Thursday, July 4, 2024
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नाटक विधा के लिए स्वयं प्रकाश स्मृति सम्मान की प्रविष्टियां आमंत्रित

दिल्ली। साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में कार्यरत संस्थान ’स्वयं प्रकाश न्यास’ ने सुप्रसिद्ध साहित्यकार स्वयं प्रकाश की स्मृति में दिए जाने वाले वार्षिक सम्मान के लिए प्रविष्टियां आमंत्रित की हैं। न्यास द्वारा जारी विज्ञप्ति में बताया गया कि राष्ट्रीय स्तर के इस सम्मान में क्रमशः कहानी, उपन्यास और नाटक विधा की किसी ऐसी कृति को दिया जाएगा, जो सम्मान के वर्ष से अधिकतम छह वर्ष पूर्व प्रकाशित हुई हो। 2024 के सम्मान के लिए 1 जनवरी 2020 से 31 दिसंबर 2023 के मध्य प्रकाशित पुस्तकों पर विचार किया जाएगा। इस वर्ष यह सम्मान नाटक विधा को दिया जाएगा। कृतिकार की आयु सीमा 50 वर्ष रखी गई है।

सम्मान के लिए तीन निर्णायकों की एक समिति बनाई गई है जो प्राप्त प्रस्तावों पर विचार कर किसी एक कृति का चुनाव करेगी। सम्मान में ग्यारह हजार रुपये, प्रशस्ति पत्र और शॉल भेंट किये जाएंगे।

न्यास द्वारा जारी विज्ञप्ति में बताया गया कि मूलत: राजस्थान के अजमेर निवासी स्वयं प्रकाश हिंदी कथा साहित्य के क्षेत्र में मौलिक योगदान के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने ढाई सौ के आसपास कहानियाँ लिखीं और उनके पांच उपन्यास भी प्रकाशित हुए थे। इनके अतिरिक्त नाटक, रेखाचित्र, संस्मरण, निबंध और बाल साहित्य में भी अपने अवदान के लिए स्वयं प्रकाश को हिंदी संसार में जाना जाता है। उन्हें भारत सरकार की साहित्य अकादेमी सहित देश भर की विभिन्न अकादमियों और संस्थाओं से अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले थे। उनके लेखन पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोध कार्य हुआ है तथा उनके साहित्य के मूल्यांकन की दृष्टि से अनेक पत्रिकाओं ने विशेषांक भी प्रकाशित किए हैं। 20 जनवरी 1947 को जन्मे स्वयं प्रकाश का निधन कैंसर के कारण 7 दिसम्बर 2019 को हो गया था।

बनास जन के सम्पादक और युवा आलोचक डॉ पल्लव को स्वयं प्रकाश स्मृति सम्मान का संयोजक बनाया गया है, वे इस सम्मान से सम्बंधित समस्त कार्यवाही का संयोजन करेंगे। सम्मान के लिए प्रविष्टियाँ डॉ पल्लव को 15 अगस्त 2023 तक बनास जन के पते (393, डीडीए, ब्लॉक सी एंड डी, शालीमार बाग़, दिल्ली -110088) पर भिजवाई जा सकेगी। साहित्य और लोकतान्त्रिक विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए गठित स्वयं प्रकाश स्मृति न्यास में कवि राजेश जोशी (भोपाल), आलोचक दुर्गाप्रसाद अग्रवाल (जयपुर). कवि-आलोचक आशीष त्रिपाठी (बनारस), आलोचक पल्लव (दिल्ली), इंजी. अंकिता सावंत (मुंबई) और अपूर्वा माथुर (दिल्ली) सदस्य हैं।

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किसी फिल्म को देखने जैसा था रेखा सुथार की जिंदगी की दास्तान सुनना

घूंघट निकाल कर घर के सारे काम करने वाली बहू ने कैसे सास को अपनी दोस्त बनाकर अपने सपनों को पूरा किया यह रोचक दास्तान यायावर कथाकार रेखा सुतार ने “हारना नहीं ज़िंदगी” के तहत सुनाई। राजस्थान के रनकपुर (गाला) की निवासी रेखा सुतार 12वीं कक्षा में नेशनल स्तर की बेसबॉल खिलाड़ी रह चुकी हैं। वे मेडल जीतने वाली अपने इलाक़े की पहली महिला हैं। शादी के बाद वे घर की दहलीज़ से कैसे बाहर निकलीं। कैसे यायावर बनने के लिए उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ दी। कैसे उन्होंने बुलेट मोटरसाइकिल पर कालीमठ जैसे दुर्गम पहाड़ी इलाक़ों की सैर की… रेखा की यह रोमांचक दास्तान सुनकर श्रोता रोमांचित हो गए। कई श्रोताओं ने उनसे सम्वाद भी किया। उन्होंने बताया कि निकट भविष्य में ‘विंडो सीट’ नाम से उनकी किताब प्रकाशित हो रही है जिसमें उन्होंने अपने यात्रा संस्मरणों को दर्ज किया है।

रेखा ने जिस आत्मविश्वास और बुलंद आवाज में अपने बचपन से लेकर विवाह और फिर ससुराल में घूंघट से लेकर तमाम प्रतिबंधों के बीच रहते हुए अपने मन की बात से पुरातन सोच वाले ससुराल वालों को राजी करवाने के पूरे घटनाक्रम को प्रस्तुत किया वह किसी फिल्म की तरह रोमांचक, सनसनीखेज और सुखांत से भरा था। राजस्थान के एक छोटे से गाँव से मुंबई जैसे महानगर के पारंपरिक व रुढ़िवादी परिवार में ब्याह कर आई एक बच्ची किस आत्मविश्वास से पूरे परिवार की सोच को बदल देती है रेखा सुथार के मुँह से ये जानना और सुनना किसी रोमांच से कम नहीं था।

चित्रनगरी संवाद मंच मुम्बई की ओर से रविवार 16 मई 2024 को मृणालताई हाल, केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट, गोरेगांव में आयोजित कार्यक्रम की शुरुआत में बीबीसी के पूर्व ब्राडकास्टर भारतेंदु विमल के उपन्यास ‘सोन मछली’ पर चर्चा हुई। कथाकार सूरज प्रकाश ने प्रस्तावना पेश करते हुए उपन्यास के कथ्य के महत्वपूर्ण पहलुओं का ज़िक्र किया। अपनी रचना प्रक्रिया पर बोलते हुए भारतेंदु विमल ने बताया कि कैसे उन्होंने बीयर बार संस्कृत की पृष्ठभूमि में सोनम नामक पात्र के ज़रिए इस उपन्यास की रचना की। उन्होंने श्रोताओं के सवालों के जवाब भी दिये।

‘सोन मछली’ की भूमिका जाने माने कथाकार कमलेश्वर ने लिखी है। कमलेश्वर जी के अनुसार सोन मछली’ में सत्ता, षड्यंत्र और दलाली के केंद्र में स्थित भ्रष्ट पूजी तंत्र की शिकार और लाचार लड़कियों की करुण गाथा सांस ले रही है।

बनाया है मैंने यह घर धीरे-धीरे
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे
धरोहर के अंतर्गत हिंदी के वरिष्ठतम कवि राम दरश मिश्र की इस ग़ज़ल का पाठ कवयित्री सीमा अग्रवाल ने किया। उनकी प्रस्तुति बहुत असरदार थी। इस अवसर पर वरिष्ठ कवि विजय अरुण, उदयभानु सिंह, डॉ बनमाली चतुर्वेदी और रचना शंकर ने काव्य पाठ किया।
आपका : #देवमणि_पांडेय

#चित्रनगरीसंवादमंच #सोनमछली
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डॉ.युगल सिंह का बाल साहित्य पर बड़ा काम

कांटों को फूल समझ, घबराना नहीं ,
चलते ही रहना ,रुक जाना नहीं ,
चलना अकेले हैं ना मेले, ना ठेले हैं ,
ना कोई आस है ना कोई पास है,
पांव में छाले हैं धूप में पाले हैं, कुछ रिश्ते टूटे हैं, कुछ पीछे छूटे हैं।
उनके श्रापों से डर जाना नहीं ,
मर जाना नहीं, चलते ही रहना…..
जीवन में आए कांटों को फूल समझ,अकेले ही चलना है, रिश्तें पीछे रह जायेंगे, श्राप भी मिलेंगे पर घबराना नहीं है और चलते ही रहना है। संकटों का सामना कर आगे बढ़ने का खूबसूरती से संदेश देती कविता आशाएं जगती हैं, होंसला बढ़ाती है। यह सृजन रचनाकार डॉ.( श्रीमती ) युगल सिंह का अत्यंत प्रेरणात्मक गीत है। समाज में आत्मघात की प्रवृति पर ऐसी ही संदेश परक रचना “आत्मघात नहीं है समाधान” की बानगी देखिए जिसमें वे किस प्रकार आत्मघात जाने वालों का मनोबल बढ़ाने का संदेश देती हैं………………

एक कागज परीक्षा का ,
तुझे असफल नहीं कर सकता, जीवन की परीक्षा में।
मत हो हताश,अभी राहे और भी है।
मत हो निराश,,अभी इम्तिहान और भी है।
चल उठ बड़ा कदम ,
मृत्यु पर पा विजय ,साहस के साथ।
जीवन ना मिलेगा दुबारा।
भाग्य में लिखा भी बदल जाएगा, परिश्रम से।
हिम्मत से रखनी है, तुझे भविष्य की बुनियाद। आत्मघात नहीं है कोई समाधान, स्वयं को नई दिशा कर प्रदान।
असफलता सफलता का प्रथम सोपान है ,
कर पुनरावृति ,अन्यथा घेर ना ले तुझे अवसाद,चक्रव्यूह के समान।
बाधाओं पर कर प्रहार ,मान मत अपनी हार ।
सत्य को कर अंगीकार ,जीवन नहीं है भार ।
आत्मघात नहीं है कोई समाधान।

सामाजिक समस्याओं के प्रति चेतना जगाती रचनाकार पर्यावरण के प्रति भी कितनी संवेदनशील हैं “सरिता ” अर्थात एक नदी को केंद्र बिंदु मान कर बेजान धरा को तृप्त करती है,जन – जन की प्यास बुझती है, मालिन करने पर क्रोधित होती है और पुकारती हे मानव मुझे मैला मत कर वरना जब तू पानी बोतल की जगह इंजेक्शन से पिएगा, नदी की व्यथा और घटते पेयजल संकट को भावपूर्ण शब्दों में अभिव्यक्त करती हैं कुछ इस तरह…………
मैं सरिता हूं ,निर्मल शीतल
अनवरत गतिमान ।
पर्वतों का सीना चीरकर,
तृप्त करती हूं धरा बेजान।
साथ ही जन-जन की तृष्णा को,
निस्वार्थ निशुल्क ।
मानव धृष्टता पर अश्रु बहाती हूं, आंखें मींचती, होंठ भिंचती हूं।
एक ओर मानव है, नित्य मलिन करता है मुझे।
तनिक लज्जा नहीं आती उसे,
कितने पाप धोऊंगी मैं अब उसके।
डरती हूं कहीं सूख न जाए मेरी छाती ,
क्या होगा जब नीर विहीन हो जाएगी मानव जाति ?
मत कर मैला मुझे ,
मैं सतत पयस्विनी बन ,
दूंगी वरदान तुझे ,
अन्यथा आज जो पानी बोतल के रूप में मिलता है तुझे,
कल मिलेगा इंजेक्शन के रूप में तुझे।
संभल जा अभी भी।
वरना बीता वक्त नहीं आएगा कभी भी ।

मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने वाली रचनाकार हिंदी,राजस्थानी , हाड़ोती, उर्दू भाषाओं में गद्य और पद्य विधाओं में कविता, संस्मरण, लघु कथा, छंद, मुक्तक , ग़ज़ल और कहानी आदि विधाओं में निरंतर लेखन रत हैं।

श्रृंगार, शांत, हास्य, ओज रस इन्हें विशेष प्रिय है। इनकी कविताएं समसामयिक विषयों पर, प्रेरणात्मक ,प्रकृति एवं हमारे त्यौहार एवं भारतीय संस्कृति का उद्घोष करने वाली हैं।
अपनी कविताओं के माध्यम से ये नारी शक्ति ,भारतीय संस्कृति का पुनः उत्थान, समनता, सहिष्णुता भाईचारा,अपनत्व,राष्ट्रीय एकता, देश प्रेम एवं समाज को नई दिशा देने का सकारात्मक प्रयास करती हैं। कॉलेज के समय में महादेवी वर्मा, तुलसीदास,प्रेमचंद, सुमित्रानंदन पंत, निराला,मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर से बहुत प्रभावित थी और कुछ ना कुछ लिखती रहती थी। कोटा के साहित्यकार जितेंद्र जी निर्मोही की प्रेरणा से इनके लेखन कार्य ने गति पकड़ी।
“सांप्रदायिक सद्भाव ” की हामी रचनाकार ने कितनी खुबसूरती से भावपूर्ण शब्दों में अभिव्यक्ति दी है अपने मन की भावनाओ को जो समाज की जीती जागती तस्वीर बयां करती है, और सोचने को मजबूर करती है….

सांप्रदायिक सद्भाव किस चिड़िया का नाम है, क्या आपको पता है?
पहले गांव में किसी एक पर संकट आता था, तो सारा गांव सहयोग करने उमड़ पड़ता था,
पहले किसी गरीब की बेटी सारे गांव की बेटी होती थी, पर आज….?
किस पर करें विश्वास?
जब माली ही चमन उजाड़ने पर उतारू हो,तो गुलों का रखवाला कौन?
आज सड़क पर एकाकी चलना डराता क्यों है?
हर शख्स कातिल नजर आता क्यों है ?
हर हाथ में खंजर है, कैसा यह मंजर है? मन हो गए बंजर है !
मूक हुआ गजर क्यों है?
क्या यही राम ,रहीम ,कबीर ,रसखान की भूमि है?
वह भाईचारा, सहिष्णुता, सदाशयता, शर्म ओ हया, लोक-लज्जा कहां हवा हो गई?
आज मंदिर में कम और मॉल में ज्यादा नजर आते क्यों हैं?
आज लापसी खीर हलवा मुंह चिढ़ाते क्यों है? पिज़्ज़ा बर्गर पास्ता लुभाते क्यों है?
बेटियों की लाश कभी तंदूर, कभी फ्रिज, कभी जंगल में मिलती क्यों है?
क्या यही मेरा देश है?

सांप्रदायिक सद्भाव के साथ ” प्यारा भारत देश” कविता में देश प्रेम की भावना को बलवती बनाने के लिए कितना सुंदर संदेश दिया है, बानगी देखिए……………….
आओ मिलकर प्यारा भारत देश बनाएं ,
आर्यावर्त में सद्भाव की सरिता बहाएं ।
निर्झरों को सहिष्णुता का संगीत सुनाएं,
राष्ट्रीय एकता के नए सेतु बनाएं।
माना कंटकाकीर्ण है पथ हमारा,
आओ बंधु मिलकर इस पर पुष्प बिछाएं ।
मान भी जाओ व्यर्थ है मुर्दाबाद का नारा,
मिलकर वसुधैव कुटुंबकम को अपनाये।
यह मेरा यह तेरा व्यर्थ झगड़ना भाई,
मानवता का हर अंतस में दीप जलाएं।
सुख शांति अमन हो नारा हमारा, आओ एक बार फिर से दोहराएं।
नवयुग की नव रोशनाई बने हम, सकारात्मक एवं भावात्मकता का इतिहास रचाये।
निर्मल हृदय कर वैमनस्यता का मैल हटाए,
हंसी-खुशी से नाचे गाए ढोल बजाए।
इन्होंने ऐसे ही विषयों पर दरकते रिश्ते, नारी स्वातंत्र्य, युवाओं की हताशा ,बालको में घर करती निराशा,मोबाइल में खोता उनका बचपन आदि अनेक कहानियां लिखी हैं। कुछ संस्मरण एवं यात्रा वृतांत भी लिखें हैं। उपन्यास लिखने की भी इनकी योजना है।

पीएच.डी. के लिए अपने शोध प्रबंध “हाडोती अंचल के बाल साहित्यकार” विषय पर शोध कर महत्वपूर्ण साहित्यिक सेवा की हैं। इसमें 17 बाल साहित्यकारों के बाल सृजन के विविध पक्षों सामाजिक चेतना, पर्यावरणीय चेतना, राष्ट्रीय, साहित्यिक, सामाजिक चेतना, बाल साहित्य में चेतनाओं के विविध रूप और बाल साहित्यकारों का कृतित्व, व्यक्तित्व, मूल कथ्य और संवेदना के साथ – साथ राष्ट्रीय और हाड़ोती के बाल साहित्यकारों का तुलनात्मक अध्ययन को शामिल किया है। निष्कर्ष निकला है कि हाड़ोती में वेविध्यपूर्ण बाल साहित्य का खूब सृजन हो रहा है पर यहां के साहित्यकारों को वह स्थान नहीं मिल पा रहा है जो मिलना चाहिए और न ही सृजित बाल साहित्य बच्चों की पहुंच में है। सृजन का पूरा लाभ तब ही माना जाएगा जब ये बच्चों तक पहुंचे। बच्चों तक सृजित साहित्य पहुंचाने के लिए उपाय भी सुझाए हैं।

हाड़ोती अंचल के साहित्य के क्षेत्र में युगल सिंह का बाल साहित्य पर यह अध्ययन निश्चित ही आने वाले समय में मार्ग दर्शक सिद्ध होगा ऐसी आशा कर सकते हैं। यह शोध प्रबंध प्रकाशनाधीन है। इस शोध का उपसंहार हाल ही में लखनऊ से डॉ.सुरेंद्र विक्रम सिंह एवं डॉ नागेश पांडे ने मंगवाया है। राष्ट्रीय स्तर के बाल साहित्य में उसे सम्मिलित करने की उनकी योजना है। सद्य प्रकाशित ‘ श्री राम चरित्र वर्णन ‘ पुस्तक का सह संपादन भी इन्होंने किया है।

परिचय
हाड़ोती के बाल साहित्य में शोध करने वाली रचनाकार डॉ.युगल सिंह का जन्म 19 सितंबर 1958 को पिता स्व. महावीर प्रसाद पंचोली एवं माता स्व. सुशीला देवी पंचोली के आंगन में कोटा में हुआ। आपने हिंदी साहित्य,संस्कृत, राजनीति विज्ञान और अंग्रेजी विषयों में एम. ए., बीएड, एमएड तक शिक्षा प्राप्त कर पीएच. डी. की उपाधि प्राप्त की। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पत्र – पत्रिकाओं में इनके संस्मरण, कविताएं ,बाल कविताएं प्रकाशित हुई हैं। विभिन्न राष्ट्रीय और स्थानीय संस्थाओं, ऑन लाइन काव्य मंचो से जुड़ी हैं और काव्य पाठ करती हैं। कई बार विभिन्न संस्थाओं द्वारा आपको पुरस्कृत और सम्मानित भी किया गया है। अध्ययन, अध्यापन, काव्य पाठ, गायन,मंच संचालन और साहित्य सृजन में आपकी अभिरुचि है।आप एक निजी शिक्षण संस्थान में प्रधानाचार्य पद पर सेवारत हैं।

चलते – चलते……….
एक कागज का टुकड़ा, (प्रश्न पत्र)निर्णायक नहीं है तेरे जीवन का ,
नहीं कर सकता वह तेरे जीवन का अंत,
चल उठ अभी तो अवसर हैं अनंत,
जिंदगी ना मिलेगी दुबारा,
तुझ में समाहित है दैवीय शक्तियां तू क्यों परिस्थितियों से हारा?
संपर्क :
199 शास्त्री नगर, दादाबाड़ी,
कोटा 324009( राजस्थान )
मोबाइल :82090 47043
—————–
डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा

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सातवीं सदी में भारत आए विदेशी यात्री यहाँ बने जहाजों को देखकर हैरान रह गए

भारत पर मुस्लिम आक्रमण ७वीं सदी में प्रारंभ हुआ। उस काल में भी भारत में बड़े-बड़े जहाज बनते थे। मार्कपोलो तेरहवीं सदी में भारत में आया। वह लिखता है ‘जहाजों में दोहरे तख्तों की जुड़ाई होती थी, लोहे की कीलों से उनको मजबूत बनाया जाता था और उनके सुराखों को एक प्रकार की गोंद में भरा जाता था। इतने बड़े जहाज होते थे कि उनमें तीन-तीन सौ मल्लाह लगते थे। एक-एक जहाज पर ३ से ४ हजार तक बोरे माल लादा जा सकता था। इनमें रहने के लिए ऊपर कई कोठरियां बनी रहती थीं, जिनमें सब तरह के आराम का प्रबंध रहता था। जब पेंदा खराब होने लगता तब उस पर लकड़ी की एक नयी तह को जड़ लिया जाता था। इस तरह कभी-कभी एक के ऊपर एक ६ तह तक लगायी जाती थी।‘

१५वीं सदी में निकोली कांटी नामक यात्री भारत आया। उसने लिखा कि ‘भारतीय जहाज हमारे जहाजों से बहुत बड़े होते हैं। इनका पेंदा तिहरे तख्तों का इस प्रकार बना होता है कि वह भयानक तूफानों का सामना कर सकता है। कुछ जहाज ऐसे बने होते हैं कि उनका एक भाग बेकार हो जाने पर बाकी से काम चल जाता है।‘

बर्थमा नामक यात्री लिखता है ‘लकड़ी के तख्तों की जुड़ाई ऐसी होती है कि उनमें जरा सा भी पानी नहीं आता। जहाजों में कभी दो पाल सूती कपड़े के लगाए जाते हैं, जिनमें हवा खूब भर सके। लंगर कभी-कभी पत्थर के होते थे। ईरान से कन्याकुमारी तक आने में आठ दिन का समय लग जाता था।‘ समुद्र के तटवर्ती राजाओं के पास जहाजों के बड़े-बड़े बेड़े रहते थे।

डॉ. राधा कुमुद मुकर्जी ने अपनी ‘इंडियन शिपिंग‘ नामक पुस्तक में भारतीय जहाजो के संबंध में बहुत अच्छी जानकारी दी है।
अब एक हटकर उदाहरण देना चाहता हूँ आपको – अंग्रेजों ने एक भ्रम और व्याप्त किया कि वास्कोडिगामा ने समुद्र मार्ग से भारत आने का मार्ग खोजा। यह सत्य है कि वास्कोडिगामा भारत आया था, पर वह कैसे आया इसके यथार्थ को हम जानेंगे तो स्पष्ट होगा कि वास्तविकता क्या है? प्रसिद्ध पुरातत्ववेता पद्मश्री डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने बताया कि मैं अभ्यास के लिए इंग्लैण्ड गया था।

वहां एक संग्रहालय में मुझे वास्कोडिगामा की डायरी के संदर्भ में बताया गया। इस डायरी में वास्कोडिगामा ने वह भारत कैसे आया, इसका वर्णन किया है। वह लिखता है, जब उसका जहाज अफ्रीका में जंजीबार के निकट आया तो मेरे से तीन गुना बड़ा जहाज मैंने देखा। तब एक अफ्रीकन दुभाषिया लेकर वह उस जहाज के मालिक से मिलने गया। जहाज का मालिक चंदन नाम का एक गुजराती व्यापारी था, जो भारतवर्ष से चीड़ व सागवान की लकड़ी तथा मसाले लेकर वहां गया था और उसके बदले में हीरे लेकर वह कोचीन के बंदरगाह आकार व्यापार करता था। वास्कोडिगामा जब उससे मिलने पहुंचा तब वह चंदन नाम का व्यापारी सामान्य वेष में एक खटिया पर बैठा था।

उस व्यापारी ने वास्कोडिगामा से पूछा, कहां जा रहे हो? वास्कोडिगामा ने कहा- हिन्दुस्थान घूमने जा रहा हूं। तो व्यापारी ने कहा मैं कल जा रहा हूं, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।‘ इस प्रकार उस व्यापारी के जहाज का अनुगमन करते हुए वास्कोडिगामा भारत पहुंचा। स्वतंत्र देश में यह यथार्थ नयी पीढ़ी को बताया जाना चाहिए था परन्तु दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ।

अब मैकाले की संतानों के मन में उपर्युक्त वर्णन पढ़कर विचार आ सकता है, कि नौका निर्माण में भारत इतना प्रगत देश था तो फिर आगे चलकर यह विद्या लुप्त क्यों हुई?

इस दृष्टि से अंग्रेजों के भारत में आने और उनके राज्य काल में योजनापूर्वक भारतीय नौका उद्योग को नष्ट करने के इतिहास के बारे में जानना जरूरी है। उस इतिहास का वर्णन करते हुए श्री गंगा शंकर मिश्र कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक (१९५०) में लिखते हैं-

‘पाश्चात्यों का जब भारत से सम्पर्क हुआ तब वे यहां के जहाजों को देखकर चकित रह गए। सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपीय जहाज अधिक से अधिक ६ सौ टन के थे, परन्तु भारत में उन्होंने ‘गोघा‘ नामक ऐसे बड़े-बड़े जहाज देखे जो १५ सौ टन से भी अधिक के होते थे।

यूरोपीय कम्पनियां इन जहाजों को काम में लाने लगीं और हिन्दुस्थानी कारीगरों द्वारा जहाज बनवाने के लिए उन्होंने कई कारखाने खोल लिए। सन्‌ १८११ में लेफ्टिनेंट वाकर लिखता है कि ‘व्रिटिश जहाजी बेड़े के जहाजों की हर बारहवें वर्ष मरम्मत करानी पड़ती थी। परन्तु सागौन के बने हुए भारतीय जहाज पचास वर्षों से अधिक समय तक बिना किसी मरम्मत के काम देते थे।‘ ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के पास एक ऐसा बड़ा जहाज था, जो ८७ वर्षों तक बिना किसी मरम्मत के काम देता रहा। जहाजों को बनाने में शीशम, साल और सागौन-तीनों लकड़ियां काम में लायी जाती थीं।

सन्‌ १८११ में एक फ्रेंच यात्री वाल्टजर सालविन्स अपनी पुस्तक में लिखता है क
सन्‌ १८११ में एक फ्रेंच यात्री वाल्टजर सालविन्स अपनी पुस्तक में लिखता है कि ‘प्राचीन समय में नौ-निर्माण कला में हिन्दू सबसे आगे थे और आज भी वे इसमें यूरोप को पाठ पढ़ा सकते हैं।

अंग्रेजों ने, जो कलाओं के सीखने में बड़े चतुर होते हैं, हिन्दुओं से जहाज बनाने की कई बातें सीखीं। भारतीय जहाजों में सुन्दरता तथा उपयोगिता का बड़ा अच्छा योग है और वे हिन्दुस्थानियों की कारीगरी और उनके धैर्य के नमूने हैं।‘

बम्बई के कारखाने में १७३६ से १८६३ तक ३०० जहाज तैयार हुए, जिनमें बहुत से इंग्लैण्ड के ‘शाही बेड़े‘ में शामिल कर लिए गए। इनमें ‘एशिया‘ नामक जहाज २२८९ टन का था और उसमें ८४ तोपें लगी थीं। बंगाल में हुगली, सिल्हट, चटगांव और ढाका आदि स्थानों पर जहाज बनाने के कारखाने थे। सन्‌ १७८१ से १८२१ तक १,२२,६९३ टन के २७२ जहाज केवल हुगली में तैयार हुए थे।

अंग्रेजों की कुटिलता-व्रिटेन के जहाजी व्यापारी भारतीय नौ-निर्माण कला का यह उत्कर्ष सहन न कर सके और वे ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ पर भारतीय जहाजों का उपयोग न करने के लिए दबाने बनाने लगे। सन्‌ १८११ में कर्नल वाकर ने आंकड़े देकर यह सिद्ध किया कि ‘भारतीय जहाजों‘ में बहुत कम खर्च पड़ता है और वे बड़े मजबूत होते हैं।

यदि व्रिटिश बेड़े में केवल भारतीय जहाज ही रखे जाएं तो बहुत बचत हो सकती है।‘ जहाज बनाने वाले अंग्रेज कारीगरों तथा व्यापारियों को यह बात बहुत खटकी। डाक्टर टेलर लिखता है कि ‘जब हिन्दुस्थानी माल से लदा हुआ हिन्दुस्थानी जहाज लंदन के बंदरगाह पर पहुंचा, तब जहाजों के अंग्रेज व्यापारियों में ऐसी घबराहट मची जैसा कि आक्रमण करने के लिए टेम्स नदी में शत्रुपक्ष के जहाजी बेड़े को देखकर भी न मचती।‘

लंदन बंदरगाह के कारीगरों ने सबसे पहले हो-हल्ला मचाया और कहा कि ‘हमारा सब काम चौपट हो जाएगा और हमारे कुटुम्ब भूखों मर जाएंगे।‘ ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के ‘बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स‘ (निदेशक-मण्डल) ने लिखा कि हिन्दुस्थानी खलासियों ने यहां आने पर जो हमारा सामाजिक जीवन देखा, उससे भारत में यूरोपीय आचरण के प्रति जो आदर और भय था, नष्ट हो गया।

अपने देश लौटने पर हमारे सम्बंध में वे जो बुरी बातें फैलाएंगे, उसमें एशिया निवासियों में हमारे आचरण के प्रति जो आदर है तथा जिसके बल पर ही हम अपना प्रभुत्व जमाए बैठे हैं, नष्ट हो जाएगा और उसका प्रभाव बड़ा हानिकर होगा।‘ इस पर व्रिटिश संसद ने सर राबर्ट पील की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की।

काला कानून- समिति के सदस्यों में परस्पर मतभेद होने पर भी इस रपट के आधार पर सन्‌ १८१४ में एक कानून पास किया, जिसके अनुसार भारतीय खलासियों को व्रिटिश नाविक बनने का अधिकार नहीं रहा।

व्रिटिश जहाजों पर भी कम-से कम तीन चौथाई अंग्रेज खलासी रखना अनिवार्य कर दिया गया। लंदन के बंदरगाह में किसी ऐसे जहाज को घुसने का अधिकार नहीं रहा, जिसका स्वामी कोई व्रिटिश न हो और यह नियम बना दिया गया कि इंग्लैण्ड में अंग्रेजों द्वारा बनाए हुए जहाजों में ही बाहर से माल इंग्लैण्ड आ सकेगा।‘

कई कारणों से इस कानून को कार्यान्वित करने में ढिलाई हुई, पर सन्‌ १८६३ से इसकी पूरी पाबंदी होने लगी। भारत में भी ऐसे कायदे-कानून बनाए गए जिससे यहां की प्राचीन नौ-निर्माण कला का अन्त हो जाए। भारतीय जहाजों पर लदे हुए माल की चुंगी बढ़ा दी गई और इस तरह उनको व्यापार से अलग करने का प्रयत्न किया गया।

सर विलियम डिग्वी ने लिखा है कि ‘पाश्चात्य संसार की रानी ने इस तरह प्राच्य सागर की रानी का वध कर डाला।‘ संक्षेप में भारतीय नौ-निर्माण कला को नष्ट करने की यही कहानी है।

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न्यायाधीशों की खाली कुर्सियों से न्याया कैसे मिले

लोकतांत्रिक शासकीय प्रणाली समानता, स्वतंत्रता और न्याय के संप्रत्यय पर टिकी हैं । इन तीनों के संतुलित आयाम से ही सरकार के अंगों का संतुलन होता है। न्याय एक ऐसा संपर्त्य है जो लोकतंत्र में समानता और स्वतंत्रता के लक्ष्य की पूर्ति करता है। समय से न्याय मिलना लोकतांत्रिक मूल्यों और मौलिक अधिकारों के उन्नयन के लिए जिम्मेदार है। भारत में न्याय विलंब से मिलने का प्रमुख कारण न्यायालयों में न्यायाधीशों की संख्या में कमी है। वृहद जनसंख्या की तुलना में न्यायाधीशों की संख्या कम है। भारत के पांच उच्च न्यायालयों क्रमशः इलाहाबाद उच्च न्यायालय, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ,गुजरात, मुंबई और कोलकाता उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या कम है। इनमें न्यायाधीशों की संख्या स्वीकृत पदों की तुलना में 52% कम है, जिससे न्याय में देरी होती है। भारत के 24 उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 1114 है और 29.4 प्रतिशत पद रिक्त हैं। उच्च न्यायालय में लगभग 62 लाख मामले लंबित है।

भारत के संविधान के अनुच्छेद 217 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के नियुक्ति का प्रावधान है। न्यायाधीशों की नियुक्ति की ‘ कॉलेजियम प्रणाली’ के कारण नियुक्ति में देरी होती है। कॉलेजियम प्रणाली के कारण न्यायपालिका और कार्यपालिका में हितों का टकराहट होता है।कार्यपालिका और न्यायपालिका के मध्य नाम और अन्य कारकों को लेकर राजनीतिक तनातनी चलती रहती है। भारत के उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों का वेतन एवं भत्ते विकसित देशों के न्यायालयों के न्यायाधीशों की तुलना में बहुत कम है।

इसी तरह उच्चतर न्यायपालिका में कानूनी पेशे में दक्ष वकीलों का आय न्यायाधीशों से बहुत ज्यादा है ।कानूनी पेशे के दक्ष वकील ,निजी न्यायिक फर्मों से जुड़े विशेषज्ञ न्यायालयों में न्यायाधीश बनने के अनिच्छुक होते हैं जिससे न्यायाधीशों की संख्या पर्याप्त नहीं हो पा रही है ।एक प्रतिवेदन से यह भी ज्ञात हुआ है कि योग्य ,ईमानदार एवं कर्तव्य निष्ठ व्यक्ति राजनीतिक लॉबिंग और न्यायिक लॉबिंग के प्रति तटस्थ रहते हैं।विकासशील देशों में उच्चतर पदों के लिए राजनीतिक लॉबिंग आवश्यक होता जा रहा है जिससे दक्ष व्यक्ति इन पदों की दौड़ से बहुत दूर हो जाते हैं।

स्वस्थ और गत्यात्मक न्यायिक व्यवस्था के उन्नयन के लिए न्यायाधीशों की संख्या अभीष्ट है। न्याय में देरी के संकट के निजात के लिए न्यायाधीशों की नियुक्ति, न्यायालय सुविधाओं की प्राप्ति, न्यायालय का डिजिटलीकरण,न्यायालय का आधुनिकीकरण और न्यायाधीशों के वेतन एवं भत्ते में वृद्धि को पर्याप्त प्राथमिकता देकर न्याय में देरी को रोका जा सकता है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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फ्रांस में पायल कपाड़िया ने अपनी फिल्म ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ के लिए ग्रांड प्रिक्स पुरस्कार जीता

“सनफ्लावर्स वेयर द फर्स्ट वन्स टू नो” – एफटीआईआई के अंतिम वर्ष के छात्र चिदानंद एस नाइक (निदेशक) की फिल्म को ‘ला सिनेफ’ पुरस्कार मिला

‘ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट’- भारत-फ्रांस सह-निर्माण ने कान्स में इतिहास रचा

एफटीआईआई के पूर्व छात्र संतोष सिवन, पायल कपाड़िया, मैसम अली, चिदानंद एस नाइक सहित अन्य ने कान्स में अपनी चमक बिखेरी

77वें कान्स फिल्म फेस्टिवल में भारत का प्रदर्शन अभूतपूर्व रहा है तथा 2 फिल्म निर्माता, एक अभिनेत्री और एक सिनेमैटोग्राफर दुनिया के अग्रणी फिल्म महोत्सव में शीर्ष पुरस्कार विजेता बने हैं। एक प्रतिष्ठित फिल्म उद्योग के साथ सबसे बड़े फिल्म निर्माता राष्ट्रों में से एक के रूप में, भारतीय फिल्म निर्माताओं ने इस वर्ष के कान्स में काफी प्रशंसा अर्जित की है।

30 वर्षों में पहली बार, एक भारतीय फिल्म, पायल कपाड़िया की ‘ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट’, जो दो नर्सों के जीवन पर केंद्रित है, को महोत्सव में सर्वोच्च पुरस्कार, पाल्मे डी’ओर के लिए नामांकित किया गया था। कपाड़िया की फिल्म ने ग्रांड प्रिक्स श्रेणी में दूसरा स्थान हासिल किया। इस जीत के साथ एफटीआईआई की पूर्व छात्रा पायल कपाड़िया यह प्रतिष्ठित पुरस्कार पाने वाली पहली भारतीय बन गईं हैं। यह अवसर 30 वर्षों के बाद आया है, जब शाजी एन करुण की ‘स्वहम’ ने सर्वोच्च सम्मान के लिए प्रतिस्पर्धा की थी।

पायल की फिल्‍म को भारत और फ्रांस के बीच हस्ताक्षरित ऑडियो-विज़ुअल संधि के अंतर्गत, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने आधिकारिक इंडो-फ़्रेंच सह-उत्पादन का दर्जा दिया था। महाराष्ट्र (रत्नागिरी और मुंबई) में मंत्रालय ने भी फिल्म की शूटिंग की अनुमति दे दी थी। फिल्म को आधिकारिक सह-उत्पादन के लिए भारत सरकार की प्रोत्साहन योजना के तहत योग्यता सह-उत्पादन व्यय के 30 प्रतिशत की अंतरिम मंजूरी प्राप्‍त हुई।

फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के छात्र चिदानंद एस नाइक ने कन्नड़ लोककथा पर आधारित 15 मिनट की लघु फिल्म “सनफ्लॉवर्स आर द फर्स्ट वन्स टू नो” के लिए ला सिनेफ सेक्शन में पहला पुरस्कार जीता। यह एफटीआईआई फिल्म एफटीआईआई के टीवी विंग के एक साल के कार्यक्रम का निर्माण है, जहां विभिन्न विषयों यानी निर्देशन, इलेक्ट्रॉनिक सिनेमैटोग्राफी, संपादन, ध्वनि के चार छात्रों ने साल के अंत में समन्वित अभ्यास के रूप में एक परियोजना के लिए एक साथ काम किया। 2022 में एफटीआईआई से जुड़ने से पहले, चिदानंद एस नाइक को 53वें भारतीय अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) में 75 क्रिएटिव माइंड्स में से एक के रूप में भी चुना गया था, जो सिनेमा के क्षेत्र में उभरते युवा कलाकारों को पहचानने और सहयोग करने के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की एक पहल थी। इस बात की भी चर्चा करना जरूरी है कि भारत में जन्मी मानसी माहेश्वरी की एक एनिमेटेड फिल्म बनीहुड, ने ला सिनेफ चयन में तीसरा पुरस्कार जीता।

महोत्सव में विश्व प्रसिद्ध निर्देशक श्याम बेनेगल के सृजन का उत्सव मनाया गया। भारत में रिलीज होने के 48 साल बाद, बेनेगल की ‘मंथन’ को कान्स में क्लासिक सेक्शन में प्रदर्शित किया गया, जिसे भारत के राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार (सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत एनएफडीसी-एनएफएआई) में संरक्षित किया गया और फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन द्वारा पुनर्स्थापित किया गया।

भारतीय सिनेमा में अपने समृद्ध कार्य के लिए प्रसिद्ध सिनेमैटोग्राफर संतोष सिवन अपने “करियर और कार्य की असाधारण गुणवत्ता” के लिए 2024 कान्स फिल्म फेस्टिवल में प्रतिष्ठित पियरे एंजनीक्स ट्रिब्यूट पुरस्कार से सम्मानित होने वाले पहले एशियाई बन गए। एक अन्य व्यक्ति जिसने कान्स में इतिहास रचा वह अनसूया सेनगुप्ता हैं, जो ‘द शेमलेस’ में ‘अन सर्टन रिगार्ड’ श्रेणी में अपने प्रदर्शन के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीतने वाली पहली भारतीय बनीं।

कान्स में अपनी जगह बनाने वाले एक अन्य स्वतंत्र फिल्म निर्माता मैसम अली भी एफटीआईआई के पूर्व छात्र थे। उनकी फिल्म “इन रिट्रीट” को एसीआईडी कान्स साइडबार कार्यक्रम में प्रदर्शित किया गया था। 1993 में अपनी स्थापना के बाद से ऐसा पहली बार हुआ, जब एसोसिएशन फॉर द डिफ्यूजन ऑफ इंडिपेंडेंट सिनेमा द्वारा संचालित सेक्शन में एक भारतीय फिल्म प्रदर्शित की गई।

जैसा कि हमने 77वें कान्स फिल्म महोत्सव में भारतीय सिनेमा के लिए एक ऐतिहासिक साल के गवाह बने हैं, भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) के पास अपनी उपलब्धियों का उत्सव मनाने का एक विशेष कारण है क्योंकि, पायल कपाड़िया, संतोष सिवन, मैसम अली और चिदानंद एस नाइक जैसे इसके पूर्व छात्रों की प्रतिभा कान्स में चमक रही हैं। एफटीआईआई, भारत सरकार के सूचना व प्रसारण मंत्रालय के तहत एक स्वायत्त संस्थान है और केंद्र सरकार से वित्तीय सहायता प्राप्त कर एक सोसायटी के रूप में कार्य करता है।

केंद्र सरकार की प्राथमिकता विभिन्न सुविधाओं के माध्यम से फिल्म क्षेत्र को बढ़ावा देना है। इनमें एकल सुविधा केंद्र की स्वीकृति, विभिन्न देशों के साथ संयुक्त फिल्म निर्माण, अपने स्वायत्त संस्थानों जैसे कि- भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान व सत्यजीत रे फिल्म और टेलीविजन संस्थान के माध्यम से सिनेमा के क्षेत्र में शिक्षा का समर्थन करना और भारत को विश्व के कंटेंट हब (केंद्र) के रूप में स्थापित करने के बहुआयामी प्रयास शामिल हैं। ये सभी प्रयास राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर रहे हैं।

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नरगिस की माँ जद्दन बाई कैसे तवायफ से फिल्म निर्माता बनी

बनारस की मशहूर तवायफ थीं नरगिस की मां, कर्ज उतारने के लिए बेटी से फिल्मों में करवाया काम, जानिए संजय दत्त की नानी की दिलचस्प कहानी

बॉलीवुड की मशहूर अदाकारा रहीं नरगिस की मां जद्दनबाई बनारस की मशहूर तवायफ थीं, जो बाद में देशभर में अपने गानों के लिए जानी जाती थीं।

संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज ‘हीरामंडी’ जबसे रिलीज हुई है, तबसे तवायफ शब्द का जिक्र लगातार हो रहा है। नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई ‘हीरामंडी’ की कहानी आजादी की जंग लड़ते भारत में, अपने कोठों के लिए मशहूर रेड लाइट एरिया ‘हीरामंडी’ की कहानी है। जहां की तवायफें नवाबों के लिए महफिलें सजाने और अपने संगीत और नृत्य के लिए मशहूर थीं।

तवायफों के गाने सुनना नवाबों की शान हुआ करती थी। हिंदुस्तानी संगीत और नृत्य की विरासत को सहेज कर रखने वाले तवायफ कल्चर का ब्रिटिश राज में पूरा नक्शा बिगड़ गया, लेकिन कोठों ने बॉलीवुड को भरपूर टैलेंट दिया है। ऐसी ही एक तवायफ की कहानी आज हम आपको बताने जा रहे हैं, जो बॉलीवुड की पहली म्यूजिक डायरेक्टर और प्रोड्यूसर बनी थीं। नाम था जद्दनबाई।

जद्दनबाई का जन्म 1892 में बनारस में हुआ था। इनकी मां दलीपाबाई थीं, जो इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की सबसे मशहूर तवायफ थीं और पिता थे मियां जान, जिन्हें जद्दनबाई ने महज 5 साल की उम्र में ही खो दिया था। कोठे पर पली- बढ़ी जद्दन को गायकी और नृत्य का हुनर उनकी मां से मिला था। वह कोठे पर रहकर बड़ी जरूर हुईं, लेकिन उनके कोठे पर देह व्यापार नहीं होता था बल्कि सिर्फ ठुमरी और गजलें पेश की जाती थीं। जद्दनबाई ने मां की लीगेसी को आगे बढ़ाने के लिए कोठे की कमान संभाली और मां से भी ज्यादा मशहूर हो गईं।

नरगिस की मां ने तीन शादियां की थीं। पहली शादी उन्होंने गुजराती हिंदू बिजनेसमैन नरोत्तम दास से की थी। दोनों का एक बेटा अख्तर हुसैन हुआ। बेटे के जन्म के कुछ सालों बाद ही नरोत्तम जद्दन बाई को छोड़कर चले गए और कभी लौटे ही नहीं। सालों तक बेटे की अकेले परवरिश करने के बाद कोठे में ही हारमोनियम बजाने वाले मास्टर उस्ताद इरशाद मीर खान से जद्दन ने दूसरी शादी की। जिससे इन्हें दूसरा बेटा अनवर हुसैन हुआ। चंद सालों में ही दोनों अलग हो गए। इसके बाद जद्दनबाई ने लखनऊ के एक रईस परिवार के मोहन बाबू से तीसरी शादी की। जद्दनबाई और मोहन बाबू की एक बेटी हुई नरगिस।

जद्दन बाई ने कुछ सालों बाद कोठे से निकलकर सिंगर बनने के लिए कोलकाता जाने की ठानी। उन्होंने श्रीमंत गणपत राव, उस्ताद मोइनुद्दीन खान, उस्ताद चड्डू खान साहब और उस्ताद लाब खान साहब से संगीत की शिक्षा प्राप्त की। देखते ही देखते इनके गाने देशभर में पसंद किए जाने लगे। ब्रिटिश शासक इन्हें न्योता देकर रामपुर, बीकानेर, ग्वालियर, जम्मू-कश्मीर जैसी अलग-अलग जगहों पर महफिल सजवाया करते थे।

वहीं यूनाइटेड किंगडम की म्यूजिक कंपनी ग्रामोफोन इनकी गजलों को रिकॉर्ड करवाकर ले जाया करते थे। इतना ही नहीं उन्हें लाहौर की फोटो टोन कंपनी ने साल 1933 में एक फिल्म भी ऑफर की थी। इस फिल्म में काम करके वह एक्टिंग की दुनिया में आ गईं। इन्होंने आगे ‘इंसान या शैतान’ फिल्म की। इसके बाद वह परिवार के साथ बॉम्बे (मुंबई) पहुंच गईं।

जद्दनबाई ने साल 1935 में अपनी खुद की प्रोडक्शन कंपनी शुरू की, जिसकी पहली फिल्म तलाश-ए-हक थी। जद्दनबाई को फिल्में बनाने पर नुकसान हो रहा था। उनकी सारी फिल्में फ्लॉप हो रही थी और वह कर्ज में डूब गईं। जद्दन बाई और मोहन बाबू ने नरगिस का दाखिला मुंबई के इंग्लिश मीडियम एलीट स्कूल में करवाया था, लेकिन जब प्रोडक्शन हाउस को नुकसान होने लगा तो उन्हें स्कूल बदलवाना पड़ा और जद्दनबाई ने अपने ऊपर चढ़े कर्ज को उतारने के लिए नरगिस ने एक्टिंग की दुनिया में कदम रखा।

यहां उन्होंने खुद की प्रोडक्शन कंपनी संगीत फिल्म शुरू की और तलाश-ए-हक फिल्म बनाई. इसी फिल्म में जद्दनबाई ने अभिनय करने के साथ म्यूजिक कंपोज भी किया. इतिहास में ये पहली बार था जब कोई महिला म्यूजिक कंपोज कर रही थी. 1935 की इस फिल्म में उन्होंने 6 साल की बेटी नरगिस को कास्ट किया. प्रोडक्शन कंपनी से कर्ज उतारने के लिए ये लगातार नरगिस को फिल्मों में लेने लगीं. 1940 तक जद्दनबाई की प्रोडक्शन कंपनी भारी नुकसान में जाने से बंद हो गई. जद्दनबाई ने फिल्मों में काम करना बंद कर दिया.

नरगिस को 14 साल की उम्र में ‘तकदीर’ फिल्म से पहचान मिली। जब जद्दन के बेटे अख्तर हुसैन ने फिल्म ‘दरोगाजी’ बनाई तो जद्दन बाई ने खुद फिल्म के सभी डायलॉग लिखे। 1949 में रिलीज हुई ये इनकी जिंदगी की आखिरी फिल्म थी। 8 अप्रैल 1949 में कैंसर से जद्दन बाई का निधन हो गया।

जब नरगिस की मां का निधन हुआ तो उस दिन सभी फिल्मों की शूटिंग रोक दी गई और स्टूडियो एक दिन के लिए बंद कर दिए गए।

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गूगल के अलावा भी सर्च इंजिन हैं जहाँ ज्ञान का भंडार भरा पड़ा है

गूगल इतना ताकतवर है कि वो दूसरे सर्च सिस्टम को हमसे “छुपा” लेता है। हम उनमें से अधिकांश के अस्तित्व को नहीं जानते हैं।

इस बीच, दुनिया में अभी भी बड़ी संख्या में उत्कृष्ट खोजकर्ता हैं जो किताबों, विज्ञान, अन्य स्मार्ट जानकारी में विशेषज्ञ हैं।

उन साइटों की एक सूची रखें जिनके बारे में आपने कभी नहीं सुना है।

www.refseek.com – शैक्षणिक संसाधन खोज। एक अरब से अधिक स्रोत: एन्साइक्लोपीडिया, मोनोग्राफियां, पत्रिकाएं।

www.worldcat.org – 20 हजार विश्वव्यापी पुस्तकालयों की सामग्री के लिए एक खोज। पता लगाएं कि आपको सबसे नजदीकी दुर्लभ पुस्तक कहाँ है।

https://link.springer.com – 10 मिलियन से अधिक वैज्ञानिक दस्तावेजों तक पहुंच: किताबें, लेख, अनुसंधान प्रोटोकॉल।

www.bioline.org.br  विकासशील देशों में प्रकाशित वैज्ञानिक जैव विज्ञान पत्रिकाओं का एक पुस्तकालय है।

http://repec.org – 102 देशों के स्वयंसेवकों ने अर्थशास्त्र और संबंधित विज्ञान पर लगभग 40 लाख प्रकाशन एकत्र किए हैं।

www.science.gov 2200+ वैज्ञानिक साइटों पर एक अमेरिकी राज्य खोज इंजन है। 200 मिलियन से अधिक लेख इंडेक्स किए गए हैं।

www.base-search.net शैक्षणिक अध्ययन ग्रंथों पर सबसे शक्तिशाली शोधों में से एक है। 100 करोड़ से अधिक वैज्ञानिक दस्तावेज, उनमें से 70% मुफ्त हैं।

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इस चौपाल में बरसता है कला,संस्कृति और साहित्य का रंग और संगीत का जादू

(मुंबई की चौपाल अपने आप में अनूठी है। कला, साहित्य, संस्कृति, थिएटर, शास्त्रीय संगीत से लेकर हर विधा पर चौपाल में चर्चा होती है। सुधी श्रोताओं के साथ ही अपने अपने क्षेत्र के दिग्गज वक्ता आकर चौपाल को समृध्द करते हैं। पिछले साल चौपाल अपनी रजत जयंती मना चुकी है और महीने भर बाद ही 26 साल पूरे करने वाली है। इस चौपाल की खासियत यह है कि इससे हर क्षेत्र के कई नामी हस्ताक्षर जुड़े हैं जिनमें गुलजार साहब , लेकर जाने माने रंगकर्मी अतुल तिवारी, आधुुनिक ऋषि एवँ कबीर, तुलसी और विवेकानंद जैसे एकल कार्यक्रमों से देश और दुनिया में एक विशिष्ट पहचान बनाने वाले पद्मश्री शेखर सेन, चाणक्य के डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी, जाने माने अभिनेता राजेन्द्र गुप्ता, विष्णु शर्मा और चौपाल के रसिकों के लिए रसभरे व्यंजनों से अतिथि सत्कार करने वाले अशोक बिंदल जी, कविता जी गुप्ता दिनेश जी गुप्ता सहित कई नाम हैं। हर बार चौपाल एक नए और अनूठे विषय पर होती है। चौपाल तीन से चार घंटे तक चलती है और श्रोता भी पूरे समय मौजूद रहकर इसका रसास्वादन करते हैं। चौपाल कभी भुवंस के अंधेरी स्थित परिसर में तो कभी कविता जी और दिनेश जी के घर होती है। चौपाल कला साहित्य और संस्कृति की धारा से जुड़ा एक पारिवारिक आयोजन है ।
 
पिछली कई चौपालों में ये अनुभव हुआ कि चौपाल से नए लोग तो लगातार जुड़ रहे हैं लेकिन पुराने लोगों की कमी लगातार खलती जा रही है। जो लोग चौपाल के लिए पूरे महीने इंतजार करते थे वे अचानक ओझल से होते जा रहे हैं।
 
इस बार चौपाल में रंगमंच और शास्त्रीय गायन की विभिन्न विधाओं के कई खूबसूरत रंग देखने को मिले। विविध भारती के जाने माने उद्घोषक यूनुस खान ने अपने कुशल संचालन से अलग -अलग कार्यक्रमों को एक कड़ी में खूबसूरती से पिरोया और श्रोताओं व मंच के कलाकारों के बीच एक रोमांचक तादात्म्य स्थापित किया। मंच और प्रेक्षकों के बीच युनुस खान की दमदार आवाज़ एक जादुई एहसास जगाती रही। चौपाल पर यूनुस खान की ये रिपोर्ट आपको चौपाल की जादुई सैर करा देगी। )

चौपाल के रजत जयंती उत्सव की यू ट्यूब लिंक

 

चौपाल का फेसबुक पेज

https://www.facebook.com/Chaupaal

चौपाल की कुछ यादगार रिपोर्ट 

‘चौपाल’ अपनी अनूठी प्रस्तुतियों के लिए जानी जाती है। बीते कई सालों में कई ऐसी चौपाल हुई हैं जिन्‍हें लोगों ने बरसों-बरस याद रखा। बीते रविवार यानी 19 मई को एक ऐसी ही चौपाल हुई जिसमें नाटक और विभिन्न भाषाओं के नाट्य-संगीत का ऐसा विलक्षण जमावड़ा हुआ कि इसकी गूंज लंबे समय तक सुनाई देने वाली है।

पहले खंड का आरंभ हुआ फणीश्व‍वरनाथ रेणु की कहानी पर आधारित नाटक ‘पंचलाइट’ से। ‘पंचलाइट’ कहानी रेणु के संग्रह ‘ठुमरी’ में संग्रहीत है। इस नाटक का निर्देशन राकेश साहू ने किया। दो दर्जन से अधिक कलाकारों के अभिनय से सज़ा यह नाटक कई सवाल उठाता है। यह जातीय भेदभाव, अमीर और ग़रीबों के बीच की खाई, नई तकनीक से जुड़े कौतुहल, प्रेम और समाज में उसके विरोध, फिल्‍मी-गीतों को लेकर उस समय के समाज के फैली वितृष्‍णा, पंचायत से जुड़े रसूख़दार लोगों की चालबाजियों पर गहरी चोट करता है। राकेश ने इस नाटक का निर्देशन बड़ा सूझबूझ से भरा किया है। नाटक को बहुत संगीतमय रखा गया है। ख़ासतौर पर मेले का दृश्य तो क्‍या ख़ूब बन पड़ा है। कुछ ऐसे कलाकार थे जिन्‍होंने एक से ज़्यादा भूमिकाएं कीं और क्‍या ख़ूब कीं। ‘पंचलाइट’ ने चौपाल में जो समां बांधा कि पूछिए मत। राकेश और उनकी टोली इसके लिए बधाई की पात्र है।

इस बार चौपाल में नाटक के साथ जो सबसे बड़ा फ़ोकस था वो था नाट्य-संगीत पर। यह शायद इतिहास में ऐसा पहला और विलक्षण आयोजन था जिसमें हिंदी, गुजराती और मराठी नाट्य-संगीत की एक ही मंच पर बात की गयी। और कुछ कालजयी नाटकों के नाट्य-संगीत को पेश भी किया गया। मराठी नाट्य-संगीत के लिए मंच पर आईं जानी-मानी गायिका तेजस्विनी इंगले। हिंदी और मराठी फ़िल्‍मों और नाटकों में गीत गा चुकी तेजस्विनी एक माहिर गायिका हैं। संचालक ने बताया कि उनकी यात्रा ‘आविष्कार’ समूह के साथ शुरू हुई और वो डेढ़ सौ से ज़्यादा नाट्य-संगीत प्रस्तुतियां दे चुकी हैं। तेजस्विनी ने बताया कि मराठी संगीत-नाटकों का आरंभ नांदी से होता है जो एक तरह से आराधना का गीत है। उन्‍होंने अपनी प्रस्‍तुति की शुरूआत नाटक ‘मानापमान’ की नांदी ‘नमन नटवरा विस्मयकरा’ से की। संचालक यूनुस ख़ान ने बताया कि यह नाटक कृष्‍णाजी प्रभाकर खाडिलकर ने लिखा था। और इसकी पहली प्रस्‍तु‍ति सन 1911 में हुई थी। इस नाटक में महान कलाकार बाल गंधर्व ने काम किया था।

 

इसके बाद तेजस्विनी ने मानापमान का ही एक गीत ‘युवती मना’ प्रस्‍तुत किया। तेजस्विनी ने जो तीसरा गीत प्रस्‍तु‍त किया वो स्‍वातंत्र्यवीर सावरकर के लिखे नाटक ‘सन्‍यस्‍त खड्ग’ से था। इसके बोल थे ‘मर्मबंधातली ठेव ही’। इसके बाद जो गीत आया उसने तो जैसे समां ही बाँध दिया। मराठी के बहुत ही प्रसिद्ध नाटक ‘कट्यार काळजात घुसली’ का गीत ‘सूरत पिया की’ जिसका संगीत पंडित जीतेंद्र अभिषेकी ने दिया था। और इसे नाटक में वसंत राव देशपांडे ने गाया था। इस गीत की हर पंक्ति में अलग अलग राग और ताल में भी बदलाव होते हैं। तेजस्विनी ने बताया कि इसमें राग सोहनी, मालकौंस, चंद्रकौंस और वृंदावनी सारंग राग बारी-बारी से आते हैं। इसके बाद नाटक ‘ययाति आणि देवयानी’ से दो गीत प्रस्‍तुति किये गये और इस रसपूर्ण प्रस्‍तुति ने दर्शकों का मन मोह लिया। हॉल देर तक तालियों की गूंज से भरा रहा।

यह पहला मौक़ा था जब मुंबई में किसी मंच पर मराठी गुजराती और हिंदी नाटकों का संगीत प्रस्तुत किया जा रहा था। इसके बाद आई बारी गुजराती नाट्य संगीत की। जिसके लिए मंच पर आए गुजराती के जाने माने नाट्य कलाकार उत्कर्ष मजूमदार। उनके साथ पग पेटी पर जाने-माने संतूर वादक और पेशे से सीए—स्‍नेहल मजूमदार जो गुजराती साहित्य अकादमी के चेयरमैन भी हैं। हेमांग व्यास तबले पर थे। और गीत तथा अभिनय प्रस्तुतियों में उत्कर्ष का साथ दिया मंजरी मजूमदार ने। जो गायिका, अभिनेत्री तो हैं ही पेशे से डॉक्‍टर हैं। उत्कर्ष मजूमदार ने बताया कि किस तरह गुजराती नाटकों का आविर्भाव पारसी रंगमंच से हुआ। उन्‍होंने गुजराती संगीत नाटकों का दिलचस्प इतिहास भी बताया और ‘जूनी रंगभूमि ना गीतो’ भी प्रस्‍तुत किए। सैकड़ों साल पुराने इन गीतों को लोगों ने बड़ी दिलचस्पी से सुना। तकरीबन पैंतालीस मिनिट की इस प्रस्‍तुति में उत्कर्ष ने दर्शकों को बांधकर रखा। चौपाल में उत्कर्ष मजूमदार पहले भी गुजराती रंगमंच से जुड़ी दिलचस्प बातें बता चुके हैं। ख़ासतौर पर विश्व रंगमंच दिवस पर कोरोना समय से ठीक पहले। लेकिन इस बार उन्‍होंने बाक़ायदा सही वेशभूषा और मेकअप के साथ गुजराती नाट्य-गीतों की अद्भुत छटा बिखेरी।

तीसरी पेशकश थी हिंदी नाट्य-संगीत की। और इसके लिए चौपाल में आमंत्रित किया गया था जाने-माने संगीतकार और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित आमोद भट्ट को। आमोद ने बरसों बरस बी वी कारंत के साथ नाटकों में काम किया है। संगीत तैयार किया है। उनके पास बड़ा वृहद अनुभव है तरह तरह के नाटकों के गीतों का। आमोद के साथ थी नाटक कलाकारों की एक बड़ी टोली—जो गीतों को लेकर हाजिर थी।

आरंभ किया गया गिरीश कार्नाड के नाटक ‘हयवदन’ की एक बहुत ही नाटकीय गणपति वंदना से—‘नमो नमो हे गजवदन’। देश की जानी-मानी रंग हस्ती श्री बी वी कारंथ ने इसे कंपोज़ किया था। बाबा कारंत आमोद भट्ट और शुभाश्री भट्ट के रंग गुरु भी रहे हैं। दिलचस्प बात ये थी कि यह प्रस्तुति रंगमंडल भारत भवन भोपाल में 1984 में तैयार की गयी थी।
इसके बाद एक और बहुत ही शानदार गीत आया ‘सावन के झूले खेत्ता’। ये गीत लोर्का के लिखे नाटक येर्मा में शामिल था जिसे “माटी” नाम से खेला गया। आमोद भट्ट ने अपनी इस पेशकश में गुलज़ार के लिखे चंद गीत भी पेश किए। जैसे ‘कायनात, बस चंद करोड़ों सालों में’। इसके अलावा ‘मॉनसून की सिम्‍फ़नी’। ये सलीम आरिफ के नाटक ‘अठन्‍नी मुंबई महानगर की’ में शामिल गीत था। और बहुत ही बेमिसाल गीत है बारिश के बारे में।

आमोद और उनकी टोली ने नाटक हयवदन का एक और गीत सुनाया—‘लोई लोई’। और नाटक ‘अंधा युग’ का गीत—‘आसन्न पराजय वाली इस नगरी में’। अंधा युग का एक और अद्भुत गीत पेश किया गया—”रूद्र देव कापालिक भैरव”।

इस टोली का पेश किया गया एक बहुत ही दिलचस्प गीत था चौपाली अतुल तिवारी के नाटक ‘ताऊस चमन की मैना’ से। ये गीत था ‘फ़लक आरा की शहज़ादी’।

इस पेशकश के आखिर में नाटक ‘महारास’ का एक कमाल का गीत पेश किया गया—‘पूर्ण चंद्र शरत रात, जमुना तट आधी रात’। डॉ पुरूषोत्‍तम चक्रवर्ती ने इसे लिखा है।
और इस तरह एक ऐतिहासिक चौपाल का अंत हुआ। एक ऐसी विलक्षण चौपाल जिसमें ना केवल नाटक शामिल था बल्कि हिंदी, मराठी और गुजराती तीनों भाषाओं के नाट्य-गीतों की प्रस्‍तुति एक ही मंच पर एक साथ की गयी। कार्यक्रम का संचालन कर रहे उद्घोषक यूनुस ख़ान ने बताया कि ऐसा बरसों-बरस में पहली बार हुआ है जब तीनों भाषाओं के नाट्य-संगीत को एक ही मंच पर ला खड़ा किया गया हो। और इतने दिग्‍गज कलाकारों ने अपनी प्रस्‍तुति दी हो। मुंबई में हिंदी, गुजराती और मराठी नाट्य-कर्म तो निरंतर जारी है। पर इन तीनों भाषाओं का नाट्य-संगीत कभी एक मंच पर पेश नहीं किया गया।

चौपाल का यह अद्भुत प्रयास था जो पूरी तरह से सफल रहा।

उन लोगों के लिए अफसोस जो जीवन की व्यस्तताओँ गर्मी के थपेड़े या आलस के झोंके में पहुंच नहीं सके। या जिन्हें लगा कि क्षेत्रीय भाषाओं की इस प्रस्तुति में पता नहीं कुछ दिलचस्प भी होगा या नहीं। पर जिन्होंने यह चौपाल मिस की उन्होंने जीवन का एक चमकीला और यादगार दिन मिस कर दिया।

 

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मोची का काम करते हैं और इनके साहित्य पर हो रहा है शोध

12 वीं पास ये सज्जन करते हैं मोची का काम, देते हैं यूनिवर्सिटियों में लैक्चर और इनके साहित्य पर हो रही है रिसर्च

पंजाब के चंडीगढ़ में टांडा रोड के साथ लगते मुहल्ला सुभाष नगर के द्वारका भारती (75) 12 वें पास हैं। घर चलाने के लिए मोची का काम करते हैं। सुकून के लिए साहित्य रचते हैं। भले ही वे 12 वीं पास हैं, पर साहित्य की समझ के कारण उन्हें वर्दीवालों को लेक्चर देने में बुलाया जाता है। कई भाषाओं में साहित्यकार इनकी पुस्तकों का अनुवाद कर चुके हैं। इनकी स्वयं की लिखी कविता एकलव्य इग्नू में एमए के बच्चे पढ़ते हैं, वहीं पंजाब विश्वविद्यालय में 2 होस्टल इन उपन्यास मोची पर रिसर्च कर रहे हैं। वे कहते हैं कि जो व्यवसाय आपका भरण पोषण करे, वह इतना अधम हो ही नहीं सकता, जिसे करने में आपको शर्मिंदगी महसूस होगी।

द्वारका बोले- घर चलाने को गांठता हूँ जूते, सुकून के लिए रचता हूँ साहित्य
सुभाष नगर में प्रवेश करते ही अपनी किराए की छोटी सी दुकान पर आज भी द्वारका भारती हाथों से नए नए जूते तैयार करते हैं। अक्सर उनकी दुकान के बाहर बड़े गाड़ियों में सवार साहित्य प्रेमी अधिकारियों और साहित्यकारों की पहुंचना और साहित्य पर चर्चा करना दिन का हिस्सा हैं। चर्चा के दौरान भी वह अपने काम से जी नहीं चुराते और पूरे मनोयोग से जूते गांठते रहते हैं। फुरसत के पलों में भारती दर्शन और कार्ल मार्क्स के अलावा पश्चिमी व लैटिन अमेरिकी साहित्य का अध्ययन करते हैं।

डॉ.सुरेन्द्र की लेखनी से साहित्य की प्रेरणा मिली
द्वारका भारती ने बताया कि 12 वीं तक पढ़ाई करने के बाद 1983 में होशियारपुर लौटे, तो वह अपने पुश्तैनी पेशे जूते गांठने में जुट गए। साहित्य से लगाव बचपन से था। डॉ.सुरेन्द्र अज्ञात की क्रांतिकारी लेखनी से प्रभावित हो उपन्यास जूठन का पंजाबी भाषा में किया गया। उपन्यास को पहले ही साल बेस्ट सेलर उपन्यास का खिताब मिला। इसके बाद पंजाबी उपन्यास मशालची का अनुवाद किया गया। इस दौरान दलित दर्शन, हिंदुत्व के दुर्ग पुस्तक लेखन के साथ ही हंस, दिनमान, वागर्थ, शब्द के अलावा कविता, कहानी व निबंध भी लिखे।

द्वारका भारती ने बताया कि आज भी समाज में बर्तन धोने और जूते तैयार करने वाले मोची के काम को लोग हीनता की दृष्टि से देखते हैं, जो नकारात्मक सोच को दर्शाता है। आदमी को उसकी पेशा नहीं बल्कि उसका कर्म महान बनाता है। वह घर चलाने के लिए जूते तैयार करते हैं, वहीं मानसिक खुराक व सुकून के लिए साहित्य की रचना करते हैं। जूते गांठना हमारा पेशा है। इसी से मेरा घर व मेरा परिवार का भरण पोषण होता है।

साभार https://www.facebook.com/profile.php?id=100008508123676 से

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