Tuesday, November 26, 2024
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आलोचकों की परवाह न कर अपनी राह चलते हैं प्रधानमंत्री

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में कुछ तो खास है कि वे अपने विरोधियों के निशाने पर ही रहते हैं। इसका खास कारण है कि वे अपनी विचारधारा को लेकर स्पष्ट हैं और लीपापोती, समझौते की राजनीति उन्हें नहीं आती। राष्ट्रहित में वे किसी के साथ भी चल सकते हैं, समन्वय बना सकते हैं, किंतु विचारधारा से समझौता उन्हें स्वीकार नहीं है। उनकी वैचारिकी भारतबोध, हिंदुत्व के समावेशी विचारों और भारत को सबसे शक्तिशाली राष्ट्र बनाने की अवधारणा से प्रेरित है। यह गजब है कि पार्टी के भीतर अपने आलोचकों पर भी उन्होंने कभी अनुशासन की गाज नहीं गिरने दी,यह अलग बात है कि उनके आलोचक राजनेता ऊबकर पार्टी छोड़ चले जाएं। उन्हें विरोधियों को नजरंदाज करने और आलोचनाओं पर ध्यान न देने में महारत हासिल है। इसके उलट पार्टी से नाराज होकर गए अनेक लोगों को दल में वापस लाकर उन्हें सम्मान देने के अनेक उदाहरणों से मोदी चकित भी करते हैं।
किसी व्यक्ति की लोकतांत्रिकता उसकी अपने दल के साथियों से किए जा रहे व्यवहार से आंकी जाती है। मोदी यहां चौंकाते हुए नजर आते हैं। वे दल के सर्वोच्च नेता हैं किंतु उनका व्यवहार ‘आलाकमान’ सरीखा नहीं है। आप उन्हें तानाशाह भले कहें, किंतु तटस्थ विश्लेषण से पता चलता है कि 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद आजतक उनकी आलोचना करने वाले अपने किसी साथी के विरूद्ध उन्होंने कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होने दी।
कल्पना करें कि किसी अन्य दल में अपने आलाकमान या सर्वोच्च नेता की आलोचना करने वाला व्यक्ति कितनी देर तक अपनी पार्टी में रह सकता है। नरेंद्र मोदी यहां भी रिकार्ड बनाते हैं। जबकि भाजपा में अनुशासन को लेकर कड़ी कारवाईयां होती रही हैं। भाजपा और जनसंघ के दिग्गज नेताओं में शामिल रहे बलराज मधोक से लेकर कल्याण सिंह, उमा भारती, बाबूलाल मरांडी, बीएस येदुरप्पा जैसे दिग्गजों पर कार्रवाइयां हुई हैं, तो गोविंदाचार्य पर भी एक कथित बयान को लेकर गाज गिरी। उन्हें अध्ययन अवकाश पर भेजा गया, जहां से आजतक उनकी वापसी नहीं हो सकी है। मोदी का ट्रैक अलग है। वे आलोचनाओं से घबराते नहीं और पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की छूट देते हुए अपने आलोचकों को भरपूर अवसर देते हैं।
 यह कहा जा सकता है कि मोदी आलोचनाओं के केंद्र में रहे हैं, इसलिए इसकी बहुत परवाह नहीं करते हैं। वे कहते भी रहे हैं कि उनके निंदक जो पत्थर उनकी ओर फेंकते हैं, उससे वे अपने लिए सीढ़ियां तैयार कर लेते हैं। 2014 में उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद पार्टी के भीतर भी उनके आलोचकों और निंदकों की पूरी फौज सामने आती है, जो तमाम मुद्दों पर उन्हें घेरती रही है। आश्चर्यजनक रूप से मोदी उनके विरूद्ध पार्टी के अनुशासन तोड़ने जैसी कार्यवाही भी नहीं होने देते हैं। इसमें पहला नाम गाँधी परिवार से आने वाले वरूण गांधी का है, जिन्हें भाजपा ने सत्ता में आने के बाद संगठन में महासचिव का पद दिया। वे सांसद भी चुने गए। किंतु पार्टी संगठन में उनकी निष्क्रियता से महासचिव का पद चला गया और वे मोदी के मुखर आलोचक हो गए। अपने बयानों और लेखों से मोदी को घेरते रहे। बावजूद इसके न सिर्फ उनको 2019 में भी लोकसभा का टिकट मिला, बल्कि आज भी वे पार्टी के सदस्य हैं। खुलेआम आलोचनाओं और अखबारों में लेखन के बाद भी उन्हें आज तक एक नोटिस तक पार्टी ने नहीं दिया है। हां, इस बार वे टिकट से जरूर वंचित हो गए। उनकी जगह कांग्रेस से आए जितिन प्रसाद को पीलीभीत से लोकसभा का टिकट मिल गया। जतिन जीत भी गए।
दूसरा उदाहरण फिल्म अभिनेता और अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे शत्रुघ्न सिन्हा का है। सिन्हा मोदी के मुखर आलोचक रहे और समय-समय पर सरकार पर टिप्पणी करते रहे। अंततः वे भाजपा छोड़कर पहले कांग्रेस, फिर तृणमूल कांग्रेस में चले गए। अब वे आसनसोल से तृणमूल के सांसद हैं। यही कहानी पूर्व केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा की है। उन्होंने भी मोदी विरोधी सुर अलापे और अंततः पार्टी छोड़कर चले गए। उनके पार्टी छोड़ने के बाद भी उनके बेटे जयंत सिन्हा को 2019 में भाजपा ने लोकसभा की टिकट दी। जयंत सिन्हा मोदी सरकार में मंत्री भी रहे। इस बार जयंत का टिकट कट गया। ऐसे ही उदाहरणों में क्रिकेटर कीर्ति आजाद भी हैं। मोदी सरकार के विरूद्ध उनके बयान चर्चा में रहे, संप्रति वे तृणमूल कांग्रेस के साथ हैं।
लेखक और दिग्गज पत्रकार अरूण शौरी, अटल जी की सरकार में मंत्री रहे। उनका बौद्धिक कद बहुत बड़ा है। एक इंटरव्यू में अरुण शौरी ने कहा कि “नरेंद्र मोदी के बारे में उनके अधिकारी ही मुझे कहते हैं कि उनके सामने बोल नहीं सकते। मंत्री डरे हुए रहते हैं। कोई कुछ बोल नहीं पाता है उनके सामने। उनके सामने जाने और कुछ भी कहने से पहले लोग डरे रहते हैं और सोच समझकर बोलते हैं। हालांकि अटल जी की पर्सनालिटी ऐसी थी कि लोग उनसे अपनी बात कहना चाहते थे और वह सुनते भी थे। उनकी एक खास बात यह भी थी कि वह भी यह जानना चाहते थे कि लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। वह पूछा करते थे और लोग बिना किसी डर के बताते भी थे।”
 तीखी आलोचनाओं के बाद भी मोदी का उनके प्रति सौजन्य कम नहीं हुआ और वे शौरी की बीमारी में उन्हें देखने अस्पताल जा पहुंचे और उनके परिजनों से भी मुलाकात की। अरुण शौरी और पीएम मोदी के रिश्तों में उस समय सबसे ज्यादा खटास देखी गई, जब अरुण शौरी यशवंत सिन्हा के साथ राफेल मामले को सुप्रीम कोर्ट लेकर पहुंच गए। यहां पर उन्होंने मामले की जांच और सौदे पर सवाल उठाए थे । हालांकि सुप्रीम कोर्ट में सरकार को क्लीन चिट मिल गई। रिश्तों में आई खटास के बावजूद भी पीएम मोदी ने पुणे स्थित अस्पताल में अरूण शौरी से मुलाकात की। इस मुलाकात के फोटो शेयर करते हुए लिखा- “आज पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी जी से मुलाकात की और उनका हालचाल जाना। उनके साथ इस दौरान बहुत अच्छी बातचीत हुई। हम उनकी दीर्घायु और स्वस्थ्य जीवन की कामना करते हैं।”
अपने तीखे तेवरों के चर्चित सुब्रमण्यम स्वामी कभी जनसंघ- भाजपा से जुड़े रहे। बाद में वे भाजपा से अलग होकर जनता पार्टी के अध्यक्ष बने। केंद्र में मंत्री भी बने। 2014 में सत्ता में आने के बाद मोदी ने स्वामी को राज्यसभा के लिए भेजा। स्वामी इससे कुछ अधिक चाहते थे। जाहिर है इन दिनों वे मोदी के प्रखर आलोचक बने हुए हैं। किंतु उनकी आलोचनाओं पर मोदी या भाजपा ने कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। एक साक्षात्कार में स्वामी ने कहा कि “मैं बीजेपी का हिस्सा हूं…मैं इनके साथ लंबे समय से साथ हूं। मुझे पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी से भी दिक्कत थी लेकिन इतनी समस्या नहीं थी, जितनी कि पीएम नरेंद्र मोदी से है।”
भाजपा छोड़कर जा चुके पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान को वापस लाकर मोदी ने उन्हें केरल के राज्यपाल पद से नवाजा। राज्यपाल के पद पर बैठकर मोदी की आलोचना करते रहे सतपाल मलिक को भी प्रधानमंत्री पद से नहीं हटाते, बल्कि कार्यकाल पूरा करने का अवसर देते हैं। जबकि राज्यपाल एक संवैधानिक पद है और उस पद पर बैठे व्यक्ति को केंद्र सरकार की सार्वजनिक आलोचना से बचना चाहिए। किंतु सतपाल मलिक ऐसा करते रहे और मोदी उनकी सुनते रहे। इसी तरह झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी नाराज होकर पार्टी से बाहर थे और अपनी पार्टी बनाकर सक्रिय थे। भाजपा ने मोदी के कार्यकाल में न सिर्फ उनकी पार्टी में वापसी सुनिश्चित की बल्कि उन्हें झारखंड विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का पद भी दिया। नाराज होकर भाजपा दो बार छोड़ चुके कल्याण सिंह( अब स्वर्गीय) को राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया। उनके पुत्र राजबीर को लोकसभा की टिकट और पौत्र संदीप सिंह को उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री का पद मिला है।
 मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री रहीं उमा भारती भी ‘भाजपा के अनुशासन चक्र’ का शिकार रहीं। मोदी ने उन्हें अपनी सरकार में मंत्री बनाया और उनके साथ भाजपा छोड़कर गए प्रह्लाद सिंह पटेल मोदी सरकार में राज्यमंत्री बने। अब पटेल मध्यप्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री हैं। ये उदाहरण बताते हैं मोदी अपने लोगों के प्रति खासे उदार हैं। वे अपनी ‘निजी आलोचना’ की बहुत परवाह नहीं करते और गांठ नहीं बांधते। निजी रिश्तों को राजनीति से ऊपर रखते हैं। वे शरद पवार के अभिनंदन समारोह में शामिल हो सकते हैं, मुलायम सिंह यादव के परिवार में आयोजित विवाह समारोह में भी इटावा भी जा सकते हैं। उनकी ताकत है कि वे कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के साथ भाजपा की सरकार बनाने की अनुमति दे सकते हैं। राजनीतिक समझ-बूझ के साथ अपने वैचारिक आग्रहों पर डटे रहना मोदी की विशेषता है। इसलिए वे भारतीय राजनीति की पिच पर आज भी मजबूती से जमे हुए हैं।
(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान(आईआईएमसी), नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं।)

स्वाधीनता दिवस पर डॉ.शशि जैन ” लाइफ टाइम्स अचीवमेंट अवॉर्ड ” से सम्मानित

कोटा । स्वाधीनता दिवस के अवसर पर 15 अगस्त को राजकीय सार्वजनिक पुस्तकालय की सहायक प्रभारी डॉ. शशि जैन को उनकी उत्कृष्ट सेवा कार्यों के लिए ” लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया। यह सम्मान उन्हें पुस्तकालय में आयोजित स्वाधीनता समरोह में ” मंजु स्मृति संस्थान” की और से  प्रदान किया गया। उल्लेखनीय है की वे आगामी 30 सितंबर को सेवा निवृत हो रही हैं।
 संस्थान की और से कमलकांत शर्मा ने डॉ. जैन को शाल ओढ़ा कर, प्रशस्ति पत्र और स्मृति चिन्ह दे कर सम्मानित किया गया।  इनके साथ – साथ डॉ. प्रीति शर्मा जा भी सम्मान किया गया। इस अवसर पर पुस्तकालय अधीक्षक डॉ. दीपक श्रीवास्तव, जनसंपर्क विभाग के पूर्व संयुक्त निदेशक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल, फिदरलाईट समूह बैंगलोर के पूर्व मुख्य कार्यकारी अधिकारी  राजू गुप्ता, साहित्यकार रेणु सिंह ‘ राधे ‘ साथ रहें।
सम्मान प्राप्त करने पर डॉ. शशि जैन ने कहा उन्होंने पूरे सेवा काल में पुस्तकालय को अपना घर और सहयोगियों को भाई – बहन मान कर सबके सहयोग से कार्य किया है। जितना प्रेम स्नेह और सहयोग उन्हें प्राप्त हुआ है उसे कभी नहीं भूलेंगीं।
पुरस्कार प्रदाता कमलकांत शर्मा ने कहा कि डॉ. जैन आने वाले प्रत्येक व्यक्ति और पाठक को अपनत्व के साथ पेश आती थी। इनका मधुर स्वभाव और सहयोग सभी पाठक सदैव याद रखेंगे। इनकी उत्तरदायित्व पूर्ण सेवाओं और पुस्तकालय के विकास में योगदान को देखते हुए इनको  लाइफ टाइम्स अचीवमेंट अवॉर्ड से सम्मानित करने का संस्थान ने निर्णय किया।
पुस्तकालय अधीक्षक डॉ. दीपक श्रीवास्तव ने इनकी सेवाओं को श्लांघनीय बताते हुए कहा की अपने व्यवहार से सभी का दिल जीत लेना इनके स्वभाव की महत्वपूर्ण विशेषता है। पुस्तकालय इनकी सेवाओं को कभी विस्मृत नहीं करेगा। ये पुस्तकालय की आत्मा हैं।
जन संपर्क विभाग के पूर्व संयुक्त निदेशक डॉ.प्रभात कुमार सिंघल ने अवार्ड के लिए बधाई देते हुए कहा कि उन्हें भी करीब दो वर्ष तक इस पुस्तकालय का अतिरिक्त प्रभारी होने का अवसर मिला था, इनकों हमेशा पाठकों और अपने कार्य के प्रति संवेदनशील पाया। इन्होंने सदेव काम से काम रखते हुए सभी को हर संभव सहयोग प्रदान किया है।

विभाजन की त्रासदी काे वो नग्न सत्य, जो हर हिंदू को जानना चाहिए

इस पुस्तक के खंड-एक के पहले अनुभाग में विभाजन की त्रासदी का ऐतिहासिक नग्न सत्य उकेरा गया है, जहां जलियांवाला बाग नरसंहार से लेकर पाकिस्तान की मांग और विभाजन के बाद संविधान सभा तक की घटनाओं का क्रमवार विवरण है। अनुभाग-दो से मुस्लिम समुदाय द्वारा की गयी रक्त पिपासु बर्बर हिंसा के कुल 350 भुक्तभोगियों के साक्षात्कार एवं भेंटवार्ताएं खंड – चार तक क्रमशः दी गयी हैं

‘विभाजनकालीन भारत के साक्षी’ ग्रंथमाला में लेखक कृष्णानंद सागर ने विभाजन काल के तथ्यों का प्रामाणिक विवरण सामने रखा है। तथ्यों की पुष्टि की लेखकीय सतर्कता से यह पुस्तक उक्त इतिहास का प्राथमिक प्रामाणिक स्रोत है। उक्त ग्रंथमाला को विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में होना चाहिए ताकि भारत का आम जनमानस यह जान सके कि उसने ब्रिटिश शासन के अंत और सत्ता हस्तान्तरण की क्या कीमत चुकाई है

1947 में अखंड भारत को मजहबी उन्माद की तलवार से चीर कर इस्लामिक अधिकृत क्षेत्र का निर्माण किया गया । रातोंरात करोड़ हिंदू अपने ही मुल्क में शरणार्थी बन गये। आज तीन पीढ़ियों के बाद भी वे जख्म नासूर बने हुए हैं क्योंकि इस देश ने अपने इतिहास से न सीखने की कसम जो खा रखी है। इसमें कुछ दोष उन बौद्धिक जमातियों का भी है जिन्होंने स्वतंत्र भारत में शिक्षा और बौद्धिक क्षेत्र को अनैतिक रूप से अधिग्रहीत कर लिया था।

अतः आधुनिक इतिहास का प्रणयन ही भ्रम और कपट के आधार पर हुआ। इसलिए भावी पीढ़ियां भ्रमित रहीं और अब तक हैं। किन्तु जैसा कि तथागत बुद्ध कहते हैं, ‘सत्य स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ है। फिर सत्य के स्वयं को प्रकट करने के अपने ही मार्ग हैं, अनूठे मार्ग हैं। तुम बस शांति रखो, धैर्य रखो, ध्यान करो और सब सहो । यह सहना साधना है। श्रद्धा न खोओ, श्रद्धा को इस अग्नि से भी गुजरने दो। श्रद्धा और निखरकर प्रकट होगी। सत्य सदा ही जीतता है।’ इसी अनुरूप विभाजन कालीन भारतीय इतिहास के सत्य के प्रकटीकरण का माध्यम बने हैं विख्यात चिंतक श्री कृष्णानन्द सागर ।

लेखक बौद्धिक जगत में सुपरिचित हैं। उनका अपना प्रशंसनीय आभामंडल है। कृष्णानन्द सागर सुरुचि साहित्य, दिल्ली (1970), संघ अभिलेखागार दीनदयाल शोध संस्थान, दिल्ली (1982), जागृति प्रकाशन, नोएडा (1985) एवं वैचारिक मंच ‘चिन्तना’ (1993) के संस्थापक होने के साथ ही बाबा साहब आप्टे स्मारक समिति, दिल्ली के उपाध्यक्ष है।

भारतीय इतिहास एवं संस्कृति संबंधी विषयों के विशेषज्ञ के रूप में उन्होंने कई पुस्तकों का संपादन एवं लेखन किया है। वे पाञ्चजन्य, आर्गेनाइजर, इतिहास दिवाकर, चाणक्य वार्ता, राष्ट्र धर्म आदि विभिन्न राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर लेखन करते रहे हैं। हिंदी, पंजाबी, संस्कृत तथा अंग्रेजी भाषा पर उनका समान अधिकार है। उन्हें विभिन्न समाचार चैनलों पर होने वाली समसामयिक चर्चाओं में सहभागिता करते हुए देखा जा सकता है।

इसी अनुरूप कृष्णानन्द जी द्वारा लिखित आलोच्य पुस्तक – माला ‘विभाजनकालीन भारत के साक्षी’ कई सन्दर्भों में विशिष्ट है। यह विगत दो दशकों से अधिक के लेखकीय परिश्रम का प्रतिफल है। 1994 में भारतीय इतिहास संकलन योजना के अध्यक्ष ठाकुर राम सिंह द्वारा लेखक कृष्णानन्द सागर को इस कार्य का प्रस्ताव दिया गया। उनके द्वारा इस दुरूह कार्य में अपनी असमर्थता व्यक्त करने के बाद वर्ष 2002 में रामसिंह जी ने फिर से कृष्णानंद जी को बुलाकर वास्तविक राष्ट्रीय इतिहास के लुप्त होने का अंदेशा जताते हुए सत्य को प्रकट करने हेतु इस कार्य को पूरा करने का वचन लिया । तद्गुरूप अगले 20 वर्ष तक कृष्णानंद जी के अथक परिश्रम द्वारा इस ग्रंथ – माला का प्रणयन हुआ ।

खंड-एक के पहले अनुभाग में विभाजन की त्रासदी का ऐतिहासिक नग्न सत्य उकेरा गया है, जहां जलियांवाला बाग नरसंहार से लेकर पाकिस्तान की मांग और विभाजन के बाद संविधान सभा तक की घटनाओं का क्रमवार विवरण है। अनुभाग-दो से मुस्लिम समुदाय द्वारा की गयी रक्त पिपासु बर्बर हिंसा के कुल 350 भुक्तभोगियों के साक्षात्कार एवं भेंटवार्ताएं खंड-चार तक क्रमशः दी गयी हैं

तथ्यों का संकलन करते हुए उनके लिए भी यह कठिन था कि वे साक्षात्कार के दौरान अविश्वसनीय, अतिरेकपूर्ण और अपुष्ट घटनाओं के विवरण से बचते हुए प्रामाणिक ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत करें। अतः लगभग 500 से अधिक साक्षात्कारों के बाद उन्होंने ऐसे 350 व्यक्तियों की आपबीती को अपने ग्रंथ में स्थान दिया है जो लेखकीय कसौटी के अनुकूल रहे थे। प्रामाणिकता से इतने सारे लोगों की आपबीती को कलमबद्ध करने के लिए लेखक साधुवाद के पात्र हैं।

पुस्तक चार खंडों में है। प्रत्येक भाग अन्य खंडों से स्वतंत्र है। लेकिन इन सभी खंडों के मध्य निरंतरता बनी रहती है। प्रत्येक खंड में औसतन पौने पांच सौ पेज हैं। हर भाग की प्रस्तावना पृथक विद्वान ने लिखी है। चारों खंडों के प्रस्तावक क्रमशः श्रीराम आरावकर (महामंत्री, विद्या भारती), प्रो. सुरेश्वर शर्मा (पूर्व कुलपति रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर), दीनानाथ बत्रा (अध्यक्ष, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नई दिल्ली) एवं ब्रिगेडियर राजबहादुर शर्मा (राष्ट्रीय प्रधान, सांस्कृतिक गौरव संस्थान, सदस्य, इंडियन नेशनल कमीशन फार को-आपरेशन विद यूनेस्को) हैं। प्रत्येक प्रस्तावना विषय के संदर्भ और संदर्श को गति देती है।

यह ग्रंथमाला बहुआयामी है। जैसे, कहीं आजाद हिंद फौज के संघर्षों की यात्रा के विवरण हैं तो कहीं राष्ट्रीय क्रांतिकारी आंदोलन की झलक है। खंड-एक के पहले अनुभाग में विभाजन की त्रासदी के ऐतिहासिक नग्न सत्य को उकेरा गया है, जहां जलियांवाला बाग नरसंहार से लेकर पाकिस्तान की मांग और विभाजन के बाद संविधान सभा तक की घटनाओं का क्रमवार विवरण है। तत्पश्चात अनुभाग-दो से मुस्लिम समुदाय द्वारा की गई रक्त पिपासु बर्बर हिंसा के कुल 350 भुक्तभोगियों के साक्षात्कार एवं भेंटवाताएँ खंड – चार तक क्रमशः दी गई। तीसरे भाग में लेखक द्वारा विभाजन से सम्बंधित महापुरुषों को अखंड भारत के पुरोधा, हिंदू रक्षा के योजनाकार, विभाजन कालीन हिंदू समाज का रक्षक नेतृत्व और विभाजनकालीन योद्धाओं की चित्रमाला द्वारा चित्रकथात्मक रूप में प्रदर्शित किया गया है।

उक्त ग्रंथमाला विभाजनकालीन इतिहास के कई नये तथ्यों से अवगत कराते हुए कुछ भ्रामक धारणाओं का खंडन करती है। यह तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व की कायरता, संघ के स्वयंसेवकों के जुझारू और निष्ठावान रवैये का प्रामाणिक विवरण है। इस ग्रन्थमाला से पाठक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों और आत्मबलिदान को समझ पाएंगे। वे जानेंगे कि कैसे विभाजनकालीन राजनीति से दूर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिन्दू समाज की रक्षार्थ अपना सर्वस्व झोंक दिया। यह पुस्तक ‘संघ ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय क्या योगदान दिया’ जैसे प्रश्न का परोक्ष उत्तर देगी। संघ के स्वयंसेवकों का अतुलनीय बलिदान आपको गौरवान्वित करेगा ।

किताब में वर्णित इस्लामिक आक्रांताओं एवं मजहबी भेड़ियों द्वारा हिन्दू समाज की संपत्तियों की लूट -आगजनी, पुरुषों, महिलाओं, बुजुर्गों, बच्चों की निर्मम हत्याओं, महिलाओं से बर्बर बलात्कार, अपहरण की आपबीती पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाएंगे। कई पीड़ितों के अनुभव तत्कालीन राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों की भयावहता से परिचित कराएंगे तो कुछ साक्षात्कार मजहबी उन्माद एवं नृशंसता के नग्न यथार्थ बताएंगे। ऐसे विभिन्न रूपों में यह ऐतिहासिक दस्तावेज आपका भ्रम तोड़ेगा, आपको झकझोरेगा, आपको आंदोलित करेगा और अंततः आपकी ऐतिहासिक और भविष्य की दृष्टि को दिशा प्रदान करेगा।

एक मजहबी जमात का यथार्थ प्रकट करती यह ग्रंथमाला कोई सांप्रदायिक लेखन नहीं है और ना ही किसी हिंदू या मुसलमान के लिए है बल्कि यह उन इंसानों के लिए है जिनमें मानवीयता का जरा सा भी अंश बचा है। इतिहासकार जब अतीत का मूल्यांकन करता है तो उसका निर्णय मूल्य संपृक्त नैतिक न्याय बन जाता है

एक मजहबी जमात का यथार्थ प्रकट करती यह ग्रंथमाला कोई सांप्रदायिक लेखन नहीं है और ना ही किसी हिंदू या मुसलमान के लिए है बल्कि यह इंसानों के लिए जिनमें मानवीयता का जरा सा भी अंश बचा है। इतिहासकार जब अतीत का मूल्यांकन करता है तो उसका निर्णय मूल्य संपृक्त नैतिक न्याय बन जाता है। लेखक अपने न्याय निर्णयन में धार्मिक-जातीय पूर्वाग्रह से पूर्णतः मुक्त रहे हैं। उन्होंने निरपेक्ष भाव से मुस्लिम समाज के उस वर्ग का भी विवरण दिया है जिसमें मजहबी पूर्वाग्रह से अधिक मानवीयता का अंश है, जिसमें भातृत्व – भाव का अंश है, जिनमें ‘ईमान’ की तासीर जिन्दा है और जो अपनी पंथीय कट्टरता से स्वयं को बचाने में सफल रहे।

जैसा कि कृष्णानंद जी ‘लेखकीय’ भाग में लिखते हैं, ‘यह ग्रंथ आज की मुस्लिम युवा पीढ़ी के लिए भी बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। उन्हें इससे पता चलेगा कि उनके पूर्वजों ने देश के विभाजन के समय कितने घिनौने और बर्बर कृत्य किए थे। उन दुष्कृत्यों की ही प्रतिक्रियास्वरूप लाखों मुसलमानों को भी अपने प्राण गंवाने पड़े थे। इस ग्रंथ के वाचन से उन्हें यह प्रेरणा मिलेगी कि भावी सुखी व शान्तिमय जीवन के लिए उस समय के मुसलमानों द्वारा किये गये घिनौने कृत्यों की निन्दा करते हुए उन्हें पूर्णतया त्याग दिया जाए, उनकी गलतियों को दोहराया न जाए । ‘

भारत दुनिया में पांथिक आधार पर विभाजित होने वाला एकमात्र राष्ट्र है अतः इससे सम्बंधित दस्तावेज के रूप में उक्त ग्रंथमाला को विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में होना चाहिए ताकि भारत का आम जनमानस यह जान सके कि उसने ब्रिटिश शासन के अंत और सत्ता हस्तान्तरण की क्या कीमत चुकाई है ? ऐसा इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि यह ग्रंथमाला बताती है कि भारत की धार्मिक और राष्ट्रीय सुषुप्तता उसके भविष्य को पुनः किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर सकती है? इसे पढ़ते हुए हर भारतीय विभाजन के अग्नि कुंड के ताप को महसूस करेगा।

इतिहास की दृष्टि से ही नहीं बल्कि भविष्य के नजरिये से पढ़ने की जरूरत है। जैसे कि पुस्तक की प्रस्तावना में श्रीराम आरावकर विद्या भारती) लिखते हैं, ‘इतिहास को भुलाने का दुष्परिणाम समाज को कालांतर में अवश्य ही भुगतना पड़ता है। भारत विभाजन की त्रासदी व उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न हुए विस्थापन की भीषण आपदा पर रचित यह ग्रंथ हम सभी को यह बताने में सक्षम है कि भविष्य में किसी भी कीमत पर इस प्रकार की दुर्घटना को हम पुनः कभी भी नहीं होने दें। ‘

विभाजन के अग्नि कुंड से निकली यह ग्रंथमाला विभाजन की त्रासदी का जीवंत, प्रामाणिक दस्तावेज है, इतना ही कहना पर्याप्त नहीं है। यह कृष्णानन्द सागर की आपबीती भी है। यह निस्सार मजहबी उन्माद से उत्पन्न पीड़ा का अभिलेखकीय प्रमाण है। यह वह वेदना है जिसे लेखक आज भी स्वयं जी रहे हैं क्योंकि वह स्वयं इस अग्नि कुंड से निकले हैं। वह इसमें डाली गयी समिधा और उठने वाली लपटों व धुएं के प्रत्यक्षदर्शी रहे। इसलिए इसे विभाजन के प्रामाणिक इतिहास का प्राथमिक स्रोत कहना चाहिए ।

कृष्णानन्द सागर मूलत: अविभाजित भारत के मुस्लिम बहुल क्षेत्र स्यालकोट के रहने वाले हैं। विभाजन के समय उनका परिवार लाहौर के कसूर में रह रहा था। वे स्वयं अपनी जमीन से बलात् उजाड़े गये शरणार्थी समूह का हिस्सा रहे हैं। वे उस साझे दर्द के भोक्ता हैं। लेकिन यह दुःख तब और बढ़ जाता है जब मजहबी हिंसा के शिकार शरणार्थियों के साथ बौद्धिक अन्याय भी किया जाता है, जहां उनकी पीड़ा को लघुतर एवं भ्रामक रूप में प्रदर्शित किया गया है। कृष्णानन्द जी प्राक्कथन में स्वयं स्वीकार करते हैं, मैं स्वयं विभाजन काल का साक्षी हूं। मेरे जैसे अनेक उस काल के भुक्तभोगी लोग वर्षों से यह महसूस कर रहे थे कि विभाजन काल का इतिहास अपने वास्तविक स्वरूप में नहीं लिखा गया।’

लेखक अपनी पीड़ा के भाव को यूं व्यक्त करते हैं,
सोचता हूं,
हम एक रात के लिए
घर से निकले थे
आज तीन पीढ़ियां बीत गयीं
लेकिन वह एक रात समाप्त नहीं हुई
वह रात
कब समाप्त होगी
और हम कब घर वापस पहुंचेंगे?
इसका उत्तर
क्या कोई देगा?

यह पुस्तक-माला किसी चयनित समाज या वर्ग के लिए नहीं है। इसे भारत के हर नागरिक वर्ग विशेषकर युवाओं को अवश्य पढ़ना चाहिए। चूंकि भारत दुनिया में पांथिक आधार पर विभाजित होने वाला एकमात्र राष्ट्र है अतः इससे सम्बंधित दस्तावेज के रूप में उक्त ग्रंथमाला को विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक पुस्तकालयों में होना चाहिए ताकि भारत का आम जनमानस यह जान सके कि उसने ब्रिटिश शासन के अंत और सत्ता हस्तान्तरण की क्या कीमत चुकाई है? ऐसा इसलिए भी होना चाहिए क्योंकि यह ग्रंथमाला बताती है कि भारत की धार्मिक और राष्ट्रीय सुषुप्तता उसके भविष्य को पुनः किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर सकती है? इसे पढ़ते हुए हर भारतीय विभाजन के अग्नि कुंड के ताप को महसूस करेगा।

अंततः, इतिहास वही होता है जो भविष्य का बोध कराये। अगस्त माह यदि ब्रिटिश सत्ता की समाप्ति के सुख का प्रतीक है तो साथ ही यह विभाजन की वेदना की याद भी दिलाता है। सुख और वेदना के इस सन्धिकाल एवं विभाजन की विभीषिका की बरसी पर इस ऐतिहासिक से बेहतर राष्ट्रीय विमर्श नहीं हो सकता। इसे पढ़िए, इतिहास को समझिए और अपनी भविष्य दृष्टि का निर्माण कीजिए। क्योंकि यदि हास को नहीं समझेंगे तो यकीन मानिये, इतिहास आपको नहीं समझेगा और यदि इतिहास ने आपको नहीं समझा, स्वीकार नहीं किया तो आप इतिहास के किसी कोने में दफन हो जाएंगे।


पुस्तक : ‘विभाजनकालीन भारत के साक्षी’
पुस्तक( चार खंडों में )
लेखक कृष्णानंद सागर
मूल्य 3000 रुपये (सम्पूर्ण खंड ) 750 रुपये (प्रत्येक खंड )
कुल पृष्ठ 1905 (चारों खंड मिलाकर)
प्रकाशक : जगृति प्रकाशन 
एफ-109 सैक्टर 27 नोएडा – 201301  
 
यह पुस्तक यहाँ उपलब्ध है

स्वतंत्रता का उत्सव मनाने वाले हिंदुओं ये सच्चाई भी जान लो

अविभाजित भारत में पंजाब का क्षेत्र विशेष रूप से लाहौर आर्यसमाज की गतिविधियों का प्रमुख केंद्र तो था। आर्यसमाज का प्रचार पंजाब क्षेत्र के साथ साथ सिन्ध क्षेत्र में भी खूब फैला।  जिस प्रकार पंजाब की मिटटी विधर्मियों के आक्रमण से पीछे एक हज़ार वर्षों से लहूलुहान थी उसी प्रकार सिंध का क्षेत्र भी इस्लामिक आक्रांताओं के अत्याचार से अछुता नहीं था। आर्यसमाज का प्रचार सिंध में किसी पुराने रोग की अचूक औषधि जैसा था। सिंध की धरती पर सदैव अजेय रहने वाले हिन्दुओं की पहली हार मुहम्मद बिन कासिम से राजा दाहिर को मिली।  अपने पिता की हार और अपने राज्य की तबाही का बदला राजा दाहिर की वीर बेटियों ने उसी के बादशाह से अपने ही सेनापति को मरवा कर लिया था। राजा दाहिर का पूरा परिवार अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान हो गया।
सिंध का अंतिम शासक मीर था। मीर में अनेक दोष थे। मीर को पता चला कि उसके हिन्दू दीवान गिदुमल की बेटी बहुत खुबसूरत है तो उसने गुदुमल के घर पर उसकी बेटी को लेने की लिए डोलियाँ भेज दी।  बेटी खाना खाने बैठ रही थी तो उसके पिता ने बताया की यह डोलियाँ मीर ने तुम्हें अपने हरम में बुलाने के लिए भेजी है। तुम्हें अभी निर्णय करना है।  यदि तुम तैयार हो तो जाओ। पिता के शब्दों में निराशा और गुस्सा स्पष्ट झलक रहा था।  बेटी ने फौरन अपना निर्णय सुना दिया “आप अभी तलवार लेकर मेरा सर काट दीजिये, जाने का प्रश्न ही नहीं उठता।” पिता को ऐसा उत्तर मिलने का पूरा विश्वास था। उन्होंने अपनी बेटी को बचपन से धर्म और स्वाभिमान के संस्कार दिए थे। बिना किसी संकोच के पिता ने तलवार उठाई।  भूखी बेटी ने सर झुकाया और बाप की तलवार ने काम कर दिया।  वह पिता जिसने लाड़ प्यार से अपनी बेटी को जवान किया था एक क्षण के लिए भी न रुका। परिणाम यह हुआ की मीरों ने दीवान गिदुमल को बर्बाद कर दिया पर वे और उनका परिवार इतिहास में अपने धर्म और स्वाभिमान के रक्षा के लिए एक बार फिर राजा दाहिर के परिवार के समान अमर हो गया।
मुसलमानों के बाद अंग्रेज सिंध में आये। इस्लामिक तलवार का स्थान कब्र परस्ती,पीर पूजा और सूफी विचारधारा ने ले लिया। कई हिन्दू पीरों के मुरीद बन गए जिनकी हिन्दू औरतें पीरों पर जाकर तावीज़ आदि ले आती थी। हिन्दुओं के अन्धविश्वास में वृद्धि ही हुई।  हिन्दुओं का मुसलमान बनना अब भी पहले की तरह ही जारी था। कहीं से किसी मुसलमान के हिन्दू बनने की खबर नहीं आती थी। 1878 में एक हिन्दू युवक ठारुमल मखीजाणि एक मुसलमान लड़की के चक्कर में फँसकर मुसलमान बन गया। जबकि वह पहले से ही विवाहित और एक बच्चे का बाप भी था। ये मुस्लिम लड़कियां आमतौर पर नाचने वाली होती थी जो धनी हिन्दू युवकों को अपना शिकार बनाती थी।
कुछ वर्षों के बाद उसकी मुसलमान बीवी का देहांत हो गया। ठारु शेख को अब अपने पुराने परिवार की याद आई।  उसने वापिस हिन्दू बनना चाहा पर किसी ने उसकी न सुनी।  अंत में बाबा गुरुपति साहिब ने शुद्ध करके वापिस उसका नाम ठारुमल रख दिया। परन्तु दीवान शौकिराम ने उसका कड़ा विरोध किया। इस कारण हिन्दू लोगों में इसकी बड़ी प्रतिक्रिया हुई जिसका हिन्दू युवकों पर विपरीत प्रभाव पड़ा और कई युवक मुस्लमान बनने को तैयार हो गए। ऐसा ही एक मामला 1891 में प्रकाश में आया। दीवान सूरजमल दीवान शौकिराम का सौतेला भाई का था। दीवान सूरजमल और उसका बेटा दीवान मेवाराम भी मुसलमान बन गया था। उसने अपनी पत्नी और दोनों बेटियों को मुसलमान बनने का आग्रह किया।  उन्होंने मना कर दिया, जिसके लिए वह कोर्ट में चला गया।  आखिर वह केस हार गया।  दीवान हीरानंद ने उन दोनों हिन्दू लड़कियों का रातोंरात हिन्दू युवकों से विवाह कर दिया।
 दीवान मेलाराम उनके पतियों के खिलाफ भी कोर्ट में गया पर हार गया। सिंध का हैदराबाद नगर जिसका असली नाम नारायण कोट था में अनेक हिन्दू युवक मुसलमान बनते जा रहे थे पर हिन्दू जाति कबूतर के समान आंख बंद कर सो रही थी। ऐसी विकट परिस्थितियों में आर्यसमाज की क्रांतिकारी विचारधारा से अनेक युवक धर्मरक्षा के लिए प्रेरित हुए।  दीवान दयाराम गिदूमल, दीवान नवलराय और दीवान गुलाब सिंह ने पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा को तार भेज कर सूचित किया की हिन्दू बड़ी संख्या में मुसलमान बनते जा रहे है।  उन्हें कैसे भी रोको। कोई उपदेशक या प्रचारक तत्काल भेजों।
स्वामी श्रद्धानन्द (तब महात्मा मुंशीराम) से विचार कर आर्य मुसाफिर पंडित लेखराम और पंडित पूर्णानंद ने सिंध में आकर विधर्मियों के विरुद्ध मोर्चा संभाल लिया।  दोनों महान आत्माओं ने न दिन देखा न रात।  उन्हें जिस भी हिन्दू का पता चलता कि वह मुसलमान बनने जा रहा है, तो वे झट उसके पास पहुँच जाते और उसे समझा बुझा कर वापिस से हिन्दू बना लेते।  हालत इतने नाजुक थे की आचार्य कृपलानी का भाई भी मुसलमान बन गया था। जिसे शुद्ध करके वापिस हिन्दू बनाया गया।  दोनों विद्वानों ने अपने प्रयासों से हिन्दू जनता में आत्म विश्वास पैदा कर दिया था। इन दोनों ने विधर्मियों के किले के किले तोड़ डाले। 1893 तक आते आते हिन्दू समाज में वापिस जान में जान आ गई और सिंध के अनेक शहरों में आर्यसमाज स्थापित हो गए।
 सिंध में आर्यसमाज के प्रचार से अनेक व्यक्ति आर्य बने।  उनके त्यागी-तपस्वी जीवन आज भी हमें अध्यात्म का प्रेरित कर हमारा मार्गदर्शन करते रहते हैं। उनमें से एक महान आत्मा पंडित जीवन लाल जी के जीवन चरित्र का यहाँ वर्णन किया जा रहा है। आप बचपन से ही अध्यात्मिक विचारों के थे।  इसलिए बड़े होने पर नौकरी छोड़कर कंडड़ी के सूफी फकीर मुहम्मद हसन के पहले शिष्य फिर गद्दी के मालिक और सूफी महंत बन गए।  उनके शिष्य हजारों की संख्या में थे। सूफी मत में मांस और भांग का अत्यंत सेवन होता था। एक बार वे सूफी मत का प्रचार करते करते एक रेलवे स्टेशन पर पधारे।
उस रेलवे स्टेशन के मास्टर थे हाकिम राय आर्य। आर्य जी ने सूफी महंत जी को भोजन कराया और ज्ञान चर्चा भी की।  जब वे रेल में जाने लगे तो उन्हें एक पुस्तक कपड़े में लपेट कर दी और उसे पढ़ने का वचन उनसे ले लिया। पंडित जी ने जब पुस्तक खोल कर देखी तो उन्हें बड़ा क्रोध आया क्यूंकि उस पुस्तक का नाम था “सत्यार्थ प्रकाश” । परन्तु उनके मन में नित्य विचारों की नई नई लहरें आती रही , कभी मन आया की उसे फ़ेंक दे,कभी मन आया की मैं ऐसी पुस्तक को क्यों देखू जिसकी हिन्दूयों, ईसाईयों और मुसलमानों के प्राय: सभी नेता निंदा करते हैं। फिर मन में आया की मैं इतना बड़ा फकीर हूँ। मेरे पूरे जीवन के परिश्रम को भला एक पुस्तक कैसे तोड़ सकती है? अंत में उन्होंने निश्चय किया की सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ कर उसकी परीक्षा करनी होगी। इतने सारे लोग इस पुस्तक के सम्बन्ध में जो राय देते है। वह कहाँ तक सत्य है?
उन्होंने पुस्तक खोल कर उसे पढ़ना शुरू किया। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में परमात्मा के सच्चे नामों और दुसरे नामों के गुणों के अनुसार व्याख्या पढ़कर और ईश्वर की सच्ची शक्ति और सत्य स्वरुप को ज्ञात कर उन्हें सच्चे आनंद का आभास होने लगा।  उन्होंने सोचा कि जो ग्रन्थ सर्वप्रथम ईश्वर के सच्चे स्वरुप को स्वीकार करता है। वह नास्तिक कैसे हो सकता है? जो ईश्वर को इतना महान बता सकता है।  वह हिन्दू विरोधी कैसे हो सकता है? वे समझ गए की यह षड़यंत्र केवल और केवल विधर्मियों द्वारा स्वामी दयानंद को बदनाम करने की व्यर्थ कोशिश है।
उस दिन से उनके विचार स्वामी दयानंद के लिए बिलकुल बदल गए। उसी काल में उनके एक शिष्य ने उन्हें बिना बताये सिंध में ईश्वर का अवतार घोषित कर दिया और इस विषय में इंग्लैंड की रानी और भारत के वाइसरॉय तक को पत्र लिख दिया जिससे पूरे देश में आन्दोलन छिड़ गया।  सत्यार्थ प्रकाश पड़ने से उनके मन के विचारों में क्रांति का सूत्रपात हो चूका था। जिससे उनकी आत्मा ने इस अन्धविश्वास को छोड़ने और सत्य को ग्रहण करने का निश्चय किया।  वे सूफी मत और इस्लाम का त्याग कर आर्यसमाज में शामिल हो गए।  पंडित जीवनलाल जी का जीवन परिवर्तन हमे स्वामी दयानंद के अनमोल सन्देश की मनुष्य को सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए का दर्शन कराता है। सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर जाने कितनों का इसी प्रकार से जीवन परिवर्तन हुआ होगा।
मीरों के समय में सिंध के संजोगी परिवार मुसलमान बन गए थे।  वे केवल नाम से मुसलमान थे। जबकि उनके रीती रिवाज़ आज भी हिन्दुओं के समान ही थे। क़ाज़ी आरफ गाँव में एक संजोगी मुसलमान परिवार था। जिसके मुखिया का नाम था पर्यल।  आर्यसमाज के प्रचार के कारण पर्यल का हिन्दुओं से फिर से सम्बन्ध  स्थापित हुआ।  उसने वापिस हिन्दू बनने से पहले एक शर्त लगाई। थोड़ी मुहब्बत में आर्यसमाज के वार्षिक उत्सव पर पंडितों और मौलवियों के बीच में शास्त्रार्थ रखा जाये।  अगर आर्यसमाजी जीत गये तो उनका परिवार हिन्दू बन जायेगा और अगर मुसलमान जीते तो वे मुसलमान ही रहेगे।
1934 में आर्यसमाज के उत्सव में शास्त्रार्थ केसरी पंडित रामचंद्र देहलवी जी, महात्मा आनंद स्वामी जी (तब खुशहालचंद जी), प्राध्यापक ताराचंद गाजरा जी, प्रो हासानंद जी, पंडित उदयभानु जी, पंडित धर्मभिक्षु जी आदि पधारे। शास्त्रार्थ का विषय था ‘इस्लाम खुदा का मज़हब है क्या?’जैसा की जग जाहिर है मुसलमान लोग अपना पक्ष सिद्ध न कर सके और वैदिक धर्म की जीत हुई।  हजारों की संख्या में संजोगी वैदिक धर्म में शामिल हो गए।  हवन आदि करके उन्हें यज्ञोपवित पहनाया गया।  पर्यल का नाम बदल कर प्रेमचंद रखा गया। प्रेमचंद के घर पहुँचने रात को मुसलामानों ने उनके घर पर हमला बोल दिया पर दंगे की आशंका पहले से ही थी इसलिए पहले से ही तैयार हिन्दुओं ने गुंडों को पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया और मामला शांत पड़ गया।
सिंध में एक ऐसा समय भी था की जब भी कोई मुसलमान अगर हिन्दू कन्या या महिला को भगाकर ले जाता था तो कोई मुँह भी न खोलता था।  हिन्दू समझते थे की कानून का सहारा लेना बदनामी मोल लेने के बराबर है। इसलिए भगवान की इच्छा समझकर चुप रहते थे। आर्यसमाज ने पहली बार हिन्दुओं को इस विकट परिस्थिति का सामना करने की शक्ति दी। लरकाना जिले में अपर सिंध में एक पीर का गाँव था।
 एक अमीर हिन्दू जमींदार भी उस गाँव में रहता था।  उसकी दो जवान लड़कियां थी।  एक दिन वे पड़ोसी के घर पर गयी तो वापिस नहीं आई।  पूरे गाँव में तलाशा गया पर कोई सुराग नहीं मिला।  अंत में मजबूर होकर जमींदार ने पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दी।  पूरे सिंध में शोर मच गया कि अगर एक अमीर जमींदार की बेटियाँ सुरक्षित नहीं हैं, तो एक गरीब हिन्दू की बेटी का क्या होगा? लगभग एक महिना बीत गया पर कोई सुराग नहीं मिला।  पुलिस भी भाग दोड़ कर ठंडी पड़ गई।
एक दिन लरकाना स्टेशन पर तीन जवान पहुँचे। उनके हाथ में एक पोटली थी।  शायद कुछ कपड़े थे।  वहां से बस पकड़ कर वे अम्रोट शरीफ गाँव में पहुँचे।  हर गुरूवार को अम्रोट शरीफ गाँव में एक मेला लगता था।  जिसमे कई सौदागर समान का लेन देन करने आते थे। ये तीनों नौजवान भी मुसलमानों जैसे कपड़े पहन कर उस मेले में पहुँच गए।  शाम को मस्जिद में नमाज अदा कर मौलवियों के साथ खाने पर बैठ गए।  खाने के दौरान आपसी बातचीत में उन्हें यह भी पता लगा की इस मस्जिद में तबलीगी का काम गुप्त रूप से होता है।  एक हिन्दू जमींदार की दो लड़कियाँ गुप्त रूप से भगा कर लाई गई है। जिनकी कल ही तबलीगी अर्थात धर्म परिवर्तन होना है।
कुछ समय के बाद ये जवान चुपके से वहाँ से खिसक गए और श्री गोविन्दराम जी को जाकर सूचना दी। यह काम कितना खतरनाक था। आप इसकी कल्पना कर सकते है।  अगर भेद खुल जाता तो तीनों के टुकड़े हो जाते।  गोविन्दराम जी को श्री ताराचंद गाजरा जी ने सी आई डी के कार्य पर लगा रखा था।  उनके घर से वे तीनों डीसपी के घर पर पहुँच गए और उन्हें सूचना दी। लड़कियों की जानकारी देने वालों पर 5000 का ईनाम था। डीसपी ने उन्हें हार्दिक धन्यवाद दिया और पुलिस अटाले के साथ मस्जिद पर धावा बोल दिया।  वहाँ से दोनों हिन्दू लड़कियों मीरा और मोहिनी को बरामद कर लिया गया। मौलवियों के साथ तीन बाहर के चौकीदारों को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
लड़कियों ने बयान दिया कि जब वे पड़ोस के घर से वापिस आ रही थी तो उन्हें चादर डाल कर अगवा कर मस्जिद लाकर बंद कर दिया गया था।  बाद में हमें मुसलमान बनने का लालच दिया गया था। उन्होंने हमें यह कहकर भी धमकाया कि यहाँ से तुम कहीं पर भी नहीं भाग सकती और हिन्दू अब तुम्हे वापिस नहीं लेंगे। क्यूंकि अब तुम पतित हो चुकी  हो। ध के समाचारों में यह मामला छाया रहा।  अनेक मुस्लिम नेताओं को उन मौलवियों को मुक्त करवाने के लिए तार भेजे गए पर अंत में उन्हें सजा मिली।  यह तीन आर्य कार्यकर्ता जिन्होंने अपनी जान की बाज़ी लगाकर हिन्दू लड़कियों की रक्षा करी थी का नाम था श्री निहाल चंद आर्य जी, श्री चमनदास आर्य जी और श्री लेखराज जी।  स्पष्ट है कि स्वामी दयानंद ने आर्यसमाज न बनाया होता तो ऐसे शूरवीर  पैदा ही नहीं होते। सोचिये सिंध में हिन्दुओं की क्या दुर्दशा होती?
श्री भीमसेन आर्य के बाल्यकाल की एक घटना का मैं यहाँ वर्णन करना चाहूँगा जिसकी बुनियाद अन्धविश्वास पर टिकी थी।  जब वे छोटे थे तो मस्जिद में कुछ मुसलमान लड़कों के साथ खेलते रहते थे।  उन्होंने सुन रखा था कि कुरान शरीफ के पन्नों में अगर आग लगा दी जाये तो या तो कुरान शरीफ हवा में जादू से उड़ जाता है अथवा आग ठंडी हो जाती है।  कुरान शरीफ कभी जल नहीं सकती। जिस मस्जिद में वे खेलते थे उस मस्जिद का दरवाजा नहीं था और एक पुराना कुरान जिसके पन्ने अलग हो चुके थे और जो प्रयोग में नहीं था वहाँ मस्जिद में रखा था।
 बाल्यकाल की नासमझी और अंधविश्वास के चलते उन्होंने कुरान के कुछ पन्नों में आग लगा दी।  शाम को जब मस्जिद में बांग देने वाला आया तो उसने आर्यसमाजियों द्वारा कुरान की अवहेलना कह कर चारों तरफ शोर मचा दिया। मौलवी खास तौर पर भड़क उठे। पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई।  मामला तहसीलदार तक गया।  तहसीलदार अक्लमंद था। उसने समझाया की बच्चे वहाँ खेलते थे और मस्जिद का कोई दरवाजा नहीं था। बांग देने वाला भी मानता है कि कुरान के पन्ने अलग अलग थे और अक्सर उड़ जाते थे।  फिर तो यह बांग देने वाले की जिम्मेदारी है कि वह मस्जिद पर दरवाजा लगवाता और कुरान को सुरक्षित ढंग से रखता।  यदि वह ऐसा करता तो यह घटना नहीं घटती। तब कहीं जाकर मामला शांत हुआ नहीं तो हिन्दू मुस्लिम दंगे की एक और नींव पड़ जाती।
शिकारपुर और जैकोबाबाद में अक्सर देखा जाता था कि कई मुस्लिम जमींदार हिन्दू हरिजनों की बस्तियों जाते और उन्हें इतना कर्ज दे देते कि वे जीवन भर उसे न चुका सके। कर्ज न चूका पाने पर उन्हें मुसलमान बना कर ,अपने किसी नौकर से उनकी बहन या बेटी का निकाह भी करवा देते थे।  आर्यसमाज के कार्यकर्तायों श्री भीमसेन आर्य जी और श्री जीवतराम को अंत में एक उपाय सुझा।  मुसलमान लोग उस बस्ती में जाने से परहेज रखते थे जिनमें सूअर पाले जाते थे। आर्य कार्यकर्ताओं ने घोषणा कर दी कि जो भी हरिजन अपने अपने घर को साफ रखेगा उसे एक एक सूअर ईनाम में दिया जायेगा।
ईनाम के लालच में हरिजनों ने अपने अपने घर साफ़ कर लिए और उसके बदले में उन्हें एक एक सूअर दिया गया। एक एक सुअरी 20-20 बच्चों को जन्म देती है।  जिससे पूरी बस्ती में कुछ ही समय में सूअर ही सूअर नजर आने लगे।  सूअरों के दर्शन को नापाक मानने वाले मौलवी लोगों ने हरिजनों की बस्तियों में आना छोड़ दिया। इससे अनेक हिन्दू हरिजनों का न केवल धर्म परिवर्तन होने से बच गया अपितु अनेक अबलाओं  भी धर्म रक्षा हो गयी।
शुद्धि वाला के नाम से प्रसिद्द श्री खेमचन्द जी ने सिंध में जबरदस्ती हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के प्रयासों को शुद्धि का चक्र चला कर उत्तर दिया।  कोई उन्हें सिंध का सावरकर की उपाधि देता था, कोई उन्हें सिंध के श्रद्धानन्द की उपाधि देता था। धीरे धीरे वे शुद्धिवाला के नाम से प्रसिद्द हो गए। उनके जीवन से अनेक विवरण हमे आज भी शुद्धि की प्रेरणा देते है। हरपाल और धीरज मुसलमान हो गए थे।  उनके प्रयत्न से फिर से शुद्ध हो गए।  लीना नामक एक ईसाई लड़की को शुद्ध करके उनका विवाह हरिश्चंद से करवाया।  नवाबशाह के एक हिन्दू जमींदार की लड़की को मुसलमान भागकर ले गए। उसको वापिस लाकर शुद्ध करके एक हिन्दू नौजवान से उसकी शादी करवा दी।
हैदराबाद आन्दोलन के समय 1939 में शुद्धिवाला को सक्खर की सत्याग्रह समिति का अध्यक्ष बनाया गया। उन दिनों वह के मुसलमान हिन्दू लड़कियों को भगा कर एक स्थान खडे में ले जाकर रखते थे। बाद में उन अबलायों को मुसलमान बना देते थे।  शुद्धिवाला अपने प्राणों की फिक्र न करते हुए वहां पहुँच गया और कई हिन्दू लड़कियों का बचा लाये।  पंडित लेखराम के मस्जिद से हिन्दू लड़की को बचाने वाली घटना का पुन: स्मरण हो गया।
एक घटना उनके जीवन के संघर्ष को यथार्थ कर आज भी हमे गुदगुदाती है।  सिंध में तुल्सया नामक हिन्दू लड़की एक मुसलमान के साथ भाग गई। पुलिस के सामने तुलस्या उसी मुसलमान के तरफदारी करती रही जिसके साथ वह भागी थी। हिंदुयों को अंदेशा था कि तुलस्या तो जाएगी ही, उससे मुसलमानों की हिम्मत और बढ़ जाएगी।  जिससे उन्हें हिन्दू लड़कियों को भगाने की छुट ही मिल जाएगी। शुद्धिवाला के प्रयासों से भी वह तस से मस न हुई।  तुलस्या को जेल में रखा गया था।  शुद्धिवाला मुस्लिम वेश भूषा पहन कर जेल में चला गया।  जेल में वे तुलस्या से फिर से मिला। उसे समझाया बुझाया। कुछ दिनों में उसने तुलस्या को वापिस हिन्दू बना दिया।  अगली सुनवाई के समय तुल्सया ने हिंदुयों के पक्ष में गवाही दी और भगाने वालों को 5-5  वर्ष की सजा हुई।  तुलस्या को शुद्ध कर उसे हिन्दू पति के साथ रखा गया।  अपने जीवन के अंतिम वर्षों तक तुलस्या हिन्दू ही रही।
यह घटना 1947 से पहले की है।  आर्यसमाज उस काल में हिन्दुओं में व्याप्त अन्धविश्वास के विरुद्ध जनजागरण अभियान चला रहा था। सिंध में हिन्दुओं के घरों में एक और अंधविश्वास पनप रहा था।  वह था भूत प्रेत का किसी भी औरत के शरीर में आना और उसका बाल खुले छोड़कर झूमना। उस भूत को भागने के लिए भूपे को बुलाया जाता जो पहले उस औरत को मारता पिटता, फिर उसकी मांग को पूछता।  जब उसकी मांग जैसे धन, वस्तु आदि की पूर्ति हो जाती। तो वह भूत औरत के शरीर से अलग हो जाता और औरत झूमना बंद कर देती। घोटकी जिला सक्खर में 1919-1920  में आर्यसमाज की स्थापना हुई थी।  आर्यसमाज के कार्यकर्ता श्री खियाराम जी की औरत ने भूत चिपकने का नाटक रचा।  भूपे बड़े खुश हुए।  वे कहने लगे की आर्यसमाजी तो भूत प्रेत को मानते ही नहीं अब देखेगे की वे कैसे भूतों से छुटकारा पाएँगे।
खियाराम जी पर आर्यसमाज का प्रभाव था व इस नाटक को समझते थे। उन्होंने पहले तो अपनी पत्नी को समझाया बुझाया पर वह नहीं मानी और झूमती रही तो उन्होंने उसे एक कोठरी में बंद करके वहाँ पर अग्निहोत्र करना शुरू कर दिया और चुपके से उसमे लाल मिर्ची दाल कर कोठरी को बंद कर बाहर आ गए। उन्होंने घोषणा कर दी की हवन के धुएँ से भूत स्वयं भाग जायेगा।  उनकी औरत मिर्ची का तेज धुआ सहन नहीं कर सकी और कोठरी से बहार निकलने के लिए चिल्लाने लगी।  श्री खियाराम ने कहाँ की जब तक प्रेत नहीं भागेगा तब तक दरवाजा नहीं खुलेगा।  अंत में उनकी औरत ने सत्य कथा कह सुनाई की उसे कुछ शिकायतें थी। जिसे पूरा करने के लिए वह भूपे के पास गयी थी।  उसने यह ढोंग रचने को कहा था। सारी हकीकत पता चलने पर पूरे शहर में आर्यसमाजियों की अंधविश्वास से छुटकारा दिलवाने के लिए प्रशंसा मिली और भूपों को सभी ने धिक्कारा था। इस घटना के बाद सन 1947  तक फिर किसी भी महिला में कोई भूत नहीं आया।
आज भी गांव-देहात में किसी के शरीर में भूतों के आने की ख़बरें सुनने को मिलती है। आर्यों की यह पुरानी तरकीब अपना कर देखिये। निश्चित रूप से लाभ होगा। हिन्दू समाज को आर्यसमाज का अन्धविश्वास के विरुद्ध पुरुषार्थ करने के लिए आभारी होना चाहिए।
मैंने सिंध में आर्यसमाज के इतिहास का एक लुप्त पृष्ठ पाठकों के समक्ष यह सिद्ध करने के लिया लिखा है कि आर्यसमाज ने हिन्दू समाज पर कितना उपकार किया है। आर्यसमाज हिन्दू समाज का प्रहरी है।  रक्षक है।  आपत्ति काल में धर्मरक्षा करने वाला है। आज की युवा पीढ़ी को आर्यसमाज द्वारा किये गए तप को स्मरण कर प्रेरणा लेनी चाहिए। सिंध में वर्तमान में भी हिन्दुओं की दुर्दशा किसी से भी छुपी नहीं है। भारत में यही परिस्थितियां धीरे धीरे जहाँ जहाँ हिन्दुओं की संख्या कम और मुसलमानों की अधिक होती जा रही है बनने लगी है। आज हिन्दुओं को एक होकर, संगठित होकर, अपने हिन्दू भाइयों की रक्षा करने का संकल्प लेना चाहिए अन्यथा श्री राम और कृष्ण का नाम तक लेने वाला कुछ दशकों में दुर्लभ हो जायेगा। स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का हिन्दू समाज पर उपकार अविस्मरणीय है।

अम्बेडकर ने कहा था, मुसलमानों की निष्ठा जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती

आजकल भारत में मुख्य मुद्दा सवर्ण-दलित का है। इसमें कुछ बामसेफी, भीमसेना, सांभाजी ब्रिग्रेड़ वाले हिन्दू विरोधी गतिविधियों में भाग लेते है। इनका साथ मुस्लिम और ईसाई मिशनरी देते हैं। आजकल  एक  चैनल भी दलित-मुस्लिमों द्वारा सम्यक रुप से प्रसारित किया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य मंचों पर भी जैसे कि सोशल नेटवर्किंग साईटों, पत्र एवं पत्रिकाओं में भी दोनों मिलकर आपस में हिन्दू समाज के विरोध में अपने लेखों का सम्पादन करते है। वैदिक संस्कृति को आपस में मिलकर नष्ट करना चाहते हैं। यहां दलितों को सोचना चाहिए कि मुस्लिम उनकें साथ इसलिये नहीं है कि वे दलितों का उत्थान चाहते हैं बल्कि इसलिए है कि सवर्ण दलितों में फूट हो और हम लोग उसका फायदा उठाकर इससे लाभ उठायें।

दलित समाज जिन अम्बेड़कर जी को मानता है, वे स्वयं मुस्लिम कट्टरता और मुस्लिम धर्म ग्रन्थों के बहुत विरोध में थे। डॉ. अम्बेडकर किसी के मुस्लिम हो जाने पर मात्र मतपरिवर्तन नहीं मानते थे बल्कि वे इसे संस्कृति और सभ्यता परिवर्तन भी मानते थे। उनका कथन था कि विदेशी मत को अपनाने से व्यक्ति अपनी राष्ट्रीयता को नष्ट कर देता है और जिस विदेशी मत को उसने ग्रहण किया है उसी देश की राष्ट्रीयता का अनुयायी बन जाता है। यहीं कारण है कि डॉ. अम्बेडकर जी ने मतान्तरण में किसी विदेशी मुस्लिम और ईसाई मत न ग्रहण करके मात्र बौद्धमत अपनाया था।

ड़ॉ. अम्बेड़कर इस्लाम तुष्टिकरण के भी खिलाफ थे, उन्होनें कांग्रेस आदि के मुस्लिम तुष्टिकरण से अनेकों बार असंन्तुष्टि दर्शाई है किन्तु उनके आजकल के अनुयायी स्वयं मुस्लिम तुष्टिकरण के पक्ष में है। ड़ॉ. अम्बेड़कर नें तुष्टिकरण पर कुछ प्रश्न किये थे जो आज भी प्रासंगिक है –

क्या हिन्दू – मुस्लिम एकता ही एकमात्र भारत की राजनीतिक अभियोत्थान हेतु आवश्यक थी?
क्या हिन्दू – मुस्लिम एकता तुष्टीकरण या समझौते के माध्यम से प्राप्त की जा सकती थी।
यदि एकता तुष्टिकरण से प्राप्त की जाती, वे कौन सी नई सुविधाएं हैं जो मुस्लिमों को दी जानी चाहिए।
यदि समझौता विकल्प है तो समझौते की शर्त हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का विभाजन है अथवा दो संविधान और सभाओं और सेवाओं में 50% भागेदारी?
क्या दोनों सम्प्रदायों का एक मान्य संविधान हो सकता है?
बगैर भौगोलिक एकता के हमेशा सीमा विवाद रहेंगे?
क्या शान्ति से विभाजन नहीं हो सकता था?

इस प्रकार कई प्रश्न थे जो मुस्लिम तुष्टिकरण के सख्त विरोध में दृष्टिगोचर होते है। इन्हीं सब कथनों को लेते हुए, उन्होनें एक पुस्तक Thoughts on Pakistan लिखी थी, इसी पुस्तक का द्वितीय संस्करण Pakistan or Partition of India नाम से प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में डॉ. अम्बेड़कर के जो इस्लाम पर मन्तव्य थे, वे प्रत्येक हिन्दू और नवबौद्ध को अवश्य पढ़नें चाहिए –

१. हिन्दू काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं-”मुसलमानों के लिए हिन्दू काफ़िर हैं, और एक काफ़िर सम्मान के योग्य नहीं है। वह निम्न कुल में जन्मा होता है, और उसकी कोई सामाजिक स्थिति नहीं होती। इसलिए जिस देश में क़ाफिरों का शासनहो, वह मुसलमानों के लिए दार-उल-हर्ब है ऐसी सति में यह साबित करने के लिए और सबूत देने की आवश्यकता नहीं है कि मुसलमान हिन्दू सरकार के शासन को स्वीकार नहीं करेंगे।” (पृ. ३०४)

२. मुस्लिम भ्रातृभाव केवल मुसलमानों के लिए-”इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा ओर शत्रुता ही है।

इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा है। एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत या उल्टे सोचना अत्यन्त दुष्कर है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन हैं, वहीं उसका अपना विश्वासहै। दूसरे शब्दों में, इस्लाम एक सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की इज़ाजत नहीं देता। सम्भवतः यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एक महान भारतीय, परन्तु सच्चे मुसलमान ने, अपने, शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए येरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।”

३. एक साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय मुसलमान में अन्तर देख पाना मुश्किल-”लीग को बनाने वाले साम्प्रदायिक मुसलमानों और राष्ट्रवादी मुसलमानों के अन्तर को समझना कठिन है। यह अत्यन्त संदिग्ध है कि राष्ट्रवादी मुसलमान किसी वास्तविक जातीय भावना, लक्ष्य तथा नीति से कांग्रेस के साथ रहते हैं, जिसके फलस्वरूप वे मुस्लिम लीग् से पृथक पहचाने जाते हैं। यह कहा जाता है कि वास्तव में अधिकांश कांग्रेसजनों की धारण है कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, और कांग्रेस के अन्दर राष्ट्रवादी मुसलमानों की स्थिति साम्प्रदायिक मुसलमानों की सेना की एक चौकी की तरह है। यह धारणा असत्य प्रतीत नहीं होती। जब कोई व्यक्ति इस बात को याद करता है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के नेता स्वर्गीय डॉ. अंसारी ने साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध करने से इंकार किया था, यद्यपिकांग्रेस और राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा पारित प्रस्ताव का घोर विरोध होने पर भी मुसलमानों को पृथक निर्वाचन उपलब्ध हुआ।” (पृ. ४१४-४१५)

४. भारत में इस्लाम के बीज मुस्लिम आक्रांताओं ने बोए-”मुस्लिम आक्रांता निस्संदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परन्तु वे घृणा का वह गीत गाकर और मार्ग में कुछ मंदिरों को आग लगा कर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो यह वरदान माना जाता। वे ऐसे नकारात्मक परिणाम मात्र से संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस्लाम का पौधा लगाते हुए एक सकारात्मक कार्य भी किया। इस पौधे का विकास भी उल्लेखनीय है। यह ग्रीष्म में रोपा गया कोई पौधा नहीं है। यह तो ओक (बांज) वृक्ष की तरह विशाल और सुदृढ़ है। उत्तरी भारत में इसका सर्वाधिक सघन विकास हुआ है। एक के बाद हुए दूसरे हमले ने इसे अन्यत्र कहीं को भी अपेक्षा अपनी ‘गाद’ से अधिक भरा है और उन्होंने निष्ठावान मालियों के तुल्य इसमें पानी देने का कार्य किया है। उत्तरी भारत में इसका विकास इतना सघन है कि हिन्दू और बौद्ध अवशेष झाड़ियों के समान होकर रह गए हैं; यहाँ तक कि सिखों की कुल्हाड़ी भी इस ओक (बांज) वृक्ष को काट कर नहीं गिरा सकी।” (पृ. ४९)

५. मुसलमानों की राजनीतिक दाँव-पेंच में गुंडागर्दी-”तीसरी बात, मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाया जाना है। दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागिर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है।” (पृ. २६७)

६. हत्यारे धार्मिक शहीद-”महत्व की बात यह है कि धर्मांध मुसलमानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गई। मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का, जिन्होंने यह कत्ल किये। जहाँ कानून लागू किया जा सका, वहाँ हत्यारों को कानून के अनुसार सज़ा मिली; तथापि प्रमुख मुसलमानों ने इन अपराधियों की कभी निंदा नहीं की। इसके वपिरीत उन्हें ‘गाजी’ बताकर उनका स्वागत किया गया और उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन शुरू कर दिए गए। इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है लाहौर के बैरिस्टर मि. बरकत अली का, जिसने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथूराम की हत्या का दोषी नहीं है, क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलमानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है, परन्तु जो बात समझ में नहीं आती, वह है श्री गांधी का दृष्टिकोण।”(पृ. १४७-१४८)

७. हिन्दू और मुसलमान दो विभिन्न प्रजातियां-”आध्याम्कि दृष्टि से हिन्दू और मुसलमान केवल ऐसे दो वर्ग या सम्प्रदाय नहीं हैं जैसे प्रोटेस्टेंट्‌स और कैथोलिक या शैव और वैष्णव, बल्कि वे तो दो अलग-अलग प्रजातियां हैं।” (पृ. १८५)

८. हिन्दू-मुस्लिम एकता असफल क्यों रही ?-”हिन्दू-मुस्लिम एकता की विफलता का मुखय कारण इस अहसास का न होना है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो भिन्नताएं हैं, वे मात्र भिन्नताएं ही नहीं हैं, और उनके बीच मनमुटाव की भावना सिर्फ भौतिक कारणों से ही नहीं हैं इस विभिन्नता का स्रोत ऐतिहासिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दुर्भावना है, और राजनीतिक दुर्भावना तो मात्र प्रतिबिंब है। ये सारी बातें असंतोष का दरिया बना लेती हैं जिसका पोषण उन तमाम बातों से होता है जो बढ़ते-बढ़ते सामान्य धाराओं को आप्लावित करता चला जाता हैं दूसरे स्रोत से पानी की कोई भी धारा, चाहे वह कितनी भी पवित्र क्यों न हो, जब स्वयं उसमें आ मिलती है तो उसका रंग बदलने के बजाय वह स्वयं उस जैसी हो जाती हैं दुर्भावना का यह अवसाद, जो धारा में जमा हो गया हैं, अब बहुत पक्का और गहरा बन गया है। जब तक ये दुर्भावनाएं विद्यमान रहती है।

 
पुस्तक का नाम – पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन
लेखक का नाम – डॉ. बी. आर. आंबेड़कर  

पूरात्वविद् साहित्यकार रमेश वारिद को श्रद्धांजलि

कोटा। पुरातत्वविद् रमेश वारिद की द्वितीय पुण्य तिथि के अवसर पर आरकेपुरम में परिवार जनों के मध्य श्रद्धांजलि अर्पित की गई। वरिष्ठ संस्कृति कर्मी पर्यटक लेखक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने कहा कि रमेश वारिद इतिहास और साहित्य के प्रति समर्पित रहे। उन्होंने हागोती के पुरात्व पर 60 आलेखों की श्रंखला लिख कर पुरास्थल और  उनके स्थापत्य और मूर्ति शिल्प को सामने लाए,  उनके ये शोधपरक आज उपलब्ध नहीं हैं। वे मिलनसार वृति के और सबका सहयोग करने वाले विद्वान थे।
कथाकार-समीक्षक विजय जोशी ने कहा कला-साहित्य, संस्कृति तथा पुरातत्व एवं इतिहास से सन्दर्भित शोध लेखन को समर्पित कला-समीक्षक, साहित्यकार पुरातत्वविद् रमेश वारिद आध्यात्मिक साहित्य एवं दर्शन के अध्येयता और प्रखर वक्ता थे जो सृजन परिवेश को संरक्षित और विकसित करने हेतु सदैव  तत्पर रहे।
श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उपस्थित परिजनों में साक्षी, राघवेंद्र, संजय, कविता ने उन्हें संस्कृति कर्मी एवं साहित्य – समाज को समर्पित प्रेरक व्यक्तित्व बताया। वरिष्ठ उपन्यासकार एवं भौतिक विज्ञानी डॉ. गणेश तारे, हाड़ौती पर्यावरण संरक्षण समिति के संभागीय अध्यक्ष श्याम मनोहर हरित तथा नगर निगम कोटा दक्षिण के नेता प्रतिपक्ष, अध्यक्ष मेला समिति एवं प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य,भाजपा राजस्थान, जयपुर के सदस्य विवेक राजवंशी ने अपने सन्देश में श्रद्धांजलि अर्पित करते गहरी संवेदना अभिव्यक्त की।

15 अगस्त का दिन भारत के विभाजन का लाखों बेगुनाह हिंदुओं के कत्लेआम का दिन है

1947 में भारत के विभाजन के दौरान हुए सांप्रदायिक दंगों में मारे गए हिंदुओं की संख्या का अनुमान 200,000 से 1 मिलियन के बीच है।

भारत के विभाजन के साथ, पाकिस्तान के दो हिस्सों का निर्माण हुआ: पश्चिमी पाकिस्तान (जो आज का पाकिस्तान है) और पूर्वी पाकिस्तान (जो अब बांग्लादेश है)। विभाजन के परिणामस्वरूप, भारत का लगभग 23% भूभाग पाकिस्तान को चला गया।

इस भूभाग में पंजाब, बंगाल, सिंध, बलूचिस्तान, और उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत के हिस्से शामिल थे। विभाजन के साथ ही, लगभग 14 मिलियन लोग अपने घरों से विस्थापित हो गए थे, जो विश्व इतिहास का सबसे बड़ा जनसंहार माना जाता है।

1947 में ब्रिटिश भारत का विभाजन कई जटिल कारणों का परिणाम था, जिसमें राजनीतिक, धार्मिक, और सांप्रदायिक तनाव शामिल थे। इन सब में मुहम्मद अली जिन्ना की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण थी। जिन्ना ने अपने प्रारंभिक करियर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ सहयोग किया था, और वे भारत के हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच एकता के पक्षधर थे। लेकिन समय के साथ, जिन्ना की सोच में बदलाव आया, और वे मुसलमानों के अधिकारों के लिए एक अलग राज्य की वकालत करने लगे।

विभाजन का प्रमुख कारण ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ था, जिसे जिन्ना ने जोर-शोर से आगे बढ़ाया। यह सिद्धांत इस विचार पर आधारित था कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, जो एक ही राजनीतिक ढांचे के अंतर्गत नहीं रह सकते। इस सिद्धांत का प्रमुख आधार धार्मिक विभाजन था, और इसका परिणाम एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र, पाकिस्तान के निर्माण में हुआ।

जिन्ना की भूमिका को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि वे कैसे और क्यों कांग्रेस से अलग हुए और मुस्लिम लीग के प्रमुख नेता बने। 1930 और 1940 के दशक में, जब भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन गति पकड़ रहा था, जिन्ना ने महसूस किया कि कांग्रेस पार्टी के भीतर मुस्लिमों की आवाज़ को पर्याप्त महत्व नहीं मिल रहा था। इसके अलावा, 1937 के प्रांतीय चुनावों के बाद, जिन्ना को विश्वास हो गया कि मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक अलग राष्ट्र की आवश्यकता है।

1940 में लाहौर प्रस्ताव के दौरान, जिन्ना ने पहली बार सार्वजनिक रूप से पाकिस्तान की मांग की। इसके बाद मुस्लिम लीग ने यह साफ कर दिया कि वह एक अलग मुस्लिम राज्य के बिना किसी अन्य समाधान को स्वीकार नहीं करेगी।

ब्रिटिश सरकार भी, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की कमजोर स्थिति और भारत में बढ़ते राजनीतिक असंतोष के कारण, जल्दी से सत्ता हस्तांतरण करने के लिए तैयार थी। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए जिन्ना ने विभाजन की अपनी मांग को मजबूती से पेश किया।

बांग्लादेश की सियासी उथल-पुथल से भारतीय उपमहाद्वीप पर मंडरा रहा है खतरा

अवामी लीग और बांग्ला मतदाताओं के बीच एक अनकहा समझौता यह था कि सरकार दमनकारी होगी लेकिन वह समृद्धि लाएगी। बहुत कम सरकारें ऐसा समझौता निभा सकी हैं।

बांग्लादेश के हालिया घटनाक्रम का असर भारतीय उपमहाद्वीप के बाकी हिस्सों पर पड़ना लाजिमी है। दुनिया में आठवीं सर्वाधिक आबादी वाले देश में आने वाले दिनों में क्या कुछ घटित होगा, यह कई टीकाकारों की रुचि का विषय रहने वाला है। बांग्लादेश की पिछली सरकार अधिनायकवादी थी। इस अपदस्थ सरकार ने विपक्ष के नेताओं को जेल में डालने के बाद बेहद खामियों से भरा चुनाव जीता। उसने विपक्ष के देश के संविधान को भी ताक पर रख दिया, जिसमें निष्पक्ष अंतरिम सरकार द्वारा राष्ट्रीय चुनाव कराने की बात कही गई है। बीते कुछ सप्ताह में बहुत अधिक खूनखराबा हुआ जब सरकार ने सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों का दमन करने का प्रयास किया।

परंतु यह दावा भी गलत होगा कि सरकार पूरी तरह नाकाम रही। उसने एक वृहद और स्थिर माहौल मुहैया कराया तथा कई वर्षों तक देश को मजबूत वृद्धि प्रदान की। निश्चित तौर पर उसने इतनी मजबूत वृद्धि प्रदान की कि इस गरीब मुल्क में आर्थिक चमत्कार ही हो गया। यह सरकार पूरी तरह अलोकतांत्रिक भी नहीं थी क्योंकि उसने अल्पसंख्यकों के बचाव के उपाय भी किए।

अवामी लीग और बांग्ला मतदाताओं के बीच एक अनकहा समझौता यह था कि सरकार दमनकारी होगी लेकिन वह समृद्धि लाएगी। बहुत कम सरकारें ऐसा समझौता निभा सकी हैं। पूर्वी यूरोप, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के मानचित्रों को गौर से देखिए, जहां अधिनायकवादी शासन रहे हैं। उनमें से कई देश संसाधनों से भरे हैं मगर वहां वृद्धि नहीं हुई, केवल दमन हुआ।

बीते 80 साल में पूर्वी एशिया की चुनिंदा अलोकतांत्रिक अर्थव्यवस्थाएं ही वृद्धि दे पाने में सफल रही हैं। भारत के उत्तरी पड़ोसी और वियतनाम के अलावा अधिकतर देश आगे चलकर पूरी तरह लोकतांत्रिक देश बन गए। पश्चिम एशिया के संसाधन समृद्ध देशों में भी संपन्नता आई, लेकिन वहां वृद्धि असमान बनी रही।

यह बात हमें राजनीति विज्ञान की सबसे आम भ्रांतियों में से एक की ओर ले आती है जो कहती है: लोकतंत्र अक्सर विकास के विरुद्ध होता है। परंतु यह सही नहीं है। अधिनायकवादी शासन उस स्थिति में वृद्धि प्रदान कर सकता है जब शासक समझदार हो। परंतु वास्तव में बहुत कम अधिनायकवादी शासन ही समृद्धि प्रदान कर पाते हैं। लोकतांत्रिक देशों का प्रदर्शन कहीं बेहतर है। दुनिया के सबसे अमीर देश लोकतांत्रिक हैं।

यह भ्रांति ऊपर दिए गए चुनिंदा उदाहरणों से उत्पन्न होती है लेकिन दमनकारी शासन के वृद्धि विरोधी होने के कई उदाहरणों की उपेक्षा कर दी जाती है। इस भ्रम की एक और वजह यह है कि दमनकारी शासनों के साथ सौदेबाजी आसान होती है। खास तौर पर कंपनियों और सरकारों के लिए भी। वहां किसी एक मजबूत शख्सियत को रिश्वत देकर काम कराना आसान होता है और ढेर सारे राजनेताओं को मनाने से बेहतर होता है एक व्यक्ति को मनाकर उससे अपने अनुकूल काम कराना। ऐसे में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास अधिनायकवादी शासन का समर्थन करने और ऐसी भ्रांति को बढ़ावा देने की वजह होती है।

अगर हम इतिहास को खंगालें तो यही कहानी नजर आती है। पहले के दौर के राजशाही वाले देशों की तुलना वर्तमान अधिनायकवादी शासन से की जा सकती है। राजशाही के दौर में टिकाऊ वृद्धि वाले राज्य गिने-चुने ही थे। अगर किसी राजवंश का एक सदस्य प्रजा की स्थिति बेहतर करता था तो आगे आने वाले शासक सब कुछ बिगाड़ दिया करते थे।

जागरण और औद्योगिक क्रांति उन स्थानों पर घटित हुए जो अपेक्षाकृत लोकतांत्रिक थे। उत्पादकता और समृद्धि में अधिकतर वृद्धि उन्हीं देशों में देखने को मिली। सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण जापान है। जापान के सम्राट 1868 में देश के संवैधानिक प्रमुख बने और जापान के औद्योगीकरण ने गति पकड़ ली। यूरोप में भी ऐसा ही हुआ। पश्चिम और उत्तरी यूरोप के कई देश राजशाही वाले बने रहे किंतु अन्य देशों ने जल्द ही लोकतांत्रिक मॉडल अपना लिया। अमेरिका में अभूतपूर्व स्तर पर नवाचार और औद्योगीकरण देखने को मिला।

बांग्लादेश पर नजर रखने वाले देशों के लिए एक चिंता यह भी है कि अलोकतांत्रिक सरकारों का स्थान अक्सर ऐसी सरकारें ले लेती हैं जो उनसे भी बुरी होती हैं या फिर गृह युद्ध जैसे हालात बन जाते हैं। भूतपूर्व सोवियत गणराज्य के अलावा हम ईरान, लीबिया, मिस्र और अन्य देशों के उदाहरण देख सकते हैं।

बांग्लादेश से एक सीख यह भी मिलती है कि अक्सर केवल समृद्धि से दमित आबादी को खुश नहीं रखा जा सकता है। अगर वृद्धि में मामूली गिरावट भी आती है तो असंतुष्ट जनता सड़कों पर उतर आती है क्योंकि मतदान का विकल्प उपलब्ध नहीं होता। चीन तक में विरोध प्रदर्शन देखने को मिले। इनमें सबसे बड़ा प्रदर्शन 1989 में हुआ था।

दक्षिण कोरिया और ताइवान में लोकतांत्रिक बदलाव बिना किन्हीं खास झटकों के आया। अन्य देशों मसलन इंडोनेशिया, फिलिपींस तथा थाईलैंड में लोकतंत्र की ओर बदलाव की प्रक्रिया उतनी सहज नहीं रही।

यहां भारत के लिए भी सबक हैं क्योंकि हमारे देश में कुछ संकेतकों के मुताबिक वृद्धि तो हो रही है किंतु यह कुछ क्षेत्रों में ही हो रही है और बाकी क्षेत्र गिरावट के शिकार हो रहे हैं। इससे आर्थिक असमानता भी बढ़ रही है।

साभार- https://hindi.business-standard.com/ से

ओड़िशा केंद्रीय विश्वविद्यालय ने कुंडुली हाट में अंतर्राष्ट्रीय स्वदेशी दिवस मनाया।

भुवनेश्वर। भारत सरकार की नीति के अनुसार “समानता और पहुंच” की चिंताओं को दूर करना और कम शैक्षणिक रूप से विकसित जिलों में लोगों द्वारा गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा तक पहुंच बढ़ाना, जहां स्नातक नामांकन अनुपात राष्ट्रीय औसत 11% से कम है, जैसे कि आदिवासी बहुल क्षेत्र कोरापुट, ओडिशा केंद्रीय विश्वविद्यालय ने 10 अगस्त 2024 को कुंडुली हाट क्षेत्र में विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस मनाया, यह कार्यक्रम विश्वविद्यालय परिसर से बाहर आयोजित किया गया।
 कार्यक्रम का विषय स्थानीय आदिवासी युवाओं को सशक्त बनाना और इको-टूरिज्म में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पैदा करना है। कार्यक्रम का विधिवत उद्घाटन विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति प्रो. चक्रधर त्रिपाठी ने किया।  इस अवसर पर मुख्य वक्ता के रूप में संबलपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. बिष्णु चरण बारिक, विशिष्ट अतिथि के रूप में होटल प्रबंधन संस्थान, भुवनेश्वर की प्राचार्या प्रो. शारदा घोष, पूर्व सांसद श्री जयराम पांगी, आदिवासी विकास परिषद के सलाहकार और नेताजी सुभाष जन्मभूमि यात्रा के संयोजक श्री देबी प्रसाद प्रुस्ती, सामाजिक कार्यकर्ता जी. जॉन, उद्यमी और सामाजिक कार्यकर्ता श्री जुगब्रत कर, जिला पर्यटन अधिकारी सुश्री तलिना प्रधानी, जिला संस्कृति अधिकारी सुश्री प्रीतिसुधा जेना और ओड़िशा केंद्रीय विश्वविद्यालय की सह प्राध्यापिका डॉ. निर्झरिणी त्रिपाठी भी उपस्थित थीं।
कार्यक्रम के समन्वयक सह समाजशास्त्र विभागाध्यक्ष डॉ. कपिला खेमुंडू ने स्वागत भाषण दिया और सेमिनार आयोजित करने के उद्देश्य पर प्रकाश डाला।  इस दिवस के उद्घाटन कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति प्रो. चक्रधर त्रिपाठी ने क्षेत्र के लोगों के सामाजिक-आर्थिक मानकों को विकसित करने के लिए भारत सरकार के आदेश के अनुरूप विश्वविद्यालय की जिम्मेदारियों पर प्रकाश डाला। कोरापुट इको-टूरिज्म के लिए उपयुक्त एक खूबसूरत जगह है, जहां स्थानीय आदिवासी युवाओं के लिए बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पैदा किए जा सकते हैं। ओडिशा केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थानीय से वैश्विक के बीच का माध्यम है और कोरापुट की क्षमता को दुनिया के सामने प्रदर्शित करने में अग्रणी भूमिका निभाएगा। उन्होंने कहा कि यहां सेमिनार आयोजित करने का उद्देश्य लोगों में इको-टूरिज्म और रोजगार के बारे में जागरूकता पैदा करना है।
उन्होंने आशा व्यक्त की कि भविष्य में विश्वविद्यालय ओडिशा की आर्थिक प्रगति में अग्रणी योगदानकर्ता होगा। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के पूर्व टैगोर नेशनल फेलो प्रो. बारिक ने कोरापुट में इको-टूरिज्म के विकास पर ध्यान केंद्रित किया। कोरापुट पर्यटन का एक महत्वपूर्ण केंद्र है और यदि इसे ठीक से विकसित किया जाए तो यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल के रूप में स्थापित होगा।  ग्रामीण युवाओं को विकास प्रक्रिया में रोजगार देकर ऐसा किया जा सकता है। उन्होंने कोरापुट के पर्यटन क्षेत्रों के बुनियादी ढांचे के विकास पर भी ध्यान केंद्रित किया।
उन्होंने कहा कि पर्यटक कोरापुट गंतव्य के राजदूत हो सकते हैं। श्री पांगी ने कोरापुट के विकास के विभिन्न अनुभवों पर प्रकाश डाला और कहा कि समर्थन की कमी के कारण कोरापुट का सुंदर स्थान पर्यटन स्थल के रूप में लोकप्रिय नहीं हो पाया है। यदि व्यवस्थित योजना बनाई जाए तो कोरापुट को कुल्लू और मनाली की तरह विकसित किया जा सकता है। उन्होंने जोर दिया कि यदि कोरापुट में इको-टूरिज्म विकसित किया जा सकता है तो स्थानीय युवाओं को रोजगार के अवसर मिल सकते हैं। प्रो. घोष ने कहा कि ग्रामीण युवाओं को आतिथ्य क्षेत्र में उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए और हमारा संस्थान विश्वविद्यालय की मदद से कोरापुट क्षेत्र में पर्यटन को बढ़ाने में मदद करेगा।
उन्होंने कहा कि पर्यटन विकास के लिए स्थानीय भाषा, स्थानीय संस्कृति और स्थानीय व्यंजनों पर प्रकाश डाला जाना चाहिए। श्री कर ने क्षेत्र के विकास के लिए ग्रामीण रोजगार पर ध्यान केंद्रित किया। हालांकि, उन्होंने आतिथ्य उद्योग के क्षेत्र में उद्यमियों के विकास पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि इको-टूरिज्म विकसित करने के लिए युवाओं में जुनून होना चाहिए।  श्री जॉन ने इको-टूरिज्म के उद्देश्य को समझाते हुए कहा कि इको-टूरिज्म का मतलब शांति और सुकून है। उन्होंने कहा कि पर्यटन स्थलों को इस तरह से सजाया जाना चाहिए कि आने वाले पर्यटकों को सकारात्मक ऊर्जा मिले, जिससे इको-टूरिज्म को बढ़ावा मिलेगा।
 सुश्री प्रधानी ने कोरापुट के विभिन्न पर्यटन स्थलों की चर्चा की और कोरापुट में पर्यटन के विकास के लिए सरकार की योजनाओं के बारे में विस्तार से बताया। जिला संस्कृति अधिकारी सुश्री प्रीतिसुधा ने कहा कि कोरापुट में स्थानीय लोग पर्यटकों के प्रति काफी सहयोगी हैं, इसलिए इस क्षेत्र में पर्यटन विकास की काफी संभावनाएं हैं। कार्यक्रम के सह समन्वयक और सहायक प्रोफेसर डॉ. सौरव गुप्ता ने धन्यवाद ज्ञापन किया। औपचारिक बैठक के बाद, जिला संस्कृति विभाग की मदद से विश्वविद्यालय द्वारा एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। कार्यक्रम में विश्वविद्यालय के सभी संकाय सदस्य, कर्मचारी, छात्र और स्थानीय लोग शामिल हुए।

बांग्लादेश में हिंदुओं का उत्पीड़न हिटलर के यातना शिविरों से अधिक भयावह है

(बांग्लादेश बनने के बाद से ही किस तरह हिंदुओं के अधिकार छीनकर उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनकर जीने के लिए मजबूर किया गया। हिन्दू अपना  धन बाहर नहीं भेज सकते; ‘भेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’; और इस्लाम का स्टेट रिलीजन होना। राजकीय धन, सहायता केवल इस्लामी संस्थानों को मिलती है। हिन्दुओं पर अत्याचार करने वाले इस्लामियों, अपराधियों पर प्रायः कानूनी कार्रवाई नहीं होती। ऐसे तमाम भयावह तथ्य इस पुस्तक में सप्रमाण उजागर किए गए हैं)

बंगलादेश (पूर्वी बंगाल) में हिन्दुओं का सामूहिक, पर धीमा सफाया तब से चल रहा है जब बराक ओबामा स्कूल में पढ़ते थे। ईरान में शाह का सेक्यूलर शासन था । भारत में इंदिरा गाँधी का दबदबा था। अमेरिका वियतनाम युद्ध लड़ रहा था। सोवियत यूनियन में लियोनिद ब्रेझनेव की सत्ता थी । कोई इंटरनेट या मोबाइल फोन नहीं था । सो, इतने लंबे समय से पूरी दुनिया बंगलादेश के हिन्दुओं का क्रमशः खत्मा होने दे रही है। कानूनी और गैर-कानूनी दोनों तरीकों से खात्मा हो रहा है। इस पर एक ऊँगली तक नहीं उठाई गई। उलटे बंगलादेश को एक गरीब, छोटा देश मानकर उसे तरह-तरह की सहायता दी जाती रही है। सहायता देने वालों में भारत भी है।

पूर्वी बंगाल फिर बंगलादेश में हिन्दू संहार की प्रक्रिया पूरी तरह छिपी हुई कभी नहीं रही थी। जैसे कि हिटलरी नाजीवाद की गतिविधियाँ भी पूरी तरह छिपी नहीं थीं। 1922 ई. से ही हिटलर ने कहना शुरू किया था कि सत्ता मिलने पर वह यहूदियों का सफाया करेगा। यूरोपीय मीडिया में हिटलर की पर्याप्त रिपोर्टें आ चुकी थीं, जब सभी शासक मौन देखते रहे । बंगलादेश में उस से भी बड़ी भयावह ताकत सक्रिय है, जो बंगलादेश के हिन्दुओं के सफाए के बाद भारत, यूरोप, अमेरिका पर भी नजर गड़ाए हुए है।

उन संगठनों, संस्थाओं, और मतवाद का अध्ययन-परख करने वाला इसे सहज जान सकता है । बंगलादेश के बड़े राजनीतिक दल, जमाते इस्लामी, खलीफत मजलिस, आदि संगठनों की घोषणाओं में भी सारी बातें हैं। वे पूरी धरती पर कुरान व शरीयत का शासन कायम करने, दारुल इस्लाम बनाने के घोषित दावे के साथ चल रहे हैं। उन दावों का उन की गतिविधियों से मिलान करते ही गंभीरता और अब तक की सफलता भी साफ झलकती है। बंगलादेश में इस्लामियों की क्षमता और अब तक के शिकारों की मात्रा देखते हुए यह हिटलरी नाजीवाद से कई गुना भयावह है। इसलिए और भी क्योंकि उन्हें रोकने, चिन्हित करने के बजाए ‘सेक्यूलरिज्म’, और ‘मल्टीकल्चरिज्म’ इस्लामी संगठनों को उलटे एक समर्थन की छाया देता है। इन के विचारों, कामों की जाँच-परख के बजाए उन्हें तरह देने की नीति पूरे लोकतांत्रिक विश्व में है।

सब को अपने ‘रिलीजन का पालन’ करने की स्वतंत्रता की आड़ में इस्लामी राजनीतिक गतिविधियों से आँखें मूँद ली जाती हैं। इस के पीछे के अज्ञान, आरामपसंदगी, व कायरता का इस्लामी संगठन भरपूर दोहन कर रहे हैं। यदि यह प्रक्रिया नहीं रोकी गई, तो यह अंततः निस्संदेह वहीं पहुँचेगी जो तमाम इस्लाम जमातों का दावा है। यह प्रक्रिया हिटलरी नाजीवाद से कई गुणा विशाल, प्रभावी, पर लगभग निःशब्द, ‘अंडर द रडार’ चल रही है। लोकतांत्रिक विश्व अपने ही बनाए भ्रामक शब्दजाल से उन्हें चाहे अनचाहे सहायता दे रहा है।

बंगलादेश में हिटलरी यातना शिविर नहीं हैं, इस से वहाँ हिन्दुओं के लिए भयावहता कम नहीं हो जाती। बल्कि उलटे बढ़ जाती है, क्योंकि उस पर ध्यान ही नहीं जाता। बड़े-बड़े मानवाधिकार संगठन प्रायः बंगलादेश के हिन्दुओं के उत्पीड़न का उल्लेख तक नहीं करते! जबकि बंगलादेश में सरकार, मजहब, और आम मुस्लिम समाज, तीनों मिल कर हिन्दुओं का क्रमशः सफाया कर रहे हैं। कम से कम तीन कानूनी प्रावधान हिन्दुओं के विरुद्ध हैं। हिन्दू अपना  धन बाहर नहीं भेज सकते; ‘भेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’; और इस्लाम का स्टेट रिलीजन होना। राजकीय धन, सहायता केवल इस्लामी संस्थानों को मिलती है। हिन्दुओं पर अत्याचार करने वाले इस्लामियों, अपराधियों पर प्रायः कानूनी कार्रवाई नहीं होती।

इस प्रकार, बंगलादेश क्षेत्र में 1951 ई. से निरंतर और बहुमुखी उत्पीड़न से हिन्दुओं की संख्या 33% से घटकर अब 8 % रह गई है। वहाँ की हिन्दू आबादी मर रही है। पूर्ण विनाश की ओर है। यह लफ्फाजी नहीं, बल्कि ऐसा तथ्य है जिसे कितनी भी बार दुहराना कम होगा। तुलना के लिए ध्यान दें कि 1951 ई. में पूरे पाकिस्तान में कुल हिन्दू आबादी 23% थी, जो आज पाकिस्तान में 1% से भी कम रह गई है। दोनों क्षेत्रों में एक ही प्रक्रिया से, एक विशेष समूह खत्म हुआ है। मुख्यतः इसलिए क्योंकि भारत और पश्चिमी विश्व, दोनों ने इसे चुपचाप देखा। किसी ने कुछ नहीं किया।

फलतः अब तक बंगलादेश में 4 करोड़ 90 लाख हिन्दुओं का संहार या जबरन धर्मांतरण हो चुका है। जबकि हिटलर ने 60 लाख यहूदियों का संहार किया था, और स्तालिन ने 2 करोड़ रूसियों का । उन यहूदियों और बंगलादेशी हिन्दुओं की स्थिति में अंतर भी है । बंगलादेश में कोई ‘हिन्दू समस्या’ करके कोई चीज नहीं रही, जैसे जर्मनी में ‘यहूदी समस्या’ करके चर्चा होती थी । यहूदियों को निंदित किया जाता था, जबकि बंगलादेश के नेता खुलकर ‘हिन्दुओं से मुक्त बंगलादेश’ जैसी घोषणाएं नहीं करते; न ही बंगलादेश सरकार हिन्दुओं के खात्मे की योजनाएं चलाती है। नाजी जर्मनी में सारे यहूदियों को एक जैसा घृणित जैसा मानकर चला जाता था।

जबकि बंगलादेश में हिन्दू व्यक्ति सरकार, मीडिया, उद्योग आदि में बड़े पदों पर काम करते भी मिलते हैं। एक अन्य अंतर यहूदियों को हर हाल में खत्म करना था, जिन्हें धर्मांतरित होकर बचने का रास्ता नहीं था । जबकि बंगलादेश में हिन्दू को इस्लाम में धर्मांतरित कराना, उन की लड़कियों का अपहरण कर उन से मुस्लिम बच्चे पैदा कराना भी हिन्दू सफाए की एक तकनीक है। इन सब से क्या ऐसा नहीं लगता कि नाजी जर्मनी में यहूदियों की दुर्गति से बंगलादेश में हिन्दुओं की दुर्दशा की तुलना अनुपयुक्त है?

नहीं, बल्कि यह अंतर ही स्थिति को और भयानक बना देता है। नाजी जर्मनी और इस्लामी बंगलादेश की तुलना में समानता के बिन्दुओं से समान परिणाम का संकेत मिलता है: एक चुने हुए जातीय समूह का विनाश। वस्तुतः नाजीवाद की तुलना में जिहाद कई गुने अधिक मारक साबित होता है । बंगलादेश के हिन्दुओं और नाजी जर्मनी के यहूदियों के उत्पीड़न की तुलना निम्नलिखित समानताएं दिखाती है –

1. नाजीवाद की यहूदी – विरोधी आइडियोलॉजी की तरह इस्लाम की काफिर – विरोधी आइडियोलॉजी के लक्ष्य समान हैं।

2. जैसा 1941-43 में हुआ था, दुनिया के लोग बंगलादेश हिन्दुओं की दुर्दशा से उसी तरह उदासीन हैं जैसे तब यहूदियों के लिए थे।

3. न्यूरेनबर्ग कानूनों की तरह बंगलादेश का ‘भेस्टेड प्रॉपर्टी एक्ट’, जो एक समूह को मूल अधिकारों से वंचित करता है। जिन के प्रति बाहरी विश्व निष्क्रिय, निर्विकार

रहा।

4. यहूदी – मुक्त जर्मनी की तरह हिन्दू-मुक्त बंगलादेश की भवितव्यता ।

5. जर्मनी से फैलकर पड़ोसी ऑस्ट्रिया में भी वही गतिविधि शुरू हो जाने जैसे बंगलादेश से फैलकर भारत में वही गतिविधि चलना।

6. हिटलर ने जर्मनी के लिए और ‘रहने की जगह ‘

( लेबेन्सराउम) का दावा किया था, वही दावा भारतीय बंगाल, असम, सीमावर्ती बिहार, आदि क्षेत्रों पर है। गत चार दशकों में भारत की सीमा बिना किसी युद्ध के एक सौ कि. मी. पीछे आ चुकी है । बंगलादेश के मुस्लिमों द्वारा क्रमशः कब्जे द्वारा ।

7. जर्मन होलोकॉस्ट की तरह, कम से कम एक बार, 1971 ई. में बंगलादेश (पूर्वी पाकिस्तान) में बीस-पचीस लाख हिन्दुओं को मार डाला गया था। तब अंतर्राष्ट्रीय मीडिया और विदेशी राजदूतों ने स्पष्ट पाया था कि मुख्य निशाना मुख्यतः हिन्दू थे।

8. पुलित्जर पुरस्कार विजेता, प्रसिद्ध पत्रकार सिडनी शॉनबर्ग ने 1971 ई. में पूर्वी पाकिस्तान (बंगलादेश) में न्यूयॉर्क टाइम्स के संवाददाता थे। उन के अनुसार, पाकिस्तानी फोज ने हिन्दुओं को चुन-चुन कर सामूहिक निशाना बनाया। हिन्दू घरों, दुकानों, आदि को पीले रंग से ‘H’ चिन्हित कर दिया जाता था, जैसे जर्मनी में यहूदियों की निशानदेही होती थी। ताकि उन का खात्मा करने का उपाय हो । शॉनबर्ग को लोगों ने बताया कि फौजी गाड़ी आती थी और चिल्लाते हुए पूछती थी, ‘यहाँ कोई हिन्दू है’? जब उत्तर हाँ में मिलता तो उन्हें मार डाला जाता। उस समय के ऐसे विवरण और रिपोर्टें पढ़कर, तथा आज हो रही घटनाओं से मिलान कर कहना असंभव है कि वह प्रक्रिया खत्म हो गई है। ढाका में कुछ वर्ष पहले एक बेकरी पर आइसिस का हमला हू-ब-हू उसी तरह का संहार था जिस में गैर-मुस्लिमों को अलग कर, पहचान कर इसी लिए मार डाला गया।

इस प्रकार, नाजी जर्मनी में यहूदी संहार और बंगलादेश में हिन्दू संहार के दोनों मामलों में पूरी प्रक्रिया तीन कर्तव्य बिन्दु रेखांकित करती है। पहला, शुरू से दिख रहे संकेत पहचानना; दूसरा, अपने सिवा दूसरे लोगों की हालत समझना; और तीसरा, उस पर कुछ करना । हिन्दू लोग उसी तरह नियमित रूप से मारे, बलात्कार किए, और अपने पूर्वजों की भूमि से बेदखल किए जा रहे हैं – और यह बंगलादेश जैसे दुर्बल देश में! जो महत्वपूर्ण देशों का दबाव नहीं झेल सकता! यह सैनिक और आर्थिक दृष्टि से सब से कमजोर देशो में ही गिना जा सकता है। यह कोई ईरान या चीन नहीं है, जिस से उलझने में पश्चिमी देशों को सोचना पड़े।

पर उलटे ‘इस्लामोफोबिया’ की दलील आती है। जिसे महत्व देकर पीड़ितों के बजाए अभियुक्तों को नियमित मंच और प्रचार दिया जाता है। इस प्रकार, जहाँ संहार का कारण इस्लाम है और कर्ता मुस्लिम हैं, वहाँ भी कारण और कर्ता को छूट देने की जिद है। केवल 60 वर्ष में पाकिस्तान और बंगलादेश में हिन्दुओं की आबादी 23% और 33% से गिर कर क्रमशः 1% और 8% (कश्मीर में लगभग 5% से 0 % ) हो जाने का तथ्य भी इस दलील का खोखलापन दिखाता है। यदि कोई देख कर भी अनदेखा करना न चाहे ।

‘इस्लाम और कम्युनिज्मः तीन चेतावनियाँ – बिल वार्नर, रिचर्ड बैंकिन, सोल्झिनित्सिन’
(दिल्ली: अक्षय प्रकाशन, 2022 ). संकलन व अनुवाद – शंकर शरण


(शंकर शरण देश के जाने माने लेखक और इस्लामी मामलों के जानकार हैं)
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