आलोचकों की परवाह न कर अपनी राह चलते हैं प्रधानमंत्री
स्वाधीनता दिवस पर डॉ.शशि जैन ” लाइफ टाइम्स अचीवमेंट अवॉर्ड ” से सम्मानित
विभाजन की त्रासदी काे वो नग्न सत्य, जो हर हिंदू को जानना चाहिए
‘विभाजनकालीन भारत के साक्षी’ ग्रंथमाला में लेखक कृष्णानंद सागर ने विभाजन काल के तथ्यों का प्रामाणिक विवरण सामने रखा है। तथ्यों की पुष्टि की लेखकीय सतर्कता से यह पुस्तक उक्त इतिहास का प्राथमिक प्रामाणिक स्रोत है। उक्त ग्रंथमाला को विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में होना चाहिए ताकि भारत का आम जनमानस यह जान सके कि उसने ब्रिटिश शासन के अंत और सत्ता हस्तान्तरण की क्या कीमत चुकाई है
1947 में अखंड भारत को मजहबी उन्माद की तलवार से चीर कर इस्लामिक अधिकृत क्षेत्र का निर्माण किया गया । रातोंरात करोड़ हिंदू अपने ही मुल्क में शरणार्थी बन गये। आज तीन पीढ़ियों के बाद भी वे जख्म नासूर बने हुए हैं क्योंकि इस देश ने अपने इतिहास से न सीखने की कसम जो खा रखी है। इसमें कुछ दोष उन बौद्धिक जमातियों का भी है जिन्होंने स्वतंत्र भारत में शिक्षा और बौद्धिक क्षेत्र को अनैतिक रूप से अधिग्रहीत कर लिया था।
अतः आधुनिक इतिहास का प्रणयन ही भ्रम और कपट के आधार पर हुआ। इसलिए भावी पीढ़ियां भ्रमित रहीं और अब तक हैं। किन्तु जैसा कि तथागत बुद्ध कहते हैं, ‘सत्य स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ है। फिर सत्य के स्वयं को प्रकट करने के अपने ही मार्ग हैं, अनूठे मार्ग हैं। तुम बस शांति रखो, धैर्य रखो, ध्यान करो और सब सहो । यह सहना साधना है। श्रद्धा न खोओ, श्रद्धा को इस अग्नि से भी गुजरने दो। श्रद्धा और निखरकर प्रकट होगी। सत्य सदा ही जीतता है।’ इसी अनुरूप विभाजन कालीन भारतीय इतिहास के सत्य के प्रकटीकरण का माध्यम बने हैं विख्यात चिंतक श्री कृष्णानन्द सागर ।
लेखक बौद्धिक जगत में सुपरिचित हैं। उनका अपना प्रशंसनीय आभामंडल है। कृष्णानन्द सागर सुरुचि साहित्य, दिल्ली (1970), संघ अभिलेखागार दीनदयाल शोध संस्थान, दिल्ली (1982), जागृति प्रकाशन, नोएडा (1985) एवं वैचारिक मंच ‘चिन्तना’ (1993) के संस्थापक होने के साथ ही बाबा साहब आप्टे स्मारक समिति, दिल्ली के उपाध्यक्ष है।
भारतीय इतिहास एवं संस्कृति संबंधी विषयों के विशेषज्ञ के रूप में उन्होंने कई पुस्तकों का संपादन एवं लेखन किया है। वे पाञ्चजन्य, आर्गेनाइजर, इतिहास दिवाकर, चाणक्य वार्ता, राष्ट्र धर्म आदि विभिन्न राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेखन करते रहे हैं। हिंदी, पंजाबी, संस्कृत तथा अंग्रेजी भाषा पर उनका समान अधिकार है। उन्हें विभिन्न समाचार चैनलों पर होने वाली समसामयिक चर्चाओं में सहभागिता करते हुए देखा जा सकता है।
इसी अनुरूप कृष्णानन्द जी द्वारा लिखित आलोच्य पुस्तक – माला ‘विभाजनकालीन भारत के साक्षी’ कई सन्दर्भों में विशिष्ट है। यह विगत दो दशकों से अधिक के लेखकीय परिश्रम का प्रतिफल है। 1994 में भारतीय इतिहास संकलन योजना के अध्यक्ष ठाकुर राम सिंह द्वारा लेखक कृष्णानन्द सागर को इस कार्य का प्रस्ताव दिया गया। उनके द्वारा इस दुरूह कार्य में अपनी असमर्थता व्यक्त करने के बाद वर्ष 2002 में रामसिंह जी ने फिर से कृष्णानंद जी को बुलाकर वास्तविक राष्ट्रीय इतिहास के लुप्त होने का अंदेशा जताते हुए सत्य को प्रकट करने हेतु इस कार्य को पूरा करने का वचन लिया । तद्गुरूप अगले 20 वर्ष तक कृष्णानंद जी के अथक परिश्रम द्वारा इस ग्रंथ – माला का प्रणयन हुआ ।
खंड-एक के पहले अनुभाग में विभाजन की त्रासदी का ऐतिहासिक नग्न सत्य उकेरा गया है, जहां जलियांवाला बाग नरसंहार से लेकर पाकिस्तान की मांग और विभाजन के बाद संविधान सभा तक की घटनाओं का क्रमवार विवरण है। अनुभाग-दो से मुस्लिम समुदाय द्वारा की गयी रक्त पिपासु बर्बर हिंसा के कुल 350 भुक्तभोगियों के साक्षात्कार एवं भेंटवार्ताएं खंड-चार तक क्रमशः दी गयी हैं
तथ्यों का संकलन करते हुए उनके लिए भी यह कठिन था कि वे साक्षात्कार के दौरान अविश्वसनीय, अतिरेकपूर्ण और अपुष्ट घटनाओं के विवरण से बचते हुए प्रामाणिक ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत करें। अतः लगभग 500 से अधिक साक्षात्कारों के बाद उन्होंने ऐसे 350 व्यक्तियों की आपबीती को अपने ग्रंथ में स्थान दिया है जो लेखकीय कसौटी के अनुकूल रहे थे। प्रामाणिकता से इतने सारे लोगों की आपबीती को कलमबद्ध करने के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं।
पुस्तक चार खंडों में है। प्रत्येक भाग अन्य खंडों से स्वतंत्र है। लेकिन इन सभी खंडों के मध्य निरंतरता बनी रहती है। प्रत्येक खंड में औसतन पौने पांच सौ पेज हैं। हर भाग की प्रस्तावना पृथक विद्वान ने लिखी है। चारों खंडों के प्रस्तावक क्रमशः श्रीराम आरावकर (महामंत्री, विद्या भारती), प्रो. सुरेश्वर शर्मा (पूर्व कुलपति रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर), दीनानाथ बत्रा (अध्यक्ष, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नई दिल्ली) एवं ब्रिगेडियर राजबहादुर शर्मा (राष्ट्रीय प्रधान, सांस्कृतिक गौरव संस्थान, सदस्य, इंडियन नेशनल कमीशन फार को-आपरेशन विद यूनेस्को) हैं। प्रत्येक प्रस्तावना विषय के संदर्भ और संदर्श को गति देती है।
यह ग्रंथमाला बहुआयामी है। जैसे, कहीं आजाद हिंद फौज के संघर्षों की यात्रा के विवरण हैं तो कहीं राष्ट्रीय क्रांतिकारी आंदोलन की झलक है। खंड-एक के पहले अनुभाग में विभाजन की त्रासदी के ऐतिहासिक नग्न सत्य को उकेरा गया है, जहां जलियांवाला बाग नरसंहार से लेकर पाकिस्तान की मांग और विभाजन के बाद संविधान सभा तक की घटनाओं का क्रमवार विवरण है। तत्पश्चात अनुभाग-दो से मुस्लिम समुदाय द्वारा की गई रक्त पिपासु बर्बर हिंसा के कुल 350 भुक्तभोगियों के साक्षात्कार एवं भेंटवाताएँ खंड – चार तक क्रमशः दी गई। तीसरे भाग में लेखक द्वारा विभाजन से सम्बंधित महापुरुषों को अखंड भारत के पुरोधा, हिंदू रक्षा के योजनाकार, विभाजन कालीन हिंदू समाज का रक्षक नेतृत्व और विभाजनकालीन योद्धाओं की चित्रमाला द्वारा चित्रकथात्मक रूप में प्रदर्शित किया गया है।
उक्त ग्रंथमाला विभाजनकालीन इतिहास के कई नये तथ्यों से अवगत कराते हुए कुछ भ्रामक धारणाओं का खंडन करती है। यह तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व की कायरता, संघ के स्वयंसेवकों के जुझारू और निष्ठावान रवैये का प्रामाणिक विवरण है। इस ग्रन्थमाला से पाठक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों और आत्मबलिदान को समझ पाएंगे। वे जानेंगे कि कैसे विभाजनकालीन राजनीति से दूर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिन्दू समाज की रक्षार्थ अपना सर्वस्व झोंक दिया। यह पुस्तक ‘संघ ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय क्या योगदान दिया’ जैसे प्रश्न का परोक्ष उत्तर देगी। संघ के स्वयंसेवकों का अतुलनीय बलिदान आपको गौरवान्वित करेगा ।
किताब में वर्णित इस्लामिक आक्रांताओं एवं मजहबी भेड़ियों द्वारा हिन्दू समाज की संपत्तियों की लूट -आगजनी, पुरुषों, महिलाओं, बुजुर्गों, बच्चों की निर्मम हत्याओं, महिलाओं से बर्बर बलात्कार, अपहरण की आपबीती पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाएंगे। कई पीड़ितों के अनुभव तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों की भयावहता से परिचित कराएंगे तो कुछ साक्षात्कार मजहबी उन्माद एवं नृशंसता के नग्न यथार्थ बताएंगे। ऐसे विभिन्न रूपों में यह ऐतिहासिक दस्तावेज आपका भ्रम तोड़ेगा, आपको झकझोरेगा, आपको आंदोलित करेगा और अंततः आपकी ऐतिहासिक और भविष्य की दृष्टि को दिशा प्रदान करेगा।
एक मजहबी जमात का यथार्थ प्रकट करती यह ग्रंथमाला कोई सांप्रदायिक लेखन नहीं है और ना ही किसी हिंदू या मुसलमान के लिए है बल्कि यह उन इंसानों के लिए है जिनमें मानवीयता का जरा सा भी अंश बचा है। इतिहासकार जब अतीत का मूल्यांकन करता है तो उसका निर्णय मूल्य संपृक्त नैतिक न्याय बन जाता है
एक मजहबी जमात का यथार्थ प्रकट करती यह ग्रंथमाला कोई सांप्रदायिक लेखन नहीं है और ना ही किसी हिंदू या मुसलमान के लिए है बल्कि यह इंसानों के लिए जिनमें मानवीयता का जरा सा भी अंश बचा है। इतिहासकार जब अतीत का मूल्यांकन करता है तो उसका निर्णय मूल्य संपृक्त नैतिक न्याय बन जाता है। लेखक अपने न्याय निर्णयन में धार्मिक-जातीय पूर्वाग्रह से पूर्णतः मुक्त रहे हैं। उन्होंने निरपेक्ष भाव से मुस्लिम समाज के उस वर्ग का भी विवरण दिया है जिसमें मजहबी पूर्वाग्रह से अधिक मानवीयता का अंश है, जिसमें भातृत्व – भाव का अंश है, जिनमें ‘ईमान’ की तासीर जिन्दा है और जो अपनी पंथीय कट्टरता से स्वयं को बचाने में सफल रहे।
जैसा कि कृष्णानंद जी ‘लेखकीय’ भाग में लिखते हैं, ‘यह ग्रंथ आज की मुस्लिम युवा पीढ़ी के लिए भी बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। उन्हें इससे पता चलेगा कि उनके पूर्वजों ने देश के विभाजन के समय कितने घिनौने और बर्बर कृत्य किए थे। उन दुष्कृत्यों की ही प्रतिक्रियास्वरूप लाखों मुसलमानों को भी अपने प्राण गंवाने पड़े थे। इस ग्रंथ के वाचन से उन्हें यह प्रेरणा मिलेगी कि भावी सुखी व शान्तिमय जीवन के लिए उस समय के मुसलमानों द्वारा किये गये घिनौने कृत्यों की निन्दा करते हुए उन्हें पूर्णतया त्याग दिया जाए, उनकी गलतियों को दोहराया न जाए । ‘
भारत दुनिया में पांथिक आधार पर विभाजित होने वाला एकमात्र राष्ट्र है अतः इससे सम्बंधित दस्तावेज के रूप में उक्त ग्रंथमाला को विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में होना चाहिए ताकि भारत का आम जनमानस यह जान सके कि उसने ब्रिटिश शासन के अंत और सत्ता हस्तान्तरण की क्या कीमत चुकाई है ? ऐसा इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि यह ग्रंथमाला बताती है कि भारत की धार्मिक और राष्ट्रीय सुषुप्तता उसके भविष्य को पुनः किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर सकती है? इसे पढ़ते हुए हर भारतीय विभाजन के अग्नि कुंड के ताप को महसूस करेगा।
इतिहास की दृष्टि से ही नहीं बल्कि भविष्य के नजरिये से पढ़ने की जरूरत है। जैसे कि पुस्तक की प्रस्तावना में श्रीराम आरावकर विद्या भारती) लिखते हैं, ‘इतिहास को भुलाने का दुष्परिणाम समाज को कालांतर में अवश्य ही भुगतना पड़ता है। भारत विभाजन की त्रासदी व उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हुए विस्थापन की भीषण आपदा पर रचित यह ग्रंथ हम सभी को यह बताने में सक्षम है कि भविष्य में किसी भी कीमत पर इस प्रकार की दुर्घटना को हम पुनः कभी भी नहीं होने दें। ‘
विभाजन के अग्नि कुंड से निकली यह ग्रंथमाला विभाजन की त्रासदी का जीवंत, प्रामाणिक दस्तावेज है, इतना ही कहना पर्याप्त नहीं है। यह कृष्णानन्द सागर की आपबीती भी है। यह निस्सार मजहबी उन्माद से उत्पन्न पीड़ा का अभिलेखकीय प्रमाण है। यह वह वेदना है जिसे लेखक आज भी स्वयं जी रहे हैं क्योंकि वह स्वयं इस अग्नि कुंड से निकले हैं। वह इसमें डाली गयी समिधा और उठने वाली लपटों व धुएं के प्रत्यक्षदर्शी रहे। इसलिए इसे विभाजन के प्रामाणिक इतिहास का प्राथमिक स्रोत कहना चाहिए ।
कृष्णानन्द सागर मूलत: अविभाजित भारत के मुस्लिम बहुल क्षेत्र स्यालकोट के रहने वाले हैं। विभाजन के समय उनका परिवार लाहौर के कसूर में रह रहा था। वे स्वयं अपनी जमीन से बलात् उजाड़े गये शरणार्थी समूह का हिस्सा रहे हैं। वे उस साझे दर्द के भोक्ता हैं। लेकिन यह दुःख तब और बढ़ जाता है जब मजहबी हिंसा के शिकार शरणार्थियों के साथ बौद्धिक अन्याय भी किया जाता है, जहां उनकी पीड़ा को लघुतर एवं भ्रामक रूप में प्रदर्शित किया गया है। कृष्णानन्द जी प्राक्कथन में स्वयं स्वीकार करते हैं, मैं स्वयं विभाजन काल का साक्षी हूं। मेरे जैसे अनेक उस काल के भुक्तभोगी लोग वर्षों से यह महसूस कर रहे थे कि विभाजन काल का इतिहास अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं लिखा गया।’
लेखक अपनी पीड़ा के भाव को यूं व्यक्त करते हैं,
सोचता हूं,
हम एक रात के लिए
घर से निकले थे
आज तीन पीढ़ियां बीत गयीं
लेकिन वह एक रात समाप्त नहीं हुई
वह रात
कब समाप्त होगी
और हम कब घर वापस पहुंचेंगे?
इसका उत्तर
क्या कोई देगा?
यह पुस्तक-माला किसी चयनित समाज या वर्ग के लिए नहीं है। इसे भारत के हर नागरिक वर्ग विशेषकर युवाओं को अवश्य पढ़ना चाहिए। चूंकि भारत दुनिया में पांथिक आधार पर विभाजित होने वाला एकमात्र राष्ट्र है अतः इससे सम्बंधित दस्तावेज के रूप में उक्त ग्रंथमाला को विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में होना चाहिए ताकि भारत का आम जनमानस यह जान सके कि उसने ब्रिटिश शासन के अंत और सत्ता हस्तान्तरण की क्या कीमत चुकाई है? ऐसा इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि यह ग्रंथमाला बताती है कि भारत की धार्मिक और राष्ट्रीय सुषुप्तता उसके भविष्य को पुनः किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर सकती है? इसे पढ़ते हुए हर भारतीय विभाजन के अग्नि कुंड के ताप को महसूस करेगा।
अंततः, इतिहास वही होता है जो भविष्य का बोध कराये। अगस्त माह यदि ब्रिटिश सत्ता की समाप्ति के सुख का प्रतीक है तो साथ ही यह विभाजन की वेदना की याद भी दिलाता है। सुख और वेदना के इस सन्धिकाल एवं विभाजन की विभीषिका की बरसी पर इस ऐतिहासिक से बेहतर राष्ट्रीय विमर्श नहीं हो सकता। इसे पढ़िए, इतिहास को समझिए और अपनी भविष्य दृष्टि का निर्माण कीजिए। क्योंकि यदि हास को नहीं समझेंगे तो यकीन मानिये, इतिहास आपको नहीं समझेगा और यदि इतिहास ने आपको नहीं समझा, स्वीकार नहीं किया तो आप इतिहास के किसी कोने में दफन हो जाएंगे।
पुस्तक : ‘विभाजनकालीन भारत के साक्षी’
पुस्तक( चार खंडों में )
लेखक कृष्णानंद सागर
मूल्य 3000 रुपये (सम्पूर्ण खंड ) 750 रुपये (प्रत्येक खंड )
कुल पृष्ठ 1905 (चारों खंड मिलाकर)
प्रकाशक : जगृति प्रकाशन
स्वतंत्रता का उत्सव मनाने वाले हिंदुओं ये सच्चाई भी जान लो
अम्बेडकर ने कहा था, मुसलमानों की निष्ठा जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती
दलित समाज जिन अम्बेड़कर जी को मानता है, वे स्वयं मुस्लिम कट्टरता और मुस्लिम धर्म ग्रन्थों के बहुत विरोध में थे। डॉ. अम्बेडकर किसी के मुस्लिम हो जाने पर मात्र मतपरिवर्तन नहीं मानते थे बल्कि वे इसे संस्कृति और सभ्यता परिवर्तन भी मानते थे। उनका कथन था कि विदेशी मत को अपनाने से व्यक्ति अपनी राष्ट्रीयता को नष्ट कर देता है और जिस विदेशी मत को उसने ग्रहण किया है उसी देश की राष्ट्रीयता का अनुयायी बन जाता है। यहीं कारण है कि डॉ. अम्बेडकर जी ने मतान्तरण में किसी विदेशी मुस्लिम और ईसाई मत न ग्रहण करके मात्र बौद्धमत अपनाया था।
ड़ॉ. अम्बेड़कर इस्लाम तुष्टिकरण के भी खिलाफ थे, उन्होनें कांग्रेस आदि के मुस्लिम तुष्टिकरण से अनेकों बार असंन्तुष्टि दर्शाई है किन्तु उनके आजकल के अनुयायी स्वयं मुस्लिम तुष्टिकरण के पक्ष में है। ड़ॉ. अम्बेड़कर नें तुष्टिकरण पर कुछ प्रश्न किये थे जो आज भी प्रासंगिक है –
क्या हिन्दू – मुस्लिम एकता ही एकमात्र भारत की राजनीतिक अभियोत्थान हेतु आवश्यक थी?
क्या हिन्दू – मुस्लिम एकता तुष्टीकरण या समझौते के माध्यम से प्राप्त की जा सकती थी।
यदि एकता तुष्टिकरण से प्राप्त की जाती, वे कौन सी नई सुविधाएं हैं जो मुस्लिमों को दी जानी चाहिए।
यदि समझौता विकल्प है तो समझौते की शर्त हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का विभाजन है अथवा दो संविधान और सभाओं और सेवाओं में 50% भागेदारी?
क्या दोनों सम्प्रदायों का एक मान्य संविधान हो सकता है?
बगैर भौगोलिक एकता के हमेशा सीमा विवाद रहेंगे?
क्या शान्ति से विभाजन नहीं हो सकता था?
इस प्रकार कई प्रश्न थे जो मुस्लिम तुष्टिकरण के सख्त विरोध में दृष्टिगोचर होते है। इन्हीं सब कथनों को लेते हुए, उन्होनें एक पुस्तक Thoughts on Pakistan लिखी थी, इसी पुस्तक का द्वितीय संस्करण Pakistan or Partition of India नाम से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में डॉ. अम्बेड़कर के जो इस्लाम पर मन्तव्य थे, वे प्रत्येक हिन्दू और नवबौद्ध को अवश्य पढ़नें चाहिए –
१. हिन्दू काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं-”मुसलमानों के लिए हिन्दू काफ़िर हैं, और एक काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं है। वह निम्न कुल में जन्मा होता है, और उसकी कोई सामाजिक स्थिति नहीं होती। इसलिए जिस देश में क़ाफिरों का शासनहो, वह मुसलमानों के लिए दार-उल-हर्ब है ऐसी सति में यह साबित करने के लिए और सबूत देने की आवश्यकता नहीं है कि मुसलमान हिन्दू सरकार के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे।” (पृ. ३०४)
२. मुस्लिम भ्रातृभाव केवल मुसलमानों के लिए-”इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा ओर शत्रुता ही है।
३. एक साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय मुसलमान में अन्तर देख पाना मुश्किल-”लीग को बनाने वाले साम्प्रदायिक मुसलमानों और राष्ट्रवादी मुसलमानों के अन्तर को समझना कठिन है। यह अत्यन्त संदिग्ध है कि राष्ट्रवादी मुसलमान किसी वास्तविक जातीय भावना, लक्ष्य तथा नीति से कांग्रेस के साथ रहते हैं, जिसके फलस्वरूप वे मुस्लिम लीग् से पृथक पहचाने जाते हैं। यह कहा जाता है कि वास्तव में अधिकांश कांग्रेसजनों की धारण है कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, और कांग्रेस के अन्दर राष्ट्रवादी मुसलमानों की स्थिति साम्प्रदायिक मुसलमानों की सेना की एक चौकी की तरह है। यह धारणा असत्य प्रतीत नहीं होती। जब कोई व्यक्ति इस बात को याद करता है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के नेता स्वर्गीय डॉ. अंसारी ने साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध करने से इंकार किया था, यद्यपिकांग्रेस और राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा पारित प्रस्ताव का घोर विरोध होने पर भी मुसलमानों को पृथक निर्वाचन उपलब्ध हुआ।” (पृ. ४१४-४१५)
४. भारत में इस्लाम के बीज मुस्लिम आक्रांताओं ने बोए-”मुस्लिम आक्रांता निस्संदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परन्तु वे घृणा का वह गीत गाकर और मार्ग में कुछ मंदिरों को आग लगा कर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो यह वरदान माना जाता। वे ऐसे नकारात्मक परिणाम मात्र से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस्लाम का पौधा लगाते हुए एक सकारात्मक कार्य भी किया। इस पौधे का विकास भी उल्लेखनीय है। यह ग्रीष्म में रोपा गया कोई पौधा नहीं है। यह तो ओक (बांज) वृक्ष की तरह विशाल और सुदृढ़ है। उत्तरी भारत में इसका सर्वाधिक सघन विकास हुआ है। एक के बाद हुए दूसरे हमले ने इसे अन्यत्र कहीं को भी अपेक्षा अपनी ‘गाद’ से अधिक भरा है और उन्होंने निष्ठावान मालियों के तुल्य इसमें पानी देने का कार्य किया है। उत्तरी भारत में इसका विकास इतना सघन है कि हिन्दू और बौद्ध अवशेष झाड़ियों के समान होकर रह गए हैं; यहाँ तक कि सिखों की कुल्हाड़ी भी इस ओक (बांज) वृक्ष को काट कर नहीं गिरा सकी।” (पृ. ४९)
५. मुसलमानों की राजनीतिक दाँव-पेंच में गुंडागर्दी-”तीसरी बात, मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाया जाना है। दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागिर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है।” (पृ. २६७)
६. हत्यारे धार्मिक शहीद-”महत्व की बात यह है कि धर्मांध मुसलमानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गई। मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का, जिन्होंने यह कत्ल किये। जहाँ कानून लागू किया जा सका, वहाँ हत्यारों को कानून के अनुसार सज़ा मिली; तथापि प्रमुख मुसलमानों ने इन अपराधियों की कभी निंदा नहीं की। इसके वपिरीत उन्हें ‘गाजी’ बताकर उनका स्वागत किया गया और उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन शुरू कर दिए गए। इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है लाहौर के बैरिस्टर मि. बरकत अली का, जिसने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथूराम की हत्या का दोषी नहीं है, क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलमानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है, परन्तु जो बात समझ में नहीं आती, वह है श्री गांधी का दृष्टिकोण।”(पृ. १४७-१४८)
७. हिन्दू और मुसलमान दो विभिन्न प्रजातियां-”आध्याम्कि दृष्टि से हिन्दू और मुसलमान केवल ऐसे दो वर्ग या सम्प्रदाय नहीं हैं जैसे प्रोटेस्टेंट्स और कैथोलिक या शैव और वैष्णव, बल्कि वे तो दो अलग-अलग प्रजातियां हैं।” (पृ. १८५)
८. हिन्दू-मुस्लिम एकता असफल क्यों रही ?-”हिन्दू-मुस्लिम एकता की विफलता का मुखय कारण इस अहसास का न होना है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो भिन्नताएं हैं, वे मात्र भिन्नताएं ही नहीं हैं, और उनके बीच मनमुटाव की भावना सिर्फ भौतिक कारणों से ही नहीं हैं इस विभिन्नता का स्रोत ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दुर्भावना है, और राजनीतिक दुर्भावना तो मात्र प्रतिबिंब है। ये सारी बातें असंतोष का दरिया बना लेती हैं जिसका पोषण उन तमाम बातों से होता है जो बढ़ते-बढ़ते सामान्य धाराओं को आप्लावित करता चला जाता हैं दूसरे स्रोत से पानी की कोई भी धारा, चाहे वह कितनी भी पवित्र क्यों न हो, जब स्वयं उसमें आ मिलती है तो उसका रंग बदलने के बजाय वह स्वयं उस जैसी हो जाती हैं दुर्भावना का यह अवसाद, जो धारा में जमा हो गया हैं, अब बहुत पक्का और गहरा बन गया है। जब तक ये दुर्भावनाएं विद्यमान रहती है।
लेखक का नाम – डॉ. बी. आर. आंबेड़कर
पूरात्वविद् साहित्यकार रमेश वारिद को श्रद्धांजलि
15 अगस्त का दिन भारत के विभाजन का लाखों बेगुनाह हिंदुओं के कत्लेआम का दिन है
1947 में भारत के विभाजन के दौरान हुए सांप्रदायिक दंगों में मारे गए हिंदुओं की संख्या का अनुमान 200,000 से 1 मिलियन के बीच है।
भारत के विभाजन के साथ, पाकिस्तान के दो हिस्सों का निर्माण हुआ: पश्चिमी पाकिस्तान (जो आज का पाकिस्तान है) और पूर्वी पाकिस्तान (जो अब बांग्लादेश है)। विभाजन के परिणामस्वरूप, भारत का लगभग 23% भूभाग पाकिस्तान को चला गया।
इस भूभाग में पंजाब, बंगाल, सिंध, बलूचिस्तान, और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत के हिस्से शामिल थे। विभाजन के साथ ही, लगभग 14 मिलियन लोग अपने घरों से विस्थापित हो गए थे, जो विश्व इतिहास का सबसे बड़ा जनसंहार माना जाता है।
1947 में ब्रिटिश भारत का विभाजन कई जटिल कारणों का परिणाम था, जिसमें राजनीतिक, धार्मिक, और सांप्रदायिक तनाव शामिल थे। इन सब में मुहम्मद अली जिन्ना की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण थी। जिन्ना ने अपने प्रारंभिक करियर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ सहयोग किया था, और वे भारत के हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच एकता के पक्षधर थे। लेकिन समय के साथ, जिन्ना की सोच में बदलाव आया, और वे मुसलमानों के अधिकारों के लिए एक अलग राज्य की वकालत करने लगे।
विभाजन का प्रमुख कारण ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ था, जिसे जिन्ना ने जोर-शोर से आगे बढ़ाया। यह सिद्धांत इस विचार पर आधारित था कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, जो एक ही राजनीतिक ढांचे के अंतर्गत नहीं रह सकते। इस सिद्धांत का प्रमुख आधार धार्मिक विभाजन था, और इसका परिणाम एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र, पाकिस्तान के निर्माण में हुआ।
जिन्ना की भूमिका को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि वे कैसे और क्यों कांग्रेस से अलग हुए और मुस्लिम लीग के प्रमुख नेता बने। 1930 और 1940 के दशक में, जब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन गति पकड़ रहा था, जिन्ना ने महसूस किया कि कांग्रेस पार्टी के भीतर मुस्लिमों की आवाज़ को पर्याप्त महत्व नहीं मिल रहा था। इसके अलावा, 1937 के प्रांतीय चुनावों के बाद, जिन्ना को विश्वास हो गया कि मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक अलग राष्ट्र की आवश्यकता है।
1940 में लाहौर प्रस्ताव के दौरान, जिन्ना ने पहली बार सार्वजनिक रूप से पाकिस्तान की मांग की। इसके बाद मुस्लिम लीग ने यह साफ कर दिया कि वह एक अलग मुस्लिम राज्य के बिना किसी अन्य समाधान को स्वीकार नहीं करेगी।
ब्रिटिश सरकार भी, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की कमजोर स्थिति और भारत में बढ़ते राजनीतिक असंतोष के कारण, जल्दी से सत्ता हस्तांतरण करने के लिए तैयार थी। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए जिन्ना ने विभाजन की अपनी मांग को मजबूती से पेश किया।
बांग्लादेश की सियासी उथल-पुथल से भारतीय उपमहाद्वीप पर मंडरा रहा है खतरा
अवामी लीग और बांग्ला मतदाताओं के बीच एक अनकहा समझौता यह था कि सरकार दमनकारी होगी लेकिन वह समृद्धि लाएगी। बहुत कम सरकारें ऐसा समझौता निभा सकी हैं।
बांग्लादेश के हालिया घटनाक्रम का असर भारतीय उपमहाद्वीप के बाकी हिस्सों पर पड़ना लाजिमी है। दुनिया में आठवीं सर्वाधिक आबादी वाले देश में आने वाले दिनों में क्या कुछ घटित होगा, यह कई टीकाकारों की रुचि का विषय रहने वाला है। बांग्लादेश की पिछली सरकार अधिनायकवादी थी। इस अपदस्थ सरकार ने विपक्ष के नेताओं को जेल में डालने के बाद बेहद खामियों से भरा चुनाव जीता। उसने विपक्ष के देश के संविधान को भी ताक पर रख दिया, जिसमें निष्पक्ष अंतरिम सरकार द्वारा राष्ट्रीय चुनाव कराने की बात कही गई है। बीते कुछ सप्ताह में बहुत अधिक खूनखराबा हुआ जब सरकार ने सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों का दमन करने का प्रयास किया।
परंतु यह दावा भी गलत होगा कि सरकार पूरी तरह नाकाम रही। उसने एक वृहद और स्थिर माहौल मुहैया कराया तथा कई वर्षों तक देश को मजबूत वृद्धि प्रदान की। निश्चित तौर पर उसने इतनी मजबूत वृद्धि प्रदान की कि इस गरीब मुल्क में आर्थिक चमत्कार ही हो गया। यह सरकार पूरी तरह अलोकतांत्रिक भी नहीं थी क्योंकि उसने अल्पसंख्यकों के बचाव के उपाय भी किए।
अवामी लीग और बांग्ला मतदाताओं के बीच एक अनकहा समझौता यह था कि सरकार दमनकारी होगी लेकिन वह समृद्धि लाएगी। बहुत कम सरकारें ऐसा समझौता निभा सकी हैं। पूर्वी यूरोप, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के मानचित्रों को गौर से देखिए, जहां अधिनायकवादी शासन रहे हैं। उनमें से कई देश संसाधनों से भरे हैं मगर वहां वृद्धि नहीं हुई, केवल दमन हुआ।
बीते 80 साल में पूर्वी एशिया की चुनिंदा अलोकतांत्रिक अर्थव्यवस्थाएं ही वृद्धि दे पाने में सफल रही हैं। भारत के उत्तरी पड़ोसी और वियतनाम के अलावा अधिकतर देश आगे चलकर पूरी तरह लोकतांत्रिक देश बन गए। पश्चिम एशिया के संसाधन समृद्ध देशों में भी संपन्नता आई, लेकिन वहां वृद्धि असमान बनी रही।
यह बात हमें राजनीति विज्ञान की सबसे आम भ्रांतियों में से एक की ओर ले आती है जो कहती है: लोकतंत्र अक्सर विकास के विरुद्ध होता है। परंतु यह सही नहीं है। अधिनायकवादी शासन उस स्थिति में वृद्धि प्रदान कर सकता है जब शासक समझदार हो। परंतु वास्तव में बहुत कम अधिनायकवादी शासन ही समृद्धि प्रदान कर पाते हैं। लोकतांत्रिक देशों का प्रदर्शन कहीं बेहतर है। दुनिया के सबसे अमीर देश लोकतांत्रिक हैं।
यह भ्रांति ऊपर दिए गए चुनिंदा उदाहरणों से उत्पन्न होती है लेकिन दमनकारी शासन के वृद्धि विरोधी होने के कई उदाहरणों की उपेक्षा कर दी जाती है। इस भ्रम की एक और वजह यह है कि दमनकारी शासनों के साथ सौदेबाजी आसान होती है। खास तौर पर कंपनियों और सरकारों के लिए भी। वहां किसी एक मजबूत शख्सियत को रिश्वत देकर काम कराना आसान होता है और ढेर सारे राजनेताओं को मनाने से बेहतर होता है एक व्यक्ति को मनाकर उससे अपने अनुकूल काम कराना। ऐसे में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास अधिनायकवादी शासन का समर्थन करने और ऐसी भ्रांति को बढ़ावा देने की वजह होती है।
अगर हम इतिहास को खंगालें तो यही कहानी नजर आती है। पहले के दौर के राजशाही वाले देशों की तुलना वर्तमान अधिनायकवादी शासन से की जा सकती है। राजशाही के दौर में टिकाऊ वृद्धि वाले राज्य गिने-चुने ही थे। अगर किसी राजवंश का एक सदस्य प्रजा की स्थिति बेहतर करता था तो आगे आने वाले शासक सब कुछ बिगाड़ दिया करते थे।
जागरण और औद्योगिक क्रांति उन स्थानों पर घटित हुए जो अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक थे। उत्पादकता और समृद्धि में अधिकतर वृद्धि उन्हीं देशों में देखने को मिली। सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण जापान है। जापान के सम्राट 1868 में देश के संवैधानिक प्रमुख बने और जापान के औद्योगीकरण ने गति पकड़ ली। यूरोप में भी ऐसा ही हुआ। पश्चिम और उत्तरी यूरोप के कई देश राजशाही वाले बने रहे किंतु अन्य देशों ने जल्द ही लोकतांत्रिक मॉडल अपना लिया। अमेरिका में अभूतपूर्व स्तर पर नवाचार और औद्योगीकरण देखने को मिला।
बांग्लादेश पर नजर रखने वाले देशों के लिए एक चिंता यह भी है कि अलोकतांत्रिक सरकारों का स्थान अक्सर ऐसी सरकारें ले लेती हैं जो उनसे भी बुरी होती हैं या फिर गृह युद्ध जैसे हालात बन जाते हैं। भूतपूर्व सोवियत गणराज्य के अलावा हम ईरान, लीबिया, मिस्र और अन्य देशों के उदाहरण देख सकते हैं।
बांग्लादेश से एक सीख यह भी मिलती है कि अक्सर केवल समृद्धि से दमित आबादी को खुश नहीं रखा जा सकता है। अगर वृद्धि में मामूली गिरावट भी आती है तो असंतुष्ट जनता सड़कों पर उतर आती है क्योंकि मतदान का विकल्प उपलब्ध नहीं होता। चीन तक में विरोध प्रदर्शन देखने को मिले। इनमें सबसे बड़ा प्रदर्शन 1989 में हुआ था।
दक्षिण कोरिया और ताइवान में लोकतांत्रिक बदलाव बिना किन्हीं खास झटकों के आया। अन्य देशों मसलन इंडोनेशिया, फिलिपींस तथा थाईलैंड में लोकतंत्र की ओर बदलाव की प्रक्रिया उतनी सहज नहीं रही।
यहां भारत के लिए भी सबक हैं क्योंकि हमारे देश में कुछ संकेतकों के मुताबिक वृद्धि तो हो रही है किंतु यह कुछ क्षेत्रों में ही हो रही है और बाकी क्षेत्र गिरावट के शिकार हो रहे हैं। इससे आर्थिक असमानता भी बढ़ रही है।
ओड़िशा केंद्रीय विश्वविद्यालय ने कुंडुली हाट में अंतर्राष्ट्रीय स्वदेशी दिवस मनाया।
बांग्लादेश में हिंदुओं का उत्पीड़न हिटलर के यातना शिविरों से अधिक भयावह है
बंगलादेश (पूर्वी बंगाल) में हिन्दुओं का सामूहिक, पर धीमा सफाया तब से चल रहा है जब बराक ओबामा स्कूल में पढ़ते थे। ईरान में शाह का सेक्यूलर शासन था । भारत में इंदिरा गाँधी का दबदबा था। अमेरिका वियतनाम युद्ध लड़ रहा था। सोवियत यूनियन में लियोनिद ब्रेझनेव की सत्ता थी । कोई इंटरनेट या मोबाइल फोन नहीं था । सो, इतने लंबे समय से पूरी दुनिया बंगलादेश के हिन्दुओं का क्रमशः खत्मा होने दे रही है। कानूनी और गैर-कानूनी दोनों तरीकों से खात्मा हो रहा है। इस पर एक ऊँगली तक नहीं उठाई गई। उलटे बंगलादेश को एक गरीब, छोटा देश मानकर उसे तरह-तरह की सहायता दी जाती रही है। सहायता देने वालों में भारत भी है।
पूर्वी बंगाल फिर बंगलादेश में हिन्दू संहार की प्रक्रिया पूरी तरह छिपी हुई कभी नहीं रही थी। जैसे कि हिटलरी नाजीवाद की गतिविधियाँ भी पूरी तरह छिपी नहीं थीं। 1922 ई. से ही हिटलर ने कहना शुरू किया था कि सत्ता मिलने पर वह यहूदियों का सफाया करेगा। यूरोपीय मीडिया में हिटलर की पर्याप्त रिपोर्टें आ चुकी थीं, जब सभी शासक मौन देखते रहे । बंगलादेश में उस से भी बड़ी भयावह ताकत सक्रिय है, जो बंगलादेश के हिन्दुओं के सफाए के बाद भारत, यूरोप, अमेरिका पर भी नजर गड़ाए हुए है।
उन संगठनों, संस्थाओं, और मतवाद का अध्ययन-परख करने वाला इसे सहज जान सकता है । बंगलादेश के बड़े राजनीतिक दल, जमाते इस्लामी, खलीफत मजलिस, आदि संगठनों की घोषणाओं में भी सारी बातें हैं। वे पूरी धरती पर कुरान व शरीयत का शासन कायम करने, दारुल इस्लाम बनाने के घोषित दावे के साथ चल रहे हैं। उन दावों का उन की गतिविधियों से मिलान करते ही गंभीरता और अब तक की सफलता भी साफ झलकती है। बंगलादेश में इस्लामियों की क्षमता और अब तक के शिकारों की मात्रा देखते हुए यह हिटलरी नाजीवाद से कई गुना भयावह है। इसलिए और भी क्योंकि उन्हें रोकने, चिन्हित करने के बजाए ‘सेक्यूलरिज्म’, और ‘मल्टीकल्चरिज्म’ इस्लामी संगठनों को उलटे एक समर्थन की छाया देता है। इन के विचारों, कामों की जाँच-परख के बजाए उन्हें तरह देने की नीति पूरे लोकतांत्रिक विश्व में है।
सब को अपने ‘रिलीजन का पालन’ करने की स्वतंत्रता की आड़ में इस्लामी राजनीतिक गतिविधियों से आँखें मूँद ली जाती हैं। इस के पीछे के अज्ञान, आरामपसंदगी, व कायरता का इस्लामी संगठन भरपूर दोहन कर रहे हैं। यदि यह प्रक्रिया नहीं रोकी गई, तो यह अंततः निस्संदेह वहीं पहुँचेगी जो तमाम इस्लाम जमातों का दावा है। यह प्रक्रिया हिटलरी नाजीवाद से कई गुणा विशाल, प्रभावी, पर लगभग निःशब्द, ‘अंडर द रडार’ चल रही है। लोकतांत्रिक विश्व अपने ही बनाए भ्रामक शब्दजाल से उन्हें चाहे अनचाहे सहायता दे रहा है।
बंगलादेश में हिटलरी यातना शिविर नहीं हैं, इस से वहाँ हिन्दुओं के लिए भयावहता कम नहीं हो जाती। बल्कि उलटे बढ़ जाती है, क्योंकि उस पर ध्यान ही नहीं जाता। बड़े-बड़े मानवाधिकार संगठन प्रायः बंगलादेश के हिन्दुओं के उत्पीड़न का उल्लेख तक नहीं करते! जबकि बंगलादेश में सरकार, मजहब, और आम मुस्लिम समाज, तीनों मिल कर हिन्दुओं का क्रमशः सफाया कर रहे हैं। कम से कम तीन कानूनी प्रावधान हिन्दुओं के विरुद्ध हैं। हिन्दू अपना धन बाहर नहीं भेज सकते; ‘भेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’; और इस्लाम का स्टेट रिलीजन होना। राजकीय धन, सहायता केवल इस्लामी संस्थानों को मिलती है। हिन्दुओं पर अत्याचार करने वाले इस्लामियों, अपराधियों पर प्रायः कानूनी कार्रवाई नहीं होती।
इस प्रकार, बंगलादेश क्षेत्र में 1951 ई. से निरंतर और बहुमुखी उत्पीड़न से हिन्दुओं की संख्या 33% से घटकर अब 8 % रह गई है। वहाँ की हिन्दू आबादी मर रही है। पूर्ण विनाश की ओर है। यह लफ्फाजी नहीं, बल्कि ऐसा तथ्य है जिसे कितनी भी बार दुहराना कम होगा। तुलना के लिए ध्यान दें कि 1951 ई. में पूरे पाकिस्तान में कुल हिन्दू आबादी 23% थी, जो आज पाकिस्तान में 1% से भी कम रह गई है। दोनों क्षेत्रों में एक ही प्रक्रिया से, एक विशेष समूह खत्म हुआ है। मुख्यतः इसलिए क्योंकि भारत और पश्चिमी विश्व, दोनों ने इसे चुपचाप देखा। किसी ने कुछ नहीं किया।
फलतः अब तक बंगलादेश में 4 करोड़ 90 लाख हिन्दुओं का संहार या जबरन धर्मांतरण हो चुका है। जबकि हिटलर ने 60 लाख यहूदियों का संहार किया था, और स्तालिन ने 2 करोड़ रूसियों का । उन यहूदियों और बंगलादेशी हिन्दुओं की स्थिति में अंतर भी है । बंगलादेश में कोई ‘हिन्दू समस्या’ करके कोई चीज नहीं रही, जैसे जर्मनी में ‘यहूदी समस्या’ करके चर्चा होती थी । यहूदियों को निंदित किया जाता था, जबकि बंगलादेश के नेता खुलकर ‘हिन्दुओं से मुक्त बंगलादेश’ जैसी घोषणाएं नहीं करते; न ही बंगलादेश सरकार हिन्दुओं के खात्मे की योजनाएं चलाती है। नाजी जर्मनी में सारे यहूदियों को एक जैसा घृणित जैसा मानकर चला जाता था।
जबकि बंगलादेश में हिन्दू व्यक्ति सरकार, मीडिया, उद्योग आदि में बड़े पदों पर काम करते भी मिलते हैं। एक अन्य अंतर यहूदियों को हर हाल में खत्म करना था, जिन्हें धर्मांतरित होकर बचने का रास्ता नहीं था । जबकि बंगलादेश में हिन्दू को इस्लाम में धर्मांतरित कराना, उन की लड़कियों का अपहरण कर उन से मुस्लिम बच्चे पैदा कराना भी हिन्दू सफाए की एक तकनीक है। इन सब से क्या ऐसा नहीं लगता कि नाजी जर्मनी में यहूदियों की दुर्गति से बंगलादेश में हिन्दुओं की दुर्दशा की तुलना अनुपयुक्त है?
नहीं, बल्कि यह अंतर ही स्थिति को और भयानक बना देता है। नाजी जर्मनी और इस्लामी बंगलादेश की तुलना में समानता के बिन्दुओं से समान परिणाम का संकेत मिलता है: एक चुने हुए जातीय समूह का विनाश। वस्तुतः नाजीवाद की तुलना में जिहाद कई गुने अधिक मारक साबित होता है । बंगलादेश के हिन्दुओं और नाजी जर्मनी के यहूदियों के उत्पीड़न की तुलना निम्नलिखित समानताएं दिखाती है –
1. नाजीवाद की यहूदी – विरोधी आइडियोलॉजी की तरह इस्लाम की काफिर – विरोधी आइडियोलॉजी के लक्ष्य समान हैं।
2. जैसा 1941-43 में हुआ था, दुनिया के लोग बंगलादेश हिन्दुओं की दुर्दशा से उसी तरह उदासीन हैं जैसे तब यहूदियों के लिए थे।
3. न्यूरेनबर्ग कानूनों की तरह बंगलादेश का ‘भेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’, जो एक समूह को मूल अधिकारों से वंचित करता है। जिन के प्रति बाहरी विश्व निष्क्रिय, निर्विकार
रहा।
4. यहूदी – मुक्त जर्मनी की तरह हिन्दू-मुक्त बंगलादेश की भवितव्यता ।
5. जर्मनी से फैलकर पड़ोसी ऑस्ट्रिया में भी वही गतिविधि शुरू हो जाने जैसे बंगलादेश से फैलकर भारत में वही गतिविधि चलना।
6. हिटलर ने जर्मनी के लिए और ‘रहने की जगह ‘
( लेबेन्सराउम) का दावा किया था, वही दावा भारतीय बंगाल, असम, सीमावर्ती बिहार, आदि क्षेत्रों पर है। गत चार दशकों में भारत की सीमा बिना किसी युद्ध के एक सौ कि. मी. पीछे आ चुकी है । बंगलादेश के मुस्लिमों द्वारा क्रमशः कब्जे द्वारा ।
7. जर्मन होलोकॉस्ट की तरह, कम से कम एक बार, 1971 ई. में बंगलादेश (पूर्वी पाकिस्तान) में बीस-पचीस लाख हिन्दुओं को मार डाला गया था। तब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया और विदेशी राजदूतों ने स्पष्ट पाया था कि मुख्य निशाना मुख्यतः हिन्दू थे।
8. पुलित्जर पुरस्कार विजेता, प्रसिद्ध पत्रकार सिडनी शॉनबर्ग ने 1971 ई. में पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) में न्यूयॉर्क टाइम्स के संवाददाता थे। उन के अनुसार, पाकिस्तानी फोज ने हिन्दुओं को चुन-चुन कर सामूहिक निशाना बनाया। हिन्दू घरों, दुकानों, आदि को पीले रंग से ‘H’ चिन्हित कर दिया जाता था, जैसे जर्मनी में यहूदियों की निशानदेही होती थी। ताकि उन का खात्मा करने का उपाय हो । शॉनबर्ग को लोगों ने बताया कि फौजी गाड़ी आती थी और चिल्लाते हुए पूछती थी, ‘यहाँ कोई हिन्दू है’? जब उत्तर हाँ में मिलता तो उन्हें मार डाला जाता। उस समय के ऐसे विवरण और रिपोर्टें पढ़कर, तथा आज हो रही घटनाओं से मिलान कर कहना असंभव है कि वह प्रक्रिया खत्म हो गई है। ढाका में कुछ वर्ष पहले एक बेकरी पर आइसिस का हमला हू-ब-हू उसी तरह का संहार था जिस में गैर-मुस्लिमों को अलग कर, पहचान कर इसी लिए मार डाला गया।
इस प्रकार, नाजी जर्मनी में यहूदी संहार और बंगलादेश में हिन्दू संहार के दोनों मामलों में पूरी प्रक्रिया तीन कर्तव्य बिन्दु रेखांकित करती है। पहला, शुरू से दिख रहे संकेत पहचानना; दूसरा, अपने सिवा दूसरे लोगों की हालत समझना; और तीसरा, उस पर कुछ करना । हिन्दू लोग उसी तरह नियमित रूप से मारे, बलात्कार किए, और अपने पूर्वजों की भूमि से बेदखल किए जा रहे हैं – और यह बंगलादेश जैसे दुर्बल देश में! जो महत्वपूर्ण देशों का दबाव नहीं झेल सकता! यह सैनिक और आर्थिक दृष्टि से सब से कमजोर देशो में ही गिना जा सकता है। यह कोई ईरान या चीन नहीं है, जिस से उलझने में पश्चिमी देशों को सोचना पड़े।
पर उलटे ‘इस्लामोफोबिया’ की दलील आती है। जिसे महत्व देकर पीड़ितों के बजाए अभियुक्तों को नियमित मंच और प्रचार दिया जाता है। इस प्रकार, जहाँ संहार का कारण इस्लाम है और कर्ता मुस्लिम हैं, वहाँ भी कारण और कर्ता को छूट देने की जिद है। केवल 60 वर्ष में पाकिस्तान और बंगलादेश में हिन्दुओं की आबादी 23% और 33% से गिर कर क्रमशः 1% और 8% (कश्मीर में लगभग 5% से 0 % ) हो जाने का तथ्य भी इस दलील का खोखलापन दिखाता है। यदि कोई देख कर भी अनदेखा करना न चाहे ।
‘इस्लाम और कम्युनिज्मः तीन चेतावनियाँ – बिल वार्नर, रिचर्ड बैंकिन, सोल्झिनित्सिन’
(दिल्ली: अक्षय प्रकाशन, 2022 ). संकलन व अनुवाद – शंकर शरण
(शंकर शरण देश के जाने माने लेखक और इस्लामी मामलों के जानकार हैं)
साभार https://www.nayaindia.