भारतीय राजनीति और पत्रकारिता से कुलदीप नैयर का ओझल होना एक युग की विदाई है। जवान आंखों से हिन्दुस्तान की आजादी और बंटवारा देखने और महसूस करने वाले इने गिने लोगों में से एक बचे थे। आज के पाकिस्तान में सियालकोट उनकी जन्मभूमि थी और लाहौर से बीए तथा वहीं से कानून की पढ़ाई की थी। इसलिए सियालकोट और बंटवारे का जिक्र उनकी आंखों को हमेशा नम करता रहा। पिछली मुलाकात में उन्होंने पाकिस्तान को लेकर अपनी भावुक अभिव्यक्ति में कहा था- ‘आज आपका परिवार बड़ा हो जाता है तो बेटे अलग होते हैं कि नहीं। कई बार जगह की कमी से बंटवारा होता है तो कभी कभी आपसी खींचतान अलगाव का कारण बन जाता है। पाकिस्तान का बनना भी कुछ ऐसा ही है। अफसोस तो यह है कि कुछ मुठ्ठी भर ताकतवर लोग नफरत की आग जलाए बैठे हैं। दोनों देशों की अवाम तो आज भी गले मिलना चाहती है। उसके लिए मैं काम करता रहा हूं और आखिरी सांस तक करता रहूंगा’ और वो अंतिम समय तक यही करते रहे।
दरअसल कुलदीप नैयर का आगाज अंजाम से हुआ। अंजाम एक उर्दू रिसाला था और दिल्ली के बल्लीमारान से निकलता था। एक मुस्लिम यासीन उसके संपादक थे। कुलदीप नैयर की अंग्रेजी और उर्दू अच्छी थी। सौ रुपए महीने पर ‘अंजाम’ के साथ पत्रकारिता का जो सफर शुरू हुआ, वो अंत समय तक जारी रहा। महात्मा गांधी की हत्या के तुरंत बाद घटना स्थल पर पहुंचने वाले पत्रकारों में कुलदीप नैयर भी थे।
इसी बीच अमेरिका में एक स्कॉलरशिप मिली और नॉर्थवेस्ट विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में भी डिप्लोमा कर लिया। इसके बाद वो अपने सरोकारों के साथ जिए वो सिर्फ पत्रकार ही नहीं थे। वे भारत के एक ऐसे प्रतिनिधि राजदूत थे, जिसने सारी दुनिया में भारत की आवाज अपनी कलम के जरिए बुलंद की।
चौदह भाषाओं के अस्सी से अधिक समाचार पत्र-पत्रिकाओं में लिखना उनका एक ऐसा विश्व रिकॉर्ड है, जो कभी नहीं टूटेगा। ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त रहे, भारत सरकार के मुख्य सूचना अधिकारी रहे, राज्यसभा के सदस्य रहे, आपातकाल के दौरान जेल भेजे गए थे। स्टेट्समैन के संपादक के तौर पर इस अखबार ने वैचारिक ऊंचाईयां हासिल कीं। इसके बावजूद उन्होंने हमेशा अपने को एक साधारण नागरिक ही माना।
मानव अधिकारों को लेकर उनकी दुनिया भर में पहचान थी। भले ही इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान जेल गए, लेकिन उनके पिता जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, खुद इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, इंद्रकुमार गुजराल और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे राजनेता उनसे अंतरराष्ट्रीय मसलों पर अपनी राय लेते थे।
पाकिस्तान से जुड़े मसलों पर तो उन्हें महारथ हासिल थी। जितने लोकप्रिय भारत में, उससे ज्यादा पाकिस्तान में। भुट्टो से लेकर नवाज शरीफ तक सभी उनकी कद्र करते थे। दोनों देशों के बीच अच्छे संबंधों के लिए करीब बीस साल कैंडल मार्च आयोजित करते रहे। दोनों देशों की जेलों में बंद सजा पूरी कर चुके कैदियों की रिहाई के लिए भी उन्होंने बहुत काम किया। भारत और पाकिस्तान के बीच कुछ अवसर ऐसे भी आए थे, जब लगा कि अब जंग छिड़ ही जाएगी। ऐसे में उन्होंने बिना प्रचारित किए पर्दे के पीछे तनाव घटाने में बड़ी भूमिका निभाई। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह और इंद्र कुमार गुजराल के कार्यकाल इस मामले में याद किए जा सकते हैं।
अनेक वर्षों तक बाघा बॉर्डर पर उनका सद्भावना मिशन कभी न भूलने वाला काम है। अमन की आशा में जिस तरह उन्होंने दोनों देशों के कलाकारों को जोड़ा, वह बेमिसाल है। पाकिस्तान के साथ संबंध सामान्य बनाने में उनका फॉर्मूला दिलों को जोड़ने का था। हर मुलाकात में वो यही कहा करते थे कि एक बार आम अवाम के दिल जोड़ दिए जाएं तो हुकूमतें बेमानी हो जाएंगी। उन्हें मजबूर होकर आगे बढ़ना पड़ेगा। करीब बीस किताबों के लेखक कुलदीप नैयर नागरिक अधिकारों की रक्षा और सामाजिक सरोकारों के लिए हमेशा याद किए जाएंगे। अपने आप में वे एक ऐसे संस्थान थे, जिनसे बहुत कुछ सीखने को मिलता था।
वे सदी के पत्रकार थे। बीते दिनों खुशवंत सिंह पर फिल्म बना रहा था तो उनसे मिला था। वो अपनी किताब खुशवंत सिंह को भेंट करने गए थे। हम भी साथ में थे। कैमरे के साथ। उन्होंने खुशवंत सिंह से कहा, आप मेरे गुरु हो, प्रोफेसर हो’। मैं यह सुनकर दंग रह गया। एक लेखक- पत्रकार एक दूसरे का ऐसा सम्मान कर सकते हैं, मेरी कल्पना से परे था। मैंने उन पर भी फ़िल्म बनाने का तय किया था। लंबी बातचीत भी की थी। अफसोस! उनके रहते न बन पाई। बीते दिनों एक कार्यक्रम में हम दोनों एक ही मंच पर थे। वह कार्यक्रम पाकिस्तान से अच्छे रिश्तों पर था। दोनों देशों के बीच बेहतर संबंधों की हसरत लिए वे इस जहां से विदा हो गए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राज्यसभा टीवी के पूर्व कार्यकारी निदेशक हैं)
साभार- http://www.samachar4media.com से