के बीच आवाजाही करनी ही पड़ती है। इसलिए अंग्रेजी के साम्राज्यवाद के विरूद्ध भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए काम करना होगा। वे यहां कर्नाटक राज्य विश्वविद्यालय कॉलेज हिन्दी प्राध्यापक संघ, बेंगलूरु के तत्वावधान में आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सप्ताह-‘हिन्दी पर्व-2024’ की आनलाइन व्याख्यानमाला को संबोधित कर रहे थे। ‘हिंदी हैं विषय’ पर आयोजित व्याख्यान कार्यक्रम में बड़ी संख्या में कर्नाटक राज्य के हिंदी प्राध्यापकों और शोधार्थियों ने सहभागिता की।
भारतीय भाषाओं का अमृतकालः

प्रो. द्विवेदी ने कहा कि भारत सदैव भाषाई और सांस्कृतिक सद्भावना की बात करता आया है और सभी भारतीय भाषाओं को साथ लेकर चलने के पीछे भी यही सोच है। जहां भाषा खत्म होती है, वहां संस्कृति भी उसके साथ दम तोड़ देती है। भारतीय भाषाओं को महत्व देते हुए हमें यह समझना चाहिए कि आपसी संपर्क का माध्यम हिंदी ही है। उन्होंने कहा कि हमें कोशिश करनी है कि जब दो विविध भाषा बोलने वाले भारतीय मिलें तो उनके संवाद की भाषा हिंदी हो, अंग्रेजी नहीं। प्रो.द्विवेदी ने कहा राजनीतिक परिर्वतन के कारण यह समय भारतीय भाषाओं का भी अमृतकाल है। इस समय का उपयोग करते हुए हमें आत्मदैन्य से मुक्ति लेनी है और सभी भारतीयों के बीच हिंदी संपर्क भाषा के रूप में स्वीकृत हो इसके सचेतन प्रयास करने होंगें।

कार्यक्रम में प्राध्यापक संघ के अध्यक्ष डा. एस.ए. मंजुनाथ,महासचिव डा. विनय कुमार यादव,डा. एम ए पीरां, प्रो. ज्योत्सना आर्या सोनी, डा.तृप्ति शर्मा, डा.सुवर्णा, डा. केए सुरेश, डा. गोपाल विशेष रुप से उपस्थित रहे।