हरियाणा प्रदेश की पावन मिट्टी में जन्में अनेक वीर स्वतंत्रता सेनानी और बलिदानी भी शामिल थे। राष्ट्र की स्वतंत्रता, अखण्डता और अस्मिता से जुड़े हर मुद्दे पर हरियाणा के वीर सपूतों ने अपना योगदान बढ़ चढक़र दिया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय राष्ट्रभाषा हिन्दी मान-सम्मान का विषय आया तो हरियाणा के महापुरूषों ने ‘हिन्दी आन्दोलन’ छेड़ दिया। उस समय हरियाणा प्रदेश संयुक्त पंजाब का हिस्सा था। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों की संयुक्त पंजाब सरकार ने हिन्दी की उपेक्षा करते हुए अंग्रेदी और पंजाबी को प्राथमिकता देने और भाषायी आधार पर हरियाणा के लोगों से भेदभाव एवं अन्यायपूर्ण व्यवहार करने की कोशिश की तो हरियाणा के वीर हिन्दी प्रेमियों ने सरकार के खिलाफ बिगुल बजा दिया। हिन्दी के अस्तित्व व अस्मिता के लिए चले इस आन्दोलन को ‘हिन्दी रक्षा आन्दोलन’ के नाम से भी जाना जाता है।
अविभाजित पंजाब की कांग्रेस सरकार के एक सिक्ख मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों हिन्दुओं विशेष रूप से आर्यों के लिए क्रूरतम शासक थे| कहने को तो वह मुख्यमंत्री कांग्रेस से था किन्तु आचरण तथा व्यवहार से वह एक मतान्ध सिक्ख था| उसके शासन काल में हिन्दुओं पर इस प्रकार के अमानुषिक अत्याचार हुए, जिस प्रकार के अमानुषिक अत्याचार तो अंग्रेज के समय में भी नहीं हुए| जिसके लिए आर्य समाज को पनजाब में एक सत्याग्रह आन्दोलन करना पड़ा| यहाँ तक कि सत्याग्रह समाप्त होने पर भी पंजाब के जिला गुरदासपुर के अंतर्गत आने वाले नगर कादियां के आर्यों पर झूठे केस दायर कर उन्हें पाकिस्तान के जासूसों को पकड़ कर अमृतसर के जिस स्थान पर उत्पीडित किया जाता था, उस स्थान पर ले जाकर उन पर अमानवीय से भी अधिक अत्याचार किये| इस प्रकार के अत्याचारों को सहन करने वालों में हमारे आर्य समाज के वयोवृद्ध प्रचारक, नेता, शोधकर्ता तथा लगभग चार सो से भी अधिक पुस्तकों के लेखक प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु जी भी एक थे| जिन के शरीर पर इन अत्याचारों का प्रभाव आज तक भी साक्षात् देखा जा सकता है|
पंजाब में कांग्रेस की इस सरकार के मुख्यमंत्री द्वारा हिन्दुओं और आर्यों पर इस प्रकार के किये जा रहे अत्याचारों तथा हिंदी का नाश निरंतर किये जाने के विरोध स्वरूप हैदराबाद की ही भाँति स्वाधीन भारत के पंजाब प्रांत में भी आर्य समाज की और से सत्याग्रह का भीष्ण शंखनाद किया गया तथा देश भर के हिन्दुओं को इस सत्याग्रह आन्दोलन के लिए आगे आने का आह्वान् किया गया| परिणाम स्वरूप सत्याग्रहियों से जेले भरी जाने लगीं| निजामी जेलों की ही भाँति स्वतन्त्र भारत के इस पंजाब प्रांत की इन जेलों में भी अत्यधिक अत्याचार किये जा रहे थे| जो कांग्रेस अंग्रेज की जेलों के अत्याचारों की चर्चा किया करती थी, उस कांग्रेस के राज्य में सत्याग्रहियों पर अंग्रेज से भी कहीं अधिक अत्याचार किये जा रहे थे| कहा भी गया है कि अत्याचारी के अत्याचारों से ही क्रान्ति का जन्म हुआ करता है| अत; ज्यों ज्यों अत्याचारियों के अत्याचार जेल में बंद सत्याग्रहियों पर बढ़ते गए, त्यों त्यों आर्यों का जोश भी बढ़ता ही चला गया| अत: सब और से जेल जाने के लिए सत्याग्रहियों की होड़ सी ही आरम्भ हो गई| इस प्रकार जो लोग सत्याग्रह के लिए होड़ में लगे हुए थे, उनमें हरियाणा के एक गाँव नयाबास के निवासी चौ. प्रभु दयाल जी के सुपुत्र आर्य युवक ब्रह्मचारी सुमेर सिंह जी भी एक थे|
पंजाब में हिंदी सत्याग्रह का शंखनाद होते ही आपने ब्रह्मचारी बलदेव जी के नेतृत्व में चंडीगढ़ जा कर सत्याग्रह किया| पुलिस ने आपको पकड़ कर फिरोजपुर की जेल में बंद कर दिया| इस जेल में पंजाब की कांग्रेस की सरकार जो सरदार प्रताप सिंह कैरों के नेतृत्व में चल रही थी, ने जेल में बंद इन सत्याग्रही आर्यों को अत्यधिक यातनाएं दीं| उनकी इन यातनाओं ने तो हैदराबाद के निजाम ने जो यातनाएं अपने सत्याग्रहियों को दीं थीं, उन्हें भी शर्मिंदा कर दिया| फिरोजपुर की इस जेल में ही एक दिन दिनांक २४ अगस्त को अकारण ही सत्याग्रहियों पर बर्बरता पूर्वक लाठियों के प्रहार करने आरम्भ कर दिए| लाठियों के इन प्रहारों से बहुत से आर्य सत्याग्रही घायल हो गए| पूरी जेल में एक भी सत्याग्रही ऐसा न बच पाया, जिसकी पिटाई न की गई हो| इसी बरबरता पूर्ण पिटाई के ही कारण हमारी इस कथा के चरित नायक वीर सुमेर सिंह जी मौके पर ही शहीद हो गए|
जब कोई नौजवान देश के किसी उत्तम कार्य के लिए शहीद होता है तो इस प्रकार का समाचार छुपाने से भी नहीं छुपा करता| सरकार ने इस घटना को छुपाने का भरसक प्रयास किया किन्तु अगले ही दिन देश भर के समाचार पत्रों ने पूरे देश को बता दिया कि पंजाब में किये जा रहे हिंदी रक्षा सत्याग्रह आन्दोलन के एक सत्याग्रही को पुलिस ने पीट पीट कर मार डाला| हैदराबाद के निजाम के ही समान कैरो सरकार नहीं चाहती थी कि बलिदानी सुमेर सिंह का पार्थिव शरीर का दाह संस्कार उसके परिजनों के हाथों से हो किन्तु सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के अथक प्रयासों के कारण बलिदानी का शरीर उनके गाँव के लिए रवाना कर दिया गया|
वीर बलिदानी का पार्थिव शरीर तो उसके गाँव के लिए रवानाकर दिया गया किन्तु उस समय की कांग्रेस सरकार का अब भी प्रयास यह ही था कि शरीर गाँव तो ले जाना ही पड रहा है किन्तु गाँव पहुँचने पर भी अंतिम संस्कार के लिए यह शरीर गाँव वालों को न सौंपा जावे| उनकी योजना थी कि बलिदानी वीर के परिजनों से शरीर की प्राप्ति की रसीद तो ले ली जावे किन्तु शरीर परिजनों को न देकर उसका अंतिम संस्कार पंजाब पुलिस ही करे| इस निमित्त जिस वाहन से शव लाया जा रहा था, उसी वाहन में ही भारी मात्रा में मिट्टी का तेल भी लाया गया था| इसके अतिरिक्त पूरे गाँव को पुलिस ने इस प्रकार घेर रखा था मानो कोई सशस्त्र विद्रोह हुआ हो, जिसे दबाने के लिए पुलिस लाई गई हो| अवस्था यहाँ तक हो गई थी कि किसी भी व्यक्ति को न तो बाहर से गाँव में आने की ही आज्ञा थी और न ही किसी को गाँव से बाहर जाने की ही आज्ञा थी| बलिदानी सुमेर सिंह के परिवार पर अत्यधिक दबाव बनाया गया ताकि वह पुलिस वालों की बात को मान लें, किन्तु यह एक साहसी और वीरता से भरा पूरा परिवार था, जिनका बालक आज धर्म के लिए बलिदान हो गया थो, उसका पार्थिव शरीर उनके सामने था, जिस पार्थिव शरीर के साथ भी पुलिस अपनी बरबरता करने की हठधर्मी को नहीं छोड़ रही थी और इसे पूरा करने के लिए उसके परिवार को लगातार डरा धमका रही थी| अवस्था यह थी कि न तो बलिदानी का परिवार और न ही गाँव के लोग पुलिस की बातों को किसी भी रूप में मानने को तैयार हो पा रहे थे| सब लोग मिलकर लगातार पुलिस का विरोध कर रहे थे|
इन सब पर पुलिस अपना दबाव ही नहीं भय भी लगातार बढ़ाती ही जा रही थी, किन्तु इस सब से भी परिजन और गाँव के लोग झुकने को तैयार नहीं हो रहे थे| जब पुलिस का यह भय और दबाब का प्रयास अभी चल ही रहा था कि इस मध्य ही गांव के चारों और घेरा डाले बैठी पुलिस का घेरा किसी प्रकार से तोड़ कर पंडित महासिंह वर्मा रोहतक से वहां आ पहुंचे| पंडित महासिंह जी का रोहतक से इस गाँव में आगमन गाँव वालों को ढाढस बंधाने के लिए काफी था| पंडित महासिंह जी विगत् अनेक वर्षों से आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के अन्तर्गत उपदेशक का कार्य कर रहे थे और इस समय हरियाण भी पंजाब का ही भाग था| अब तक रात्री का समय हो चुका था|
पंडित जी के आते ही गाँव वालों में नई शक्ति आ गई और उन्होंने पुलिस को बड़ी दृढ़ता से कहा कि हमारे नियमों के अनुसार रात्रि काल को अंतिम संस्कार नहीं हुआ करता और यह अंतिम संस्कार भी रात्री काल में नहीं होगा| पुलिस के साथ यह विवाद चल ही रहा था कि किसी प्रकार पुलिस का घेरा तोड़ते हुए स्वामी अभेदानंद जी भी वीर के अंतिम संस्कार जे लिए एक बोरी हवन सामग्री की लेकर गाँव में आ पहुंचे| स्वामी जी सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के पूर्व प्रधान थे| जब स्वामी जी वहां पहुंचे तो एक धूर्त पुलिस अधिकारी रामसिंह ने शराब के नशे में उन्हें गाँव में प्रवेश करने से रोकने का प्रयास किया तो स्वामी जी ने निर्भीकता से धारा प्रवाह अंग्रेजी में उसे जोरदार फटकार लगा दी| इस फटकार को सुनकर उस पुलिस अधिकारी की घिग्गी बंध गई| अब पुलिस असहाय अवस्था में आ गई थी और गाँव वालों के विरोध से बाध्य हो कर उन्होंने बलिदानी सुमेरसिंह के पार्थिव शरीर को उसके परिवार को सौंप दिया| अगले दिन प्रात:काल होने पर दोनों आर्य महापुरुषों की देखरेख में पूर्ण वैदिक रीति से बलिदानी वीर का अंतिम संस्कार संपन्न किया गया| इस दिन गांव के किसी भी घर में चुल्हा नहीं जलाया गया अर्थात् किसी भी घर में इस दिन नाश्ता-भोजन नहीं बना|
इस सब से स्पष्ट दिखाई देता है कि पंजाब की उस समय की कंग्रेस सरकार का मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों एक इस प्रकार का तानाशाह था. जो हिंदी सत्याग्रह का बदला आर्यों से लेना चाहता था| आर्यों का अत्यधिक उत्पीडन करना चाहता था| इस कारण ही सत्याग्रह समाप्त होते ही उसने एक झूठा केस तैयार किया | इस केस के अनुसार आरोप यह बनाया गया कि चंडीगढ़ के एक गुरुद्वारा में किसी आर्य समाजी ने सिगरेट फैंक दी है, इस प्रकार का झूठा आरोप लगा कर कादियां नगर, जहां के प्रत्येक घर से सत्याग्रह में भाग लिया गया था और कई परिवार तो ऐसे भी थे जो इस आन्दोलन में पूरे के पूरे परिवार ही जेल में गए थे, इस नगर के नौजवानों को पकड कर उन्हें यातना देना आरम्भ कर दिया| इस कड़ी में ही हमारे आर्य समाज के अन्यतम विद्वान्, शोधक, लेखक और प्रचारक, जो उस समय बालक ही थे, को पकड़ कर बिना किसी को बताये चुपचाप अमृतसर की उस जेल में ले जाकर बंद किया गया, जिस जेल में जासूसों को रखा जाता है|
अमृतसर की इस जेल में उन पर अमानुषिक अत्याचार किये गए, उनको कहा गया कि या तो आर्य समाज के किसी बड़े नेता का नाम ले दो और कहो इस ने सिगरेट फैंकी है, अन्यथा तुझे जीवित जेल से नहीं जाने देंगे| उनके हाथों को चारपाई के पायों के नीचे डालकर ऊपर आठ दस सिक्ख पुलिस वाले बैठ जाते, आँखों पर बिजली के बड़े बड़े बल्ब लगाकर जलाए जाते, गले में शौचालय की गंदगी का पीपा भर कर डाल दिया जाता किंतुं जिज्ञासु जी थे कि जिन्हें वह तोड़ नहीं सके और अंत में एक दिन आया कि उन्हें छोड़ना पडा| इस कथा का विस्तृत उल्लेख कभी अलग से किया जावेगा| इन पंक्तियों में तो बस इतना ही कहा जा सकता है कि पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री और उनकी कांग्रेस सरकार ने तैमूर तथा औरंगजेब से भी अधिक अत्याचार करते हुए यह सिद्ध कर दिया कि इस काण्ड की जाँच करने वाले आयोग को बाध्य होकर यह टिपण्णी करनी पड़ी कि “ इस प्रकार का अत्याचार न तो पहले कभी हुआ है और न ही फिर कभी होगा|”
डॉ. अशोक आर्य
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