Tuesday, November 26, 2024
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साय सरकार की नीतियों से निखर रहा आदिवासी समुदायों का जीवन

छत्तीसगढ़ सरकार आदिवासियों के हित में ठोस कदम उठा रही है| दूरस्थ और पिछड़े वनांचल इलाकों में मूलभूत सुविधाएं शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार के अलावा बुनियादी जरूरतों को पूरा करने का काम तेजी से हो रहा है| छत्तीसगढ़ सरकार ने ऐसी कई योजनाएं शुरू की हैं जिनके जमीनी स्तर पर व्यापक प्रभाव से जन-जीवन जीवन बदल रहा है| मुख्यमंत्री की पहल पर नियद नेल्लानार योजना से आज आदिवासी परिवारों के जीवन में आशा की नई किरण आई है| इस योजना में माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में स्थापित नए कैम्पों के आसपास के गांवों का चयन कर शासन के 12 विभागों की 32 कल्याणकारी योजनाओं के तहत आवास, अस्पताल, पानी, बिजली, पुल-पुलिया, स्कूल इत्यादि मूलभूत संसाधनों का विकास किया जा रहा|

दूरस्थ आदिवासी इलाकों से अयोध्या धाम तक सीधी कनेक्टिविटी बढ़ाने के लिए मुख्यमंत्री श्री साय की पहल पर भारत सरकार ने हरी झंडी दे दी है| सडकों के विकास को लेकर भी लगातार कार्य किया जा रहा है, जिससे आदिवासी अंचलों तक आवाजाही आसान हुई है| छत्तीसगढ़ सरकार ने 68 लाख गरीब परिवारों को 05 साल तक मुफ्त राशन देने का निर्णय भी लिया, जिसका लाभ बड़ी मात्रा में आदिवासी अंचलों के जरूरतमंद रहवासियों को मिल रहा है|

तेंदूपत्ता वनवासियों की आजीविका का मजबूत स्रोत है, इससे होने वाली आमदनी को बढ़ाते हुए सरकार ने तेंदूपत्ता संग्रहण पारिश्रमिक दर 4000 रुपए प्रति मानक बोरा से 5500 रुपए प्रति मानक बोरा किया, जिसका लाभ चालू तेंदूपत्ता सीजन से ही 12 लाख 50 हजार से अधिक संग्राहकों को मिल रहा है। तेंदूपत्ता संग्राहकों के लिए छत्तीसगढ़ सरकार जल्द ही चरण पादुका योजना भी शुरू करने जा रही है, इसके साथ ही उन्हें बोनस का लाभ भी दिया जाएगा|

सुरक्षा और विकास के दोहरे मोर्चे पर काम करते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने बड़ी उपलब्धि हासिल की है| इन्हीं प्रयासों का परिणाम है कि आज अनुपात के हिसाब से छत्तीसगढ़ का बस्तर देश में सबसे सैन्य संवेदनशील क्षेत्र बन चुका है, बस्तर डिवीजन में प्रत्येक 9 नागरिकों के पीछे एक पैरामिलिट्री का जवान है| जल्द ही इन क्षेत्रों में सुरक्षाबलों के 250 से ज्यादा कैम्प और नियद नेल्लानार से 58 नए कैम्प स्थापित होंगे ताकि सड़क, स्कूल, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं का दायरा बढ़ सके| मुख्यमंत्री श्री साय के नेतृत्व में आदिवासी संस्कृति और परम्पराओं को आगे बढ़ाने के लिए बस्तर में प्राचीन काल से चले आ रहे अनेक ऐतिहासिक मेलों को भी शासकीय संरक्षण और आर्थिक सहायता दी जा रही है।

दूरस्थ आदिवासी इलाकों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के सरकार के मजबूत प्रयास से देश के दूसरे सबसे कम साक्षर जिले बीजापुर में नए भविष्य की बुनियाद गढ़ी जा रही है| बीजापुर जिले में माओवादियों द्वारा बंद 28 स्कूल अब मुख्यमंत्री श्री साय की पहल से खुल गए हैं| स्थानीय बोलियों को सहेजने के उद्देश्य से छत्तीसगढ़ सरकार ने  आदिवासी अंचलों में स्थानीय बोलियों में प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने का निर्णय नई शिक्षा नीति के तहत आदिवासी समुदायों में शिक्षा की पहुंच बढ़ाने में महत्वपूर्ण कदम साबित होगा, जिसमें 18 स्थानीय भाषा-बोलियों में स्कूली बच्चों की पुस्तकें तैयार की जा रही हैं। प्रथम चरण में छत्तीसगढ़ी,  सरगुजिहा,  हल्बी,  सादरी, गोंड़ी और कुडुख में पाठ्यपुस्तक तैयार होंगे।

छत्तीसगढ़ सरकार आदिवासी युवाओं के सुनहरे भविष्य की नींव भी मजबूत कर रही है, इसी क्रम में नई दिल्ली के ट्रायबल यूथ हॉस्टल में सीटों की संख्या 50 से बढ़ाकर अब 185 कर दी गई है। इस निर्णय से देश राजधानी में रहकर संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा की तैयारी करने के इच्छुक अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के अभ्यर्थियों के लिए अब इस हॉस्टल में तीन गुने से भी अधिक सीटें उपलब्ध होंगी| इसी तरह आईआईटी की तर्ज पर राज्य के जशपुर, बस्तर, कबीरधाम, रायपुर और रायगढ़ में प्रौद्योगिकी संस्थानों का निर्माण भी किया जाएगा|

मुख्यमंत्री श्री विष्णु देव साय की पहल पर छत्तीसगढ़ के माओवादी आतंक प्रभावित जिलों के विद्यार्थियों को तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा के लिए ब्याज रहित ऋण मिलेगा| शेष जिलों के विद्यार्थियों को एक प्रतिशत ब्याज दर पर ऋण प्रदान किया जाएगा, जिससे स्वरोजगार की ओर बढ़कर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत कर सकेंगे

भारतीय नौसेना की दो महिला अधिकारी विशेष नौकायन अभियान – विश्व भ्रमण पर निकलेंगी

अभियान का ‘लोगो’ जारी – अष्टकोणीय आकार भारतीय नौसेना को दर्शाता है, जबकि सूर्य एक खगोलीय पिंड का प्रतीक है और कम्पास नाविकों को चुनौतीपूर्ण समुद्र में मार्गदर्शन करता है।

भारतीय नौसेना ने नौकायन परंपरा को पुनर्जीवित करने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं, जिसमें समुद्री विरासत को संरक्षित करने और नाविक कौशल को बढ़ावा देने की अपनी प्रतिबद्धता पर जोर दिया गया है। नौकायन प्रशिक्षण जहाजों आईएनएस तरंगिनी और आईएनएस सुदर्शिनी के अग्रणी प्रयासों और आईएनएसवी म्हादेई और तारिणी पर परिक्रमा के जरिए भारतीय नौसेना ने महासागर नौकायन अभियानों में प्रमुख स्थान हासिल किया है।

समुद्री कौशल और साहस की परंपरा को जारी रखते हुए भारतीय नौसेना की दो महिला अधिकारी – लेफ्टिनेंट कमांडर रूपा ए और लेफ्टिनेंट कमांडर दिलना के बहुत जल्द ही आईएनएसवी तारिणी पर सवार होकर दुनिया की परिक्रमा करने के विशेष अभियान – नाविका सागर परिक्रमा II पर रवाना होंगी। दोनों पिछले तीन वर्षों से इस अभियान के लिए खुद को तैयार कर रही हैं।

छह सदस्यीय चालक दल के हिस्से के रूप में इन दोनों अधिकारियों ने पिछले साल गोवा से केप टाउन होते हुए रियो डी जेनेरियो और वापस ट्रांस-ओशनिक अभियान में भाग लिया था। इसके बाद, इन महिला अधिकारियों ने गोवा से श्री विजया पुरम (पहले पोर्ट ब्लेयर) और वापस डबल हैंडेड मोड में नौकायन अभियान चलाया। इसके अलावा, इस वर्ष की शुरुआत में दोनों ने गोवा से मॉरीशस की राजधानी पोर्ट लुइस तक सफल यात्रा की थी।

सागर परिक्रमा एक कठिन यात्रा होगी, जिसके लिए अत्यधिक कौशल, शारीरिक तंदुरुस्‍ती और मानसिक सतर्कता की आवश्यकता होगी। ये अधिकारी कठोर प्रशिक्षण ले रहे हैं और उन्होंने हजारों मील यात्रा का अनुभव प्राप्त किया है। उन्हें प्रसिद्ध जलयात्रा चालक और गोल्डन ग्लोब रेस के नायक कमांडर अभिलाष टॉमी (सेवानिवृत्त), केसी, एनएम के मार्गदर्शन में भी प्रशिक्षित किया जा रहा है। आईएनएसवी तारिणी की जलयात्रा भारत के समुद्री नौकायन उद्यम और समुद्री प्रयासों में एक महत्वपूर्ण कदम होगा, जो वैश्विक समुद्री गतिविधियों में देश की बढ़ती प्रमुखता और खुले सागर में महिला-पुरुष समानता को प्रदर्शित करेगा।

समुद्री तारीख में इस ऐतिहासिक घटना के महत्व को दर्शाते हुए, भारतीय नौसेना ने अभियान के ‘लोगो’ का गर्व से अनावरण किया। इस ‘लोगो’ का अष्टकोणीय आकार भारतीय नौसेना को दर्शाता है, जबकि सूर्य एक खगोलीय पिंड और कम्पास चुनौतीपूर्ण समुद्र में नाविकों का मार्गदर्शन करता है। विशाल समुद्र में अपना रास्ता बनाती पाल वाली नाव यात्रियों की साहस और जीवटता की भावना का प्रतीक है। अभियान का यह पूरा महिला दल महिला-पुरुष समानता और उत्कृष्टता को बढ़ावा देने के लिए भारतीय नौसेना की प्रतिबद्धता का प्रमाण है।

अमेरिका की तिब्बत नीति: सहानुभूति की लहर और डगमगाती प्रतिबद्धता!

जुलाई 2024 में यूनाइटेड स्टेट्‌स (US) के राष्ट्रपति, जो बाइडेन ने तिब्बती नागरिकों के आत्मनिर्णय लेने के अधिकार का समर्थन करने वाले एक विधेयक पर हस्ताक्षर कर दिए. इस कानून की भावना, ‘तिब्बत-चीन विवाद कानून के समाधान को प्रोत्साहित करना है.’ यह भावना अब तक की US की ऐतिहासिक भूमिका के विपरीत है. इस भूमिका के तहत US ऐतिहासिक रूप से तिब्बत को चीन का हिस्सा मानता आया है.

इस ब्रीफ में तिब्बत को लेकर US की नीति में निरंतर होने वाले बदलाव का परीक्षण किया गया है. 1950 के आरंभ में US की मुख्य चिंता तिब्बती नागरिकों पर चीन की ओर से किए जा रहे मानवाधिकार के कथित अत्याचारों को लेकर थी. इसके बाद जब 1970 के दशक में चीन के साथ उसके संबंधों में दोस्ताना दौर आया तो US तिब्बत को लगभग भूला ही बैठा था. फिर आया 1990 का दौर जब US ने तिब्बती मामलों को लेकर एक विशेष समन्वयक की नियुक्ति कर दी थी. इस ब्रीफ में तिब्बत को लेकर दशकों से US की नीति में जो विसंगतियां चली आ रही हैं, उन पर प्रकाश डालकर यह तर्क दिया गया है कि US के दृष्टिकोण में निरंतरता का अभाव तिब्बती लोगों के हितों की रक्षा करने की दिशा में काफ़ी कुछ नहीं कर पाया है.

प्रस्तावना
तिब्बत की स्वायत्तता के मुद्दे को फिर से केंद्र में लाने के लिए यूनाइटेड स्टेट्‌स (US) से जुड़ी दो घटनाएं ज़िम्मेदार कही जा सकती हैं. चीन की ओर से राष्ट्रपति जो बाइडेन से ‘तिब्बत-चीन विवाद कानून के समाधान को प्रोत्साहित करने’[1] वाले विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं करने की गुज़ारिश की गई थी. इसी बीच US कांग्रेस के एक प्रतिनिधिमंडल ने पूर्व अध्यक्ष नैंसी पेलोसी की अगुवाई में जून 2024 में धर्मशाला पहुंचकर दलाई लामा से मुलाकात कर तिब्बती लोगों के साथ एकजुटता की हामी भरी.[a],[2] जुलाई में राष्ट्रपति बाइडेन ने इस विधेयक पर हस्ताक्षर कर इसे कानूनी दर्ज़ा दे दिया.[3]

अमेरिका ने तिब्बती मामलों को लेकर सबसे पहले 1997 में एक विशेष समन्वयक की नियुक्ति की थी.  2002 में बनी तिबेटन पॉलिसी एक्ट यानी तिब्बती नीति कानून में तिब्बती नागरिकों की विरासत का जतन करने के लिए भविष्य में उठाए जाने वाले वैधानिक कदमों को लेकर सक्रियतावाद के बीज बोए गए थे

ऐसे में यह परीक्षण करना रोचक और शिक्षाप्रद साबित होगा कि यह कानून तिब्बत को लेकर US की ओर से बनाए गए पूर्व के कानूनों से अलग कैसे है और इसका तिब्बती लोगों के भविष्य पर क्या असर होने वाला है.

 पूर्व में बनाए गए अमेरिकी कानून
अमेरिका ने तिब्बती मामलों को लेकर सबसे पहले 1997 में एक विशेष समन्वयक की नियुक्ति की थी.[4] 2002 में बनी तिबेटन पॉलिसी एक्ट यानी तिब्बती नीति कानून में तिब्बती नागरिकों की विरासत का जतन करने के लिए भविष्य में उठाए जाने वाले वैधानिक कदमों को लेकर सक्रियतावाद के बीज बोए गए थे.[5] इसके बाद 2018 में बने रेसिप्रोकल एक्सेस टू तिब्बत एक्ट[6] तथा 2020 का तिबेटन पॉलिसी एंड सपोर्ट एक्ट[7] चीन पर और दबाव डालने के लिए था. इसमें भी 2020 के कानून में दलाई लामा के चयन में चीन की ओर से होने वाली किसी भी प्रकार की दखलंदाज़ी को खारिज़ किया गया था.

2002 में पारित तिबेटन पॉलिसी एक्ट में तिब्बत के विशिष्ट ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषाई पहचान की रक्षा करने पर ध्यान केंद्रित करने के साथ ही मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में ज़िम्मेदारी तय करने की बात की गई थी. सेक्रेटरी ऑफ स्टेट यानी अमेरिकी विदेशमंत्री को चेंगदू स्थित अमेरिकी महादूतावास कार्यालय के तहत ल्हासा में तिब्बत के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास पर नज़र रखने के लिए कार्यालय खोलने का काम सौंपा गया था. लेकिन जब यह कार्यालय नहीं खुल सका तो किसी को आश्चर्य नहीं हुआ. हां, तिब्बती भाषा में होने वाला वॉइस ऑफ अमेरिका तथा रेडियो फ्री एशिया का प्रसारण चलता रहा.

US अब तक 11वें पंचेन लामा, गेधुन चोएक्यी नियिमा, के साथ संबंध स्थापित करने में भी असफ़ल साबित हुआ है. गेधुन चोएक्यी नियिमा को 1995 में ही उनके घर से उठा लिया गया था. चीन ने उनके स्थान पर अपनी ओर से ग्यालसेन नोरबू को लामा नियुक्त कर दिया है.[9] 2002 के कानून में UN जनरल असेंबली में पारित 1959, 1961 और 1965 के प्रस्तावों को भी मान्यता दी गई, जिसमें पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना से तिब्बती नागरिकों के आत्मनिर्णय के अधिकार को रोकने की कोशिश न करने को कहा गया था.

2020 में पारित किए गए तिबेटन पॉलिसी एंड सपोर्ट एक्ट में 2002 के पूर्व अपनाए गए विभिन्न रुखों को भी शामिल कर लिया गया था. उस वक़्त तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में पारित 2020 के कानून में तिब्बत की विशिष्ट पहचान को बनाए रखने पर ज़ोर देकर मानवाधिकारों के रक्षा की बात की गई थी. इसके अलावा इस कानून में ल्हासा में एक वाणिज्य दूतावास स्थापित करने का भी आह्वाहन किया गया था. 2020 के कानून में संभवत: एक अस्थायी समझौता होता हुआ दिखाई देता है, क्योंकि इस कानून में तिब्बती लोगों के आत्मनिर्णय का उल्लेख नहीं किया गया था.

हालांकि, इस कानून में भी चीन की ओर से पुनर्जन्म और उत्तराधिकार के मामले में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप का विरोध किया गया था. इसके अलावा भविष्य में भी दलाई लामा की अभिव्यक्ति का विरोध करता है. [b] इसके अलावा इस कानून में तिब्बत में मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले चीनी अधिकारियों पर ग्लोबल मैग्निट्स्की मानवाधिकार जवाबदेही अधिनियम लागू करने और तिब्बती पठार में पर्यावरण तथा जल संसाधनों की रक्षा को लेकर भी बात की गई थी.

नए कानून के नए पहलू:तिब्बत और आत्मनिर्णय
तिब्बत-चीन विवाद के समाधान को प्रोत्साहित करने वाला कानून तिब्बत और चीन के बीच एक “विवाद” की सीधे बात करता है. इसका अर्थ यह है कि यह कानून इन दोनों को ही स्वतंत्र भौगोलिक तथा राजनीतिक इकाई के रूप में स्वीकार करता है. यह 2002, 2018 तथा 2020 के कानूनों में उपयुक्त की गई कमोबेश संयमित भाषा से अलग है. इसके अलावा ताज़ा कानून में चीन पर दलाई लामा के प्रतिनिधियों के साथ अर्थपूर्ण बातचीत करने का दबाव डालने पर ध्यान दिया गया है.

एक ऐसी बातचीत की वकालत की गई है, जिसमें चीन की ओर से कोई शर्त पहले से लादी नहीं गई हो. पूर्व में चीन यह शर्त लादता आया है कि बातचीत से पहले ही दलाई लामा को यह स्वीकार करना होगा कि तिब्बत हमेशा से चीन का ही हिस्सा रहा है. इसी बीच दलाई लामा भी इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार दिखाई देते हैं कि वर्तमान में तिब्बत चीन का ही हिस्सा है. उन्होंने यह भी घोषणा कर दी है कि वे तिब्बत की आज़ादी नहीं चाहते हैं,बल्कि वे बातचीत के रास्ते पर चलते हुए एक समाधान पर पहुंचने को प्रतिबद्ध हैं.हालांकि चीन की इस अतिरिक्त शर्त को दलाई लामा ने स्वीकार नहीं किया है कि तिब्बत हमेशा से ही चीन का हिस्सा रहा है.

तिब्बत-चीन विवाद के समाधान को प्रोत्साहित करने वाले कानून की धारा 2 के खंड 5 (अमेरिकी कांग्रेस का निष्कर्ष) के अनुसार “US सरकार ने कभी भी यह नहीं कहा है कि प्राचीन काल से तिब्बत चीन का हिस्सा रहा है.”[12] हालांकि इस बात के दोहराव के कारण अमेरिका की स्थिति पर कोई सवालिया निशान नहीं लगता. क्योंकि अमेरिका भी वैश्विक समुदाय की तरह यह मानता है कि आज तिब्बत चीन का ही हिस्सा है. तिब्बत में मानवाधिकारों की रक्षा और उसके आत्मनिर्णय के अधिकार को नए कानून में भी फिर से स्थान दिया गया है. इस कानून में नीतिगत उपाय भी पेश किए गए हैं. ये नीतिगत उपाय चीन की सरकार तथा चाइनीज़ कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) की ओर से तिब्बत को लेकर किए जाने वाले दुष्प्रचार से निपटने के काम आएंगे. इस कानून में भी पुराने कानूनों की तरह ही न केवल तिबेट स्वायत्त क्षेत्र को शामिल किया गया है, बल्कि ग्रेटर तिबेट को भी शामिल किया गया है. ग्रेटर तिबेट क्षेत्र को काफ़ी पहले ही पृथक करते हुए पड़ोसी चीनी प्रांत ग़ंसु, चिंगहई, सिचुआन और युन्नान में समाहित कर दिया गया है.

अमेरिकी नीति में आया बदलाव
1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के गठन और उसके पहले के कुछ वर्षों में US ने तिब्बत की आज़ादी अथवा स्वायत्तता को लेकर कोई चिंता जाहिर नहीं की थी. इतना ही नहीं 1950 में जब चीनी सेना ने तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिया तब भी अमेरिका को कोई फ़र्क नहीं पड़ा था.[13] इतना ही नहीं 1908 में विलियम वुडविले रॉकहिल, जो चीन स्थित US दूतावास में अमेरिकी राजदूत थे ने दलाई लामा का “जागीरदार राजकुमार” के रूप में वर्णन किया था.[14] 1940 के आरंभिक काल में US की तिब्बत नीति ग्रेट ब्रिटेन संचालित करता था. ऐसे में इस काल में अमेरिका की तिब्बत नीति पर ग्रेट ब्रिटेन के रुख़ की छाप दिखाई देती है. हालांकि ब्रिटेन की तरह US भी “सार्वभौमिकता” शब्द के निहितार्थ और “आधिपत्य” के बीच अंतर को समझ नहीं सका था.बिट्रिश लोगों यानी अंग्रेजों ने ही तिब्बत पर चीन के आधिपत्य को 19 वीं तथा 20 वीं शताब्दी में गढ़ा था. इसका कारण यह था कि अंग्रेज भी आउटर तिबेट के प्रांत वेस्टर्न खाम तथा इउ-त्संग पर अपने अस्पष्ट दावे को शर्तों के आधार पर मान्यता देना चाहते थे. ऐसा करते हुए वे चीन को भी इस बात के लिए बढ़ावा दे रहे थे कि वह खुद को इन्नर तिबेट यानी अंदरुनी तिब्बती प्रांत अम्दो तथा ईस्टर्न खाम तक ही सीमित न रखें.

बिट्रिश लोगों यानी अंग्रेजों ने ही तिब्बत पर चीन के आधिपत्य को 19 वीं तथा 20 वीं शताब्दी में गढ़ा था. इसका कारण यह था कि अंग्रेज भी आउटर तिबेट के प्रांत वेस्टर्न खाम तथा इउ-त्संग पर अपने अस्पष्ट दावे को शर्तों के आधार पर मान्यता देना चाहते थे. ऐसा करते हुए वे चीन को भी इस बात के लिए बढ़ावा दे रहे थे कि वह खुद को इन्नर तिबेट यानी अंदरुनी तिब्बती प्रांत अम्दो तथा ईस्टर्न खाम तक ही सीमित न रखें. यह एक ग्रेट गेम यानी बड़े खेल का हिस्सा था, जिसमें साम्राज्यवादी रूस को हाई टार्टरी में घुसपैठ करने या पांव जमाने से रोका जाना था.[15] अंग्रेज खुद ज़्यादा कष्ट उठाने के इच्छुक नहीं थे.

अत: वे चीन की ओर से किए जाने वाले दावों से ही संतुष्ट हो जाते थे. इसी दौरान 1914 में ग्रेट ब्रिटेन, चीन तथा तिब्बत के बीच हुए शिमला सम्मेलन में अंग्रेजों ने तिब्बत पर चीनी आधिपत्य को स्वीकारते हुए आउटर तिबेट की स्वायत्तता को भी मान्यता दे दी. इस सम्मेलन के अनुच्छेद 2 में यह भी तय किया गया कि ग्रेट ब्रिटेन तथा चीन दोनों ही आउटर तिबेट के प्रशासन में हस्तक्षेप से दूर रहेंगे. इसमें दलाई लामा के चयन तथा उनके अधिष्ठापन में हस्तक्षेप न करना शामिल था. यह करना ल्हासा में कार्यरत तिब्बती सरकार का ही अधिकार माना गया था.

दूसरे विश्व युद्ध के बाद काफ़ी कम समय के लिए US राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट ने ल्हासा में दलाई लामा के प्रशासन से सीधे संपर्क साधा था. वे उस वक़्त तिब्बती क्षेत्र में युद्ध के पश्चात सहायता करने के लिए पहुंच हासिल करना चाहते थे.[17] हालांकि, तिब्बत तक पहुंचने का यह प्रयास प्रासंगिक ही था. 1940 के दशक में गृह युद्ध के दौरान वामपंथियों को काफ़ी सफ़लता मिली. इस सफ़लता से उत्साहित होकर उन्होंने तिब्बत के इलाकों पर अपनी पकड़ मजबूत करने की ठान ली. किंग/चिंग राजवंश के पतन के पश्चात चीनी अधिकारियों तथा सैनिकों ने तिब्बत छोड़ दिया था. 1912 तथा 1950 के बीच आउटर तिबेट में चीन की कभी मौजूदगी ही नहीं रही. कुओमितांग सरकार ने अपनी मौजूदगी पुन: स्थापित करने की कोशिश करते हुए 13वें दलाई लामा की मृत्यु के पश्चात जनरल मुसोंग हुआंग की अगुवाई में एक “शोक अभियान” ल्हासा भेजा था.

द्वितीय विश्व युद्ध में चीन के सहयोगी के रूप में अमेरिका ने च्यांग काई-शेक के रुख़ का समर्थन किया था. [c},[d] इस समर्थन की वजह से ही 1949 तक तिब्बत को लेकर US की नीति सतर्कता वाली बनी रही. चाइनीज़ नेशनलिस्ट यानी चीनी राष्ट्रवादी सरकार ने तिब्बत पर “आधिपत्य” का दावा किया था, जबकि चीनी संविधान में तिब्बत को रिपब्लिक ऑफ चाइना का अविभाज्य अंग बताया गया था.

इसी वजह से इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि ल्हासा में तिब्बती सरकार के साथ काम करने को लेकर US हमेशा सावधान रहता था. [e] यह उस वक़्त की बात है जब दलाई लामा, रीजेंट और कशाग ने अमेरिका के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर दोनों सरकारों के बीच बेहतर संबंध स्थापित करने की इच्छा व्यक्त की थी. एक प्रस्ताव भी था, जिसमें एक तिबेटन ट्रेड मिशन यानी तिब्बती व्यापार अभियान को 1947 में भारत, चीन तथा यूनाइटेड किंगडम (UK) तथा US भेजा जाना था.[19] इस मिशन का नेतृत्व त्सेपोन शाकबपा, एक तिब्बती रईस कर रहे थे. इस मिशन ने अंतत: 1948[20] में ल्हासा में कार्यरत तिब्बती सरकार[21] की ओर से जारी पासपोर्ट्‌स पर यात्रा की. त्सेपोन शाकबपा के तिब्बती पासपोर्ट पर भारत, US, UK, फ्रांस, इटली, स्विट्‌जरलैंड, ईराक, पाकिस्तान और हांगकांग के अप्रवासन संबंधी स्टैंप लगे हैं, लेकिन इसमें चीन का स्टैंप नहीं है. हालांकि, इस मिशन ने अपने निर्धारित कार्यक्रम के तहत शांघाई, नानजिंग तथा हांगझोऊ का भी दौरा किया था.[22] इस बात से यह संकेत मिलता है कि रिपब्लिक ऑफ चाइना आज़ादी को लेकर किसी भी सुझाव को मानने के मूड में नहीं था. हालांकि, उस वक़्त तिब्बत को स्वतंत्र दर्ज़ा मिला हुआ ही था.

1 अगस्त 1947 को नई दिल्ली स्थित अमेरिका राजदूत की ओर से सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को भेजे गए पत्र में भी US नीति की सावधानी उजागर हो जाती है. इस पत्र में राजदूत ने लिखा है कि, “डिपार्टमेंट (ऑफ स्टेट) की राय को ध्यान में रखते हुए कि कोई ऐसा कदम न उठाया जाए जिससे तिब्बत की संप्रभुता को लेकर चीनी दावे की झलक दिखाई देती हो, दूतावास ने “विदेश कार्यालय” (तिब्बती सरकार के) के पत्र के जवाब में अपनी ओर से “विदेश ब्यूरो” लिख दिया है.”[23] अमेरिका की ओर से किया गया अंतर शायद यह था कि “विदेश कार्यालय” का मतलब किसी संप्रभु देश का विदेश मंत्रालय होता है, जबकि “विदेश ब्यूरो” का अर्थ चीन में केंद्र सरकार के प्रांतीय विदेश मामलों का ब्यूरो होता है. शब्दों के चयन में बरती गई सावधानी से यह संकेत मिलता है कि US तिब्बत की संप्रभुता को लेकर चीन के दावे को कमज़ोर नहीं करना चाहता था. इसके अलावा अमेरिका ने तिब्बती सरकार के “विदेश कार्यालय” के इस सुझाव को भी ख़ारिज कर दिया कि वह यानी “विदेश कार्यालय” एक स्वतंत्र देश के विदेश मंत्रालय का प्रतिनिधित्व करता है.

तत्कालीन असिस्टेंट सेक्रेटरी ऑफ स्टेन जेम्स ग्राहम पार्सन्स की ओर से सेक्रेटरी ऑफ स्टेट को 14 अक्टूबर 1959 को लिखे एक मेमो में दी गई एक रूपरेखा के अनुसार तिब्बत को लेकर US की नीति में 1950 से उद्‌भव आने लगा. यह वह दौर था जब वामपंथियों/कम्युनिस्टों ने वहां कब्ज़ा जमा लिया था.[24] ताइवान स्ट्रेट यानी जलसंधि समेत क्षेत्र में बढ़ते तनाव की वजह से अमेरिकी ने यह दृष्टिकोण अपना लिया था कि तिब्बती लोगों को भी आत्मनिर्णय करने का वैसा ही “जन्मसिद्ध अधिकार” है जैसा अन्य लोगों को हासिल है. उसने यह भी स्वीकार लिया था कि आवश्यकता पड़ने पर यदि तिब्बत को आज़ाद देश का दर्ज़ा देना पड़ा तो इस पर भी विचार किया जाएगा. लेकिन उस वक़्त US ने तिब्बत को लेकर एक निर्णायक कानूनी रुख़ तैयार करने का कोई कदम नहीं उठाया था. पार्सन्स के अनुसार अमेरिका के “मौजूदा उद्देश्यों के लिए” इतना ही काफ़ी था कि वह, “मांचु राजवंश के पतन तक तिब्बत ने जिस वास्तविक स्वायत्तता का उपभोग किया या फिर 1914 में हुए शिमला सम्मेलन के बाद से तिब्बत को मिली वास्तविक स्वायत्तता” को मान्यता देता है.[25]

1950 से चली आ रही US नीतियों पर नज़र डालते हुए पार्सन्स ने कहा कि अमेरिका ने इस बात को माना था कि, “1959 में मौजूदा हालात को देखते हुए तिब्बती आज़ादी को मान्यता देने संबंधी तर्क इसका विरोध करने के मुकाबले ज़्यादा मजबूत थे.”[26] ताइवान से रिपब्लिक ऑफ चाइना पर राज करने तक सीमित हो चुके च्यांग काई-शेक ही अंतत: US के रुख़ को प्रभावित करते हुए संतुलित कर रहा था.

उस वक़्त के प्रभारी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट सी. डगलस ढिल्लन की ओर से राष्ट्रपति आइज़नहावर को 16 जून 1959 को भेजे मेमोरेंडम नं 381 में इस बात का उल्लेख है कि दलाई लामा की ओर से अमेरिकी राष्ट्रपति एवं सेक्रेटरी ऑफ स्टेट यानी विदेश मंत्री को भेजे गए अपील पत्र में दलाई लामा ने इस बात पर जोर दिया है कि “चीन को संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश देने से पहले तिब्बत को पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करने की शर्त रखी जाएं.”[27] यह दलाई लामा के मार्च 1959 में भारत पलायन करने के तुरंत बाद की है.

उस वक़्त भी दलाई लामा तिब्बत के लिए पूर्ण स्वराज्य की मांग कर रहे थे, क्योंकि इसके पूर्व में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के तहत रहकर सही मायनों में स्वायत्ता पाने की कोशिशों को सफ़लता नहीं मिली थी. भारत पहुंचने के बाद दलाई लामा ने 17 प्वाइंट एग्रीमेंट को मानने से भी इंकार कर दिया था.[28] उस वक़्त US ने आकलन किया था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी, “तिब्बत की आज़ादी के ख़िलाफ़ थे. वे चाहते थे कि दलाई लाम सार्वजनिक रूप से तिब्बत की स्वायत्तता को पुन: स्थापित करने के लिए काम करें.”[29] आज यह आकलन अथवा अनुमान लगाने का विषय हो सकता है कि उस वक़्त तिब्बत की आज़ादी को लेकर US समेत सभी में उत्साह की जो कमी देखी गई थी, उसकी जड़ में दरअसल भारत की तत्कालीन नीति ही थी. [f]

तिब्बत के मुद्दे को लेकर संयुक्त राष्ट्र की ओर से की जाने वाली कार्यवाही में होने वाले विकास को लेकर सेक्रेटरी ऑफ स्टेट क्रिश्चियन हर्टर को भेजे गए दो मेमोरैंडम में काफ़ी रोचक जानकारी मिलती है. 5 अगस्त 1959 को यह मेमोरैंडम क्रमांक 383 असिस्टेंट सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर फार ईस्टर्न अफेयर्स (पार्सन्स) तथा कार्यवाहक असिस्टेंट सेक्रेटरी फॉर इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन अफेयर्स (वॉल्टर वाल्मस्ले) ने लिखे थे.[30] मार्च 1959 में भारत के लिए फ्लाइट में सवार होने के बाद दलाई लामा ने अमेरिकी सरकार से तिब्बत का मामला UN जनरल असेंबली यानी महासभा में उठाने के लिए समर्थन मांगा था. दलाई लामा चाहते थे कि इस मामले में UN कार्रवाई के लिए सार्वजनिक अपील की जानी चाहिए. दलाई लामा ने “यह भी पूछा था कि क्या US सरकार किसी अन्य देश, संभव हो तो एशियाई देश, को यह प्रस्ताव देने को तैयार होगी कि वह देश उनकी यानी दलाई लामा की निर्वासित सरकार को मान्यता दें.”

दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास अपने आकलन में बेहद स्पष्ट था. उसका मानना था कि, “GOI का यह विचार है कि संयुक्त राष्ट्र में तिब्बत का मामला उठाने से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा. लेकिन उसका यह भी मानना है कि दलाई लामा को यह अपील करने का अधिकार है. यदि संयुक्त राष्ट्र चाहे तो वह दलाई लामा की बात सुन सकता है और भारत को इसमें कोई आपत्ति नहीं है.”[32] दूतावास का आकलन था कि दलाई लामा की अपील और संयुक्त राष्ट्र में उनकी मौजूदगी से शायद उनके यानी दलाई लामा की भारत वापसी की राह में कोई बाधा उत्पन्न नहीं होगी. बशर्तें दलाई लामा तिब्बत की आज़ादी की संकल्पना पर जोर नहीं देंगे.[33] इसके अलावा US भी उनकी भारत वापसी ही चाहता था.

उस वक़्त च्यांग काई-शेक की गर्वनमेंट ऑफ द रिपब्लिक ऑफ चाइना (GRC) न केवल UN का सदस्य राष्ट्र थी, बल्कि वह UN सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी थीं. अमेरिकी दूतावास के आकलनानुसार रिपब्लिक ऑफ चाइना स्वयं तिब्बत के मामले को महासभा में नहीं उठाएगी. लेकिन यदि कोई अन्य देश इस समस्या को उठाता है तो वह उस देश का पूरजोर समर्थन करेगी. GRC का प्रतिनिधिमंडल UN में होने वाले ऐसी किसी भी बहस में शामिल होगा जिसमें चीनी वामपंथियों की ओर से तिब्बत में की गई कार्रवाई की निंदा की जाएगी. इसके अलावा वह राष्ट्रपति च्यांग के 26 मार्च, 1959 के उस बयान पर कायम रहेगी जिसमें कहा गया था कि तिब्बत के नागरिकों को बीजिंग में वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंकने के बाद आत्मनिर्णय का अधिकार होगा.[34]

20 फरवरी 1960 को तत्कालीन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट हर्टर ने कहा था, “US सरकार मानती है कि तिब्बत के लोगों पर यह सिद्धांत (आत्मनिर्णय का) लागू होना चाहिए और उन्हें अपना राजनीतिक भविष्य चुनने में अपनी बात रखने का अधिकार होना चाहिए.”[35] गुआंगक्यू ज़ू के अनुसार, “17 जनवरी 1962 को दलाई लामा को लिखे एक पत्र में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट डीन रस्क ने भी U.S. के इस रुख़ को दोहराया कि तिब्बत के लोगों पर आत्मनिर्णय का सिद्धांत लागू होना चाहिए.”[36] गुआंगक्यू ज़ू आगे कहते हैं कि “उस वक़्त के दौरान आने वाले U.S. के  सभी प्रशासनों ने चीनी मानवाधिकार कार्रवाईयों की आलोचना की थी. इन सारे प्रशासनों ने U.N. महासभा में पारित 1959, 1961 तथा 1965 के तीनों प्रस्तावों का समर्थन किया था, जिसमें चीन से तिब्बत से चले जाने की गुज़ारिश की गई थी.”[37]

ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका इस विषय में खुद को बचाए रख रहा था और उसे तिब्बत की ओर से संयुक्त राष्ट्र में सहायता के लिए की जा रही अपील से कोई लेना-देना नहीं था. US तथा UK दोनों ही इस मामले में भारत को पहल करते देखना चाहते थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.

ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि अमेरिका इस विषय में खुद को बचाए रख रहा था और उसे तिब्बत की ओर से संयुक्त राष्ट्र में सहायता के लिए की जा रही अपील से कोई लेना-देना नहीं था. US तथा UK दोनों ही इस मामले में भारत को पहल करते देखना चाहते थे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. यह अल साल्वाडोर था, जिसने UN महासभा में 1950 में एक प्रस्ताव रखा, जब तिब्बत में PLA घुस गया था.[38] लेकिन इस प्रस्ताव पर हुई बहस अधूरी रही और इसे आगे बढ़ा दिया गया. इसका कारण यह था कि इसमें बड़ी शक्तियों के बीच अनिश्चितता देखी गई थी. तिब्बत का सवाल UN की महासभा में इसके बाद 1959 में दोबारा उस वक़्त उठा जब तिब्बत में अशांति के बीच दलाई लामा को भारत के लिए उड़ान पकड़नी पड़ी. इस बार भी छोटी शक्तियों आयरलैंड तथा मलाया ने ही “तिब्बत का सवाल” उठाते हुए इसे लेकर प्रस्ताव को आगे बढ़ाया था.[39]

1959 तथा 1964 के बीच में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (ICJ) की तीन रिपोर्टों से तिब्बत के मुद्दे को बल मिला. इनमें प्रथमदृष्टया मानवाधिकार के हनन के सबूत मिले तथा यह भी पाया गया कि चीन तिब्बती राष्ट्र तथा बुद्धिस्ट धर्म को नष्ट करने की कोशिश कर रहा है.

चीनी PLA से मुकाबला करने वाले खम्पा गुरिल्ला टूकड़ी चुशी गंगद्रुक (चार नदियां, छह श्रेणियां, जो खम् क्षेत्र को परिभाषित करती हैं) को मिलने वाला अमेरिकी समर्थन [g] इतिहास के पन्नों में अच्छी तरह दर्ज़ है.[40] 1950 के दशक में सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (CIA) की ओर से चलाए गए लो इंटेंसिटी यानी कम तीव्रता वाले ख़ुफ़िया ऑपरेशंस में तिब्बती प्रतिरोध यूनिट्‌स को कोलाराडो में दिया गया प्रशिक्षण शामिल है. इसके अलावा नेपाल से सटे तिब्बत के इलाके में सक्रिय विद्रोहियों की “मस्टैंग आर्मी” को भी प्रशिक्षित किया गया था. US की ओर से दिया जाने वाला यह समर्थन उस वक़्त कम होने लगा जब 1965 में PRC ने तिबेट ऑटोनॉमस रीजन (TAR) की स्थापना की. और यह समर्थन 1971 में चीन-US नज़दीकी बढ़ने के साथ पूरी तरह ख़त्म हो  गया. उसके बाद से तिब्बत को अमेरिका की विदेश नीति में हाशिए पर धकेल दिया गया और इसके साथ ही तिब्बती गुरिल्लाओं को मिलने वाला सारा समर्थन भी ख़त्म हो गया.[41] नवीनतम तिब्बत-चीन विवाद कानून इस बात की पुष्टि करता है कि, “इस कानून के बावजूद लंबे समय से चली आ रही यूनाइटेड स्टेट्‌स की द्विदलीय नीति में कोई परिवर्तन नहीं आएगा कि वह तिबेट ऑटोनॉमस रीजन को मान्यता देता है और इसके साथ ही तिब्बत के कुछ अन्य चीनी इलाको को वह पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना का हिस्सा मानता है.

चीन-US के बीच घनिष्ठता बढ़ने के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके बाद आए उत्तराधिकारियों ने तिब्बत के मामले पर नर्म रुख़ अपना लिया. यह बात तो सर्वविविदत है कि राष्ट्रपति जिमी कार्टर दलाई लामा से मिलने में भी हिचकिचा रहे थे.[43] इस रुख़ पर निर्णायक मुहर उस वक़्त लग गई जब 5 फरवरी 1992 को सेक्रेटरी ऑफ स्टेट जेम्स बेकर ने विदेशी मामलों की सीनेट कमेटी के समक्ष सुनवाई में स्पष्ट कर दिया कि, “U.S. की नीति चीन के इस रुख़ को स्वीकार करती है कि तिब्बत चीन का ही हिस्सा हैं.”[44] वह अपने इसी रुख़ पर आज भी कायम है.

अमेरिका की नीति तिब्बत के भविष्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. लेकिन तिब्बत को लेकर अमेरिकी नीति का इतिहास बताता है कि इसमें प्रतिबद्धता को लेकर विसंगतियां हैं. इस नीति में बीच-बीच में सहानुभूति की बौछार के साथ-साथ सक्रियतावाद देखने को मिलता है. 1950 के दौर में आत्मनिर्णय को लेकर चौकन्ना रवैया अपनाया गया, जबकि 1960 के दशक में मानवाधिकारों पर ध्यान केंद्रीत किया गया. दरअसल इस मामले पर बहस छेड़कर US बड़े पैमाने पर अपने व्यापारिक और आर्थिक हितों को साधना चाहता था. वह इसके साथ ही वह अपने साझा दुश्मन यानी सोवियत संघ को लेकर बीजिंग का तुष्टीकरण करते हुए अपने रणनीतिक हितों को साधने की कोशिश कर रहा था.

थियानमेन के बाद…
1987-1989 के बीच तिब्बत में अशांति के दौरान ही थियानमेन में प्रदर्शन के बाद जून 1989 में सेना की ओर से कड़ी कार्रवाई की गई थी. जब बिल क्लिंटन ने 1992 में अमेरिका के राष्ट्रपति का पद संभाला तो उनके देश का ध्यान मानवाधिकार हनन, व्यापारिक तनाव, प्रसार संबंधी चिंताओं और ताइवान जलसंधि में चल रहे तनाव की ओर था. क्लिंटन ने दलाई लामा के साथ चार मर्तबा 1993, 1997, 1998,[45] and 2000.[h],[46] मुलाकातें की. तत्कालीन उपराष्ट्रपति अल गोर तथा सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मैडलीन अलब्राइट 1997 तथा 1998 की बैठकों में मौजूद थे. इसी प्रकार 1993 की बैठक में गोर तथा सेक्रेटरी ऑफ स्टेट वॉरेन क्रिस्टोफर तथा स्पीकर टॉम फ़ोले के साथ उपस्थित थे. इन बैठकों के कारण ही दलाई लामा की भविष्य में राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के साथ 2001 तथा 2003,[47] एवं बराक ओबामा के साथ 2010[48] में बैठक संभव हो सकी.

क्लिंटन के एकध्रुवीय दशक की वजह से US को तिब्बत के लिए एक यथोचित सौदे की वकालत करने का मौका मिला. लेकिन इसी दौर में क्लिंटन प्रशासन ने धीरे-धीरे चीन को मोस्ट फेवर्ड नेशन (MFN) का दर्ज़ा देने की राह में से मानवाधिकार हनन के मुद्दे को अलग कर दिया. ऐसे में साफ़ था कि तिब्बत में हो रहे मानवाधिकार के हनन का मामला अब हाशिए पर डाला जा रहा है.

1997 में तिब्बती मामलों के लिए विशेष समन्वयक का कार्यालय स्थापित करने से पहले ही 103 वीं कांग्रेस में एक विधेयक पेश किया गया था. इसमें तिब्बत के लिए यूनाइटेड स्टेट्‌स के विशेष दूत का पद बनाने की बात की गई थी. इसी प्रकार कांग्रेस के 104 वें तथा 105 वें सत्र में भी फॉरेन रिलेशंस ऑथोराइजेशन बिल में भी इस पद को गठित करने का प्रावधान पेश किया गया था.[49] इस विधेयक में विशेष दूत को राजदूत का दर्ज़ा देने का आवाहन किया गया था. इसका कारण यह था कि चीन के साथ अहम द्विपक्षीय संबंधों में नीति स्तर पर वरिष्ठ स्तरीय बातचीत की केंद्रीयता को सुनिश्चित किया जा सके.[50] क्लिंटन प्रशासन अंतत: उस वक़्त समझौते के लिए तैयार हो गया जब सेक्रेटरी ऑफ स्टेट मैडलीन अलब्राइट ने विदेश मंत्रालय में डायरेक्टर ऑफ प्लानिंग, ग्रेगरी क्रेग को तिब्बती मामलों के लिए विशेष समन्वयक नामित कर दिया.[51]

चीन-दलाई लामा बातचीत और अमेरिका
चीनी सरकार तथा दलाई लामा के प्रतिनिधियों के बीच सीधी बातचीत को US का समर्थन लंबे समय से अमेरिका की नीति का एक अहम बिंदु रहा है. डेंग ज़ियाओपिंग की अगुवाई में सीधी बातचीत में उत्साहजनक प्रगति देखी गई थी. उसके बाद दलाई लामा के प्रतिनिधियों की ओर से फैक्ट फाइंडिंग मिशंस चलाए गए, लेकिन इसका कोई फ़ल नहीं निकला. 1988 में यूरोपीयन संसद को दलाई लामा के संबोधन में उनके “स्ट्रासबर्ग प्रस्ताव” के तहत बातचीत के माध्यम से समझौते का मुद्दा प्रमुखता से उछला, लेकिन इसके कुछ ही देर बाद चीन ने अपने कदम पीछे खींच लिए. 2002 तथा 2010 के बीच तिब्बती और चीनी लोगों के बीच नौ दौर की बातचीत हुई.

इसमें से केवल एक बार बैठक 2005 में स्विट्‌जरलैंड के बर्न शहर में हुई थी, बाकी सारी बैठकों का आयोजन चीन में ही किया गया था.[52] ये बैठकें बेनतीजा रही. तिबेटन नेशनल अपराइजिंग डे यानी तिब्बती राष्ट्रीय विद्रोह दिवस की 50 वीं वर्षगांठ के अवसर पर अपने बयान में दलाई लामा ने कहा कि, “चीन का इस बात पर ज़ोर देना कि तिब्बत प्राचीन काल से ही चीन का हिस्सा रहा है न केवल गलत है, बल्कि यह अनुचित भी है. हम भूतकाल को नहीं बदल सकते. भले ही वह अच्छा रहा हो अथवा बुरा. राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इतिहास के साथ छेड़छाड़ करना सही नहीं होगा.” उन्होंने आगे कहा था कि, “हम तिब्बती नागरिक एक वैध और अर्थपूर्ण स्वायत्तता चाहते हैं. एक ऐसी व्यवस्था जो तिब्बती नागरिकों को पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के ढांचे में रहने में सक्षम बना सकें.”[53] 2010 के बाद से अब तक कोई सीधी बातचीत नहीं हुई है. हां, दलाई लामा के प्रतिनिधियों ने स्वीकार किया है कि बातचीत के अनौपचारिक चैनल्स खुले हुए हैं.

राष्ट्रपति क्लिंटन ने चीनी राष्ट्रपति जियांग जेमिन पर 1997-1998 में दबाव डाला था कि वे दलाई लामा के साथ बातचीत करें. राष्ट्रपति बुश ने भी चीनी सरकार से दलाई लामा अथवा उनके प्रतिनिधियों के साथ सार्थक बातचीत करने की गुज़ारिश की थी. बुश का कहना था कि दलाई लामा की “सार्थक स्वायत्तता की मांग” जायज हैं.[55] इसी प्रकार वे मानते थे कि तिब्बती लोगों की अनूठी सांस्कृतिक, भाषाई तथा धार्मिक विरासत का सम्मान किया जाना चाहिए. बुश ने 2003 में दलाई लामा के साथ हुई अपनी बैठक में भी इस बात का समर्थन किया और चीन की 2001 में अपनी दो यात्राओं के दौरान भी राष्ट्रपति जियांग जेमिन के साथ बातचीत में तिब्बत का मुद्दा उठाया था. बुश ने इसके अलावा 2002 में अमेरिका की यात्रा पर आए उपराष्ट्रपति हू जिंताओ तथा 2003 में आए प्रीमियर वेन जियाबाओ के समक्ष भी इसे उठाया था.

2011 में ओबामा और दलाई लामा की व्हाइट हाउस में मुलाकात हुई. व्हाइट हाउस की ओर से इस अवसर पर जारी बयान के अनुसार, “राष्ट्रपति ने अहिंसा के प्रति दलाई लामा की प्रतिबद्धता की सराहना की है. इसी प्रकार राष्ट्रपति ने दलाई लामा की चीन के साथ बातचीत करने और ‘मिडिल वे यानी मध्यम मार्ग’ अपनाने के दृष्टिकोण को भी सराहा है.”

2011 में ओबामा और दलाई लामा की व्हाइट हाउस में मुलाकात हुई. व्हाइट हाउस की ओर से इस अवसर पर जारी बयान के अनुसार, “राष्ट्रपति ने अहिंसा के प्रति दलाई लामा की प्रतिबद्धता की सराहना की है. इसी प्रकार राष्ट्रपति ने दलाई लामा की चीन के साथ बातचीत करने और ‘मिडिल वे यानी मध्यम मार्ग’ अपनाने के दृष्टिकोण को भी सराहा है.” इस बयान में यह भी कहा गया था कि राष्ट्रपति ओबामा ने इस बात पर बल दिया है कि वे दीर्घावधि से मौजूद मतभेदों को सीधी बातचीत से हल करने के पक्षधर हैं. ऐसे में चीन तथा तिब्बत के बीच परिणाम देने वाली बातचीत दोनों के लिए सकारात्मक होगी.

निष्कर्ष
तिब्बत-चीन विवाद कानून के समाधान को प्रोत्साहित करने वाले नवीनतम कानून में तिब्बती नागरिकों के आत्मनिर्णय को लेकर नए सिरे से किया गया उल्लेख वर्तमान संदर्भों में उससे ज़्यादा संवेदनशील साबित होगा, जितना यह दिखाई देता है. याद रहे कि दुनिया के किसी भी देश ने अब तक तिब्बत को आज़ाद राष्ट्र के रूप में मान्यता नहीं दी है.US ने अपनी ओर से बहुराष्ट्रीय मंचों पर तिब्बती लोगों के आत्मनिर्णय के फ़ैसले को प्रोत्साहित करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं. UN सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होने के नाते US इस स्थिति में है कि वह तिब्बत-चीन विवाद कानून के समाधान को प्रोत्साहित करने वाले कानून में उठाए गए मुद्दों को लेकर चर्चा की शुरुआत कर सकता है. लेकिन वह ऐसा करने से बचता रहा है. इतना ही नहीं US ने अपने सहयोगियों के साथ ताइवान जलसंधि की स्थिति पर चर्चा की है, लेकिन वह प्राथमिकता के साथ तिब्बत के मुद्दे पर बातचीत नहीं करता. तिब्बती मामलों में अमेरिका के विशेष दूत को तिब्बती लोगों के साथ बातचीत करने का अधिकार मिला हुआ है.

स्वाभाविक रूप से ऐसी किसी भी बातचीत में भारत में बड़ी संख्या में रहने वाले तिब्बती शरणार्थियों को भी शामिल किया जाएगा. ऐसा होने पर भारत तथा चीन दोनों के बीच तनाव और बढ़ जाएगा. इसके अलावा भारत लंबे समय से UN के उन प्रस्तावों का विरोध करता आया है, जिसमें आत्मनिर्णय की बात की जाती है.[j] ऐसे में तिब्बती लोगों के मामले में भी आत्मनिर्णय की बात आने पर भारत के रुख़ में कोई परिवर्तन संभव नहीं है.

वर्तमान में US के किसी भी विधेयक अथवा प्रतिबंधों को चीन बुरी तरह नकार देता है या उसकी उपेक्षा कर देता है.[58] चीन ने तिब्बत को पूरी तरह अवशोषित यानी अपने में मिला लिया है. वह अपने एकीकरण को जनसंख्या में बदलाव के साथ-साथ सांस्कृतिक और शैक्षणिक पुन:निर्धारण के साथ मजबूत करता जा रहा है. इसके अलावा चीन मतारोपण यानी विचारों को थोपने, सर्विलांस और दंडात्मक उपाय का उपयोग करते हुए भी यहां अपनी पकड़ मजबूत करता जा रहा है. इसके अलावा तिब्बत में विकसित हो रही रेल, सड़क तथा हवाई कनेक्टिविटी के चलते बीजिंग की पकड़ और पुख़्ता होती जा रही है.

दलाई लामा भी यह कह चुके हैं कि वे तिब्बत के लिए आज़ादी की मांग नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे सार्थक स्वायत्तता चाहते हैं.[59] तिब्बती लोगों के लिए सहानुभूति तो है, लेकिन ऐसे ठोस कदम बेहद कम उठाए गए हैं जो सार्थक बदलाव ला सकें. US के नवीनतम कानून के बावजूद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तिब्बती लोगों के आत्मनिर्णय के फ़ैसले को स्वीकार करने अथवा उसको जगह देने की संभावनाएं बेहद कम ही है.

20 जनवरी 2017 को तिब्बती मामलों के विशेष समन्वयक और सिविलियन सिक्योरिटी, डेमोक्रेसी एंड ह्यूमन राइट्‌स, लोकतंत्र तथा मानवाधिकार की अंडर सेक्रेटरी सारा सेवल का कार्यकाल समाप्त हो गया था.[60] याद रहे कि उसके बाद ट्रंप प्रशासन ने इस पद को तीन वर्ष और सात माह के लिए रिक्त रखा था. इसके बाद अक्टूबर 2020 में ब्यूरो ऑफ डेमोक्रेसी, ह्यूमन राइट्‌स एंड लेबर में असिस्टेंट सेक्रेटरी रॉबर्ट डेस्ट्रो को इस पद पर नियुक्त किया गया था.[61] अत: अमेरिका में आने वाले राष्ट्रपति चुनाव को देखते हुए या माना जाना चाहिए कि अमेरिका के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में इस बात की ही संभावना ज़्यादा है कि मौजूदा अमेरिकी रुख़ को ही जारी रखा जाएगा. यदि ट्रंप की राष्ट्रपति के रूप में वापसी होगी तो यह संभावना और भी बढ़ जाएगी.

(सुजान चिनॉय भारत के पूर्व राजदूत और चीन संबंधी विशेषज्ञ हैं. वे वर्तमान में मनोहर पर्रिकर इन्स्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस में डायरेक्टर जनरल हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)

2030 तक दुनिया का हर पांचवां व्यक्ति बोलेगा हिंदी : प्रो.द्विवेदी

भोपाल। भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक प्रो.संजय द्विवेदी का कहना है कि 2030 तक दुनिया का हर पांचवां व्यक्ति हिंदी बोलगा। यह घटना भारत की वैश्विक स्वीकार्यता का प्रमाण बनेगी। वे छिंदवाड़ा स्थित हिंदी प्रचारिणी समिति द्वारा आयोजित हिंदी दिवस समारोह को मुख्य अतिथि की आसंदी से संबोधित कर रहे थे। इस अवसर पर प्रो.द्विवेदी और साहित्यकार डा.मनीषा जैन का सम्मान भी किया गया। कार्यक्रम में समिति के अध्यक्ष शिवकुमार गुप्ता, मंत्री श्याम सुंदर चांडक, डा.दिलीप खरे, पूर्व विधायक चौधरी गंभीर सिंह, भाजपा नेता शैलेन्द्र रघुवंशी, नवनीत व्यास, प्रकाश साव विशेष रूप से उपस्थित रहे।
  प्रो.द्विवेदी ने कहा कि हिंदी और भारतीय भाषाओं का यह अमृतकाल है, जिसमें वे वैश्विक पहचान बना रही हैं। उन्होंने कहा कि हमारा समाज स्वभाव से बहुभाषी है, इसलिए भारतीय भाषाओं के बीच अंतर संवाद हजारों वर्षों से बना हुआ है। यह समान संवेदना हमें विविध भारतीय भाषाओं के साहित्य ने दी है। उन्होंने कहा कि औपनिवेशिक सोच और आत्मदैन्य से मुक्ति ही भारतीय भाषाओं के सम्मान का मार्ग प्रशस्त करेगी।
  उल्लेखनीय है कि हिंदी प्रचारिणी समिति, छिंदवाड़ा की स्थापना 1935 में की गई थी। पिछले 9 दशक से यह संस्था पुस्तकालय, वाचनालय, विद्यालय संचालन सहित विभिन्न गतिविधियों से हिंदी सेवा में संलग्न है।

ये घटनाएँ कुछ नहीं बहुत कुछ कहती है

दो बड़ी घटनाओं में माध्यम से एक बड़ा संदेश और संकेत। आइये, पहले दोनों घटनायें संक्षेप में जानें।
छत्तीसगढ़ : प्रदेश के कॉस्मोपॉलिटन स्वभाव वाला महत्वपूर्ण शहर भिलाई। उसे ‘मिनी इंडिया’ भी कहा जाता है। वहां SAIL का प्रसिद्ध भिलाई स्टील प्लांट होने के कारण यह शहर भारत के ‘हर किसी की जिंदगी से जुड़ा हुआ’ है।
वहां कुछ दशक पहले कांगरेड की सरकार शांतिदूतों को मात्र 800 वर्ग फीट जमीन उपलब्ध कराती है। समूह का कारोबार ‘करबला समिति’ के नाम से प्रारंभ होता है। महज चंद फीट पर शांति स्थापना के बाद, जैसा कि अमूमन दुनिया भर में होता है, शांति का संक्रमण बढ़ते-बढ़ते करीब 6-8 एकड़ तक पहुंच जाता है।
विशुद्ध शांति के साथ कब्जा करते-करते उन जमीनों पर मैरिज हॉल, दुकानें आदि खुल जाती हैं। देश भर के निवासियों का प्रतिनिधि शहर, तनिक भी कभी आपत्ति नहीं जताता। अकलियत की रक्षा होती रहती है। हिंदू राष्ट्र चरम नींद के आगोश में सोया रहता है।
फिर दिसंबर 2023 में आती है विष्णुदेव साय जी की सरकार। वर्ष पूरा होते-होते पूरे करबला व्यवसाय को वैधानिक तरीके से गिरा दिया जाता है। जमीन शांतिमुक्त होती है।
यह तो रही सरोकार वाली सरकार आ जाने पर साँय-साँय निपटान हो जाने की बात। अब दूसरे वृत्तांत में शिमला पर ध्यान दीजिये।
हिमाचल प्रदेश : वहां सरकार उसी तुष्टीकरण वाले गिरोह की होती है जिसने 800 फीट से अब के छत्तीसगढ़ में शांति का कारोबार शुरू कराया था। वहां भी ‘पूजा स्थल’ के नाम पर धड़धड़ाते हुए शांति बहाली प्रारंभ होता है। कारोबार आगे बढ़ता है। किंतु उनकी समर्थक सरकार होने के बावजूद आश्चर्यजनक ढंग से हिंदू राष्ट्र जाग जाता है, भरी दुपहरी में।
शायद जागता भी इसलिए है क्योंकि शांति समर्थक पार्टी के ही एक प्रतिनिधि का जमीर जाग जाता है, वे सदन में बयान दे देते हैं अपनी पार्टी लाइन के विरुद्ध। उसके बाद हिंदू राष्ट्र सड़क पर आता है। जंगी प्रदर्शन करता है। ताजा समाचार यह है कि कब्जा समूह ने यह ‘निवेदन’ किया है कि वह स्वयं मसाजित का ‘अवैध हिस्सा’ गिराना चाहता है, उसे स्वयं ही गिरा लेने दिया जाय।
अगर सचमुच आपने यहां तक पढ़ लिया हो, तो बताइए कि इस विकराल पोस्ट में कवि क्या कहना चाहता है? कवि कहना वही चाहता है जो कहता रहा है – ‘बदला नहीं समाज तो सरकार बदल कर क्या होगा।’ समझे मियां, या और समझायें।
कहना यह चाहता है कवि कि सरकार आधारित कोई भी बदलाव स्थायी नहीं हो सकता, जब तक कि समाज उसके लिये तैयार न हो। समाज क्या करता है? बड़ी ही मुश्किल से एक वोट दे देता है अपने समर्थक दल को। इसके बाद ले आलोचना, दे विरोध, पे गाली….
उसके बाद देश के किसी हिस्से में किसी को कोई छींक आ गयी तो इस्ताफा डो, कहीं कुत्ते ने भौंकना शुरू कर दिया तो इस्ताफा दो, आपकी गली के बाहर किसी ने शांति से विष्ठा कर दिया तब भी ‘इस्ताफा दो, वरना मुस्ताफा लो’ का आरआर (राहुल रोना) शुरू हो जाता है। आप जवाब देते-देते थक जायेंगे, ‘हिंदू राष्ट्र’ जरा भी मुतमईन नहीं होगा।
उस पर भी अगर ‘आपके वोट से बने’ नेताजी आपको देख कर मुस्कुराहट न उछाल पाये हों, तब तो गयी भैंस पानी में। जा कर अपनी ‘भैंस चराये’ नेताजी।
और आपने समर्थन में अगर पूरे सवा सौ पोस्ट लिख दिये हों, लेकिन सम्मान किसी मात्र 120 पोस्ट लिख पाने वाले पड़ोसी को मिल गया हो, तब तो सीधे निजाम ए मुस्तफा से इस्तफा से कम पर आप मानेंगे नहीं।
लिखते-लिखते बहक जाने की अपनी आदत पुरानी है। सो निस्संदेह आप यहां तक नहीं पहुचे होंगे पढ़ते हुए, पर अगर सचमुच कोई यहां तक पहुंच गया हो, तो उन्हें प्रणाम करता हूं और प्रार्थना करता हूं कि ऊपर के दोनों उदाहरण देते हुए सोये राष्ट्र को जगा कर बता दीजिये कृपया कि आपके वोटों द्वारा नियुक्त अधिकांश नौकर आपके दिये काम पर हैं। परंतु …
परंतु लोकतंत्र में प्रथम सेवक से लेकर अन्य तमाम सेवकों की क्षमता और उनके अधिकार सीमित हैं। आप वोट देते हैं न कि नींद की गोली निगलते हैं।
सो, चैन से सोना है तो जाग जाइए कृपया। घर-घर जा कर जगाने की शक्ति अकेले ‘चौकीदार’ में नहीं है। सिचुएशन अलार्मिंग है तो अलार्म लगा कर सोइये। मैथिली अगर बूझते हों आप तो यही कहूंगा कि ‘लाहक जूइज बरकाइए लेब’ वाली धमकी सदा काम आने वाली नहीं है।
चौकन्ना रहिए। लड़ने-भिड़ने के लिए तैयार रहिए। समूह में रहिए। निजी स्वार्थ या अहंकार को थोड़ा पीछे रखते हुए देश-धर्म-समाज हित को आगे रखिए। प्रारब्ध और सरकार पर भरोसा रखिये। जिस पक्ष को चुना है, उसके साथ चट्टान की तरह खड़े रहिए। मीन-मेख निकालते रहने का यह समय नहीं है।
वोट रूपी दो सूखी रोटी चौकीदार को देकर अगर उससे यह भी आशा करेंगे आप कि वही आपकी चड्ढी भी धो देगा, तो चौकीदार बदल लीजिए। दूसरा तैयार है आपकी चड्ढी तक उतार लेने के लिए। अमेरिका तक जा कर आपकी चड्ढी उतार भी रहा है रोज-रोज।
शेष हरि इच्छा। कम कहे को अधिक समझियेगा। चिट्ठी को तार बुझिएगा। जय-जय।
(लेखक छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार हैं) 

अहम मुद्दों पर उजागर हुई राहुल गांधी की असलियत

लोकसभा में विपक्ष के नेता बनने के बाद राहुल गांधी ने अमेरिका यात्रा की और वहां भारत विरोधी शक्तियों और समूहों के साथ बैठकर भारत तथा हिंदुत्व विरोधी बयान देकर उजागर कर दिया कि वे लोकसभा में नेता विरोधी दल नहीं वरन भारत विरोधी नेता हैं। मोहब्बत की दुकान का गाना गाने वाले राहुल गांधी नफरत से इतने अधिक भरे हुए हैं कि अपने पूर्वजों के अच्छे विचारों को भी तिलांजलि दे चुके हैं।अमेरिका में राहुल गांधी द्वारा प्रस्तुत विमर्श भारत विरोधी, अलगाववादी, विध्वंसक तथा हिंदुत्व का अपमान करने वाला है।राहुल गाँधी की भाषा हिन्दू देवी देवताओं के प्रति अपमानजनक रही। ऐसा प्रतीत हुआ कि राहुल गांधी वास्तव में शहरी नक्सली हैं और टुकड़े- टुकड़े  गैंग के निर्देशक ही उनके सलाहकार हैं।

राहुल गांधी ने अमेरिका में भारत के खिलाफ जो जहर उगला है वहां की चुनावी रैलियों से अनवरत चली आ बयानबाजी का विस्तार है। राहुल गांधी ने अमेरिका में एक के बाद एक कई विवादित बयान दिये हैं जिनके कारण भारत का राजनैतिक वातावरण उद्वेलित है। राहुल गांधी ने अमेरिका में चीन की प्रशंसा करते हुए कहा कि वैश्विक उत्पादन में चीन का प्रभुत्व है इसलिए वहां पर बेरोजगारी नहीं है जबकि भारत और अमेरिका  जैसे देशों  में भयंकर बेरोजगारी है। सिख समुदाय पर भी राहुल ने  विवादित और घटिया बयान दिया और कहा,  मेरी लड़ाई इस बात को लेकर है कि क्या एक सिख को भारत में पगड़ी पहनने की अनुमति दी जाएगी ?या एक सिख को कड़ा पहनने की अनुमति दी जाएगी? जो राहुल गांधी लोकसभा चुनाव में यह ढिंढोरा पीटते रहे अगर भाजपा 400 पार चली गयी तो वह संविधान बदल देगी आरक्षण को समाप्त कर देगी उन्हीं  राहुल गांधी ने अमेरिका में कहा कि जब भारत भेदभाव रहित स्थान होगा तब कांग्रेस आरक्षण समाप्त करने पर विचार करेगी।

अभी ऐसा नहीं है क्योंकि उनकी नजर में 2014 से दलितों आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी ) को उचित भगीदारी नहीं मिल रही है।  राहुल गांधी ने हिंदी पर भी आरोप मढ़ दिया और कह डाला कि अगर आपको लगता है कि आंध्रप्रदेश के लोग हिंदी जितने महत्वपूर्ण नहीं हैं तो यह राज्य के लोगों का अपमान है। राहुल गांधी यहीं नहीं रुके बोलते बोलते राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ तक पहुँच गए औए कहा वे मानते हैं कि महिलाएं घर पर ही रहें, रसोई संभालें। सबसे बड़ा झूठ यह बोलकर आये हैं कि भारतीय राजनीति में प्रेम सम्मान और विनम्रता गायब है।

राहुल गांधी ने  सिख समुदाय को लेकर जो विवादित बयान दिया है उससे खालिस्तान समर्थक आतंकवादी गुनपतवंतसिंह पन्नू बहत खुश है तथा उनका समर्थन कर रहा है,  राहुल के बयानों से खालिस्तान मूवमेंट के समर्थन की बू आ रही है। भारत में पंजाब और पंजाबियत का जो हाल कांग्रेस ने किया है वह किसी से छुपा नहीं है। कौन नहीं जानता कि पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 3000 सिखों का जो नरसंहार हुआ, जगह जगह दंगो के दौरान सिखों की पगड़ी उतार कर  फेकी गई, उनके घर और दुकानों को आग के हवाले किया गया यह सब कुछ गाँधी परिवार के नियंत्रण में ही हुआ था और राहुल के पिता राजीव गाँधी ने, “बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है “ कहकर उसका बचाव किया था। कांग्रेस के ही शासनकाल में सिख राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के साथ हुआ दुर्व्यवहार पूरा देश जानता है। राहुल गांधी के बयान से भारत का राष्ट्रभक्त सिख समाज आंदोलित और आहत है।

राहुल  गांधी ने अमेरिका में एक बड़ा बयान भारत के लोकतंत्र और चुनाव आयोग की विश्वसनीयता को लेकर भी दिया है। राहुल के अनुसार  2024 का लोकसभा चुनाव निष्पक्ष नहीं था, उन्होंने कहाकि चुनाव आयोग बीजेपी द्वारा नियंत्रित था। बीजेपी के पास अपार धन था, प्रशासन की ताकत थी, चुनाव आयोग का रवैया बीजेपी के पक्ष में था अगर निष्पक्ष चुनाव होते तो बीजेपी 240 सीटें जीत ही नहीं सकती थी। यहाँ राहुल गांधी संभवतः भूल गये कि चुनावों के दौरान कांग्रेस द्वारा  सत्ता के दुरुप्रयोग की कहानियां भरी पड़ी हैं वो तो भला हो कि धीरे धीरे चुनाव आयोग ने सामर्थ्य दिखाना आरम्भ किया और चुनाव प्रणाली को सुदृढ़ किया।

राहुल गांधी अमेरिका में धुर भारत विरोधी नेताओं के साथ बैठक करते हैं और उनके साथ विचार विमर्श करते हैं। दुनिया भर में राष्ट्रवादी सरकारों  के सबसे बड़े दुश्मन और नशीले पदार्थों की तस्करी करने वाले जार्ज सोरोस के साथ उनके और उनकी माता जी के सम्बंध अब छुपे नहीं रह गये हैं। राहुल गांधी की सबसे अधिक विवादित मुलाकात डेमोक्रेट सांसद इल्हान उमर और प्रमिला जयपाल सहित विदेशी सरकारों के तख्ता पलट के  विशेषज्ञ माने जाने वाले डोनाल्ड ब्लू से होती है जो बताती है कि राहुल गांधी के इरादे खतरनाक ही नहीं बहुत ही खतरनाक हैं।

राहुल गांधी प्रधानमंत्री का विरोध  करते – करते अब देश का ही विरोध करने पर उतारू हो गये हैं। विश्लेषकों का अनुमान है राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा  और  उनकी बयानबाजी उन्हें ही भारी पड़ने वाली है जिसमें  एक अहम मुद्दा आरक्षण का है। राहुल गांधी के आरक्षण समाप्त करने वाले बयान को बसपा नेत्री मायावती ने लपक लिया है और अब वह उसी को हथियार बनाकर हरियाणा व जम्मू कश्मीर सहित आगामी  विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पर हमला करने जा रही हैं।

आश्चर्यजनक रूप से  राहुल गांधी भारत के शत्रु देशों चीन और पाकिस्तान की निंदा नहीं करते, वह सीमा पार से चलाये जा रहे आतंकवाद का विरोध नहीं करते। राहुल गांधी का स्पष्ट विचार है कि 1947 से पहले भारत का अस्तित्व ही नहीं था। राहुल गांधी अमेरिका में जिस संगठन की ओर से कार्यक्रम आयोजित करते हैं वह सभी जार्ज सोरोस  द्वारा पोषित संस्थाएं हैं। साफ है कि राहुल गांधी देश में अराजकता चाहते हैं। जब राहुल गांधी अमेरिका गये तब भारत में सुनियोजित तरीके से एक ही पैटर्न पर गणेशोत्सव पर हमले किये गये। राहुल गांधी अमेरिका में भाजपा व संघ की तुलना तालिबान से करते हुए हिंदुत्व पर प्रहार करते हैं ।

राहुल गांधी अपनी विदेश यात्राओं के दौरान हमेशा ही भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल लोगों के लिए खाद, पानी उपलब्ध कराते रहते हैं। राहुल गांधी जिस प्रकार चीन और पाकिस्तान की प्रशंसा के पुल बांधते हैं उससे एक बड़ा संदेह और भय पैदा होना स्वाभविक है। उनके मन में हिंदू और हिंदुत्व की विचारधारा के प्रति जिस प्रकार की नफरत भरी हुई है वो बहुसंख्यक समाज के लिए चिंता का विषय है।

प्रेषक – मृत्युंजय दीक्षित

फोन नं.- 9198571540

भारत के मार्च 2026 तक विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के संकेत

भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.93 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है। जबकि, जापान के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.21 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है एवं जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.59 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का है। भारत की आर्थिक विकास दर लगभग 8 प्रतिशत प्रतिवर्ष बनी हुई है और जापान एवं जर्मनी की आर्थिक विकास दर लगभग स्थिर है अथवा इसके ऋणात्मक रहने की भी प्रबल सम्भावना है। इस दृष्टि से मार्च 2025 तक भारत जापान की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा एवं मार्च 2026 तक भारत जर्मनी की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ते हुए विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। हाल ही के समय में जर्मनी एवं जापान की अर्थव्यवस्थाओं में विभिन्न प्रकार की समस्याएं दृष्टिगोचर हैं, जिनके कारण इन दोनों देशों की आर्थिक विकास दर आगे आने वाले वर्षों में विपरीत रूप से प्रभावित रह सकती है।

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात लगातार 4 दशकों तक जर्मनी पूरे यूरोपीयन यूनियन में तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बना रहा। इस दौरान विनिर्माण इकाईयों के बल पर जर्मनी ने अपने आप को विश्व में विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित कर लिया था एवं विभिन्न उत्पादों, विशेष रूप से कार, मशीनरी एवं केमिकल उत्पादों का निर्यात पूरे विश्व को भारी मात्रा में किया जाने लगा था। पिछले 20 वर्षों के दौरान जर्मनी पूरे यूरोपीयन यूनियन के विकास का इंजिन बना हुआ था। चूंकि चीन की अर्थव्यवस्था बहुत तेजी से विकास कर रही थी अतः पिछले 20 वर्षों के दौरान चीन, जर्मनी से  लगातार मशीनरी, कार एवं केमिकल पदार्थों का भारी मात्रा में आयात करता रहा है। परंतु, अब परिस्थितियां बदल रही हैं क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था भी हिचकोले खाने लगी है और चीन ने विभिन्न उत्पादों का जर्मनी से आयात कम कर दिया है।

अतः अब जर्मनी अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता हुआ दिखाई दे रहा है। आज बदली हुई परिस्थितियों में चीन, जर्मनी में निर्मित विभिन्न उत्पादों का आयात करने के स्थान पर वह जर्मनी का प्रतिस्पर्धी  बन गया है और इन्हीं उत्पादों का निर्यात करने लगा है। दूसरे, पिछले लगभग 2 वर्षों से रूस ने भी ऊर्जा की आपूर्ति यूरोप के देशों को रोक दी है, रूस द्वारा निर्यात की जाने वाली इस ऊर्जा का जर्मनी ही सबसे अधिक लाभ उठाता रहा है। तीसरे, जर्मनी में प्रौढ़ नागरिकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और एक अनुमान के अनुसार जर्मनी में आगे आने वाले एक वर्ष से कार्यकारी जनसंख्या में प्रतिवर्ष एक प्रतिशत की कमी आने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। इससे उपभोक्ता खर्च पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। चौथे, जर्मनी में नागरिकों की उत्पादकता भी कम हो रही है।
जर्मनी में प्रत्येक नागरिक वर्ष भर में केवल 1300 घंटे का कार्य करता है जबकि OECD देशों में यह औसत 1700 घंटे का है। पांचवे, यूरोपीयन यूनियन में वर्ष 2035 में पेट्रोल एवं डीजल पर चलने वाले चार पहिया वाहनों के उत्पादन पर रोक लगाई जा सकती है जबकि इन कारों का निर्माण ही जर्मनी में अधिक मात्रा में होता है तथा जर्मनी की कार निर्माता कम्पनियों ने बिजली पर चलने वाले वाहनों के निर्माण पर अभी बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया है। साथ ही, जर्मनी ने नवाचार पर भी कम ध्यान दिया है एवं स्टार्ट अप विकसित करने में बहुत पीछे रहा है आज इन क्षेत्रों में अमेरिका एवं चीन बहुत आगे निकल गए हैं एवं जर्मनी आज अपने आप को असहाय सा महसूस कर रहा है। अतः जर्मनी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव आगे आने वाले लम्बे समय तक चलने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

वैश्वीकरण की प्रक्रिया का प्रभाव भी जर्मनी अर्थव्यवस्था पर पड़ा है एवं अब पूरे विश्व में गैरवैश्वीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है। आज प्रत्येक विकसित एवं विकासशील देश अपने पैरों पर खड़ा होकर स्वावलंबी बनना चाहता है। अतः जर्मनी जैसे देशों से मशीनरी एवं कारों का निर्यात कम हो रहा है साथ ही इन उत्पादों की तकनीकि भी लगातार बदल रही है जिसे जर्मनी की विनिर्माण इकाईयां उपलब्ध कराने में असफल सिद्ध हुई हैं। पिछले 5 वर्षों के दौरान जर्मनी अर्थव्यवस्था में विकास दर हासिल नहीं की जा सकी है।

जर्मनी में सितम्बर 2023 माह में वोक्सवेगन (Volkswagen) कम्पनी ने अपनी दो विनिर्माण इकाईयों को बंद करने का निर्णय लिया है। यह कम्पनी जर्मनी में 3 लाख से अधिक रोजगार के प्रत्यक्ष अवसर उपलब्ध कराती है तथा अन्य लाखों नागरिकों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार के अवसर उपलब्ध कराती हैं। इस कम्पनी ने जर्मनी में अपनी विनिर्माण इकाईयों में उत्पादन कार्य को काफी हद्द तक कम कर दिया है क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से इस कम्पनी के उत्पादों की बिक्री लगातार कम हो रही है।

पिछले 5 वर्षों के दौरान इस कम्पनी की बाजार कीमत आधे से भी कम रह गई है। इस कम्पनी की उत्पादन इकाईयों में चार पहिया वाहनों का निर्माण किया जाता रहा है परंतु अब इन उत्पादन इकाईयों में बिजली पर चलने वाली कारों के निर्माण में बहुत परेशानी आ रही है। बिजली पर चलने वाली कारों का जर्मनी में उत्पादन बढ़ाने के स्थान पर चीन से इन कारों का बहुत भारी मात्रा में आयात किया जा रहा है। अपनी आर्थिक परेशानियों को ध्यान में रखते हुए जर्मनी ने यूक्रेन को टैंकों की आपूर्ति भी रोक दी है। दरअसल कोरोना महामारी के बाद से ही, वर्ष 2020 के बाद से, जर्मनी की अर्थव्यवस्था अभी तक सही तरीके से पूरे तौर पर उबर ही नहीं सकी है।

एक अनुमान के अनुसार जर्मनी अर्थव्यवस्था का आकार वर्ष 2024 में भी कम होने जा रहा है, यह वर्ष 2023 में भी कम हुआ था और इसके वर्ष 2025 में भी सुधरने की सम्भावना कम ही दिखाई दे रही है। जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद में वर्ष 2024 के दौरान 0.1 प्रतिशत की कमी की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। बेरोजगारी की दर भी 6.1 प्रतिशत के स्तर तक ऊपर जा सकती है। जर्मनी अर्थव्यवस्था केवल चक्रीय ही नहीं बल्कि संरचनात्मक क्षेत्र में भी समस्याओं का सामना कर रही है। इसमें सुधार की कोई सम्भावना आने वाले समय में नहीं दिख रही है। हालांकि यूरोपीयन यूनियन में जर्मनी की अर्थव्यवस्था सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है परंतु फिर भी भारत, उक्त कारणों के चलते, जर्मनी की अर्थव्यवस्था को मार्च 2026 तक पीछे छोड़ देगा, ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा रही है।

इसी प्रकार, पिछले लगभग 30 वर्षों के दौरान जापान की अर्थव्यवस्था में मुद्रा स्फीति, ब्याज दरें एवं येन की कीमत स्थिर रही है। परंतु, हाल ही के समय में येन का अंतरराष्ट्रीय बाजार में अवमूल्यन हो रहा है एवं यह 160 येन प्रति अमेरिकी डॉलर के स्तर पर आ गया है, जो वर्ष 2009 के बाद से कभी नहीं रहा है।  जापान की अर्थव्यवस्था कई उत्पादों के आयात पर निर्भर करती है। जापान अपनी ऊर्जा की आवश्यकताओं का 90 प्रतिशत एवं खाद्य सामग्री का 60 प्रतिशत हिस्सा आयात करता है। जापान द्वारा आयात की जाने वाली वस्तुओं की अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमत बढ़ने से जापान में भी आयातित मुद्रा स्फीति की दर बढ़ रही है जो पिछले एक दशक के दौरान लगातार स्थिर रही है।

वर्ष 1955 से वर्ष 1990 के बीच जापान की अर्थव्यवस्था औसत 6.8 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से आगे बढ़ती रही। वर्ष 1990 तक जापान का स्टॉक मार्केट लगातार बढ़ता रहा एवं अचानक वर्ष 1990 में यह बुलबुला फट पढ़ा और जापान में आवासीय मकानों की कीमत 50 प्रतिशत तक गिर गई एवं व्यावसायिक मकानों की कीमत 85 प्रतिशत तक गिर गई। जापान के पूंजी बाजार में निक्के स्टॉक सूचकांक भी 75 प्रतिशत तक गिर गया।

जापान की अर्थव्यवस्था में तेजी के दौरान आस्तियों की बढ़ी हुई कीमत पर ऋण लिए गए थे परंतु जैसे ही इन आस्तियों की कीमत बाजार में कम हुई, नागरिकों को ऋणराशि की किश्तें चुकाने में भारी परेशानी का सामना करना पड़ा और इससे भी जापान में आर्थिक समस्याएं बढ़ी थी। दिवालिया होने वाले नागरिकों की संख्या बढ़ी और देश में अपस्फीति की समस्या प्रारम्भ हो गई थी। जापान की सरकार ने आर्थिक तंत्र में नई मुद्रा की मात्रा बढ़ाई और ब्याज दरों को लगभग शून्य कर दिया।

 इन समस्त उपायों से भी जापान में आर्थिक समस्याओं का हल नहीं निकल सका। वर्ष 2022 में जापान में भी विश्व के अन्य देशों की तरह मुद्रा स्फीति बढ़ने लगी थी परंतु जापान ने ब्याज दरों को नहीं बढ़ाया। अब कुल मिलाकर जापान अपनी आर्थिक समस्याओं से जूझ रहा है एवं वहां पर आगे आने वाले समय में आर्थिक विकास के पटरी पर आने की सम्भावना कम ही नजर आती है अतः भारत जापान की अर्थव्यवस्था को मार्च 2025 तक पीछे छोड़कर विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है।

प्रहलाद सबनानी
सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
के-8, चेतकपुरी कालोनी,
झांसी रोड, लश्कर,
ग्वालियर – 474 009
मोबाइल क्रमांक – 9987949940
ई-मेल – prahlad.sabnani@gmail.com

हिन्दी को समर्पित एक परिवार

हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) पर विशेष
 
हिन्दी की अभिवृद्धि के लिए राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई सम्मानों से विभूषित हैं पोस्टमास्टर जनरल कृष्ण कुमार यादव और उनका परिवार

हमारे देश में प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा में एक मत से हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया था। इसी निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को प्रत्येक क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये वर्ष 1953 से पूरे भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष ‘हिन्दी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। हिंदी को लेकर तमाम विद्वान, संस्थाएँ, सरकारी विभाग अपने स्तर पर कार्य कर रहे हैं। इन सबके बीच उत्तर गुजरात परिक्षेत्र, अहमदाबाद के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव का अनूठा परिवार ऐसा भी है, जिनकी तीन पीढ़ियाँ हिंदी की अभिवृद्धि के लिए न सिर्फ प्रयासरत हैं, बल्कि वैश्विक स्तर पर कई देशों में सम्मानित हैं।

मूलत: उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जनपद निवासी श्री कृष्ण कुमार यादव के परिवार में उनके पिता श्री राम शिव मूर्ति यादव के साथ-साथ पत्नी सुश्री आकांक्षा यादव और दोनों बेटियाँ अक्षिता व अपूर्वा भी हिंदी को अपने लेखन से लगातार नए आयाम दे रही हैं। देश-दुनिया की तमाम पत्रिकाओं में प्रकाशन के साथ श्री कृष्ण कुमार यादव की 7 और पत्नी सुश्री आकांक्षा की 4 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।

प्रशासनिक सेवा के दायित्वों के निर्वहन के साथ श्री कृष्ण कुमार यादव की ‘अभिलाषा’ (काव्य संग्रह), ‘अभिव्यक्तियों के बहाने’, ‘अनुभूतियाँ और विमर्श’ (निबंध संग्रह), ‘क्रांति यज्ञ : 1857-1947 की गाथा’, ‘जंगल में क्रिकेट’ (बाल गीत संग्रह) एवं ’16 आने,  16 लोग’ सहित कुल सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। विभिन्न प्रतिष्ठित सामाजिक – साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता व प्रशासन के साथ-साथ सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु शताधिक सम्मान प्राप्त श्री यादव को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और सिक्किम के राज्यपाल भी सम्मानित कर चुके हैं।

हिंदी ब्लॉगिंग के क्षेत्र में इस परिवार का नाम अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अग्रणी है। ‘दशक के श्रेष्ठ ब्लॉगर दम्पति’ सम्मान से विभूषित यादव दम्पति को नेपाल, भूटान व श्रीलंका में आयोजित ‘अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मेलन’ में “परिकल्पना ब्लॉगिंग सार्क शिखर सम्मान” सहित अन्य सम्मानों से नवाजा जा चुका है। जर्मनी के बॉन शहर में ग्लोबल मीडिया फोरम (2015) के दौरान ‘पीपुल्स चॉइस अवॉर्ड’ श्रेणी में सुश्री आकांक्षा यादव के ब्लॉग ‘शब्द-शिखर’ को हिंदी के सबसे लोकप्रिय ब्लॉग के रूप में भी सम्मानित किया जा चुका है।

फिरदौस अमृत सेंटर स्कूल, कैंटोनमेंट, अहमदाबाद में अध्ययनरत इनकी दोनों बेटियाँ अक्षिता (पाखी) और अपूर्वा भी इसी राह पर चलते हुए अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई के बावजूद हिंदी में सृजनरत हैं। अपने ब्लॉग ‘पाखी की दुनिया’ हेतु अक्षिता को भारत सरकार द्वारा वर्ष 2011 में सबसे कम उम्र में ‘राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’ से सम्मानित किया जा चुका है। अक्षिता को प्रथम अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मेलन, नई दिल्ली (2011) में भारत के पूर्व मानव संसाधन विकास मंत्री डा. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने ‘श्रेष्ठ नन्ही ब्लॉगर‘ सम्मान से अलंकृत किया, तो अंतर्राष्ट्रीय हिंदी ब्लॉगर सम्मेलन, श्रीलंका (2015) में भी अक्षिता को “परिकल्पना कनिष्ठ सार्क ब्लॉगर सम्मान” से सम्मानित किया गया। अपूर्वा ने भी कोरोना महामारी के दौर में अपनी कविताओं से लोगों को सचेत किया।

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव का कहना है कि, सृजन एवं अभिव्यक्ति की दृष्टि से हिंदी दुनिया की अग्रणी भाषाओं में से एक है। हिन्दी सिर्फ एक भाषा ही नहीं बल्कि हम सबकी पहचान है, यह हर हिंदुस्तानी का हृदय है। डिजिटल क्रान्ति के इस युग में हिन्दी में विश्व भाषा बनने की क्षमता है। वहीं, सुश्री आकांक्षा यादव का मानना है कि, हिंदी राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने वाली तथा विभिन्न संस्कृतियों, विधाओं और कलाओं की त्रिवेणी है, जिसके साहित्य में समाज की विविधता, जीवन दृष्टि और लोक कलाएं संरक्षित हैं। आज परिवर्तन और विकास की भाषा के रूप में हिन्दी के महत्व को नये सिरे से रेखांकित किया जा रहा है।

हिंदी दिवस पर विजय जोशी को राज्य स्तरीय सम्मान

कोटा  कोटा के कथाकार और समीक्षक विजय जोशी को हिंदी दिवस पर भाषा एवम् पुस्तकालय विभाग द्वारा जयपुर में आयोजित समारोह में ” हिंदी सेवा पुरस्कार” से सम्मानित किया जाएगा। इन्हें  हिंदी साहित्य में कथेतर विधा में इनकी कृति  “अनुभूति के पथ पर : जीवन की बातें” के लिए मुख्य अथिति उप मुख्य मंत्री दिया कुमारी द्वारा सम्मानित किया जाएगा। इनको यह पुरस्कार मिलना निश्चित ही मौलिक लेखन को प्रोत्साहित करेगा। कथेतर विधा में मौलिक लेखन से इनकी पुस्तक में 100 से अधिक समीक्षा और भूमिकाएं शामिल हैं।
 इनके साथ – साथ  हिन्दी साहित्य (कथा) में डॉ अखिलेश पालरिया को उनकी कृति “मेरी प्रिय कहानियाँ” , हिन्दी साहित्य (कथेतर) में डॉ विजय जोशी को “अनुभूति के पथ पर : जीवन की बातें” , जनसंचार, पत्रकारिता एवं सिनेमा में श्री बजरंग लाल जेठू को “हिन्दी विज्ञान पत्रकारिता” , संविधान एवं विधि में डॉ सतीश कुमार को “मैं विधायिका हूँ” , विज्ञान,तकनीकी एवं अभियान्त्रिकी में डॉ डी डी ओझा को “जलशोधन -प्राचीन से अर्वाचीन”   चिकित्सा विज्ञान (भारतीय चिकित्सा पद्धति) में डॉ दीपक सिंह राजपुरोहित को “नाड़ी दीप विज्ञान”। वाणिज्य, प्रबंधन एवं अर्थशास्त्र में डॉ सचिन गुप्ता को “उद्यमिता दृष्टिकोण” , कला , संस्कृति एवं पर्यटन में डॉ राजेश कुमार व्यास को “कलाओं की अन्तर्दृष्टि” , कृषि , उद्योग, वानिकी एवं प्रसार में डॉ सुनीता गुप्ता व डॉ नरेंद्र कुमार गुप्ता  को संयुक्त रूप से “ फसल कार्यिकी के मूल सिद्धांत” तथा दर्शन , योग एवं अध्यात्म में डॉ दीपिका विजयवर्गीय को “ चैतन्य महाप्रभु और गौड़ीय संप्रदाय” को भी सम्मानित किया जाएगा।
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द बस्तर मड़ई में बिखरेगी बस्तर की बहुरंगी कला-संस्कृति की छटा

रायपुर 1 मुख्यमंत्री श्री विष्णुदेव साय ने  अपने निवास कार्यालय 75 दिन तक मनाये जाने वाले देश के ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व के सफल आयोजन के सम्बन्ध में समीक्षा बैठक ली। उन्होंने इस दौरान बस्तर दशहरा पर्व की गरिमा के अनुरूप सफलतापूर्वक आयोजन के लिए सर्व संबंधितों को सौंपे गए दायित्व का कुशलतापूर्वक निर्वहन किये जाने के निर्देश दिए। उल्लेखनीय है कि 75 दिन तक चलने वाला बस्तर दशहरा पर्व हरेली अमावस्या के दिन पाट जात्रा पूजा विधान के साथ 4 अगस्त 2024 से शुरू हो गया है, जो कि 19 अक्टूबर 2024 तक मनाया जाएगा। यह दशहरा पर्व विभिन्न जनजातीय समुदायों की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक भावना का महत्वपूर्ण प्रतीक है।

मुख्यमंत्री श्री साय को इस दौरान बस्तर दशहरा उत्सव समिति द्वारा इसमें तिथिवार विभिन्न कार्यक्रमों के आयोजन के विषय में विस्तार से जानकारी दी गयी। जिसमें बताया गया कि ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व के दौरान 15 अक्टूबर 2024 को मुड़िया दरबार का आयोजन होगा। इसी तरह बस्तर दशहरा को भव्य रूप देने के लिए बस्तर मड़ई, सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स मीट, एक पेड़ बस्तर के देवी-देवताओं के नाम, बस्तर टूरिस्ट सर्किट, दसरा पसरा, नगरगुड़ी टेंट सिटी, टूरिज्म ट्रेवलर्स आपरेटर मीट, देव सराय, स्वच्छता पखवाड़ा जैसे विविध कार्यक्रमों का भी आयोजन किया जाएगा। बस्तर दशहरा पर्व में लोगों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए विशेष यात्री बसों के संचालन के सम्बंध में भी चर्चा की गई।

4 अगस्त को पाट जात्रा पूजा विधान से शुरू हुए ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व 2024 के अंतर्गत 2 अक्टूबर को काछनगादी पूजा विधान, रेलामाता पूजा विधान। 5 अक्टूबर से 10 अक्टूबर तक प्रतिदिन नवरात्रि पूजा विधान, रथ परिक्रमा पूजा विधान। 12 अक्टूबर को मावली परघाव विधान, 15 अक्टूबर को काछन जात्रा पूजा विधान और मुरिया दरबार, 16 अक्टूबर को कुटुम्ब जात्रा पूजा विधान, 19 अक्टूबर को मावली माता जी की डोली की विदाई पूजा विधान आयोजित है।

मुरिया दरबार
गौरतलब है कि मुरिया दरबार में विभिन्न जनजातीय समुदायों के प्रमुख, नेता और प्रशासनिक अधिकारी मिलकर संस्कृति, परंपरा और प्रथाओं को सहेजने और सामुदायिक मांग तथा समस्याओं पर विचार करते हैं। इस वर्ष 15 अक्टूबर 2024 को मुरिया दरबार का आयोजन किया जायेगा। मुरिया दरबार आयोजन के 10 दिन बाद बस्तर संभाग के मांझी, चालकी, मेम्बर, मेम्बरीन, पुजारी, कोटवार, पटेल, मातागुड़ी के मुख्य पुजारियों का सम्मेलन आयोजित किया जाना प्रस्तावित है।

ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व के अवसर पर जिला प्रशासन द्वारा कई अभिनव पहल की जा रही है। द बस्तर मड़ई के अंतर्गत बस्तर की प्राकृतिक सौन्दर्य, एतिहासिक एवं पुरातत्विक स्थलों, एडवेंचर स्थलों, सांस्कृतिक स्थलों से पर्यटकों को अवगत कराने के लिए प्रशासन द्वारा ष्द बस्तर मड़ईष् की अवधारणा तैयार की गयी है।

बस्तर मड़ई के अंतर्गत 21 सितम्बर को सामुहिक नृत्य कार्यक्रम, 21 सितम्बर से 1 अक्टूबर तक बस्तर हाट-आमचो खाजा, 24 सितम्बर को सिरहासार परिसर मैदान में बस्तर नाचा, 27 सितम्बर को पारंपरिक लोक संगीत, 29 सितम्बर को बस्तर की कहानियां एवं हास्य कवि सम्मेलन, 30 सितम्बर को बस्तरिया नाचा जैसे कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का आयोजन होगा। 2 अक्टूबर से बस्तर दशहरा 2024 की समाप्ति तक बस्तर के पारंपरिक व्यंजन के स्टॉल लगाए जाएंगे।

इस अवसर पर वन मंत्री श्री केदार कश्यप, सांसद श्री महेश कश्यप तथा विधायक द्वय श्री किरण सिंहदेव व सुश्री लता उसेंडी और मुख्य सचिव श्री अमिताभ जैन तथा मुख्यमंत्री के सचिव श्री पी दयानन्द, श्री बसवराजू एस, श्री राहुल भगत और सचिव अन्बलगन पी, आयुक्त बस्तर श्री डोमन सिंह, बस्तर कलेक्टर श्री विजय दयाराम, एसपी श्री शलभ सिन्हा उपस्थित रहे।